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Sunday, September 20, 2009

माँ बिन नवरात्र

में नवरात्र माना रहा हूँ। पर इस बार माँ के बगेर। नवरात्र के दौरान इस ब्लॉग को लिखना शुरू किया था और अब विजय दशमी के दिन बैठा हूँ पुरा करने की कोशिश में। पिछले साल हमारे घर में कोई त्यौहार नहीं मनाया गया। ऐसा नियम होगा लेकिन मैंने नियम्बध्ह होकर नहीं बल्कि अपने मन से ऐसा किया। करीब डेढ़ साल बीतने के बाद मुझे लगा त्यौहार मानना शुरू करुँ पहली बार ऐसी नवरात्र आयी जब मेरी मां नहीं है। फ़िर भी मैंने मंत्र पढ़ा कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति। यही नही मैंने अन्य मंत्र पढ़े आरती की थाल लेकर जब मां की फोटो के पास गया तो सचमुच मुझे लगा मां कह रही हो पूजा करने में संकोच क्यों। में हमेशा पूजा पाठ करता हूँ समय के हिसाब से। मन्दिर की विशेष जरूरत नही होती। अन्य मंदिरों में भी जाता हूँ। लेकिन कुछ ऐसे डोंगियों से सख्त नफरत है जो अपनी मां से भयानक किस्म से लड़ते हैं और मंदिरों में दिनभर जय माता दी के नारे लगते हैं। मैंने ख़ुद ऐसे कई लोगों को देखा है। ऐसे लोगों को भी देखा है पूजा पाठ नहीं करते पर मां से भी नहीं लड़ते या लड़ते हैं। असल में घर में किसी से लड़ना नहीं लड़ना यह सबकी व्यक्तिगत बातें हैं लेकिन ढोंग करना तो निश्चित रूप से ग़लत है। ऐसे लोग भी मैंने देखे हैं जो घर में अखंड रामायण का पाठ कराते हैं। ख़ुद एक शब्द नहीं पढ़ते। पढने के लिए आ रहे लोगों के लिए पान बीडी और चाय की व्यवस्था में लगे रहते हैं। यहाँ पर मुझे एक वाकया याद आ रहा है जब में ११ में पढता था और शाहजहांपुर में रहता था। मेरे एक रिश्तेदार का बेटा एन्गीनेइरिंग कर अच्छे ओहदे पर नौकरी पा चुका था। इश्वर में उसकी आस्था थी। उन लोगों ने घर में रामायण का पाठ किया। बिना माइक लगाये. मुझे पता लगा। में जाना चाहता था लेकिन इस हनक में नहीं गया की मुझे निमंत्रण क्यों नहीं दिया। दूसरे दिन वो प्रसाद देने आए। मैंने अपनी इच्छा और विरोध दोनों जाता दिया। निर्मल नाम के उन सज्जन ने मुझसे कहा, में ऐसी चीजें दो तरह से करता हूँ। एक माइक नहीं लगता। दूसरा किसी को आमंत्रित नहीं करता। में और परिवार के अन्य लोग पढ़ना शुरू कर देते हैं, लोग आते हैं और जुड़ना शुरू हो जाते हैं। में इस बात से बहुत प्रभावित हुआ। वाकई यही तो असली बात है। तब से मैंने ये निर्णय किया की बिना किसी ढकोसले के में इसी तारह पूजा करूंगा। हालाँकि ढोंग जैसी बात पहले भी नहीं करता था। मेरे घर में सुबह पूजा के बाद तिलक लगाया जाता था। में स्कूल जाते समय उसे मिटा देता था एकाध बार घर से दांत भी पड़ी। अब अजीब लगता है जब आज कई मित्र नवरात्र के दौरान कहते हैं अरे तिलक नहीं लगा रखा है। ऐसे मौसमी पंडितों से मैंने कहा भी हमारा यहाँ १२ माह तिलक लगता है। नियमपूर्वक पूजा होती है। में तिलक कभी नहीं लगता तो नहीं लगता। हाँ घर के विशेष कार्यक्रमों पर आग्रह ठुकराता भी नहीं हू। इस प्रसंग में मुझे खोसला का घोसला फ़िल्म की याद आती है जिसमें प्रोपर्टी डीलर कहता है सब माता रानी की कृपा है। हेर हफ्ते वैस्श्नों देवी जाता हूँ। फर्जी लोगों के प्रति जबरदस्त कटाक्ष। वैष्णों देवी मन्दिर भी गया था अपनी मां, बीवी और बच्चे के साथ। यादगार टूर रहा। ७० वर्षीया मेरी मां मानो हमारे लिए मानक बन गयी थी। पूरे सफर में थकन से उसकी वो हालत नहीं हुई या उसने चेहरे से जाहिर नहीं होने दी जो हम लोगों की हो गयी थी। एक बात और ki मेरी मां बहार कुछ खाती नही थी सिवा फल के। पाँच दिन के सफर में वो बस कुछ केले सेब और धर्मशाला वालों के आग्रह पर चाय पीकर रही। खैर वो सब इतिहास हो चुका है मां कहीं सितारों में खो गयी है। पर हमेशा कुछ कहती रहती है मुझसे जैसे नवरात्र मनाओ बिन मां के ही सही।

