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Sunday, December 26, 2010

इन 'पुत्रों" की लंबी उम्र नहीं चाहते लोग

इस बार भी 'बेटा" ही हो गया। चार दिन से ज्यादा नहीं बचेगा। उसे दूध ही नहीं दिया जाएगा। दूध पिलाएंगे भी क्यों। इतनी मतलबी दुनिया में जब ये किसी काम ही नहीं आएंगे फिर इन्हें पालकर क्या होगा। ज्यादा पुरानी बात नहीं कुछ साल पहले की ही बात है, कुछ काम तो ये आ जाते थे। हल जोतने के या फिर सामान ढोने के। लेकिन अब तो ये बेटे उस लायक भी नहीं रहे। जी हां! यही हो रहा है। इन बच्चों को तड़पाकर मारा जा रहा है। यह अलग बात है कि इनके मरने पर कोई रोने वाला नहीं। इनकी मां थोड़ी खटपट करेगी भी तो उसे भी डंडे के जोर पर जुल्म ढाकर ठंडा कर दिया जाएगा।
मैं बात कर रहा हूं। पशुओं के बेटों की। यानी गाय-भैंसों के बच्चों की। दिल्ली-एनसीआर में हाल बुरा है। एक तो जमीन कम हो गई है। उस पर मुआवजे का पैसा लोगों को मिला है। दूध के लिए गाय-भैंसें लोगों ने पाली हैं। यदि बछिया या पड़वा हो गया तो ठीक है, लेकिन बछड़ा या कटरा हो गया तो खैर नहीं। अब न तो कोई उन्हें खरीदता है और न ही वे सामान ढोने के कार आ रहे हैं। लोगों के पास महंगी गाड़ियां हो गई हैं। ट्रैक्टर हो गए हैं। रहट अब चलता नहीं। खेती-बाड़ी के काम में जानवरों को इस्तेमाल नहीं होता। गाय-भैसों को मशीन से गाभिन कर दिया जाता है। ऐसे में दूध के लिए गाय-भैंस पालने वाले ऐसी व्यवस्था कर देते हैं कि यह जानवरों का बेटा बस दो-चार दिन देख ले इस दुनिया को फिर नमस्ते। एक तरफ इनसान खुद का बेटा होने के लिए मन्न्तें मांगता है। भू्रण हत्या करने से भी बाज नहीं आता दूसरी तरफ ये जानवरों की दुर्दशा है। सब दुनियादारी है, हमारी-आपकी बनाई हुई। कोई ऐसा जानवर बच भी गया तो जल्दी ही कसाईयों के हवाले हो जाता है। दुनिया महान, दुनियादारी महान।

Friday, December 10, 2010

करीब सात साल पुराना एक ब्लॉ : फिर एक अपराध बोध

शायद और लोगों के साथ भी ऐसा होता हो, पर मेरे साथ यदा-कदा ऐसा होता है जब मुझे अपराध बोध होता है। हालिया घटना एक अजीबोगरीब है। मैं ऑफिस की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था और मुझे मंडी हाउस जाने की जल्दबाजी थी। वहां मेरी दीदी आई हुई थी। कुछ देर वहां रुककर मुझे तुरंत ऑफिस वापस भी आना था। मेट्रो की भीड़ और शाम छह बजे की नजाकत (उल्लेखनीय है शाम का यह समय हम जैसे कथित पत्रकारों यानी डेस्क पर काम करने वालों के लिए बहुत ही व्यस्तता वाला होता है।) उस पर एक मीटिंग का, होगी या नहीं होगी का झंझट। अंतिम सीढ़ी के पास एक किशोर एक महिला के साथ वहां खड़े थे। वह महिला शायद उस किशोर की मां होगी। किशोर मेरी तरफ मुखातिब होकर बोला, सर यहां टॉयलेट कहां है। क्या बताता....., कनॉट प्लेस में सार्वजनिक टॉयलेट तो कहीं नजर आते ही नहीं। फिर हमारी बिल्डिंग के नीचे जो एक विश्वविद्यालय का फ्रेंचाइजी दफ्तर है, का एक टॉयलेट वहां पर था जहां उस समय तक ताला लग चुका था। शाम हो गई थी, उस दफ्तर के लोग घर जा चुके थे। मैंने वहां एक नजर दौड़ाई फिर कहा, यहां तो कहीं नहीं है। फिर उनकी तरफ देखे बगैर मैं भागने लगा। मैं दौड़ता हुआ राजीव चौक मेट्रो स्टेशन के ए ब्लॉक से नीचे उतर गया। साथी पत्रकार से मेट्रो स्मार्ट कार्ड मांगकर ले गया था, दनादन अंदर चला गया। मेट्रो में चढ़ने ही वाला था कि ऑफिस से कॉल आ गई तुरंत आओ मीटिंग होगी। वापस आया। मेट्रो के नियमानुसार कार्ड में से छह रुपए कट गए। ऑफिस के नीचे आकर उस युवक और महिला को इधर- उधर देखा। वे नहीं थे। चुपचाप आकर मीटिंग में बैठ गया। अपने काम के लिए जिस तेजी से भागा। फिर ऑफिस के लिए जिस तेजी से आया। इस बीच यही सोचता रहा काश मैं उस किशोर या महिला के लिए दो मिनट और खर्च कर लेता। मैं उन्हें अपने ऑफिस का टॉयलेट दिखा देता। वह बहुत परेशानी में थे। काश! ऐसा किया होता। उनके लिए महज दो मिनट खर्च न कर पाने के अफसोस के पीछे भी शायद मेरा ही स्वार्थ था कि यदि में इतना और रुक गया होता तो भागदौड़ बचती और जो बेवजह आठ रुपए स्मार्ट कार्ड से कट गए वह भी बच जाते। सही में हम लोग कितना आत्ममुखी, आत्मसुखी और स्वार्थी हो गए हैं।

Sunday, October 24, 2010

दायें या बायें नैनीताल फिल्म समारोह में भी

दीपक डोबरियाल अभिनीत फिल्म दायें या बायें को नैनीताल फिल्म समारोह में भी प्रदर्शित किया जाएगा।
एजेंसी वार्ता से जारी फिल्म के प्रदर्शन और अन्य जानकारियों के बारे में खबर
प्रतिरोध के सिनेमा का नैनीताल फिल्म समारोह 29 से
नई दिल्ली . 24 अक्टूबर . वार्ता . । प्रतिरोध के सिनेमा को परदा
मुहैया कराने वाला दूसरा नैनीताल फिल्म समारोह 29 से 3। अक्टूबर
तक आयोजित किया जाएगा ।
आयोजकों ने आज यहाँ बताया कि नैनीताल क्लब के शैले हाल में
आयोजित इस तीन दिवसीय समारोह में कुल तीन फीचर और लगभग
।5 डाक्यूमेंटरी फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी । किसी प्रायोजक के
सहयोग के बिना आयोजित इस समारोह में हिस्सा लेने के लिए टिकट
या पास की जरूरत नहीं होगी ।
यह जन संस्कृति मंच के फिल्म समूह . द ग्रुप . प्रतिरोध के सिनेमा का
।5 वां समारोह होगा । इससे पहले ए समारोह गोरखपुर में पांच .
लखनऊ में तीन . भिलाई में दो और इलाहाबाद . पटना . बरेली और
नैनीताल में एक बार आयोजित किए जा चुके हैं ।
गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में आयोजित इस समारोह में दिखाई
जाने वाली फीचर फिल्में बेला नेगी की दाएं या बाएं . परेश कामदार की
खरगोश और संकल्प मेश्राम की छुटकन की महाभारत होगी ।
समारोह में वसुधा जोशी की तीन डाक्यूमेंटरी फिल्मों अल्मोडियाना .
फार माया और वायसेस फ्राम बलियापाल का प्रदर्शन किया जाएगा ।
इसके अलावा गिर्दा और निर्मल पांडे पर प्रदीप पांडे . मोहन जोशी और
प्रदीप दास की लघु फिल्में भी दिखाई जाएंगी ।
इसमें दिखाई जाने वाली अन्य डाक्यूमेंटरी फिल्में होंगी संजय
काक की जश्ने आजादी . अजय भारद्वाज की कित्ते मिल वे माही .
देवरंजन सारंगी की हिन्दू टू हिंदुत्व . अनुपमा श्रीनिवासन की आई
वंडर और अजय टी जी की अंधेरे से पहले ।
फिल्मकारों के साथ सीधे संवाद के अलावा इस समारोह में उत्तराखंड
में हाल में हुई प्राकृतिक आपदा पर फोटो पत्रकार जयमित्र बिष्ट की
तस्वीरों की प्रदर्शनी भी लगाई

Friday, October 22, 2010

फिल्म दाएं या बाएं से दीपक की जोरदार एंट्री


मित्र राजेश के मार्फत मित्र बने दीपक डोबरियाल की एक और फिल्म आ रही है दाएं या बाएं। वह इसमें मुख्य किरदार की भूमिका निभा रहे हैं। 29 अक्टूबर को रिलीज हो रही है। संभव हो तो देख लें


जनकवि एवं समाजसेवी स्व. गिरदा ने भी निभाया किरदार
छोटे बजट की सशक्त फिल्म साबित होने का दावा
अगले हफ्ते रिलीज होने वाली कम बजट की फिल्म दाएं या बाएं से कई लोगों की उम्मीदें जगी हैं। बेला नेगी निर्देशित इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई है ओमकारा, 1971, दिल्ली-6, शौर्य, 13बी, गुलाल, मुंबई कटिंग, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दीपक डोबरियाल ने। फिल्म का निर्माण्ा और लेखन भी किया है बेला नेगी ने। इसमें जाने माने समाजसेवी एवं जनकवि गिरीश तिवारी उर्फ गिरदा ने एक स्कूल प्रधानाचार्य की भूमिका निभाई है।
नईदुनिया से फोन पर बातचीत करते हुए मुख्य किरदार निभा रहे दीपक डोबरियाल और बेला नेगी ने कहा कि फिल्म कम बजट की जरूर है लेकिन इसमें संदेश बहुत सशक्त है। फिल्म में दीपक शहरों में पढ़ा-लिखा एक युवक है। वह पहाड़ के अपने गांव में आकर वहां अध्यापक लगता है। उसकी दिली इच्छा है कई तरह के परिवर्तन की। उसके रास्ते में आने वाली अड़चनों और अंतत: उनसे पार पाने को बहुत ही अच्छे ढंग से फिल्माया गया है। हिंदी भाषा में बनी इस फिल्म के सभी दृश्य पहाड़ी इलाकों की है। फिल्म में वहां के जन-जीवन को और उनसे जुड़ी अन्य बातों को भी बहुत सशक्त तरीके से दिखाया गया है। दीपक और गिरदा के अलावा फिल्म में मानव कौल, बदरुल इस्लाम, भारती भट्ट, प्रत्यूष डोकलन आदि हैं। फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि यह फिल्म अपने सशक्त पटकथा और पहाड़ों की पृष्ठभूमि को सशक्त माध्यम से उठाने के लिए तो चर्चित रहेगी ही महान आंदोलनकारी एवं कवि गिरीश तिवारी गिरदा, जिनका हाल ही में निधन हुआ था, को भी श्रद्धांजलि होगी।
केवल तिवारी

Tuesday, October 19, 2010

महाश्वेता देवी से बहुत प्रभावित हैं नुजहत हसन

करीब सालभर पूर्व नेश्ानल बुक ट्रस्ट की निदेशक नुजहत हसन (वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी) नईदुनिया दफ्तर में आईं थीं। उनके पति भी आईपीएस अफसर हैं। पुलिस प्रशासन में भी काम करने का उनका लंबा अनुभव है। उनसे नईदुनिया की मेट्रो टीम ने विस्तार से बातचीत की और मैंने बाद में उस बातचीत को खबर के रूप में लिखा। पेश है ब्लॉग पढ़ने वालों के लिए वह स्टोरी:
एनबीटी निदेशक नुजहत हसन से बातचीत

सारे मनुष्य बुनियादी तौर पर एक जैसे हैं
काम कोई भी हो रमने पर अच्छा लगता है
पुलिस की वर्दी और नए काम से कुछ सीखा ही है
किसी को भी कभी मुगालते में नहीं रहना चाहिए
पुलिस अफसर से किताबों की दुनिया में बैठने का काम तो एकदम अलग है, लेकिन इससे बहुत कुछ नया सीखने को मिला है। नेशनल बुक ट्रस्ट की निदेशक आईपीएस अधिकारी नुजहत हसन का मानना है कि चीजें बदलने से अनुभव ही मिलता है। नईदुनिया दफ्तर में आईं श्रीमती हसन ने अपने पुलिस सेवा के अनुभवों और निजी जीवन के बारे में विस्तार से बात की। पेश है बातचीत के कुछ अंश

