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Sunday, June 20, 2010

कहानी बचपन

कहानी बचपन

शेखर वर्मा अपनी वर्तमान स्थिति से इस अर्थ में संतुष्ट है कि नौकरी अच्छी है। एक बच्चा है। बीवी भी घर पर ट्यूशन पढ़ाती है। लेकिन नौकरी की व्यस्तता और शाम बच्चों को न दे पाने की कसक उसके मन में जरूर रहती। मात्र तीसरी में पढ़ने वाला उसका बच्चा रुद्र कई बार सवाल कर बैठता, पापा हमारे साथ घूमने-फिरने के लिए आपके पास कभी वक्त नहीं होता है। इतनी नन्ही सी जान और ऐसे बोल ले रहा है, शेखर को आश्चर्य होता और खुशी भी कि आजकल के हिसाब से लगता है बच्चा ठीक है। तेज है। फर्राटेदार बोलता है। स्कूल से भी कंप्लेन नहीं आती। शेखर अपने बचपन के दिनों को याद करने लगता, जब पापा के सामने ज्यादा बोलने की हिम्मत भी नहीं होती थी। बोलना तो छोड़ो, सामने पड़ने से भी कतराते थे। कुछ कहना होता तो मां को माध्यम बनाया जाता। या फिर छोटी बहन को। खैर अब जमाना बदल रहा है। बाप-बेटों का वैसा रिश्ता नहीं रहा, यह सोचकर शेखर रुद्र की बातों पर हंस देता और आने वाले ऑफ के दिन कहीं ले चलने का वादा करता। घर में वक्त नहीं देने की शिकायत पत्नी रीमा भी करती थीं, कुछ समय पहले तक। लेकिन अब जो भी शिकायत होती वह रुद्र की ही ओर से होती। सीधे भी और अप्रत्यक्ष रूप से भी। जैसे कभी अगर रुद्र ने कुछ नहीं कहा होता तो रीमा बोल देती, रुद्र कह रहा था पापा मॉल कब ले चलेंगे। इस बार हम लोग नाना जी के जाएंगे तो पापा कितने दिन हमारे साथ रहेंगे आदि...आदि। कभी-कभी शेखर को लगता है कि रीमा ही रुद्र से ऐसा कहने के लिए कहती होगी। आखिर तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे के जेहन में इतने सारे सवाल कैसे आ सकते हैं। वह इतनी फरमाइशें कैसे कर सकता है। फिर पापा साथ हैं या नहीं, इससे बच्चे को क्या। उसके लिए हर चीज तो घर पर आ ही जाती है। इन सब बातों को सोचते-सोचते शेखर अपने बचपन की यादों में खो गया। उसे लगा कि अभी ही वह कौन सा बूढ़ा हुआ है। अभी आठ-नौ साल पहले की ही तो बात है वह कैसे बचपना करता था, अपने मित्रों के साथ। आज भी तो वैसा ही है। पिताजी को अगाध स्नेह करता है, लेकिन पता नहीं क्यों सामने जाने से कतराता है। आज रुद्र को उसके पापा कितना प्यार से खिलाते हैं। बल्कि कभी-कबार शेखर अपनी मां से मजाक में सवाल पूछ ही बैठता है, मां देखो पापा रुद्र को कितना प्यार करते हैं। कभी मुझे भी ऐसे लाड़ किया है। मां के ऐसे सवालों के दो ही उत्तर होते। या तो वह हंस देती और बताने लगती कि कितना प्यार करते थे, उससे। बस बिगड़ जाने के डर से जब से स्कूल भेजा, सामने कभी कुछ नहीं कहा। दूसरा उत्तर कभी-कभी मां का यह होता कि नहीं, तुझे कभी प्यार नहीं किया। तू बिना प्यार