Saturday, September 5, 2009

गुदडी के लाल और प्रतियोगिता

पिछले दिनों एक स्कूल में दो प्रतियोगिताओं में निर्णायक mandal में मुझे भी बुलाया गया। पहले दिन भाषण प्रतियोगिता थी। दो वर्गों की। तमाम स्कूलों के बच्चे थे। सरकारी स्कूल के भी। आत्मविश्वास से लबरेज पब्लिक स्कूल के बच्चों के सामने सरकारी स्कूल के बच्चे कुछ सहमे-सहमे नजर आ रहे थे। कुछ के चेहरे से गरीबी साफ़ झलक रही थी। एक एक कर जब मंच पर बच्चे आने शुरू हुए तो में आश्चर्य चकित हो गया। बच्चों की तयारी तो अच्छी थी ही गुदडी के लाल भी चमक रहे थे चहक रहे थे। दो जगह मेरा मन बेईमानी करने को हुआ एक तो सीनियर वर्ग के एक बच्चे को देखकर। वो गरीब तो लग ही रहा था। कुछ और दिक्कत भी उसे थी। मसलन आंखों का भेंगापन कपड़े फटे हुए से और पुनर्वास कालोनी का लेबल। उससे पहले अनेक बच्चे अपनी योग्यता का परिचय दे चुके थे। दो जगह ऐसा मौका आया की बच्चे दो-चार लाइन बोलने के बाद अटकने लगे में उन्हें बोलने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था लेकिन इस कार्य को निपटाने के लिए आए तमाम लोग मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे में इन्हें बोलने का वक्त देकर कुसूर कर रहा हूँ। उनकी नोकरी को लंबा खींच रहा हूँ। खैर दो-तीन घंटे में प्रतियोगिता खत्म हो गयी। परिणाम आया तो वो सरकारी स्कूल का छात्र सीनियर वर्ग में थर्ड आया। मेरे पक्षपात के कारण या अन्य जजों की इमानदारी के कारन यह में नहीं जान पाया।
करीब एक हफ्ते बाद फ़िर एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुझे इसी भूमिका में बुलावा आया। दो वर्ग। यहाँ या तो हिम्मत न होने की वजह से या रूचि न लेने की वजह से सरकारी स्कूल की भागीदारी न के बराबर रही। प्रतियोगिता टक्कर की थी। कोई अपने को कम नहीं समझ रहा था। बल्कि एक दूसरे से ख़ुद को बड़ा समझ रहा था। तयारी अच्छी थी। बदकिस्मती से दो तीन बच्चियां सरकारी स्कूल से आयी थीं लेकिन उनमें यदि पक्ष वाली ठीक से तर्क देतीं तो विपक्ष कमजोर पड़ जाता। विपक्ष तगड़ा रहता तो पक्ष की कमजोरी उसे खा जाती। रिजल्ट आने के बाद ११ कक्षा की एक बछि रोने लगी। वाकई वो अच्छा बोली थी लेकिन यहाँ निर्णायक मंडल की एक मजबूरी ये थी की नम्बर ग्रुप में ही देने थे।
कुछ सुझाव में बिना मांगे इन स्थानों पर दे आया हूँ। मसलन वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में पक्ष विपक्ष को अलग जीत या हार का खिताब दिया जाए और सरकारी और पब्लिक स्कूल की प्रतियोगिता अलग अलग कराकर फ़िर कोम्बिनेद प्रतियागिता कराई जाए। निपटाने के अंदाज में ऐसी प्रतियोगिताओं का आयोजन न किया जाए। ya
to इन सुझाओं को अमल में लाने के लिए हो सकता है कोई कागज पत्तर आगे चलें या फ़िर हो सकता है आगे से मुझे निर्णायक मंडल में बुलाया ही न जाए। पर मुझे उम्मीद है कुछ न कुछ होगा जरूर।