कुछ मामले आर्थिक पहलुओं के चलते रुक जाते हैं और कुछ पर योजनाएं कारगर नहीं हो पाती। लेकिन आशाजनक यह है कि पुस्तक संस्कृति बेहतर तरीके से विकसित हो रही है। अच्छे विषयवस्तु के साथ तमाम भाषाओं में पुस्तकों के प्रकाशन से हमें बेहद खुशी है और एकदम बदले परिवेश में काम करने का अनुभव भी अच्छा मिल रहा है। नेशनल बुक ट्रस्ट की निदेशक नुजहत हसन का कहना है कि किताबों की दुनिया में आकर बहुत कुछ नया सीखने को मिला। यहां आकर ही मैं महाश्वेता देवी के करीब आई और उनसे बहुत प्रभावित हुई।
बातचीत के दौरान पुरानी यादों को कुरेदने का जब सिलसिला शुरू हुआ तो तमाम यादों को उन्होंने बांटा। कोई यादगार लम्हे के बारे में पूछने पर श्रीमती हसन ने बताया कि एक छोटी सी घटना है, लेकिन है बहुत रोचक। उन्होंने बताया कि घटना तब की है जब वह पूर्वी दिल्ली में पुलिस उपायुक्त थीं। किसी इलाके में चोरी हो गई। घटना का विस्तृत विवरण लिखा जा रहा था, तभी एक किशोर बोला कि मेरे नए जूते खो गए हैं। जूते बहुत अच्छे थे। उस समय पुलिस ने इसे बहुत सामान्य अंदाज में लिया। असली मकसद चोरों का भांडा फोड़ना था। लेकिन बाद में जब रिकवरी हुई तो वे जूते भी बरामद हो गए। सामान जब सौंपा गया तो उस बच्चे की खुशी देखने लायक थी। हमें तब बेहद सुकून मिला।
एनबीटी निदेशक नुजहत हसन ने कहा कि एक अजीब सा यह अनुभव भी रहा कि लोग पूरी जानकारी के बगैर आरोप लगाना शुरू कर देते हैं। उन्होंने कहा कि एक बार बच्चा खोने की एक घटना में लोग पुलिस पर आरोप लगा रहे थे कि जांच ठीक नहीं हो रही। मुझसे लोगों ने लिखित शिकायत की। मैंने जब अपने स्तर पर मामले को देखा तो जांच सही दिशा में चल रही थी। कुछ दिनों बाद बच्चे को मुक्त भी करा लिया गया।
फिलहाल वर्दी का रौब छूट गया है, अजीब नहीं लगता, पूछने पर उन्होंने कहा कि किसी को भी कभी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। आज वर्दी है, कल नहीं भी हो सकती है। फिर एक जैसे काम से बोरियत भी तो हो जाती है। हां एनबीटी में आने पर शुरू में अजीब थोड़ा इसलिए लगा कि इस ढांचे को ठीक से जानती नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। उन्होंने कहा कि बुनियादी तौर पर मनुष्य एक जैसा होता है। श्रीमती हसन ने कहा कि वह कई बार खुद से ही सवाल करती हैं। यदि कोई अपने काम को ही ठीक से आंक ले तो सबकुछ ठीक हो जाता है।
खुद आईपीएस अधिकारी और जीवन साथी भी आईपीएस हैं, कैसे निभती है पूछने पर श्रीमती हसन बोलीं, मैं कुछ भी होती, लेकिन शादी पुलिस अफसर से ही करती। क्यों? नुजहत कहती हैं कि जो व्यक्ति इतने सारे पुलिसिया महकमे को देख रहा है, वह निश्चित रूप से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी संतुलन बनाए रखेगा। पुलिस अधिकारियों का घर में भी समान रौब चलता है, पूछने पर श्रीमती हसन ने कहा कि दरवाजे तक पुलिस की वर्दी होती है, अंदर हर कोई आम इंसान होता है। बातों बातों में पुलिस और हिंदी फिल्मों की बात छिड़ गई। एक सवाल के जवाब में श्रीमती हसन ने कहा कि पुलिस की छवि का नुकसान जितना ज्यादा हिंदी ने किया है, उतना किसी ने नहीं। इसी संदर्भ में उन्होंने यह भी कहा कि उनकी रुचि खुद फिल्मों के निर्माण की है, लेकिन कई बार आदमी चीजों को सिर्फ सोच ही पाता है। पुलिस सेवा में फिर कब से लौट रही हैं, सवाल पर पहले श्रीमती हसन हंसती हैं फिर कहती हैं आना तो है ही। जब हुक्म आ जाए।

Sunday, October 17, 2010

फ्लैट संस्कृति में कन्या पूजन कार्यक्रम से गदगद हुआ

शहरी जीवन खासतौर पर फ्लैट संस्कृति में एकाध मौकों को देखकर लगता है जैसे चहल-पहल लौट आई। जैस नवरात्र का ही मौका। लोग अचानक भक्ति में लीन दिखते हैं। इस दौरान शराब नहीं पीते। यह अलग बात है कि विजयदशमी के दिन से ही फिर कई रावण जिंदा हो उठते हैं। मुझे भक्ति का प्रदर्शन तो बहुत खराब लगता है जैसे माइक लगाकर फुल स्पीड में जागरण करना, रामायण पाठ करवाना, वगैरह-वगैरह। लेकिन इस बार की नवरात्र में मैं कन्या पूजन कार्यक्रम देखकर बहुत गदगद हो गया। पत्नी के विशेष आग्रह पर मैंने भी कन्याओं को खिलाने के कार्यक्रम के लिए सहमति दी। वह बच्चियों के लिए कुछ उपहार खरीद लाई। तय हुआ कि सुबह जल्दी उठकर पकवान बनाए जाएंगे, पूजा की जाएगी और कन्याओं को खिलाया जाएगा। कन्याओं का हिसाब लगाया गया फ्लैट नंबर से। हमारी कालोनी में 30 ब्लॉक हैं। प्रत्येक ब्लॉक में 16 फ्लैट हैं। मेरे ब्लॉक में एक घर अब तक बंद पड़ा है, यानी वहां कोई नहीं रहता। इस तरह 15 घर हैं। एक घर में स्टूडेंट्स ही रहते हैं। यानी घर में बच्चों वाला माहौल नहीं है। चार-पांच फ्लैट ऐसे हैं जिनमें फ्लैट के मालिक नहीं रहते। किराएदार अक्सर बदलते रहते हैं। इस तरह फ्लैट नंबरों से कन्याओं का हिसाब लगाया गया। जैसे एक बच्ची 3108 में है। एक 2109 में है। एक बगल के ब्लाक में 2080 में है, वगैरह-वगैरह। मेरे गदगद होने की यही मुख्य वजह थी। अपने परिवार, मोहल्ले, रिश्तेदारी में पहले भी कन्या पूजन कार्यक्रम देखे थे। ज्यादातर जगह देखा कन्या पूजन में भी जात-पात का खास ख्याल रखा जाता था। कभी गांव गया तो वहां तो पूरा गांव ही ब्राह्मणों का था। कभी कन्याएं कम हुईं तो यह कभी न सुना और न देखा कि किसी ठाकुर साहब की बेटी को बुला लिया गया हो या फिर किसी शिल्पकार (अनुसूचित जाति) की बेटी को। पंडित की ही बेटी होनी चाहिए। कम हो गई तो एक हिस्सा ऐसे ही रखकर किसी पंडित को दान दे दिया गया।
इस बार नवरात्र में इस फ्लैट संस्कृति में पत्नी के आग्रह पर कन्या पूजन कार्यक्रम में मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया। ये बच्चियां कौन-कौन हैं। उसने फ्लैट नंबर गिना दिए। मैंने कुरेदा अरे भई ये बताओ कि पांडेजी की बेटी है, शर्माजी की बेटी है, तिवारी जी की है या किसकी। पत्नी ने कहा, मुझे नहीं मालूम। यह बच्ची तान्या है, यह श्रद्धा है। यह तीसरी बगल वाले ब्लॉक से आई है। दो ये नीचे यादव जी की बेटियां हैं और वह त्यागी जी की। यादवजी को और त्यागीजी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं क्योंकि कभी आरडब्लूए में सक्रियता के चलते और कभी जीना उतरते-चढ़ते नमस्कार हो जाती है। उनकी बच्चियां भी अंकल नमस्ते करती हैं। मुझे बहुत खुश्ाी हुई। यह जानकर कि पत्नी ने कन्याओं के इंतजाम में जाति का ब्रेकर नहीं लगाया है। काश! ऐसा ही हो हर मामले में। कन्या पूजन में जैसे किसी पांडेजी, तिवारी जी, शर्माजी को नहीं ढूंढ़ा गया, इसी तरह अन्य मसलों पर भी यह सब नहीं देखा जाता। नवरात्र पर ऐसी कन्या पूजन से मैं वाकई खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं।
उधर विजय दशमी की शाम को ही नौ दिन के सूफी लोगों को रावण जैसा बनते भी मैंने देखा। कुछ तो प्यालों पर ऐसे टूट पड़े जैसे जेलखाने से छूटा आदमी बाहर की दुनिया देखता है। उनकी इस भगवत भक्ति पर वही शेर याद आया
मस्जिद में बैठकर पीने दे मुझे, नहीं तो वह जगह बता जहां खुदा नहीं।
केवल तिवारी

मित्र के ब्लॉग सोत्डू पर एक पीस अच्छा लगा हूँ ब हूँ यहाँ दे रहा hoon

बॉसत्व एक भाव है.... स्थिति नहीं, पद नहीं.... भाव। कुछ लोग इसी भाव के साथ पैदा होते हैं (प्रोफेशन में)..... कुछ लोग उम्र गुज़ारने के बाद भी- पद पाने के बाद भी इस भाव को प्राप्त नहीं हो पाते.... कुछ जो ज़्यादा स्मार्ट होते हैं, मौका मिलते ही भाव को प्राप्त हो जाते हैं.... लेकिन ऐसे विरले ही होंगे जो पद न रहने पर इस भाव से मुक्ति पा जाएं.....
पहले भी सोचता रहा हूं- पिछले कुछ वक्त से ज़्यादा साफ़ दिख रहा है कि - अपन बॉस मटीरियल नहीं हैं। बॉसत्व प्राप्त लोगों से अपनी कभी अच्छी पटी भी नहीं.... कुछ मित्र भी बॉसत्व को प्राप्त हो गए हैं लेकिन वो तभी तक मित्र हैं जब तक उनके साथ काम न करना पड़े (एक के साथ करना पड़ा तो अब वो मित्र नहीं है)।
वैसे बॉसत्व की एक स्थिति को मैं भी प्राप्त हो गया हूं (करीब साल भर से) लेकिन भाव को प्राप्त नहीं हो पाया। अब भी मैं एक टीम लीडर ही हूं। वही टीम लीडर जो अमर उजाला में था (चाहे टीम दो-तीन आदमियों की क्यों न हो)। निश्चित काम, काम की निश्चित शर्तें और उसे डिलीवर करने का निश्चित समय। इन चीज़ों के साथ अपन ठीक रहे..... थोड़ी-बहुत जॉब सेटिस्फेक्शन भी मिलती रही। लेकिन बॉस के मन को पढ़ लेने की कला में अपन हमेशा ही पिछड़े रहे.... इसलिए करियर में भी पिछड़े ही रहे।
ये बात अब पुरानी हो गई है कि जिन्हें हम चूतिया कहते थे (काम के लिहाज से) वो आगे बढ़ते रहे..... अब वो इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उन्हें चूतिया कहना दरअसल खुद बनना है। पहले तो समझ नहीं आता था अब साफ़ दिखता है.... काम करने वाला हमेशा काम ही करता रहेगा और तरक्की करने वाला तरक्की का रास्ता ढूंढ ही लेगा।
अभी कुछ वक्त पहले एक ने पूछा-
कहां हो
यहीं
मतलब काम कहां कर रहे हो
काम या नौकरी
मतलब
मतलब काम क्या और नौकरी कहां
अच्छा नौकरी कहां कर रहे हो
साधना न्यूज़ नोएडा
(मुझे पता था वो कहां है) तुम क्या कर रहे हो
वही जो हमेशा करते थे
मतलब- बकलोली
वो बुरा मान गया
लेकिन वो बॉस हो ही नहीं सकता जिसे बकलोली न आती हो..... बॉस से दबना और जूनियर्स को दबाना... ख़बर या अफ़वाह सही आदमी तक पहुंचाना.... बॉस के मूड के हिसाब से काम करना और सही वक्त पर सही आदमी चुनकर उसके लटक जाना..... इसके अलावा तरक्की का क्या कोई और नुस्खा है ?
अगर जानते हो तो मुझे भी बताना
साभार सोत्डू