किए ही इतना बड़ा हो गया है। फिर सब हंस पड़ते। शेखर के साथ कुछ दिक्कतें हैं। जैसे पहली तो यह कि ऑफिस में छुट्टी का बड़ा संकट। बड़ी मिन्न्त के बाद मिलती भी तो एकाध दिन की। ऑफ भी रेगुलर नहीं मिल पाता। जिस दिन मिला तो दोस्त यार घेर लेते। क्या कर रहा है शाम को। घर में आधे घंटे की मोहलत लेकर निकला शेखर कभी चार घंटे में लौटता और कभी देर रात। दोस्त वही होते। जिनके साथ कुछ साल पहले तक उसकी ऐसे ही शाम कटा करती थीं। अब किसी की नौकरी अच्छी लगी हैै। सप्ताह में दो दिन छुट्टी होती है। किसी ने व्यवसाय शुरू कर लिया है। ऐसे दोस्त अक्सर शेखर से पूछते कहां है, एक ही जवाब होता, ऑफिस में। सबको मालूम था कि कभी-कबार शेखर रविवार को घर पर रहता है। उस दिन सब चाहने वाले यार-दोस्त पकड़ ही लेते। रीमा का यही तर्क होता कि सब घरवालों को इतना समय देते हैं। शाम बच्चों के संग रहते हैं। घूमने-फिरने भी जाते हैं। लेकिन धीरे-धीरे रुद्र के होने के बाद उसने शिकायतें करनीं कम कर दीं। बल्कि उसने अब कहना बिल्कुल बंद कर दिया था। बस रुद्र ही यदा-कदा वैसी शिकायतें करता, जैसा कुछ साल पहले रीमा करा करती थीं। इसीलिए शेखर को लगता कि हो न हो अब रीमा रुद्र के जरिये अपनी बात करती है। एक दिन तो हद हो गई। रुद्र ने अपने पड़ोस में रहने वाले रोहित शर्मा के बारे में पूछ लिया। पापा, अन्न्ू के पापा (रोहित शर्मा) क्या नौकरी करते हैं। क्यों बेटा, शेखर ने सवाल पूछा। पापा वो रोज शाम को घर आ जाते हैं। अन्न्ू के साथ घूमने जाते हैं। सनडे को भी घर पर रहते हैं। बेटा वो बैंक में हैं। बैंक की नौकरी दिन की होती है। रुद्र सपाट बोलता, पापा आप भी बैंक में नौकरी कर लो। अब उसे कौन समझाए कि नौकरी अपने मन से नहीं मिलती। वह रुद्र को समझाने की कोशिश करता, बेटा हमारे बीच जितने लोग हैं सब एक जैसी नौकरी नहीं कर सकते। कोई फैक्टरी में काम करता है, कोई बैक में करता है और कोई दूसरी कंपनियों में काम करता है। रुद्र की समझ में कुछ नहीं आए तो बोलता लेकिन पापा आपको हमारे लिए समय निकालना चाहिए। शेखर को लगता कि कम से कम ऑफ के दिन तो अब बच्चों के साथ रहना ही पड़ेगा। वह दोस्तों के साथ पार्टी-शार्टी कभी-कबार देर रात कर लेता। यार राजन आज में 10 बजे छूट जाऊंगा फिर बैठते हैं यार। सनडे को कुछ काम है। एक दिन तो हद हो गई। उसके दोस्त ने फोन किया, कहां है। शेखर ने झूठ बोल दिया कि वह ऑफिस में है। दोस्त को उसकी बात झूठ लगी। उसने ऑफिस में फोन लगा दिया। पता लगा, वह ऑफ पर है। फिर वह शेखर के घर आ धमका। उसे ले गया अपने साथ। क्योंकि दो-तीन दोस्त बैंगलुरू से आए थे। थोड़ी सी लगाने के बाद शेखर ने अपना दुखड़ा सबको सुना दिया। सभी ने कहा, चलो यार अब बैठकी कम किया करेंगे।