Saturday, June 6, 2009

आधुनिक बनने का ये क्या मतलब

इन दिनों व्यापक स्टार पर देखा जा रहा है कि yउवा नेट कि दुनिया में खोया पड़ा है। इन्टरनेट से रू-ब-रू होना बहुत अच्छा है। लेकिन मैंने ख़ुद अपने ही जानकारों के बीच यह पाया कि वे फर्जी नाम से मेल बनाकर या ऑरकुट पर अपने बारे में ग़लत जानकारी दे रहे हैं। इसके पीछे के कुछ भाव स्पष्ट हैं। पिछले दिनों मेरे ऑरकुट पर एक स्क्रैप आया। मेरी उम्र पूछी गयी और ख़ुद ही जवाब दिया गया कि आपका संदेश बुजुर्गों जैसा है। असल में मैंने उसमें लिखा है कि रात को घर जाने के बाद में आसमान में देखता हूँ। एक तारे के पीछे से मुझे अपनी मान दिखती है मानो पूछ रही हो बेटा आ गया। इस संदेश में पुरानापन क्या है में नहीं समझ पाया। ऑरकुट कि दुनिया में मैंने देखा लोग अपनी फर्जी तस्वीर लगाकर उल्टे सीधे संदेश लिखकर पता नहीं किस फंतासी में जीने कि कोशिश करते हैं। मुझे एक छोटी सी घटना याद आ रही है, में हिंदुस्तान अखबार में था मेरी निघत ड्यूटी थी। रात को करीब १ बजे में घर के लिए दफ्तर कि गाड़ी से गया। ड्राईवर स्मार्ट सा था। उससे एकाध बार पहले भी मुलाकात हुई थी और उसके लक्षण कई मामलों में ठीक नहीं लगते थे। खैर में गाड़ी में बैठा और उसने गाड़ी के साथ फम स्टार्ट कर दिया। उसमें एक मधुर सा गाना बज रहा था। उसने चेनल बदल दिया। आधे रस्ते तक वो ऐसा करता रहा। मैंने उससे एक जगह टोका कि अच्छा गाना आ रहा है चलने दो। उसने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और एक फूहर किस्म कि सीडी चला दी। मैंने उससे गाना बंद करने को कहा। उसने गाड़ी में लाइट जलाई और बोला आपकी क्या उम्र हो गयी। इसको फ़िर पूरा करूंगा इस समय १२.३० बजे हैं और द्रोप्पिंग कि गाड़ी में चलने का बुलावा आ गया है। इस समय में नईदुनिया अख़बार में हूँ और यहाँ के जितने ड्राईवर मिले अभी तक सब अच्छे हैं एक के लिए तो मैंने पंगा तक लिया। खैर बात पूरी कर लूँ। उस ड्राईवर ने जैसे ही मेरी उम्र पूछी मैंने उसे कसकर झाड़ पिलाई। मैंने कहा क्या मतलब तुम्हारा वो थोड़ा सहमा और बोला सर आपको पुराने गाने अच्छे लग रहे हैं न इसलिए। मैं उसकी इस बात का जवाब देने के काबिल अपने आप को नहीं समझ पा रहा था। मैंने उससे गाने बंद करदेने को कहा और घर पहुँचने तक चुपचाप बैठा रहा। दो दिन बाद पता चला की उस ड्राईवर को निकल दिया गया है। कारण पूछने पर पता चला कि हिंदुस्तान टाईम्स कि किसी वर्कर से बदतमीजी करने के चक्कर में निकला गया है। वह एक लड़की के बारे में कहता तो था कुछकुछ ऐसा लोगों ने बताया। उसको लगता था कि कोई अगर हंसकर बात कर रही है तो वह लाइन मार रही है। यह तो एक प्रसंग्भर है। आज बहुत से ऐसे युवा मुझे दिख जाते हैं जो अपने आप को आधुनिक साबित करने के लिए उल जुलूल हरकतें करते दिख जाते हैं।
इसी सन्दर्भ में एक बात और कहना चाहता हूँ इन दिनों हमारे यहाँ कई छात्र छात्राएं पत्रकारिता वाले प्रशिक्षण के लिए आ रहे हैं। ज्यादातर का कहना है कि जो भी गेस्ट लेक्टुरेर उन्हें पढ़ने आ रहे है ज्यादातर यही कहते हैं कि भूल जाओ आदर्शवाद, समाज सुधर और भी बहुत कुछ। मैंने उन्हें समझाया एकदम से ऐसा अंधेर नहीं है। उन्हें पढ़ने वाले हो सकता बहुत पक चुकने के बाद ऐसा कहने को उद्वेलित हुए हों या यह भी हो सकता है कि किसी नामी अखबार में नोकरी होने कि वजह से उन्हें वक्त से पहले इतनी महत्वपूर्ण जिमेदारी कुछ पत्रकारिता संस्थानों ने दे दी हो। में मानता हूँ कि हकीकत थोडी सी जुदा है लेकिन जो लोग अभी पत्रकारिता के मैदान में ककहरा पढने को उतर रहे हैं उनका मन मस्तिष्क ऐसा कर दिया जन चाहिए। शायद नहीं।