Sunday, October 10, 2010

व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस

भ्रष्टाचार एक वायरस की तरह आज पूरी व्यवस्था में घुस चुका है। इसकी गहरी जड़ों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आधिकारिक रूप से लिए गए निर्णय और उसके बाद कार्रवाई पर भी इसका चाबुक बीस साबित हो जाता है। व्यवस्था में बने रहने की बात हो या उसी का हिस्सा बनने की, भ्रष्टाचार का गोल चक्कर ऐसा है कि यह जुमला बन गया कि 'मुफ्त में कुछ नहीं होता।"
मृत्यु प्रमाणपत्र बनाने की बात हो या फिर शवों की अंत्येष्टि का मामला, शल्य चिकित्सा और दवा आपूर्ति का मामला हो सामान्य ट्रैफिक चालान से लेकर एफआईआर दर्ज करने की बात या फिर कोर्ट में चल रहा ट्रायल, राशन कार्ड से लेकर भू रिकॉर्ड की बात हो या पार्किंग से लेकर रेहड़ी-पटरी की बात हो। निर्माण की अनुमति का मामला हो या फिर तोड़फोड़ कार्रवाई की बात, खरीद मामला हो, फाइल आगे बढ़ाने की बात हो, चेक भुगतान का मामला हो, विकास कार्य या कल्याण योजना की बात हो, विभिन्न् तरह के अनापत्ति प्रमाणपत्र की बात हो या फिर कर निर्धारण का मामला। बात किसी की नियुक्ति या प्रोन्न्ति का हो, स्थानांतरण या फिर दंडित करने की बात। या यह कहें कि कोई भी सरकारी कामकाज, सबमें आज स्थिति यह है कि लेने-देने की बात को जैसे आत्मसात कर लिया गया हो। शायद ही कोई ऐसा काम होगा जहां लेन-देन की प्रकिया या इसकी बात न होती हो।
भ्रष्टाचार के वायरस का एक भयावह पहलू यह भी है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा व्यक्ति इससे बच निकलने का रास्ता भी जानता है। कैसे वह पकड़ से बाहर रहे और यदि पकड़ा भी जाए तो कैसे उससे बचा जाए उसे भलीभांति आता है। व्यवस्था के कई चक्र ऐसे हैं कि जांच में भी मुश्किल आती है। असल में लंबी न्यायिक प्रणाली, गवाहों की खरीद-फरोख्त और लंबा समय निकलने के बाद यह युक्ति का चल जाना कि 'वह तो अब तक दोषी साबित नहीं हुआ" इस मामले को और घातक बनाता है। लगता है हमारे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जोश-ओ-खरोश दिखाने में कुछ हिचकिचाहट है। इससे इतर स्कैंडिनेवियाई जैसे न्यूजीलैंड या ऐसे ही कुछ और देशों में इसके स्तर को दसवें हिस्से तक लाया जा चुका है। अपने यहां हम यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस मामले में 'शून्य सहनशीलता" का फार्मूला अपनाएं या इसे छोड़ देने का। हमारे यहां भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में उत्साही कदम बढ़ाने के बजाय ज्यादातर ध्यान और शक्ति दिखावे के कामों में बर्बाद हो रही है।
कितना दुखद पहलू है कि सार्वजनिक सेवा में आने के बाद शपथ लेने वाले अगले ही पल उसका अनुपालन भूल जाते हैं। वह शपथ लेते हैं कि 'हम भारत के सार्वजनिक सेवा में जुड़े लोग सत्य और निष्ठा से शपथ लेते हैं कि अपने हर तरह के कार्य में पारदर्शिता बरतते हुए एकता को कायम रखते हुए भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कार्य करते रहेंगे।" आज यह सर्वविदित है कि कितने लोग शपथ पर कायम रह पाते हैं।
भ्रष्टाचार उन्मूलन के मामले में एक महत्वपूर्ण बात सबके लिए विचारणीय है कि भ्रष्टाचार के विष को खत्म करने में अगर हम खुद को असमर्थ पाते हैं तो कम से कम उसके प्रसार को रोकने में तो कुछ भूमिका निभाई जा सकती है। इस संबंध में जोसेफ पुलित्जर ने संभवत: सही कहा है, 'किसी भी अपराध, चकमेबाजी, चाल, ठगी, अनैतिक कार्य गोपनीय नहीं रह सकते। इन सब चीजों को खुले दिमाग से मीडिया के माध्यम से सबके सामने रखें, गलत पर प्रहार करें, उनका तिरस्कार करें फिर देखिए जल्दी ही जनमत उन्हें साफ कर देगा।" यानी भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को सामाजिक बहिष्कार का कड़वा घूंट देना होगा। समाज को इस दिशा में अपना रुख बदलना होगा तभी सदियों पुरानी इस बीमारी का मुकाबला करने में कुछ सफलता मिल सकेगी।
हमारे समाज में भ्रष्टाचार कोई एक दिन में पनपा विषाणु नहीं है। चाणक्य ने भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए कई कदम उठाए। अकबर ने भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए कई सख्त फैसले सुनाए। इसी तरह अंग्रेजों के शासनकाल में वारेन हेस्टिंग और रॉबर्ट क्लाइव के भ्रष्ट आचरण की बात सब जानते हैं। इस कारण ईस्ट इंडिय कंपनी को हुए नुकसान और भ्रष्टाचार मसले पर उनको दिए दंड की बहुत चर्चा होती है। आजादी के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि स्वशासन के लिए प्राप्त आजादी में कई लोगों के बलिदान, नैतिक समर्थन आदि को भुलाकर कुछ लोग निजी स्वार्थों के लिए तंत्र का उपयोग कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार को लेकर हमारे समाज में अजीब तरह का विरोधाभास है। एक तरफ सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की उम्मीद की जाती है, दूसरी तरफ भ्रष्ट लोगों को एक खास किस्म का सम्मान मिलता है। भ्रष्टाचार के कुछ बड़े मामले जैसे पशुपालन, जेएमएम घूसकांड, संसद में सवालों के लिए पैसा, ताज कॉरिडोर आदि इसके उदाहरण हैं। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि समाज का एक विशेष बड़ा तबका (सफेदपोश) ज्यादा खतरनाक भ्रष्ट लोगों में शुमार है। जनता के पैसे डकारना और सरकारी पैसे को चबा जाना जैसे आयकर की चोरी, स्टांप शुल्क, सीमा शुल्क आदि की चोरी या अधिनियम का उल्लंघन बहुत घातक है। इस तरह के मामलों में छोटी सी चोरी करने वाला तो पकड़ा जाता है, बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन चारों ओर से मशीनरी का दुरुपयोग करने वाले को या तो बख्श दिया जाता है या फिर उसे पकड़ने की नीयत साफ नहीं होती। कभी पकड़ होती भी है तो ऐसे लोग एक जनसमूह को अपने पक्ष में ला खड़ा करता है।
ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम नहीं उठाए गए। बड़े-बड़े प्रयास हुए, अधिनियम आए लेकिन समय-समय पर बदली परिस्थितियों और अन्य कमियों के चलते वे कारगर नहीं हो पाए। असल में हमारी मशीनरी इस शक्तिशाली वायरस (भ्रष्टाचार) से लड़ने के लिए पर्याप्त रूप से सफल नहीं हो पाई। 1947 के पीसी अधिनियम की धारा 5 के तहत तीन साल की सजा का प्रावधान रखा गया। एक आशावादी धारणा थी कि भ्रष्टाचार पर इस तरह की सख्ती से अंकुश लग जाएगा। ऐसा नहीं होने पर 1950 में इसे पांच साल किया गया। 1952 में सजा के नाम पर इसे दस साल का प्रावधान किया गया। लेकिन सिर्फ प्रावधान बना देने से कुछ नहीं होता। फिर हुआ वही जिसकी आशंका थी, यह वायरस बढ़ता ही रहा।
ऐसा नहीं कि पूरी व्यवस्था में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार व्याप्त है। लेकिन बाहुबलियों, सार्वजनिक सेवकों और कुछ नेताओं का ऐसा गठजोड़ है कि भ्रष्टाचार का भूत ज्यादा शक्तिशाली हो गया है।
भ्रष्टाचार के कई कारण हो सकते हैं लेकिन पिछले दशकों में यह बात सामने आई कि महंगा चुनाव राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारणों में प्रमुख है।
भ्रष्टाचार के बड़े पैमाने पर भांडा फोड़ने की जब हम बात करते हैं तो सबसे पहले तहलका का स्टिंग हमारे सामने आता है। मार्च 2001 में उसके खुलासे ने सनसनी फैला दी थी। रक्षा सौदों में घोटालों की यह बात उजागर होने से लोगों को गहरा धक्का लगा। फिर बीएमडब्लू हिट एंड रन मामले में न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार का खुलासा एनडीटीवी ने किया।
भ्रष्टाचार के संदर्भ में अगर हम धोखाधड़ी की बात करें तो कई मामले सामने आते हैं। जैसे परिवहन विभाग में लाइसेंस धोखाधड़ी, एमसीडी से संबंधित नालों से गाद निकालने का मामला, सामाजिक कल्याण विभाग में आवंटित धन की बंदरबांट। इन सबमें वरिष्ठों द्वारा मातहत के कंधे पर बंदूक रखकर रिश्वत लेने के कई मामले सामने आए। संगठनात्मक रूप से भी भ्रष्टाचार के कई मामलों को पिछले कुछ समय में खुलासा हुआ। जैसे नई दिल्ली नगर पालिका परिषद में दो दर्जन के करीब लोगों का स्टिंग हुआ। ट्रैफिक पुलिस का भांडा फूटा। खुलासे होने के क्रम में एक परिवर्तन यह सामने आया कि कई पीड़ित अपनी ओर से टैप या रिकॉर्ड करके भ्रष्टाचार निरोधक शाखा या ब्यूरो के पास आने लगे। असल में शाखा या ब्यूरो की सफलता भी इस पर निर्भर करती है कि तमाम मामलों को गुप्त रखते हुए त्वरित कार्रवाई की जाए।
भ्रष्टाचार रूपी वायरस को खत्म करने या इसको धीरे-धीरे अपनी व्यवस्था से हटाने का कोई सेट फॉर्मूला नहीं बना है। नोटिस देने, पैंफलेट चिपकाने, होर्डिंग्स बनाने या भ्रष्टाचार निरोधक सप्ताह मनाने भर से कुछ नहीं होगा। शपथ लेना या उक्त अन्य कार्य हमारी मानसिकता को नहीं बदल सकते। हमें अरुणाचल प्रदेश या इसी तरह की कई अन्य इलाकों की कुछ प्रथाओं से सबक लेना चाहिए। वे ऐसे मामलों में अपने रीति-रिवाजों के हिसाब से दंडित करते हैं। भ्रष्टाचार के बारे में पता लगने पर ऐसे व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ तमाम कार्रवाई के साथ ही भ्रष्ट के सामाजिक बहिष्कार की भावना को बलवती करना होगा। ईमानदार लोगों को एक सामाजिक पुल के रूप में काम करना होगा। भ्रष्टाचार इसी गति से बढ़ता रहा तो यह उन चंद लोगों के विश्वास को डिगाएगा जिन्हें इस वायरस ने अभी नहीं छुआ है।

लेखक डॉ. एन दिलीप कुमार वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त हैं उनके इस लेख को मैंने अनुवाद किया था : केवल तिवारी। साभार : नईदुनिया

Friday, September 10, 2010

जिस्म बिकता इनका, पेट भरता उनका

एक बार जिज्ञासावश रिपोर्टिंग के लिए कुछमित्रों संग दिल्ली के जीबी रोड इलाके में चला गया। इस इलाके के बारे में बताने की शायद जरूरी नहीं। हां एक बात यह बताना जरूरी है कि वहां मोटर पार्ट्स, जनरेटर आदि का कारोबार भी होता है। मूलत: जीबी रोड किसलिए जाना जाना जाता है, यह सभी जानते हैं। मैं वहां कोठों की स्थिति का जायजा लेने गया था, मैंने जो देखा उस पर खबरनुमा एक रिपोर्ट

उन गलियों में कोई जाता भी होगा तो चोरी-छिपे। वहां के बारे में किसी के जेहन में कोई बात आती भी होगी तो नकारात्मक। सड़कों पर घूम रहे वहां के सौदागर भी कहते हैं तो सिर्फ एक शब्द एंजॉय। लेकिन वहां छिपे दर्द, वहां की तकलीफों को या तो कोई समझ नहीं पाता या समझने की जहमत नहीं उठाना चाहता। कुछ संस्थाएं समझने या कुछ करने की कोशिश कर रही हैं तो उनके प्रयास पर सवालिया निशान लग रहे हैं। हम बात कर रहे हैं जीबी रोड यानी स्वामी श्रद्धानंद मार्ग की। यहां बने मकानों के निचले तले पर तमाम दुकानें हैं, जहां ऑटो पार्ट्स से लेकर बड़े-बड़े जनरेटर भी मिलते हैं। उनके ऊपर बने हैं कोठे। यहां पेट भरने के लिए सेक्स वर्कर्स ग्राहकों के लिए अपने जिस्म को परोसने को तैयार बैठी हैं।
समस्या यह नहीं है कि यहां जिस्म का धंधा होता है। समस्या इसके बाद शुरू होती है। जिस्म के धंधे पर कई धंधे होते हैं। कोई इनकी भलाई के नाम पर अपने संगठन रूपी दुकान को चमका रहा है तो कुछ नौजवान बिना इनकी सहमति के सड़कों पर राहगीरों या व्यावसायिक सिलसिले में वहां आए लोगों को जाल में फांसने में लिप्त हैं। किसी नए व्यक्ति को देखते ही दो-चार लोग उसे घेर लेते हैं। उनकी शब्दावली पर गौर कीजिए-'सर एंजॉय करेंगे", 'हर तरह का माल है", 'कम उम्र की", देशी-विदेशी..... वगैरह-वगैरह। ग्राहक इनके झांसे में आ गया तो ठीक नहीं तो उसके साथ जोर जबरदस्ती। यहां विभिन्न् कोठों पर सेक्स वर्कर्स ने इन दलालों से किसी तरह की नाइत्तेफाकी जताई। यहां के विभिन्न् कोठों पर रह रहीं सलमा, पुष्पा, रजिया जैसी तमाम महिलाओं ने उल्टे यह शिकायत की कि इन जैसे लोगों से धंधा चौपट हो रहा है।

कभी किसी कोठे की हूर थी, आज वहीं भिखारिन बनीं
सेक्स वर्कर्स के जीवन में चालीसवां साल आते-आते जैसे तूफान आने लगता है। शरीर ढल रहा है, ग्राहकों ने आंखें तरेरनी शुरू कर दी हैं। स्वयंसेवी संगठन कुछ करते तो हैं, लेकिन इतना नहीं कि दो जून की रोटी मिल जाए। थोड़ा बहुत पढ़ी-लिखी हैं तो बच्चों को पढ़ा सकती हैं, सिलाई-बिनाई आती है तो भी शायद काम चल जाए, लेकिन इनमें से कुछ नहीं है और कोठा मालिक या मालकिन भी नहीं चाहती तो कोई चारा नहीं बचता। विभिन्न् कोठों की सीढ़ियों से जब हम लोग गुजरे तो वहां कई महिलाएं भीख मां रही थीं। उम्र पचास या उससे अधिक होगी। जानकारी ली गई तो बताया गया 10-20 साल पहले इनकी जगह भी कोठों पर थीं। इन जैसी कई महिलाएं हैं। कुछ काम-धंधे में लग गई। किसी को कोठे पर ही चौका-बर्तन का काम मिल गया, लेकिन कुछ अब भीख मांगने को मजबूर हैं।