एक दिन रविवार को शेखर ने ठान ली कि आज सिर्फ परिवार के बीच रहना है। दिन में बिस्तर पर लेटे-लेटे वह अखबार के पन्न्े पलट रहा था। रुद्र वहीं पर अपने पड़ोस के एक दोस्त तिजिल के साथ खेल रहा था। शेखर अपने बचपन के दिनों की याद करने लगा। पापा शाम को ऑफिस से आ जाते थे। कुछ न कुछ खाने के लिए लाते लेकिन कभी अपने हाथ से कुछ नहीं देते थे। मां ही सबको साथ बिठाकर देती। पापा के पास फटकनेभर से उसे डर लगता था। कभी चले भी गए तो सीधे पढ़ाई की बात होती। जिस दिन पापा की छुट्टी होती, घर में स्पेशल खाना बनता इस बात की खुशी होती थी, लेकिन वह दिन जाता बहुत सूना-सूना। हां गर्मियों की छुट्टियों में जब गांव जाते तो आजादी ज्यादा मिल जाती। वहां कभी दुकानदार का खेल खेलते। गत्ते से तराजू बनाते। कच्चे आम को बेचने का खेल खेलते। कागज के टुकड़ों को रुपए बनाते। कभी-कभी पापा बनकर ऑफिस जाने का भी खेल खेलते और कभी स्कूल-स्कूल का। ऐसा ही मौका तब भी मिलता जब किसी रिश्तेदारी में शादी व्याह में जाते। उस दौरान भी अपेक्षाकृत आजादी ज्यादा मिल जाती। पापा का रुख अन्य दिनों के मुकाबले बदला-बदला होता। थोड़ा बड़े हुए तो पापा जेब खर्च के लिए कुछ पैसे दे देते, लेकिन सीधे नहीं मां की मार्फत।। दोस्त-यार घर पर आते तो पापा उनसे हंसकर अच्छे से बोलते। ऐसा ही माहौल हमें अपने दोस्तों के घर पर भी मिलता। बल्कि एक-दो दोस्त तो ऐसे भी थे, जिनके पापा खूब मजाकिया थे। इधर शेखर अपने बचपन के दिनों में खोया था और उधर रुद्र अपने दोस्त तिजिल के साथ खेल रहा था। शेखर ने देखा रुद्र अपने दोस्त से कह रहा है चलो वायरलेस टू पर तुरंत मैसेज करो। दोस्त ने प्लास्टिक का एक खिलौना उठाया और बोला, हेलो...कहां हो ओवर। शेखर हैरत से उन दोनों को देख रहा था। फिर रुद्र बोला, तिजिल तुमने उस रोबोट पर खास चिप लगाई थी कि नहीं। तिजिल बोला, जी चिप तो मैंने लगाई थी, वह इस कैमरे में भी दिख रही है। फिर अचानक रुद्र बोला कि तुमसे कहा था कि इनविजिबल चिप लगाना। आइंदा ध्यान रखना। चलो अपनी स्पेशल बाइक को तैयार करो, हमें जाना होगा। उनकी बातें चल ही रहीं थीं कि किचन से रीमा की आवाज आई, रुद्र पापा के लिए चाय ले जाओ। रुद्र का ध्यान टूटा। शेखर बोला, तुम लोग खेलो मैं ही ले आता हूं। किचन में जाकर शेखर रुद्र के खेल के बारे में रीमा को बताने लगा। रीमा बोलीं, इन लोगों का दिनभर ऐसा ही रहता है। सब कार्टून का असर है। शेखर बोला रीमा मैं समझता था कि मेरी छुट्टी को लेकर तुम इसे भरती हो, लेकिन आज देखकर लगता है मैं गलत हूं। रीमा हंस दी, बोली ये आजकल के बच्चे हैं, इनके बचपन में कुछ और भरा ही नहीं जा सकता है ये पहले से भरे हैं। शेखर अपने और अपने बेटे के बचपन के बीच तुलना करने में मगन हो गया। रुद्र की तकनीकी भाषा में खेल-खेल जारी था।