आधुनिक बनने का ये क्या मतलब

Wednesday, March 18, 2009

दोस्त का दुःख

दोस्त का दुःख। यहाँ पर एक मित्र के बारे में कुछ लिखना चाहता हूँ। मित्र ऐसा की अभी मीटिंग के लिए कॉल आ गयी है। फ़िर पूरा करूंगा इस लेख को.

Monday, February 23, 2009

--- पर केवल आगे कैसे बढोगे

मुझे एक पुरानी बात याद आ रही है। अगर यह ब्लॉग वो पढ़ें तो संभवतः समझ जायेंगे। मुझसे एक पुराने बॉस ने कहा था केवल तुम बहुत योग्य, अच्छी समझ रखते हो, लेकिन तुममें आगे बढ़ने के सब गुण नहीं हैं। मैंने इन सब बातों का अपने हिसाब से अंदाजा लगा लिया। कुछ मूड ख़राब होने जैसा और कुछ वास्तविकता से ख़ुद को करीब रखने जैसा। आज में उस वाकये को याद कर रहा हूँ। बल्कि उसी वाकये को नहीं बल्कि एक और बहुत सीनियर व्यक्ति की बात याद कर रहा हूँ। उन्होंने मुझसे कहा था मुझे लगता है तुम्हारी तरक्की में तुम्हारा व्यक्तित्व आड़े आ जाता है। यहाँ मैंने जो समझा और उन्होंने जो समझाया दोनों एक ही बात थी। उनका मतलब था की में सबकुछ ठीक हूँ लेकिन शारीरिक बनावट और मेरी ड्रेसिंग लचर रहती है। फेस वेलू पर रियल वेलू पर हावी हो जाती है। जीवन चक्र में कुछ बातें समझ में आने लगती हैं और धीरे धीरे आपको अपनी गलती का भी अहसास भी होने लगता है। बस बहुत देर न हो जाए इस बात का ध्यान रखना पड़ता है। इन अनुभवों पर में किताब लिखूंगा। में यह भी जनता हूँ की मेरी कोई ओकात नहीं है लेकिन अपनी बात कहने और रखने का एक प्राकृतिक हक़ के साथ में कुछ लिखूंगा और कहूँगा। खैर जीवन चक्र पर यह भी नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने हमारी सुनी, हमें समझा और उसी हिसाब से सम्मान दिया उनको याद करना चाहिए। उन्हें भी जिनकी वजह से यह सब लिखने को प्रेरित हुआ। चूंकि में भाग्यवादी भी हूँ तो क्यों न भाग्य पर भरोसा करते हुए जीवन पथ पर बढ़ते जाऊं