एक पहलू यह भी...
विभिन्न् कोठों पर एक अलग पहलू भी देखने को मिला। सर्वधर्म समभाव के लिए दिखावे के तौर पर भले बड़े-बड़े लोग हो-हल्ला करते हों, लेकिन यहां धार्मिक एकता का जीता-जागता नमूना दिखा। अनेक कोठों पर सेक्स वर्कर्स अलग-अलग धर्म से हैं और उसी पद्धति से वे पूजा भी करती हैं। दीवारों पर भगवानों की मूर्तियां लगी हैं, अगरबत्ती जल रही है तो वहीं मुसलिम धर्म के अनुयायियों ने अपने धर्म के हिसाब से कैलेंडर टांगे हैं। नमाज अदा की जाती है, आरती भी होती है।

पहचान पत्र बने
पतिता उद्धार समिति का कहना है कि इन लोगों के लिए सबसे बड़ा संकट पहचान का है। बैंक में खाता खोलकर अगर दो पैसा बचाना भी चाहें तो हर जगह पहचान पत्र की जरूरत होती है। हालांकि समिति के प्रयासों से पिछले दिनों कुछ महिलाओं के पहचानपत्र बने भी, लेकिन यहां भी कई किस्म की राजनीति हुई। समिति के अध्यक्ष खैराती लाल भोला का कहना है कि महिलाओं का पहचानपत्र बन जाए तो उनकी कई दिक्कतें दूर हो जाएंगी। यहां की महिलाएं ज्यादातर दक्षिण भारत की हैं। कभी इनके मूल पते की जांच नहीं हो पाती और कुछ मामलों में राजनीति आड़े आ जाती है।

समस्याएं और भी बहुत हैं
पतिता उद्धार समिति के दिल्ली इकाई का कार्यालय संभाल रहे इकबाल का कहना है कि पहचानपत्र बन जाए तो इनकी कई समस्याएं स्वत: दूर हो जाएंगी। उन्होंने भी दलालों की समस्याओं को उठाते हुए कहा कि इनकी वजह से कई बार महिलाएं चोटिल हो चुकी हैं। मीना, आशा, रचना, आदि महिलाओं के सिर, हाथ और पैर में चोट दिखाते हुए इकबाल ने बताया कि यह सब दलालों की गुंडागर्दी का नतीजा है।

Wednesday, September 8, 2010

मित्र सुधीर राघव की टिप्पणी पर टिप्पणी

काश! वह दिन जल्दी आए जब एक सर्वमान्य बोली विकसित हो। आज के हिंग्लिश की तरह या फिर पचमेल खिचड़ी की तरह। जैसा कि मित्र सुधीर राघव (इनका ब्लॉग समृद्ध है, अच्छा लिखते हैं) ने कहा है कि भविष्य में ऐसी बोली बनेगी। उनकी सब बातों से इत्तेफाक रखता हूं। यह भी सब जानते हैं कि कुछ शब्दों को आत्मसात किए जाने पर कोई हर्ज नहीं, लेकिन जबरन शब्दों को ठूंसने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। मैं फिर एक उदाहरण देना चाहता हूं। मैं नियमित रूप से लोकल ट्रेन में चलता हूं (दोनों शब्द लोकल और ट्रेन हिन्दी के नहीं हैं) उसमें बहस होती है। पिछली बार फिर बहस छिड़ी भाषायी ज्ञान और बोलचाल पर। बात-बात में दिल्ली मेट्रो की बात छिड़ गई। अनौपचारिक रूप में एक बड़े अधिकारी ने कहा था कि यमुना किनारे बने मेट्रो स्टेशन का नाम असल में यमुना तट रखा जाना था, लेकिन बाद में इसे यमुना बैंक कर दिया गया। कुछ मित्रों ने अपनी बात के समर्थन में कहा कि देखिए अंग्रेजी का प्रयोग सफल है। मैंने उनसे एक वाक्य के बारे में कहा जो मेट्रो के अंदर उद्घोषित होता है। उसमें उद्घोषक कहता है कि यात्रियों से अनुरोध है कि मेट्रो दरवाजों पर अवरोध उत्पन्न् न करें। ऐसा करना दंडनीय अपराध है। मेरा सवाल था कि इसमें कठिन क्या है? समझ में न आने जैसी बात क्या है?
मैं बार-बार यह कहता हूं कि दूसरी भाषा का कतई विरोध नहीं करता। अज्ञानता को छिपाने के लिए अन्य भाषा का इस्तेमाल सरासर गलत है। हालांकि आजकल सरल और बोलचाल की भाषा के इस्तेमाल की बात कहकर खिचड़ी भाषा इस्तेमाल की जा रही है। सुधीर जी की यह बात कि अपनी बात को वजनी बनाने के लिए लोग अंग्रेजी शब्दों, वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं, से सहमत हूं। मुझे एक छोटी सी बात याद आ रही है। रेल आरक्षण केंद्र पर मैं खड़ा था, अंदर बैठे सज्जन ने मेरा नंबर आने पर मेरी एक टिप्पणी पर अंगे्रजी में दो-तीन वाक्य जड़ दिए। मैंने उनसे कहा था भाई साहब गुस्से में क्यों हैं? वे बोले मैं गुस्से में नहीं हूं। मैंने कहा, आम भारतीय दो ही मौकों पर अंग्रेजी बोलता है, एक तो तब जब उसने शराब पी हो और दूसरी तब जब वह गुस्से में हो। यकीन मानिए वे व्यक्ति मुस्कुरा दिए और बहुत अच्छे से पेश आए। आज घरों में बच्चों के स्कूल से लिखकर आता है कि अंग्रेजी में बच्चों से बातें करें। और तो और हिन्दी विषय का गृहकार्य अंग्रेजी में लिखकर देते हैं। एक स्कूल में मेरा विरोध रंग लाया और कम से कम हिन्दी का गृह कार्य अब होम वर्क लिखकर नहीं दिया जाता। चलिए इस पर बातें जारी रहेंगी। एक गुजारिश है कि कोशिश भी जारी रखिए...। आत्मसात के इस क्रम में बता दूं की मेरा तो ब्लॉग ही चलन में प्रयोग वाले शब्द से शुरू होता है के टी यानी केवल तिवारी
धन्यवाद

Thursday, August 26, 2010

हिन्दी की बात, निबंध प्रतियोगिता और मैं

पिछले दिनों ब्लॉग पर मैंने एक नई पोस्ट हिन्दी के खिलाफ साजिश शीर्षक से प्रकाशित की थी। तीन-चार लोगों की प्रतिक्रियाएं उसको लेकर आईं। मेरे एक मित्र ने इस बहस को आगे बढ़ाने की सलाह दी है। इसी बीच हमारे अखबार (नईदुनिया) की ओर से आयोजित निबंध प्रतियोगिता के तहत आईं हजारों प्रविष्टियों में से बेहतरीन निबंधों को छांटने की जिम्मेदारी मुझे दी गई। विषय था, मेरे सपनों का भारत। कक्षा तीन से 12वीं तक के विद्यार्थियों ने बहुत जोश के साथ इसमें भाग लिया था। कुछ स्कूलों से आईं प्रविष्टियों से साफ झलक रहा था कि अध्यापक ने बच्चों को सामने बिठाकर उन्हें निबंध लिखवाया है। एक सी भाषा और एक सी बात। लेकिन आश्चर्यजनक यह था कि विषय को पकड़ने में उसमें बहुत देरी की गई थी। ऐसा ही कुछ स्कूलों ने बच्चों से निबंध तो खुद लिखने को कहा, लेकिन उसे उत्तर पुस्तिका की तरह जांचकर भेज दिया। यानी जगह-जगह उसमें पेन के निशान, शब्दों को सुधारने की कोशिश दिख रही थी। इन सबके बावजूद हजारों निबंध बहुत अच्छे थे। उसमें लग रहा था कि बच्चों ने विषय को समझा है और सीधे उस पर लिखना शुरू किया है। यह जरूर है कि कई बच्चों ने मर्यादाओं को समझा नहीं था। खैर रोचक था यह काम और कम समय होने के कारण मुझसे अन्य लोगों की मदद लेने के लिए भी कहा गया। मैंने साथ के लोगों को ज्यादा परेशान करने के बजाय, हमारे संस्थान में प्रशिक्षण के लिए आए पत्रकारिता के विद्यार्थियों को कुछ निबंध बांट दिए। जिन लोगों को मैंने ये निबंध दिए, उनमें से ज्यादातर ने तो पचासों सवाल इस तरह मुझसे पूछ लिए कि मुझे वे प्रविष्टियां वापस मांगनी पड़ीं। कुछ बच्चों ने कह दिया, 'सर एक्चुअली मेरी हिन्दी थोड़ी वीक है।" उनके इस तर्क पर मेरा सवाल था, फिर भी आप हिन्दी अखबार में प्रशिक्षण के लिए आए हैं, वो तो सर 'वर्क कल्चर देखने के लिए।" जवाब फिर एक मुस्कान। मैंने तर्क देना उचित नहीं समझा। धीरे-धीरे कर प्रविष्टियां मुझे उसी अवस्था में लौटा दी गईं। एक सज्जन ने कुछ छांटकर दीं। उन्हें मैंने गौर से देखा तो मेरा सवाल था, क्या है इन निबंधों में जो आपको सही लगीं। उन 'भावी पत्रकार" महोदय का जवाब था, देखिए सर इसने लिखा है कि भारत सोने की चिड़िया था, बांग्लादेशियों की समस्या को खत्म करो। लोग अपने देश से प्यार नहीं करते। सब नेता गद्दार हैं। मैंने कहा, आपको जो विषय मैंने बताया था, उस पर इन्होंने क्या लिखा है। वह सज्जन कुछ सकपका गए। दर्जनभर लोगों में से किसी ने 'कुछ" किया तो है सोचकर मैंने उनको ज्यादा नहीं छेड़ा। खैर....।
निबंधों में से कुछ को छोड़कर शेष में से चयन करने में मुझे खासी दिक्कत हुई। बच्चों के सपनों के भारत के बारे में क्या-क्या बातें आईं, यह तो मैं आगे इसी क्रम में लिखी गई खबर को ही लगा दूंगा, लेकिन उनको पढ़कर हिन्दी भाषा में लिखे निबंध में अशुद्धियों से मैं परेशान हो उठा। अशुद्धियां ही नहीं, जानकारी भी गलत। 12वीं का छात्र यदि यह लिखे कि हम भारत में रहते हैं इसलिए इंडियन हैं। या फिर तीसरी का छात्र यह लिखे कि भ्रष्टाचारी नेताओं ने देश का माल गटक लिया है.... मुझे अजीब लगा। छोटे बच्चे को भ्रष्टाचार की चिंता खाई जा रही है, 12वीं का छात्र जो अब कॉलेज की डगर पकड़ेगा कह रहा है कि भारत में रहते हैं इसलिए इंडियन हैं। ऐसी कई पंक्तियां देखकर तो और माथा खराब हो गया जिसे काटकर अध्यापक महोदय ने ठीक किया था दुर्योग से वह ठीक, गलत निकला। खैर निबंधों में से पुरस्कृत निबंधों को अलग से निकाला गया। बड़ी मशक्कत के बाद। सपनों का भारत भी बच्चों का जान पड़ा, लेकिन इस बीच के अनुभव बहुत अजीब रहे।
हिन्दी नहीं जानने की बात कहने वाले सज्जन को एजेंसी पीटीआई का एक टेक दिया और उससे कहा कि जैसी हिन्दी जानते हो या हिन्दी-अंग्रेजी मिली भाषा (हिंग्लिश) में ही कुछ लिख दो। थोड़ी देर बाद वे आए बोले, मेरी एक अर्जेंट कॉल आई है, इसे आज करना जरूरी है, मैंने कहा, घर से कर के ले आना। वे बोले फिर इसका क्या यूज। मैंने कहा, इंटर्नशिप के लिए आए हो, कुछ काम नहीं सीखोगे...। वह सज्जन चले गए और लौटकर नहीं आए। एक को कोर्ट की खबर दी जिसमें लिखा था दिस पेटिशन कैन नॉट बी इंटरटेन... साहिबान ने लिखा इस याचिका पर मनोरंजन नहीं हो सकता। वह भी अंग्रेजी ज्यादा जानने और हिन्दी कम आने की बात कहते थे। खैर इन बच्चों में ज्यादातर ऐसे थे जिन्हें वे हिन्दी फीचर लेख लिखने या पढ़ने में बहुत मजा आता है जिसमें कुछ भी हिन्दी, अंग्रेजी में लिखा हो। जैसे बारिश में खूब एंजॉय किया, लोग पार्क में गए, शॉपिंग की। या फिर इस तरह का जैसे ही रोहित ने मॉल में एंटर किया वह शॉक रह गया, सामने स्टेज पर...। मुझे ऐसा लगा आम बोलचाल की भाषा कहकर ऐसा लिखने वाले वाकई हिन्दी जानते ही नहीं। या फिर उन्हें डर है कि कहीं वे गलत नहीं लिख दें।