केवल तिवारी

Sunday, June 6, 2010

कहानी : नई सुबह लेकर आई वह शाम

निशा के पैर तो जैसे जमीं पर पड़ ही नहीं रहे थे। आखिर पड़ते भी तो कैसे! उसके घर में नन्हा मेहमान जो आया था। शादी को पांच साल होने को आए थे। वह मां बनने को तरस गई थी। मंदिर-मजार कहां मत्था नहीं टेका उसने। उसीने क्यों, उसकी मां ने भी कितनी मन्न्तें मांगीं। आखिर बात क्या है! शुरू-शुरू में सबने यही समझा कि अभी नई शादी है। आजकल के बच्चे हैं। एकाध साल में बच्चा हो जाएगा। पर बात यह नहीं थी। वे लोग बच्चा चाह रहे थे, लेकिन हो नहीं रहा था। एक ओर पति की व्यस्तता। महीने में 15 दिन बाहर। दूसरे, शहरों का एकाकी जीवन। निशा को हमेशा बोरियत होती रहती। बच्चे की कामना तो उसे और उसके पति निखिल को शादी के ही साल से हो गई थी। इसलिए उन्होंने कोई प्रीकॉशन भी नहीं लिया था। लेकिन उन लोगों की मुराद तब पूरी नहीं हुई, उलटे निशा को महिला संबंधी कुछ परेशानियां होने लगीं। निखिल इलाज के नाम पर उससे यह कह देता कि तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो। इतना दौड़भाग तो खुद ही कर सकती हो। उसने दो चार अस्पताल गिना दिए। कभी फुर्सत मिली तो साथ चला गया, नहीं तो निशा खुद ही डॉक्टर के पास जाती। कुछ दिनों के लिए उसने अपनी मां को बुला लिया। लेकिन मां भी कब तक रहती। मां के घर का भी तो अजब हाल था। दोनों बेटियों निशा और शालिनी की शादी हो गई थी। एक बेटा नौकरी के चक्कर में बैंगलोर जा बसा था। अब निशा के पापा की देखभाल कौन करे। उसने मां से कहा कि वह पापा को लेकर आ जाए और दोनों साथ यहीं रहें, लेकिन मां को यह गवारा नहीं था कि दोनों पति-पत्नी आकर बेटी के घर में जम जाएं। निशा के सास-ससुर अपने दूसरे बेटे के साथ कोलकाता जा बसे थे। निखिल के कहने पर एकाध बार आए भी पर पता नहीं क्यों उन लोगों को यहां अच्छा ही नहीं लगता था।
खैर होते-करते निशा और निखिल की शादी को पांच साल बीत गए। परिवार में कड़ुवाहट बढ़ती, निशा का एकाकीपन बढ़ता, निशा चिड़चिड़ी हो जाती इससे पहले निशा को सारे जहां की खुशियां मिल गईं। उसका बेटा यश जिसे वह प्यार से यश्शु कहती, उसके लिए तमाम खुशियां बटोर कर ले आया। उसके रोने में, उसकी नटखट हरकतों में, उसके मुस्कुराने में और उसकी हर गतिविधि निशा के रोम-रोम पुलकित कर देती। पर परेशानियां कब पीछा छोड़ती हैं। निशा को यश्शु के रूप में तमाम खुशियां तो मिल गईं, निखिल की नौकरी भी अब उतनी टफ नहीं थी, लेकिन पता नहीं क्यों दोनों बीमार से रहने लगे। कभी जुकाम लगा तो हफ्तों ठीक नहीं होता। थकान लगती तो घर े कामों में मन नहीं लगता। निखिल तो आफिस पहुंचकर दिनभर वहां दोस्तों में व्यस्त रहता और अपनी बीमारी को जैसे भूलने का यत्न करता रहता, लेकिन निशा को