Saturday, January 31, 2009

जब माइक पकड़ने वाला बना इंटरव्यू लेने वाला

आज वसंत पंचमी के अवसर पर होने वाले एक कार्यक्रम में गया। एक म्यूजिक स्कूल था। वहां माइक से एक सज्जन उद्घोसना कर रहे थे। लोगों को जल्दी थी। इन्तजार भी था की उनके बच्चों का नम्बर आए और वो चलें घर को। हालाँकि बच्चों के कार्यक्रम देखने का मन भी था। मगर जिन सज्जन के हाथ में माइक था वो लगे थे अभिभावकों का इंटरव्यू लेने में कार्यक्रम शुरू होते ही वो सवाल पूछने में मशगूल हो गए भूल ही गए की लोग आपका ज्ञान समझन नहीं कार्यक्रम में आनंद उठाने ए हैं। खैर किसी तरह वो सरस्स्वती वंदना के लिए कुछ बच्चों को उठा पाए। बच्चों बहुत लाय्बद्छ होकर माँ सरस्वती की वंदना की। फ़िर बच्चों का कत्थक नृत्य का कार्याक्रम था। ये जनाब फ़िर शुरू हो गए। पहला सवाल था आप लोगों में से कितने लोग बिरजू महाराज को जानते हैं हाथ खड़े करें। कितने नहीं जानते हैं वो हाथ खड़ा करें। अब बताएं बिरजू महाराज कहाँ के रहने वाले हैं। कत्थक क्या होता है। एक महिला जिसकी बच्ची का शायद कार्यक्रिम था कुछ कुछ बताने लगी तो इन्हें फ़िर पता नहीं क्या हुआ बोले में व्यक्तिगत रूप से बिरजू महाराज को जनता हूँ। मेरे बगल में बैठे एक सज्जन को सवाल पूछने का यह अंदाज नागवार गुजर रहा था। वो मुझसे कुछ बोले। में बोला शांत रहिये कोई बात नही। थोडी देर में एक सांवला और दिखने में औसत बच्चे ने एक कार्यक्रिम किया उसके जानते ही माइक मैन बोले यह बच्चा बहुत खूबसूरत है। धन्यवाद इसके माँ बाप को आदि आदि। मेरे साथ बैठे सज्जन तो अब लगभग भड़क गाये मैंने फ़िर उन्हें शांत किया। माइक मैंन फ़िर बोले अभी जिस गीत पर बच्चों ने नृत्य किया उसके बोल बताइए। मेरे बगल में बैठे सज्जन बोले इनसे कोई यह पूछे कि यह माँ बाप का इंटरव्यू ले रहे हैं या बाच्चों का कार्यक्रम पेश कर रहे हैं। बगल वाले सज्जन बोले एक तमिल गाना था अगदम बदम आदि आदि। वोही गीत बाद में इस तरह आया जिया जले जान जले नैनूं टेल धुना। खैर अभी यह जारी है क्योंकि रात के १२ बज चुके हैं और घरजाने का वक्त हो चुका है यूँ ही चलती रहेगी जिन्दगी.