निबंधों को छांटने के बाद जो खबर मैंने लिखी
देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत 10 हजार से अधिक बच्चों ने लिखे निबंध
केवल तिवारी
नई दिल्ली। एक-एक निबंध में देशभक्ति की भावना का समावेश। तीसरी कक्षा का बच्चा हो या फिर 12वीं का छात्र। सबकी लेखनी से सपनों के भारत की इतनी खूबसूरत तस्वीर झलकी कि पुरस्कृत करने के लिए उनके चयन में खासी दिक्कत आई। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जब निबंध प्रतियोगिता की घोषणा की गई तो नईदुनिया अखबार के दफ्तर में एक के बाद एक प्रविष्टियां आने लगीं। देखते ही देखते आंकड़ा दस हजार पार कर गया। दिल्ली-एनसीआर के बच्चों को गांवों की भी सुध है और तकनीकी रूप से समृद्ध होना भी उनका सपना है।
नईदुनिया ने तीन वर्ग के बच्चों के लिए निबंध प्रतियोगिता आयोजित की थी। विषय था 'कैसा होगा अपने सपनों का भारत।" पहले वर्ग में तीसरी कक्षा से छठी कक्षा के बच्चों को अपने सपनों के भारत की तस्वीर पेश करनी थी। दूसरे वर्ग में सातवीं कक्षा से दसवीं तक के बच्चों को निबंध लिखना था। तीसरे वर्ग में ग्यारहवीं और 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों ने प्रविष्टियां भेजीं।
जब इन निबंधों को पढ़ने की शुरुआत की तो छोटे से बच्चे से लेकर 12वीं के विद्यार्थी ने अपनी भावनाओं को मानो उसमें उड़ेल दिया। कोई सर्वशिक्षित भारतवासी का सपना देखता प्रतीत हो रहा है तो किसी को बांग्लादेशी घुसपैठियों से दिक्कत है। भ्रष्टाचार की तपन ने बच्चों को विचलित किया है। तकनीकी रूप से समृद्ध होना इन बच्चों का सपना तो है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली-एनसीआर के बच्चों को गांवों का दर्द मालूम नहीं है। वे चाहते हैं हर गांव में अच्छी सड़क, स्वास्थ्य, पेयजल आदि सुविधाएं हों।
खूबसूरत अंदाज में अपने भावनाओं को उड़ेलने वाले इन बच्चों की प्रविष्टियां देखने लायक थीं। किसी ने निबंध वाले कागज को तिरंगे का रूप देते हुए भारत को फिर से सोने की चिड़िया सरीखा बनाने का सपना देखा है। किसी ने मोती सरीखे शब्दों से निबंध को नईदुनिया दफ्तर में भेजा है।
कई बच्चों ने अपना दर्द भी निबंध में उड़ेला है। किसी को यह बात परेशान करती है कि कई बच्चे सुबह राष्ट्रगान के समय पर गंभीर नहीं होते। किसी को अपने भले के लिए झूठ बोलने वालों से नफरत है तो कोई अपने निबंध के जरिये कल्पना करना है कि भारत फिर जगद्गुरु बने। एक प्रक्रिया के तहत दस हजार से अधिक निबंधों में तीनों वर्गों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कृत निबंध चयनित किए गए। इसी तरह 10 सांत्वना पुरस्कार भी चयनित किए गए। कुछ छात्रों का प्रयास भी बेहद सराहनीय रहा। पुरस्कारों की श्रेणी में नहीं आ पाने पर भी छात्रों का यह उत्साह और देशप्रेम सचमुच उत्साहित करने वाला है।
साभार नईदुनिया

Tuesday, August 17, 2010

हिंदी के खिलाफ साजिश

हिन्दी के बारे में
पिछले दिनों हिन्दी के एक बड़े अखबार वाले से भाषा को लेकर कुछ बहस हुई। उन साहिबान का कहना था कि हिन्दी के अखबारों को अधिक से अधिक अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। मैं इसे बिल्कुल गलत मानता हूं। मेरा कहना है कि हिन्दी भाषा के साथ-साथ किसी भी अन्य भाषा का ज्ञान होना चाहिए। खूब होना चाहिए, लेकिन बोलचाल की भाषा का बहाना बनाकर अंग्रेजी शब्दों को ठंूसना सरासर गलत है।
हिन्दी बोलने-लिखने के साथ यह तर्क विशुद्ध रूप से गढ़ा गया है कि बोलचान की भाषा में दिक्कत होती है। अंग्रेजी के कई शब्दों को समझने के लिए, अर्थ ढूंढ़ने के लिए और उसके उच्चारण को समझने के लिए हम न जाने कितनी बार शब्दकोश का सहारा लेते हैं। जरा सोचिए कि हिन्दी के बीच में तमाम अंग्रेजी शब्दों को घुसेड़ने में भी क्या खासी दिक्कत नहीं हुई होगी। फिर उन्हें जबरन लोगों से बुलवाया गया होगा। कौन नहीं समझता उप निरीक्षक (सब इंस्पेक्टर), छात्र (स्टूडेंट), जौहरी (ज्वेलर), हत्या (मर्डर), विशेष (स्पेशल), मुठभेड़ (एनकाउंटर)...वगैरह-वगैरह। ऐसे अनगिनत शब्द हैं जो हिन्दी में अच्छे-खासे प्रचलित हैं, खूब बोले जाते हैं, लेकिन न जाने क्यों साजिशन महज यह कहकर कि आम बोलचाल की भाषा है उन शब्दों को खत्म किया जाता है। निवेश को इनवेस्ट कहना या लिखना, पर्वतीय इलाके को हिल एरिया, खूबसूरत को ब्यूटीफुल, नख-शिख को टॉप टू बॉटम कहना या लिखना एक साजिश नहीं तो क्या है।
हिन्दी के प्रयोग को लेकर इस लेख का यह अर्थ कतई नहीं कि अन्य भाषा को दरकिनार कर दिया जाए। हर भाषा की अपनी गरिमा है। फिर हिन्दी की समृद्धता को लेकर तो किसी भी प्रकार का किंतु या परंतु है ही नहीं। आप लिखने-पढ़ने का कुछ काम हिन्दी में में कर रहे हैं तो उस भाषा के साथ पूरी तरह से ईमानदारी बरती जानी चाहिए। दिमाग पर ज्यादा जोर देने के बजाय आप कहीं पर भी कोई शब्द, खासतौर पर अंग्रेजी का शब्द चला देते हैं तो यह चलताऊपन खोखले दिमाग का परिचायक है। आप सोेचिए थोड़ा जोर डालिए, आपकी मेहनत उस कार्य में खूबसूरती ही लाएगी। पोस्टमैन को डाकिया लिख देंगे तो वह गलत नहीं हो जाएगा। इंडिविजुअल को व्यक्तिगत लिख देंगे तो गलत नहीं होगा। क्या हर्ज होगा यदि आप सोशल को सामाजिक, डिस्टेंस को दूरस्थ, कैंपस को परिसर और ग्रीनरी को हरियाली लिख लेंगे तो। हिन्दी भाषा के महत्व को समझिए, इसकी इस खूबसूरती को तो समझिए ही कि जैसा लिखेंगे वैसा ही बोलेंगे। साइकोलोजी जैसे शब्द का आपको भ्रम नहीं होगा, सीन जैसा कोई शब्द भ्रामक नहीं रहेगा।
केवल तिवारी

मिठास और हिन्दी भाषा के विविध प्रयोग

हिन्दी गद्य और पद्य के विकास में खास भूमिका निभaaने वाले कलम के सिपाहियों ने अपनी लेखनी से विविध प्रयोग किए। हिन्दी दिवस के मौके पर उनकी कुछ रचनाओं को अगर याद किया जाए तो उसमें घ्ाुली मिसरी का सहज ही भ्ाान हो जाएगा। इस पर चर्चा करने से पहले मुझे याद आते हैं वे दिन जब स्कूलों में हिन्दी साहित्य के इतिहास के संदभर््ा में अध्यापक याद कराने के लिए रोचक तरीके से चीजों को बताते थे। उदाहरण के लिए आधुनिक हिन्दी साहित्य यानी भ्ाारतेन्दु युग से पूर्व चार महत्वपूर्ण लेखकों के नाम और उनकी रचनाओं को इस तरह से याद कराया जाता था-
दोसा लाई
याद करने का सामान्य तरीका था दक्षिण भ्ाारतीय व्यंजन दोसा (डोसा) लेकर कोई आई। लेकिन असल में यह था दो बार स और ल औ ई। यानी पहले स से तात्पर्य था सदासुख लाल और दूसरे वाले स का मतलब था सदल मिश्र। फिर आते हैं ल और ई। ल से मतलब था लल्लूलाल और ई से तात्पर्य था इंद्गाा अल्ला खां। अब याद करनी थी इनकी रचनाएं। इसके लिए भ्ाी बहुत आसान तरीका निकाला गया। जैसा नाम वैसी रचना यानी सदासुख लाल में सुख द्गाब्द है तो उनकी रचना का नाम था सुख सागर और सदल मिश्र यानी जाति से ब्राह्मण तो संस्कृत का प्रयोग इनकी रचना का नाम भ्ाी क्लिद्गट था यानी नासिकेतोपाख्यान। फिर लल्लूलाल सामान्य नाम और उसी अनुरूप रचना प्रेम सागर। फिर आते हैं इंद्गाा अल्ला खां। इनका जितना बड़ा नाम उतनी ही बड़ी रचना। इनकी रचना का नाम था रानी केतकी की कहानी। यह प्रसंग तो सहज इस रूप में था कि कुछ लोग तमाम तरह के किंतु-परंतु और बहाने लगाते हैं हिन्दी साहित्य के विकास की गाथा समझने या समझाने में।
हम अगर बात करें रहीम और कबीर के जमाने की तो आज द्गाायद ही कोई मौका होगा जब इनकी रचनाओं का जिक्र नहीं होता होगा। कबीर की रचनाओं में जहां कहीं भ्ाी एकरूपता नहीं दिखती वहीं रहीम, मीरा, रसखान और तमाम कवियों की रचनाओं में खास समानता और विद्गोद्गा बोली नजर आती है।
कबीर कहीं पर लिखते हैं-
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
कबीर ही यह भ्ाी लिखते हैं-
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़
उन्हीं कबीर की रचनाओं में अेसे द्गाब्द भ्ाी दिखते हैं-
अंसड़ियां झाईं पड़ियां, पंथ निहारि-निहारि, जीभ्ाणियां छाला पड़ियां राम पुकारि-पुकारि
रहीम की रचनाओं की अगर बात करें तो उनके दोहों और छंदों में एक खास पैगाम होता था। रहीम एक जगह लिखते हैं-
कह रहीम कैसे निभ्ो, बेर-केर को संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग
रहीम जी ही यह संदेद्गा भ्ाी देते हैं-
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय
तोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाय।
मीरा की रचनाओं में अगर नजर दौड़ाएं तो भ्ाक्ति के रस में सराबोर उनके द्गाब्द कहते हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई
रसखान की रचनाओं का रस अलग ही है, वे कहते हैं-
मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन
जो पद्गाु हों तो बसेरो करों, मिली कालिंदी कूल कदंब की डारन।
असल में इन महान विभ्ाूतियों का जिक्र इसलिए कहा जा रहा है कि हिंदी का विकास अपने समय के हिसाब से होता रहा। हर काल में इसे एक नया रस, नया आयाम और नई अनुभ्ाूति मिलती रही।
भ्ाारतेंदु हरिद्गचंद्र के बाद जिसे हम आधुनिक हिंदी साहित्य का काल कहते हैं, में भ्ाी कई प्रयोग हुए। फिर हिंदी में द्गोरन्ओ द्गाायरी का दौर आया। इसमें दुद्गयंत के कई प्रयोग बेहद याद किए जाते हैं-
कौन कहता है आसमान में छेद नहीं होता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
इसी तरह की तमाम रचनाओं, जिनकी द्गाायरी में हिन्दी पुट दिखता है, में द्गाामिल हैं निदा फाजली, बद्गाीर बद्र वगैरह-वगैरह।
निदा फाजली लिखते हैं-
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीद्गाान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
हिन्दी की मिठास की गति में तमाम तरह के प्रयोग होते रहे। आधुनिक हिन्दी में छायावाद, प्रयोगवाद नव प्रयोगवाद, उत्तर आधुनिक काल तमाम चलते रहे। इस नए प्रयोग में एक लेखक की कविता पर गौर करिए-
मां जा रही हो
हां
कब आओगी
द्गााम को
क्या लाओगी
थकान
हिन्दी का यह सतत विकास ही है जब आज तमाम पत्र-पत्रिकाएं उत्तरोत्तर विकास कर रही हैं। चैनलों पर हिन्दी में काम हो रहा है। कॉल सेंटर में हिन्दी के लिए विद्गोद्गा प्रद्गिाक्षण दिया जा रहा है और कई अेसे ज्ञान-विज्ञान के चैनल हैं जिनके हिन्दी कार्यक्रमों को खासी ख्याति मिल रही है। हिन्दी रचनाओं में हर काल में चाहे वह भ्ाक्तिकाल हो, वीरगाथा काल हो या फिर आधुनिक काल अपनी रचनाओं का रचनाकारों ने डंका बजाया है। हिन्दी के इस सतत विकास को एक नमन।