दिक्कत बढ़ने लगी। इसी के चलते वह कई बार यश्शु की वैसी देखभाल नहीं कर पाती, जैसा वह चाहती। कभी-कभी तो उसके साथ अजीब वाकया होता, वह चिड़चिड़ेपन के कारण यश्शु को चपत भी लगा देती। बाद में खुद को ही कोसती कि मैंने कैसे नन्ही सी जान को थ्ाप्पड़ मार दिया। आखिर उस बच्चे का क्या दोष है! वह शरारत नहीं करेगा, उलटेगा-पलटेगा नहीं। एक बार निशा को बुखार आया तो वह महीनेभर तक खिंच गया। ब्लड टेस्ट, यूरिन टेस्ट, शुगर टेस्ट न जाने क्या-क्या टेस्ट करा डाले, पर कहीं कुछ नहीं निकला। वह पेरशान रहने लगी कि आखिर ऐसा क्या हो गया। वह बुखार से पीड़ित तो थी ही कि यश्शु की एक हरकत ने उसमें जान डाल दी। हुआ यूं कि वह दोपहर में किचन में जूठे बर्तनों को साफकर यश्शु के देखने कमरे में आई तो देखा कि यश्शु लड़खड़ाते हुए चल रहा है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह सारा काम छोड़कर और अपनी बीमारी भूलकर यश्शु को बार-बार अपनी तरफ बुलाती, यश्शु गिरता-पड़ता आता और जैसे ही लड़खड़ाकर गिरने को होता, निशा उसे संभाल लेती। शाम को जैसे ही निखिल घर आया, निशा चहकते हुए बोली-पता है, यश्शु चलने लगा है। निखिल की प्रतिक्रिया जाने बगैर यश्शु को पलंग से उठाकर नीचे खड़ा कर दिया और पुचकारने लगी आ..जा....आ...आ बेटा। लेकिन यश्शु चलने के बजाय नीचे बैठ गया और जोर-जोर से रोने लगा। निखिल थोड़ा डांटने के अंदाज में बोल उठा, मैं देख लूंगा उसे चलते हुए। मुझे सांस तो लेने दो। फिर देखा मेरी किस्मत ही खराब है, वह भी अभी चलने से इनकार कर रहा है। निखिल ने बात तो कोई बड़ी नहीं कही थी, लेकिन उसकी टोन से निशा को बुरा लग गया। वह कुछ बोली नहीं। किचन से एक गिलास पानी लाकर टेबल पर रख गई। थोड़ी देर में एक कप चाय बनाकर टेबल पर रख गई और दूसरे कमरे में चली गई। यश्शु तो बच्चा था और बच्चे का क्या! वह तो अबोध है। अपनी मर्जी का मालिक। वह अपने खेलने में मशगूल हो गया। कभी ताली बजाना, कभी पापा के कपड़े खींचना वगैरा-वगैरा...। निखिल ने कपड़े बदले और हाथ-मुंह धोकर चाय पीने लगा और टीवी खोल लिया। टीवी खुलते ही यश्शु का ध्यान उधर ही चला गया। अचानक यश्शु उठा और टीवी की तरफ लड़खड़ाते हुए चलने लगा। निखिल चिल्लाया, निशा देखो यश्शु चल रहा है। निशा पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह अंदर ही रही। अचानक यश्शु मुंह के बल गिर पड़ा और उसकी नाक से खून आने लगा। यश्शु के रोते ही निशा भागकर आई। उसको चोट लगी और निशा व निखिल के बीच कलह शुरू हो गई। खैर दोनों पढ़े-लिखे थे और समझदार भी। निखिल ने शुरुआत की बात को सुलझाने की। बोला-निशा आज दिनभर ऑफिस में परेशान रहा अपनी तबीयत को लेकर। मन कर रहा है बस सोया रहूं। निशा से भी रहा नहीं गया वह सुबकने लगी। वह