Friday, January 23, 2009

मीडिया का संक्रमण काल

हवा चाहे जहाँ से चली है लेकिन तूफ़ान ऐसा चल निकला है की थमने का नाम नहीं ले रहा है। अमर उजाला ने चंडीगढ़ समेट कुछ को हटाया तो बस चल निकला सिलसिला-ऐ-कटोती। मेट्रो नो का बंद होना फ़िर अखबारों के पेज कम होना आदि आदि ऐसी घटनाएँ हैं जिससे मीडियाकर्मी और उनके परिवार वाले व्यथित हैं। अब हिंदुस्तान से अनेक लोगों को निकला जा रहा है। कुछ मित्रों से बात करने पर विचार सामने आए कि जो गए उनका ऐसा ही हस्र होना था। कोई बड़बोलेपन में माहिर तो किसी के लिए अखबार में काम करना सेकेंडरी काम था। इससे पहले भी किसी का प्र्पेर्टी देअलिंग का धंधा चल रहा था तो कोई पी आर एजेन्सी चला रहा था। अब नौकरी जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो मर्सिया पढ़ा जा रहा है। यही नहीं मंदी के बहने कंपनियों को भी कुछ लोगों को निपटाने का मौका मिल गया। जिसे चाहा पत्र थमाया और नमस्ते कर दिया। अब सवाल यह उठता है कि ऐसे हालत में इमानदार कौन रहे। क्या वो ठीक नहीं थे जिनका कुछ न कुछ धंधा चल रहा था। कम से कम तुंरत तो रोड इस्पेक्टर नहीं बने न। इस मसले पर कई पत्रकार बंधुओं ने यह भी कहा कि आख़िर मौके कि नजाकत को जो नहीं समझ पाये उनका क्या किया जाए। आज एक मित्र से बात हुई। उसने याद किए वो दिन जब हिन्दुस्तान में हम कुछ लोगों कि एंट्री हुई थी। एक पुराने सज्जन की टिपण्णी थी कि पता नहीं कहाँ से बंदर आ गए हैं फ़िर यह भी कि जितनी इनकी तनखा है उतना तो हमारे अखबार का बिल है आदि-आदि। खैर कुछ लोगों के लिए यह संक्रमण का दौर है। कहाँ कौन कितना ग़लत है अगर आप इस ब्लॉग को पढ़ें तो कृपया बताएं फ़िर चर्चा को लंबा खीचा जाए।

Tuesday, January 20, 2009

जारी है दोस्तों जिंदगी की जंग

रात के १२ बज रहे हैं अब चलते हैं फ़िर बात होगी ये जंग जारी रहेगी

हिन्दुस्तानी हलचल

आज शाम यानी २० जनुअरी की शाम हिंदुस्तान अखबार से लोगों को दनादन निकाले जाने की खबरें आने लगीं। बहुत दुःख हुआ। किसी की भी नौकरी जाना तो वाकई बहुत ख़राब है। फ़िर इस तरीके से तो वाकई। लेकिन इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए कि ऐसी नोबत क्यों आयी और किन लोगों को हटाया गया। यानि किस आगे ग्रुप के लोगों को। असल जहाँ तक मेरा इस ख़बर से सरोकार है वो यह कि करीब ९ साल पहले जब में हिंदुस्तान आया था तो कुछ दिनों तक दोयेम दर्जे कीनागरिकता जैसी हालत थी। कुछ लोगों को बात करने में भी जोर पड़ता था। खैर जैसा भी था अपने व्यवहार से या माहोल को अंगीकार किया और इन लोगों के साथ ८ साल गुजरे। चूंकि जब दीवारों से भी प्यार हो जाता है तो वो तो इंसान और संवेदनशी कहे जाने वाले इंसान थे। आज की घटना ने विचलित किया। शुक्र है की में इस मौके का गवाह नहीं बना। अब वहां आलम यह है की हर कोई आशंकित है। अब क्या होगा। पता नहीं। अपने एक साथी से बात हुई तो बोला क्या यह कदम ख़राब है। क्या ऐसा जरूरी नहीं था। फ़िर एक अन्य दोस्त ने भी ऐसे ही सवालात किए। कितना भी कुछ हो अपने को तुर्रम खान कहने वाले कुछ लोगों के साथ जो हुआ उस पर में अपने एक और मित्र की बात से इत्तेफाक रखता हूँ। वो यह की उसे करीब ४ साल पहले हिंदुस्तान से निकाल दिया गया था। उसे निकलवाने में एक महिला की खास भूमिका रही। मैंने उससे कहा देखो उसे सांत्वना दे दो, मेरा लिहाज व्यंगात्मक था। उसने एक लाइन में कहा नहीं यार नौकरी जाना ठीक नहीं में भी उससे इत्तेफाक रखते हुए सबके भले की कामना करता हूँ।