केवल तिवारी
साभaar - इस्पात भाषा भारती

Sunday, June 20, 2010

कहानी बचपन

कहानी बचपन

शेखर वर्मा अपनी वर्तमान स्थिति से इस अर्थ में संतुष्ट है कि नौकरी अच्छी है। एक बच्चा है। बीवी भी घर पर ट्यूशन पढ़ाती है। लेकिन नौकरी की व्यस्तता और शाम बच्चों को न दे पाने की कसक उसके मन में जरूर रहती। मात्र तीसरी में पढ़ने वाला उसका बच्चा रुद्र कई बार सवाल कर बैठता, पापा हमारे साथ घूमने-फिरने के लिए आपके पास कभी वक्त नहीं होता है। इतनी नन्ही सी जान और ऐसे बोल ले रहा है, शेखर को आश्चर्य होता और खुशी भी कि आजकल के हिसाब से लगता है बच्चा ठीक है। तेज है। फर्राटेदार बोलता है। स्कूल से भी कंप्लेन नहीं आती। शेखर अपने बचपन के दिनों को याद करने लगता, जब पापा के सामने ज्यादा बोलने की हिम्मत भी नहीं होती थी। बोलना तो छोड़ो, सामने पड़ने से भी कतराते थे। कुछ कहना होता तो मां को माध्यम बनाया जाता। या फिर छोटी बहन को। खैर अब जमाना बदल रहा है। बाप-बेटों का वैसा रिश्ता नहीं रहा, यह सोचकर शेखर रुद्र की बातों पर हंस देता और आने वाले ऑफ के दिन कहीं ले चलने का वादा करता। घर में वक्त नहीं देने की शिकायत पत्नी रीमा भी करती थीं, कुछ समय पहले तक। लेकिन अब जो भी शिकायत होती वह रुद्र की ही ओर से होती। सीधे भी और अप्रत्यक्ष रूप से भी। जैसे कभी अगर रुद्र ने कुछ नहीं कहा होता तो रीमा बोल देती, रुद्र कह रहा था पापा मॉल कब ले चलेंगे। इस बार हम लोग नाना जी के जाएंगे तो पापा कितने दिन हमारे साथ रहेंगे आदि...आदि। कभी-कभी शेखर को लगता है कि रीमा ही रुद्र से ऐसा कहने के लिए कहती होगी। आखिर तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे के जेहन में इतने सारे सवाल कैसे आ सकते हैं। वह इतनी फरमाइशें कैसे कर सकता है। फिर पापा साथ हैं या नहीं, इससे बच्चे को क्या। उसके लिए हर चीज तो घर पर आ ही जाती है। इन सब बातों को सोचते-सोचते शेखर अपने बचपन की यादों में खो गया। उसे लगा कि अभी ही वह कौन सा बूढ़ा हुआ है। अभी आठ-नौ साल पहले की ही तो बात है वह कैसे बचपना करता था, अपने मित्रों के साथ। आज भी तो वैसा ही है। पिताजी को अगाध स्नेह करता है, लेकिन पता नहीं क्यों सामने जाने से कतराता है। आज रुद्र को उसके पापा कितना प्यार से खिलाते हैं। बल्कि कभी-कबार शेखर अपनी मां से मजाक में सवाल पूछ ही बैठता है, मां देखो पापा रुद्र को कितना प्यार करते हैं। कभी मुझे भी ऐसे लाड़ किया है। मां के ऐसे सवालों के दो ही उत्तर होते। या तो वह हंस देती और बताने लगती कि कितना प्यार करते थे, उससे। बस बिगड़ जाने के डर से जब से स्कूल भेजा, सामने कभी कुछ नहीं कहा। दूसरा उत्तर कभी-कभी मां का यह होता कि नहीं, तुझे कभी प्यार नहीं किया। तू बिना प्यार किए ही इतना बड़ा हो गया है। फिर सब हंस पड़ते। शेखर के साथ कुछ दिक्कतें हैं। जैसे पहली तो यह कि ऑफिस में छुट्टी का बड़ा संकट। बड़ी मिन्न्त के बाद मिलती भी तो एकाध दिन की। ऑफ भी रेगुलर नहीं मिल पाता। जिस दिन मिला तो दोस्त यार घेर लेते। क्या कर रहा है शाम को। घर में आधे घंटे की मोहलत लेकर निकला शेखर कभी चार घंटे में लौटता और कभी देर रात। दोस्त वही होते। जिनके साथ कुछ साल पहले तक उसकी ऐसे ही शाम कटा करती थीं। अब किसी की नौकरी अच्छी लगी हैै। सप्ताह में दो दिन छुट्टी होती है। किसी ने व्यवसाय शुरू कर लिया है। ऐसे दोस्त अक्सर शेखर से पूछते कहां है, एक ही जवाब होता, ऑफिस में। सबको मालूम था कि कभी-कबार शेखर रविवार को घर पर रहता है। उस दिन सब चाहने वाले यार-दोस्त पकड़ ही लेते। रीमा का यही तर्क होता कि सब घरवालों को इतना समय देते हैं। शाम बच्चों के संग रहते हैं। घूमने-फिरने भी जाते हैं। लेकिन धीरे-धीरे रुद्र के होने के बाद उसने शिकायतें करनीं कम कर दीं। बल्कि उसने अब कहना बिल्कुल बंद कर दिया था। बस रुद्र ही यदा-कदा वैसी शिकायतें करता, जैसा कुछ साल पहले रीमा करा करती थीं। इसीलिए शेखर को लगता कि हो न हो अब रीमा रुद्र के जरिये अपनी बात करती है। एक दिन तो हद हो गई। रुद्र ने अपने पड़ोस में रहने वाले रोहित शर्मा के बारे में पूछ लिया। पापा, अन्न्ू के पापा (रोहित शर्मा) क्या नौकरी करते हैं। क्यों बेटा, शेखर ने सवाल पूछा। पापा वो रोज शाम को घर आ जाते हैं। अन्न्ू के साथ घूमने जाते हैं। सनडे को भी घर पर रहते हैं। बेटा वो बैंक में हैं। बैंक की नौकरी दिन की होती है। रुद्र सपाट बोलता, पापा आप भी बैंक में नौकरी कर लो। अब उसे कौन समझाए कि नौकरी अपने मन से नहीं मिलती। वह रुद्र को समझाने की कोशिश करता, बेटा हमारे बीच जितने लोग हैं सब एक जैसी नौकरी नहीं कर सकते। कोई फैक्टरी में काम करता है, कोई बैक में करता है और कोई दूसरी कंपनियों में काम करता है। रुद्र की समझ में कुछ नहीं आए तो बोलता लेकिन पापा आपको हमारे लिए समय निकालना चाहिए। शेखर को लगता कि कम से कम ऑफ के दिन तो अब बच्चों के साथ रहना ही पड़ेगा। वह दोस्तों के साथ पार्टी-शार्टी कभी-कबार देर रात कर लेता। यार राजन आज में 10 बजे छूट जाऊंगा फिर बैठते हैं यार। सनडे को कुछ काम है। एक दिन तो हद हो गई। उसके दोस्त ने फोन किया, कहां है। शेखर ने झूठ बोल दिया कि वह ऑफिस में है। दोस्त को उसकी बात झूठ लगी। उसने ऑफिस में फोन लगा दिया। पता लगा, वह ऑफ पर है। फिर वह शेखर के घर आ धमका। उसे ले गया अपने साथ। क्योंकि दो-तीन दोस्त बैंगलुरू से आए थे। थोड़ी सी लगाने के बाद शेखर ने अपना दुखड़ा सबको सुना दिया। सभी ने कहा, चलो यार अब बैठकी कम किया करेंगे।
एक दिन रविवार को शेखर ने ठान ली कि आज सिर्फ परिवार के बीच रहना है। दिन में बिस्तर पर लेटे-लेटे वह अखबार के पन्न्े पलट रहा था। रुद्र वहीं पर अपने पड़ोस के एक दोस्त तिजिल के साथ खेल रहा था। शेखर अपने बचपन के दिनों की याद करने लगा। पापा शाम को ऑफिस से आ जाते थे। कुछ न कुछ खाने के लिए लाते लेकिन कभी अपने हाथ से कुछ नहीं देते थे। मां ही सबको साथ बिठाकर देती। पापा के पास फटकनेभर से उसे डर लगता था। कभी चले भी गए तो सीधे पढ़ाई की बात होती। जिस दिन पापा की छुट्टी होती, घर में स्पेशल खाना बनता इस बात की खुशी होती थी, लेकिन वह दिन जाता बहुत सूना-सूना। हां गर्मियों की छुट्टियों में जब गांव जाते तो आजादी ज्यादा मिल जाती। वहां कभी दुकानदार का खेल खेलते। गत्ते से तराजू बनाते। कच्चे आम को बेचने का खेल खेलते। कागज के टुकड़ों को रुपए बनाते। कभी-कभी पापा बनकर ऑफिस जाने का भी खेल खेलते और कभी स्कूल-स्कूल का। ऐसा ही मौका तब भी मिलता जब किसी रिश्तेदारी में शादी व्याह में जाते। उस दौरान भी अपेक्षाकृत आजादी ज्यादा मिल जाती। पापा का रुख अन्य दिनों के मुकाबले बदला-बदला होता। थोड़ा बड़े हुए तो पापा जेब खर्च के लिए कुछ पैसे दे देते, लेकिन सीधे नहीं मां की मार्फत।। दोस्त-यार घर पर आते तो पापा उनसे हंसकर अच्छे से बोलते। ऐसा ही माहौल हमें अपने दोस्तों के घर पर भी मिलता। बल्कि एक-दो दोस्त तो ऐसे भी थे, जिनके पापा खूब मजाकिया थे। इधर शेखर अपने बचपन के दिनों में खोया था और उधर रुद्र अपने दोस्त तिजिल के साथ खेल रहा था। शेखर ने देखा रुद्र अपने दोस्त से कह रहा है चलो वायरलेस टू पर तुरंत मैसेज करो। दोस्त ने प्लास्टिक का एक खिलौना उठाया और बोला, हेलो...कहां हो ओवर। शेखर हैरत से उन दोनों को देख रहा था। फिर रुद्र बोला, तिजिल तुमने उस रोबोट पर खास चिप लगाई थी कि नहीं। तिजिल बोला, जी चिप तो मैंने लगाई थी, वह इस कैमरे में भी दिख रही है। फिर अचानक रुद्र बोला कि तुमसे कहा था कि इनविजिबल चिप लगाना। आइंदा ध्यान रखना। चलो अपनी स्पेशल बाइक को तैयार करो, हमें जाना होगा। उनकी बातें चल ही रहीं थीं कि किचन से रीमा की आवाज आई, रुद्र पापा के लिए चाय ले जाओ। रुद्र का ध्यान टूटा। शेखर बोला, तुम लोग खेलो मैं ही ले आता हूं। किचन में जाकर शेखर रुद्र के खेल के बारे में रीमा को बताने लगा। रीमा बोलीं, इन लोगों का दिनभर ऐसा ही रहता है। सब कार्टून का असर है। शेखर बोला रीमा मैं समझता था कि मेरी छुट्टी को लेकर तुम इसे भरती हो, लेकिन आज देखकर लगता है मैं गलत हूं। रीमा हंस दी, बोली ये आजकल के बच्चे हैं, इनके बचपन में कुछ और भरा ही नहीं जा सकता है ये पहले से भरे हैं। शेखर अपने और अपने बेटे के बचपन के बीच तुलना करने में मगन हो गया। रुद्र की तकनीकी भाषा में खेल-खेल जारी था।

केवल तिवारी

Sunday, June 6, 2010

कहानी : नई सुबह लेकर आई वह शाम

निशा के पैर तो जैसे जमीं पर पड़ ही नहीं रहे थे। आखिर पड़ते भी तो कैसे! उसके घर में नन्हा मेहमान जो आया था। शादी को पांच साल होने को आए थे। वह मां बनने को तरस गई थी। मंदिर-मजार कहां मत्था नहीं टेका उसने। उसीने क्यों, उसकी मां ने भी कितनी मन्न्तें मांगीं। आखिर बात क्या है! शुरू-शुरू में सबने यही समझा कि अभी नई शादी है। आजकल के बच्चे हैं। एकाध साल में बच्चा हो जाएगा। पर बात यह नहीं थी। वे लोग बच्चा चाह रहे थे, लेकिन हो नहीं रहा था। एक ओर पति की व्यस्तता। महीने में 15 दिन बाहर। दूसरे, शहरों का एकाकी जीवन। निशा को हमेशा बोरियत होती रहती। बच्चे की कामना तो उसे और उसके पति निखिल को शादी के ही साल से हो गई थी। इसलिए उन्होंने कोई प्रीकॉशन भी नहीं लिया था। लेकिन उन लोगों की मुराद तब पूरी नहीं हुई, उलटे निशा को महिला संबंधी कुछ परेशानियां होने लगीं। निखिल इलाज के नाम पर उससे यह कह देता कि तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो। इतना दौड़भाग तो खुद ही कर सकती हो। उसने दो चार अस्पताल गिना दिए। कभी फुर्सत मिली तो साथ चला गया, नहीं तो निशा खुद ही डॉक्टर के पास जाती। कुछ दिनों के लिए उसने अपनी मां को बुला लिया। लेकिन मां भी कब तक रहती। मां के घर का भी तो अजब हाल था। दोनों बेटियों निशा और शालिनी की शादी हो गई थी। एक बेटा नौकरी के चक्कर में बैंगलोर जा बसा था। अब निशा के पापा की देखभाल कौन करे। उसने मां से कहा कि वह पापा को लेकर आ जाए और दोनों साथ यहीं रहें, लेकिन मां को यह गवारा नहीं था कि दोनों पति-पत्नी आकर बेटी के घर में जम जाएं। निशा के सास-ससुर अपने दूसरे बेटे के साथ कोलकाता जा बसे थे। निखिल के कहने पर एकाध बार आए भी पर पता नहीं क्यों उन लोगों को यहां अच्छा ही नहीं लगता था।
खैर होते-करते निशा और निखिल की शादी को पांच साल बीत गए। परिवार में कड़ुवाहट बढ़ती, निशा का एकाकीपन बढ़ता, निशा चिड़चिड़ी हो जाती इससे पहले निशा को सारे जहां की खुशियां मिल गईं। उसका बेटा यश जिसे वह प्यार से यश्शु कहती, उसके लिए तमाम खुशियां बटोर कर ले आया। उसके रोने में, उसकी नटखट हरकतों में, उसके मुस्कुराने में और उसकी हर गतिविधि निशा के रोम-रोम पुलकित कर देती। पर परेशानियां कब पीछा छोड़ती हैं। निशा को यश्शु के रूप में तमाम खुशियां तो मिल गईं, निखिल की नौकरी भी अब उतनी टफ नहीं थी, लेकिन पता नहीं क्यों दोनों बीमार से रहने लगे। कभी जुकाम लगा तो हफ्तों ठीक नहीं होता। थकान लगती तो घर े कामों में मन नहीं लगता। निखिल तो आफिस पहुंचकर दिनभर वहां दोस्तों में व्यस्त रहता और अपनी बीमारी को जैसे भूलने का यत्न करता रहता, लेकिन निशा को दिक्कत बढ़ने लगी। इसी के चलते वह कई बार यश्शु की वैसी देखभाल नहीं कर पाती, जैसा वह चाहती। कभी-कभी तो उसके साथ अजीब वाकया होता, वह चिड़चिड़ेपन के कारण यश्शु को चपत भी लगा देती। बाद में खुद को ही कोसती कि मैंने कैसे नन्ही सी जान को थ्ाप्पड़ मार दिया। आखिर उस बच्चे का क्या दोष है! वह शरारत नहीं करेगा, उलटेगा-पलटेगा नहीं। एक बार निशा को बुखार आया तो वह महीनेभर तक खिंच गया। ब्लड टेस्ट, यूरिन टेस्ट, शुगर टेस्ट न जाने क्या-क्या टेस्ट करा डाले, पर कहीं कुछ नहीं निकला। वह पेरशान रहने लगी कि आखिर ऐसा क्या हो गया। वह बुखार से पीड़ित तो थी ही कि यश्शु की एक हरकत ने उसमें जान डाल दी। हुआ यूं कि वह दोपहर में किचन में जूठे बर्तनों को साफकर यश्शु के देखने कमरे में आई तो देखा कि यश्शु लड़खड़ाते हुए चल रहा है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह सारा काम छोड़कर और अपनी बीमारी भूलकर यश्शु को बार-बार अपनी तरफ बुलाती, यश्शु गिरता-पड़ता आता और जैसे ही लड़खड़ाकर गिरने को होता, निशा उसे संभाल लेती। शाम को जैसे ही निखिल घर आया, निशा चहकते हुए बोली-पता है, यश्शु चलने लगा है। निखिल की प्रतिक्रिया जाने बगैर यश्शु को पलंग से उठाकर नीचे खड़ा कर दिया और पुचकारने लगी आ..जा....आ...आ बेटा। लेकिन यश्शु चलने के बजाय नीचे बैठ गया और जोर-जोर से रोने लगा। निखिल थोड़ा डांटने के अंदाज में बोल उठा, मैं देख लूंगा उसे चलते हुए। मुझे सांस तो लेने दो। फिर देखा मेरी किस्मत ही खराब है, वह भी अभी चलने से इनकार कर रहा है। निखिल ने बात तो कोई बड़ी नहीं कही थी, लेकिन उसकी टोन से निशा को बुरा लग गया। वह कुछ बोली नहीं। किचन से एक गिलास पानी लाकर टेबल पर रख गई। थोड़ी देर में एक कप चाय बनाकर टेबल पर रख गई और दूसरे कमरे में चली गई। यश्शु तो बच्चा था और बच्चे का क्या! वह तो अबोध है। अपनी मर्जी का मालिक। वह अपने खेलने में मशगूल हो गया। कभी ताली बजाना, कभी पापा के कपड़े खींचना वगैरा-वगैरा...। निखिल ने कपड़े बदले और हाथ-मुंह धोकर चाय पीने लगा और टीवी खोल लिया। टीवी खुलते ही यश्शु का ध्यान उधर ही चला गया। अचानक यश्शु उठा और टीवी की तरफ लड़खड़ाते हुए चलने लगा। निखिल चिल्लाया, निशा देखो यश्शु चल रहा है। निशा पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह अंदर ही रही। अचानक यश्शु मुंह के बल गिर पड़ा और उसकी नाक से खून आने लगा। यश्शु के रोते ही निशा भागकर आई। उसको चोट लगी और निशा व निखिल के बीच कलह शुरू हो गई। खैर दोनों पढ़े-लिखे थे और समझदार भी। निखिल ने शुरुआत की बात को सुलझाने की। बोला-निशा आज दिनभर ऑफिस में परेशान रहा अपनी तबीयत को लेकर। मन कर रहा है बस सोया रहूं। निशा से भी रहा नहीं गया वह सुबकने लगी। वह भी बोली, हालत मेरी भी ऐसी ही है, लेकिन यश्शु की हरकतों से मन लगा रहता है। आखिर हम दोनों को क्या हो गया है। हमें किसकी नजर लग गई है, निखिल लगभग भर्राते हुए स्वर में बोला। निशा बोली, मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर हुआ क्या है। निखिल बोला कल में छुट्टी लेता हूं और डॉक्टर मितेश दयाल के पास चलते हैं, वे अच्छे जानकार हैं। दोनों अगली सुबह डॉ. दयाल के पास पहुंच गए। डॉक्टर साहब को उन दोनों ने बताया कि वे लोग अक्सर कोई न कोई बीमारी से रोगग्रस्त हो जाते हैं। रोग है कि ठीक होने का नाम ही नहीं लेता है। उन्होंने अपनी जांच रिपोर्ट भी दिखाई। डॉक्टर दयाल रिपोर्ट देखने के बाद कुछ देर चुप रहे, फिर निखिल की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, निखिल एक जांच के लिए मैं कहूंगा, लेकिन परेशान नहीं होना। निखिल ने लगभग कुछ न समझने के अंदाज में डॉक्टर साहब के चेहरे को देखा। फिर डॉक्टर साहब निशा की तरफ देखते हुए बोले, टेस्ट दोनों को कराना होगा। अब निखिल बोल ही पड़ा, डॉक्टर साहब कौन सा टेस्ट है। डॉ. दयाल सपाट बोल पड़े, एचआईवी का। एचआईवी का नाम सुनते ही दोनों पति-पत्नी सन्न् रह गए। उनकी चुप्पी की परवाह किए बगैर डॉक्टर दयाल ने एक सवाल दागा-आप लोगों ने बच्चे के होने से पहले यह टेस्ट नहीं कराया था। निखिल याद करने की मुद्रा में बैठ गया। निशा बोली-नहीं डॉक्टर साहब बच्चे के होने से करीब पांच माह पूर्व मैं मां के पास चली गई थी। वहीं हमारा यश्शु हुआ। अब निखिल भी बोल उठा, डॉक्टर साहब कुछ टेस्ट तो हुए थे, लेकिन शायद यह टेस्ट नहीं हुआ था। फिर कांपती आवाज में बोला, डॉक्टर साहब लेकिन आप यह आशंका क्यों जता रहे हैं। डॉक्टर साहब स्थिति को स्पष्ट करते हुए बोले, मैं आशंका नहीं जता रहा हूं, लेकिन टेस्ट कराने में हर्ज कैसा। उस दिन वे दोनों एचआईवी टेस्ट के लिए ब्लड सेंपल देकर घर आ गए। अभी उनकी ब्लड रिपोर्ट नहीं आई थी, लेकिन दोनों इस पर बहस करने लगे कि आखिर यह बीमारी आ कैसे गई। दोनों लगभग झगड़ने के अंदाज में थे। निखिल का कहना था कि यश्शु के होने से पहले तुम मां के पास चली गई थीं, पता नहीं वहां कैसे इंजेक्शन लगे। उधर, पता नहीं क्यों निशा को अपने पति के चरित्र पर शक होने लगा था। हालांकि इस शक की सुई उठने के बाद वह खुद को मन ही मन कोसती भी कि नहीं कुछ भी हो निखिल ऐसा नहीं हो सकता। तीन दिन बाद निखिल हिम्मत जुटाकर रिपोर्ट लेने गया। डॉक्टर दयाल ने क्लीनिक में थे नहीं। उन्होंने मैसेज छोड़ रखा था कि वह रिपोर्ट खुद देंगे। और दोनों को शाम को बुलवा लिया। शाम को जब निशा और निखिल वहां पहुंचे तो डॉक्टर दयाल ने कहना शुरू किया, देखो निखिल अब एक टेस्ट बच्चे का भी कराना होगा। भगवान न करे कि इसमें भी यह लक्षण दिखें। इतना सुनते ही निखिल कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। डॉक्टर साहब क्या बात करते हैं! फिर वह निशा की ओर देखने लगा। निशा फफक कर रोने लगी। डॉक्टर साहब कुर्सी से उठे और निखिल को बिठाते हुए बोले, देखिए अभी इनीशियल स्टेज में यह बीमारी आप लोगों में है। एक टेस्ट और होगा, लेकिन उससे पहले बच्चे का ब्लड सैंपल हमें लेना होगा। दोनों पति-पत्नी बच्चे का ब्लड सैंपल देकर घर आ गए। उस दिन तो दोनों कुछ भी नहीं बोल रहे थे, लेकिन लग रहा था जैसे घर में कोहराम मचा हुआ है। घर में सन्न्ाटा था, मरघट जैसी खामोशी थी। यश्शु कभी खेलता, कभी रोने लगता। लेकिन उसकी ओर किसी का कोई ध्यान नहीं था। निखिल उसके लिए दूध बनाकर लाया। दोनों ने उस रात कुछ खाया नहीं। सुबह निखिल ऑफिस भी नहीं गया। आस-पड़ोस के लोगों ने उनके चेहरे देख कुछ पूछा भी तो उन्होंने तबीयत ठीक नहीं होने की बात कहकर उन्हें टरकाया। पड़ोस की सीमा भाभी उनके घर आई। घर में सन्न्ाटा देख उन्होंने अंदाजा लगाया कि पति-पत्नी में कोई झगड़ा हुआ होगा। वह दोनों के लिए चाय-नाश्ता बनाकर ले आई और यश्शु को अपने घर लेकर चली गईं। करीब 11 बजे डॉक्टर दयाल खुद उनके घर आए। इस वक्त डॉक्टर दयाल निशा और निखिल को किसी खतरनाक सूचना देने वाले व्यक्ति केक रूप में दिख रहे थे। लेकिन इस बार सूचना अच्छी थी और वह यह कि यश्शु की ब्लड रिपोर्ट में ऐसा कोई सिमटम नहीं था। डॉक्टर साहब ने यह बात दोनों को बताई और यह भी स्पष्ट किया कि इसका मतलब एचआईवी उन दोनों को यश्शु के होने के बाद हुआ है। अब निशा का शक निखिल के प्रति गहराने लगा। निखिल ने उसे लाख समझाने की कोशिश की, लेकिन वह बस रोती रही। अंतत: निखिल ने एक बार 15 दिन तक घर न आने का राज बताया। उसने डॉक्टर उयाल से कहा, डाक्टर साहब मैं एक बार दो निद के लिए टूर पर गया था। लेकिन आया 17 दिन बाद। निशा रोज फोन करती, मैं कहता थोड़ा काम फंसा है, बस आने वाला हूं। निखिल जैसे-जैसे यह बात कह रहा था, वैसे-वैसे निशा के मन में किसी भयानक खबर को सुनने का अंदेशा पलता जा रहा था। निशा को लगा कि अब निखिल कहेगा कि वह किसी के साथ हम बिस्तर हो रहा था। उसकी कोई पे्रमिका है। वह आज भी वहीं रहती है। निखिल अक्सर वहां जाता है....। लेकिन बात ऐसी कुछ भी नहीं थी। निखिल अपनी बात पूरी करने से पहलू सूटकेस से कुछ कागजात निकाल लाया। डॉक्टर साहब की ओर कागजात बढ़ाते हुए उसने कहा, डॉक्टर साहब मैं हैदराबाद में भयानक रूप से बीमार पड़ गया था। निशा प्रेगनेंट थी, मैं इसे परेशान नहीं करना चाहता था। होते-करते मुझे करीब 14 दिन अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। मुझे आशंका है कि यह बीमारी मुझे वहीं से लगी और निशा को मुझसे। निशा अपनी बीमारी से जितनी परेशान थी, इस वक्त निखिल की बातें सुनकर उसे उससे अधिक सुकून मिल रहा था। डॉक्टर दयाल ने दोनों को अपने सामने बिठाया और कहा कि परेशान मत होओ, आगे का प्लान करो। बच्चे की देखभाल का इंतजाम करो। मैं आप लोगों को कुछ दवा दे रहा हूं, नियमित लेते रहें। परेशानी और रोना-धोना मामले को और गंभीर बनाएगा। इतना कहते ही डॉक्टर साहब जाने को हुए तो निशा ने उन्हें रोक लिया और बोली डॉक्टर साहब मैं चाय बनाती हूं, आप नाश्ता हमारे साथ करेंगे। डॉक्टर दयाल आग्रह मानकर वहीं धमक गए। सबसे पहले निशा पड़ोस से यश्शु को ले आई। फिर उसने चाय-पराठे बनाए। शाम को निखिल और यश्शु संग निशा पार्क में गई। वहां बहुत देर तक उन लोगों ने यश्शु को खिलाया और तय किया कि अब वे दूसरा बच्चा नहीं करेंगे। यश्शु की परवरिश पर खास ध्यान देंगे। दवा नियमित लेने और नियमति जांच का वादा एक दूसरे से करने के बाद दोनों ने नारियल पानी पीया और घर का रुख किया। पार्क में बिताई वह शाम उन लोगों के लिए नई सुबह जैसी थी।
केवल तिवारी