Saturday, January 17, 2009

इस दुनिया में

इस दुनिया में कितने किस्म के लोग नहीं मिले या मिलते जा रहे हैं। क्यों हर चेहरा संदिग्ध सा लगता है। कुछ लोग आपके साथ बैठते हैं चीजें शेयर करते हैं फ़िर इस वादे के हम लोगों के बीच कोई शोले फ़िल्म का हरिराम नाई न बने। पर ये क्या दूसरे ही दिन उन्ही लोगों में से कोई सबकुछ उगल चुका होता है बदहजमी के कारण या साजिश के चलते
जब मैंने करीब १० साल पहले दैनिक जागरण ज्वाइन किया था तो कुछ दिनों बाद ही हर चेहरे पर कुटिलता सी दिखती थी हिंदुस्तान गया तो बहुत समय तक वहां doyam दर्जे की नागरिकता के हालत में रहना पड़ा किसी तरह सामान्य रहा मुझे एक स्तर तक पसंद किया gayaa धीरे धीरे लोगों ने recognise किया। एक बार vo समय भी आया yes केवल बढ़िया कम करने wala और कराने wala है। कुछ समय बाद फ़िर एक अजीब stithi आयी ujhse एक बहुत senior व्यक्ति ने एक बात कही लेकिन बात कही बहुत imandaari से। vo ये की केवल तुम अच्छे व्यक्ति हो, काम अच्छा करते हो per एक कमी है की तुम आगे बढ़ने के सारे gur नहीं jante हो। एक दो लोगों का example दिया गया। फ़िर उन्होंने ही joda की हाँ तुम में उस सब के gats भी नहीं हैं। अब नाई dunia में हूँ कभी कुछ कभी कुछ लगता है। यहाँ बात पूरी करने से एक बात और कहना chata हूँ की मेरे साथ हमेशा यह हुआ की मुझे कुछ manane में कुछ लोग बहुत देरी करते हैं। चार jankaron के साथ एक ajnabi होगा to शायद voh अन्य लोगों की apeksha मुझसे उतनी बात न करे लेकिन इतना तय है की में पाँच ६ line बोल दूँगा to फ़िर vo मुझसे ही बात करेगा। कई बार यह भी होता है की आप होते कुछ हैं और आपको बताया कुछ और जाता है। कुछ कुछ ऐसा ही mahsoos कर रहा हूँ, एक और feeling हो रही है की मुझे jatate हुए ignore feel karaya ja रहा है। लेकिन utna ranj नहीं क्योंकि में काम के प्रति imandaar हूँ। prasangsah याद आ गया की एक बार kahin हिंदुस्तान के crime reporter और एक varishth adhikaari बैठे थे। में भी था। aadatan में काफ़ी देर तक chup baitha रहा जब bola to agali बार से जब भी vo akele बैठे to मुझे याद किया गया, कभी कभी to बुलाने तक की jid हुई। खैर चल चला चल अकेला चल चला चल.