Wednesday, June 2, 2010

गौरैया का पंख

story कहानी (sparrow)
गर्मियां शुरू होने पर दो बातें हमेशा कुछ परेशान सा करती हैं। मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी और बच्चे को। एक समस्या को पत्नी अपने हिसाब से कम ज्यादा मान बैठती है, दूसरी शाश्वत समस्या है। इन समस्याओं में एक तो कूलर अपने मन से शुरू न कर पाने का दंश और दूसरा बच्चे के स्कूल से मिला भारी-भरकम होमवर्क। कूलर हम कई बार इसलिए अपने मन से नहीं खोल पाते क्योंकि अक्सर हमारा कूलर कबूतरों के लिए 'मैटरनिटी सेंटर" बन जाता है। कूलर खोलते ही कभी वहां कबूतरनी अंडों को सेती हुई दिखती है और कभी छोटे-छोटे बच्चों के मुंह में खाने का कुछ सामान ठूंसती हुई सी। कबूतरों का मेरे कूलर के प्रति प्रेम कई वर्षों से है। जब मेरी मां जीवित थी, कहा करती थी घर में चिड़ियों का घौंसला बनाना बहुत शुभ होता है। किराए के एक मकान में एक बार कबूतर ने हमारे घर में घौसला बनाया, अंडे दिए और उसके बच्चे हमारे सामने उड़े। उसके कुछ माह बाद मेरे घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। घौंसला बनाना और उसमें बच्चे होना शुभ होता है, यह बात मेरी पत्नी के दिमाग में घर कर गई है। लेकिन कबूतरों के प्रति मेरे मन में स्नेह कभी नहीं पनप पाया। उल्टे एक बार चोरी-छिपे मैंने उसके घौंसेले को तोड़ दिया था। असल में उसका घौंसला अभी बन ही रहा था कि गर्मियों ने ऐसा तेवर दिखाना शुरू कर दिया कि कूलर की जरूरत महसूस होने लगी। मेरी पत्नी ने ताकीद की कि कूलर की सफाई करने में मेरी मदद करो। मैंने तुरंत हां कर दी और काम की शुरुआत पहले मैं ही करने को इसलिए राजी हो गया क्योंकि मुझे पूरी आशंका थी कि घौंसला देखते ही वह कूलर वाली खिड़की के किवाड़ बंद कर देगी। और न जाने दिन ये किवाड़ बंद कर देंगे। हो सकता पूरी गर्मी भर। इस आशंका को भांपते हुए मैंने पत्नी को चाय बनाने भेजा और कूलर वाली खिड़की खोलने लगा, देखा कबूतरों का एक जोड़ा अपना घर बनाने में मशगूल है। खिड़की खोलते ही जोड़ा तो उड़ गया, लेकिन आशियाना लगभग तैयार था। मैंने सबसे पहले उसे उठाकर नीचे फेंक दिया। असल में हमारे पूरे मोहल्ले में इतने अधिक कबूतर हैं कि हर समय वही चारों तरफ दिखते हैं। जहां बैठे तुरंत गंदगी कर देते हैं। बालकनी को दिनभर साफ करते रहो। कपड़े तार में डाले नहीं कि तुरंत गंदा कर दिया। आलम तो यह था कि इधर कूलर अंदर खिसकाने की आवाज सुनते ही पत्नी आई और बोली कोई घौंसला तो नहीं बनाया है न कबूतरों ने। मैंने कहा नहीं। उसने अच्छा इतनी जोर से कहा, जैसे आश्चर्य और खुशी दोनों बातें उसमें मिली हुईं थी। खैर वह गर्मी हमारी ठीक कटी। कूलर चलने के बाद जब तक वह रोज खुलता, बंद होता कोई पक्षी वहां अपना आशियाना बसाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उन्होंने आसपास अपना ठौर ढूंढ़ लिया। वह वर्ष बच्चे के स्कूल का पहला साल था, इसलिए होमवर्क भी बहुत नहीं मिला था और वह गर्मी हमारे लिए बहुत अच्छी बीती।
इस साल भी गर्मी भयानक पड़ी और गर्मी शुरू होने से पहले से ही कबूतरों का खौफ मेरे मन में था। माताजी वाले कमरे का कूलर हमने अंदर ही निकाल रखा था। क्योंकि मां अब इस दुनिया में रही नहीं, वह कमरा अमूमन खाली भी रहता है। कभी कोई मेहमान आ गया तो ठीक। या फिर टीवी देखना हो या खाना खाना हो तो हम उस कमरे का इस्तेमाल करते हैं। उस कमरे के कूलर को पहले से इसलिए अंदर निकालकर रख दिया गया कि कहीं दूसरे कूलर के पास अंडे-बच्चे हो गए तो इस कूलर का इस्तेमाल किया जा सकेगा। दूसरे कमरे के कूलर के आसपास भी मैं कबूतरों को फटकने नहीं दे रहा था। होते-करते कबूतर मुक्त कूलर की खिड़की हमें मिल गई, लेकिन उनका अड्डा बालकनी और अन्य स्थानों पर होने लगा। उनकी संख्या लगातार इस कदर बढ़ रही थी कभी-कबार पत्नी भी झल्ला जाती। खासतौर पर तब जब उसे धुले कपड़े दोबारा धोने पड़ते। इस गर्मी में कूलर तो गर्मी शुरू होते ही चल निकला, लेकिन बच्चे को होमवर्क अच्छा-खासा मिल गया। खैर यह होम वर्क तो मिलना ही था, इसलिए यह मान लिया गया कि कोई बात नहीं, किसी तरह से कराएंगे। बच्चा अपनी मां के साथ लखनऊ एक विवाह समारोह में चला गया और योजना बनी कि कुछ दिन वहां मेरे बड़े भाई के घर रहा जाए। बच्चा अपने ताऊ और ताई के साथ रहना और मौज-मस्ती करना बहुत पसंद करता है। इधर छोटे से बच्चे को भी अपने होमवर्क की बहुत चिंता थी। मैंने भरोसा दिलाया कि कुछ काम लखनऊ में पूरा हो जाएगा। मेरी दीदी का छोटा बेटा कुछ करा देगा और कूुछ काम मैं पूरा करा दूंगा। उसको मिले तमाम कामों में एक यह भी शामिल था, जिसमें पांच प्रकार की चिड़ियों के पंखों को एकत्र करना था। मैंने इस काम को पूरा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर में अकेला था। एक दिन सुबह देर से उठा, बालकनी का दरवाजा खुला तो देखा वहां गौरैया इधर-उधर घूम रही है। कबूतरों से नफरत करने वाला मैं गौरैया को देखते ही बहुत खुश हो गया। मुझे इस बात का दुख हुआ कि मेरे पास कैमरा नहीं है। एक पुराना कैमरा है भी तो रील वाला, उसमें रील नहीं है। मेरे बालकनी में जाने से वह भाग नहीं जाए, इस आशंका से मैं अंदर आ गया। जिज्ञासावश थोड़ी देर बाद मैं फिर बालकनी मैं गया। मैंने चारों तरफ देखा मुझे गौरैया नहीं दिखी। मुझे तमाम उन खबरों की जानकारी थी, जिसमें कहा जा रहा था कि गौरैया अब कहीं नहीं दिखती। उनकी प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। मुझेे लगा हो न हो मेरा भ्रम रहा होगा। वह पंछी गौरैया तो नहीं रही होगी। तभी मैंने देखा फुर्र से उड़ती हुई बालकनी की छत से गौरैया सामने की छत की तरफ उड़ गई। मैंने जिज्ञासावश बालकनी की छत की ओर देखा। वहां पंखा लगाने के लिए बने बिजली के बड़े छेदनुमा गोले में कुछ घासफूस लटकती दिखाई दी। गौरैया मेरे घर में घौंसला बना रही है। मैं इतना खुश हो गया मानो मुझे कोई खजाना मिल गया हो। मैंने बालकनी में कुछ चावल के दाने बिखेर दिए और बालकनी बंद कर कमरे में आ गया। अब मैं दरवाजे के छेद से देख रहा था, गौरैया बार-बार उन दानों को उठाती। फिर कहीं से तिनका लाती और बालकनी की छत में अपने आशियाना बनाने में मशगूल हो जाती। मैं मन ही मन बहुत खुश हुआ कि चलो शायद गौरैया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि विलुप्त होने वाली है अब कुछ बच्चों को यहां जनेगी। अब मेरी जिज्ञासा रोज बढ़ती। सुबह उठकर मेरा पहला काम उस घौंसले की तरफ देखना होता था। नीचे रखे गमले में मैं कुछ पानी भर देता। शायद इसमें से वह पानी पी लेगी। एक दिन तो मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी। मैंने देखा गौरैया का छोटा सा बच्चा मुंह खोलकर चूं-चूं कर रहा है और उसकी मां इधर-उधर से कुछ लाकर उसके मुंह में डाल रही है। कई बार टुकड़ा बड़ा होता तो नीचे गिर जाता। गौरैया फट से नीचे आती उस गिरे टुकड़े को उठाकर ले जाती और अपने बच्चे के मुंह में डाल देती। इस बार आश्चर्यजनक यह था कि मेरे वहां खड़े होने पर भी गौरैया डर के मारे भाग नहीं रही थी। मैं यह देखकर कुछ चावल के दाने और ले आया। मेरे सामने ही गौरैया उन दानों पर टूट पड़ी। मैंने फिर बालकनी का दरवाजा बंद किया और अपने काम में मगन हो गया। मन किया कि लखनऊ फोन करके बताऊं कि गौरैया ने एक घौंसला बनाया है। बालकनी की छत पर। उसका बच्चा भी हो गया है। शायद मेरी पत्नी बहुत प्रसन्न् हो। इसलिए कि अक्सर कबूतरों को भगाने और उन्हें घौसला नहीं बनाने देने को आतुर एक चिड़िया का घौंसला देखकर कितना खुश हो रहा है। लेकिन एक हफ्ते बाद वे लोग आ ही जाएंगे, फिर उन्हें सारा नजारा दिखाऊंगा, यह सोचकर मैंने फोन नहीं किया। लेकिन कैमरा नहीं होने का दुख मुझे सालता रहा। मैं बालकनी बंद कर घर में आ गया और नहाने के बाद ऑफिस के निकल गया। ऑफिस के रास्ते में अनेक मित्र मिले, मैंने सबसे गौरैया के घौंसले की बात बताई। किसी ने कहा, वाह कितनी अच्छी बात है। ज्यादातर ने यह कहा कि गौरैया का घौंसला बनाना तो बहुत शुभ होता है। इधर बच्चे के होमवर्क के लिए चिड़ियों के पंख एकत्र करने की बात मुझे याद आई। कबूतरों के तो अनगिनत पंख मेरे इर्द-गिर्द रहते हैं, कभी-कबार देसी मैना भी दिख जाती है। मैंने कहा, पंख एकत्र हो ही जाएंगे। मेरे मन में इन दिनों रोज-रोज बढ़ते गौरैया के बच्चे को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी। मैं कल्पना करता काश! यहीं गौरैया अपना स्थायी निवास बना ले। यह बच्चा हो, इसके बच्चे हों। कभी दूसरी गौरैया आए। इस तरह के तमाम खयाल मेरे मन में आते। गौरैया परिवार की चर्चा भी अक्सर अपने मित्रों से करता। खैर एक दिन गौरैया के बच्चे को अपनी मां के मुंह से रोटी का छोटा सा टुकड़ा खाता देख मैं ऑफिस चला गया। अगले दिन मैं किसी मित्र के यहां रात में रुक गया। उसकी अगली दोपहर घर पहुंचा तो सबसे पहले बालकनी में पहुंचा। बालकनी में बच्चा जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था उल्टा लटका हुआ था। वह अक्सर तब भी ऐसे ही लटकता दिखता था जब उसकी मां उसे खाना खिलाती थी। मैं दो-चार मिनट तक उसे लगातार देखता रहा। मेरा दिल धक कर रहा था। उसमें कोई हरकत नहीं दिख रही थी। उसकी मां भी कहीं नहीं दिखरही थी। एक दिन पहले वहां डाले चावल के दानों में से कुछ किनारे पर पड़े हुए थे। मैं कुछ समझ नहीं पाया। मैंने कुर्सी लगाकर जोरदार तरीके से ताली बजाई। लेकिन बच्चे में कोई हरकत नहीं हुई। वह बस उसी अंदाज में उल्टा लटका हुआ था। मैंने गौर से देखा कि बच्चा मर चुका था। उसकी मां गायब थी। मैं अंदर आकर धम से बैठ गया। मन बहुत खिन्न् हो गया। कभी इधर जाता, कभी इधर। पानी पीने को भी मेरा मन नहीं हुआ। फिर बालकनी में गया, मरे हुए बच्चे का एक पंख नीचे गिर गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस पंख को अपने बच्चे के होमवर्क के लिए सहेज कर रख लूं या उड़ जाने दूं।

केवल तिवारी