भी बोली, हालत मेरी भी ऐसी ही है, लेकिन यश्शु की हरकतों से मन लगा रहता है। आखिर हम दोनों को क्या हो गया है। हमें किसकी नजर लग गई है, निखिल लगभग भर्राते हुए स्वर में बोला। निशा बोली, मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर हुआ क्या है। निखिल बोला कल में छुट्टी लेता हूं और डॉक्टर मितेश दयाल के पास चलते हैं, वे अच्छे जानकार हैं। दोनों अगली सुबह डॉ. दयाल के पास पहुंच गए। डॉक्टर साहब को उन दोनों ने बताया कि वे लोग अक्सर कोई न कोई बीमारी से रोगग्रस्त हो जाते हैं। रोग है कि ठीक होने का नाम ही नहीं लेता है। उन्होंने अपनी जांच रिपोर्ट भी दिखाई। डॉक्टर दयाल रिपोर्ट देखने के बाद कुछ देर चुप रहे, फिर निखिल की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, निखिल एक जांच के लिए मैं कहूंगा, लेकिन परेशान नहीं होना। निखिल ने लगभग कुछ न समझने के अंदाज में डॉक्टर साहब के चेहरे को देखा। फिर डॉक्टर साहब निशा की तरफ देखते हुए बोले, टेस्ट दोनों को कराना होगा। अब निखिल बोल ही पड़ा, डॉक्टर साहब कौन सा टेस्ट है। डॉ. दयाल सपाट बोल पड़े, एचआईवी का। एचआईवी का नाम सुनते ही दोनों पति-पत्नी सन्न् रह गए। उनकी चुप्पी की परवाह किए बगैर डॉक्टर दयाल ने एक सवाल दागा-आप लोगों ने बच्चे के होने से पहले यह टेस्ट नहीं कराया था। निखिल याद करने की मुद्रा में बैठ गया। निशा बोली-नहीं डॉक्टर साहब बच्चे के होने से करीब पांच माह पूर्व मैं मां के पास चली गई थी। वहीं हमारा यश्शु हुआ। अब निखिल भी बोल उठा, डॉक्टर साहब कुछ टेस्ट तो हुए थे, लेकिन शायद यह टेस्ट नहीं हुआ था। फिर कांपती आवाज में बोला, डॉक्टर साहब लेकिन आप यह आशंका क्यों जता रहे हैं। डॉक्टर साहब स्थिति को स्पष्ट करते हुए बोले, मैं आशंका नहीं जता रहा हूं, लेकिन टेस्ट कराने में हर्ज कैसा। उस दिन वे दोनों एचआईवी टेस्ट के लिए ब्लड सेंपल देकर घर आ गए। अभी उनकी ब्लड रिपोर्ट नहीं आई थी, लेकिन दोनों इस पर बहस करने लगे कि आखिर यह बीमारी आ कैसे गई। दोनों लगभग झगड़ने के अंदाज में थे। निखिल का कहना था कि यश्शु के होने से पहले तुम मां के पास चली गई थीं, पता नहीं वहां कैसे इंजेक्शन लगे। उधर, पता नहीं क्यों निशा को अपने पति के चरित्र पर शक होने लगा था। हालांकि इस शक की सुई उठने के बाद वह खुद को मन ही मन कोसती भी कि नहीं कुछ भी हो निखिल ऐसा नहीं हो सकता। तीन दिन बाद निखिल हिम्मत जुटाकर रिपोर्ट लेने गया। डॉक्टर दयाल ने क्लीनिक में थे नहीं। उन्होंने मैसेज छोड़ रखा था कि वह रिपोर्ट खुद देंगे। और दोनों को शाम को बुलवा लिया। शाम को जब निशा और निखिल वहां पहुंचे तो डॉक्टर दयाल ने कहना शुरू किया, देखो निखिल अब एक टेस्ट बच्चे का भी कराना होगा। भगवान न करे कि इसमें भी यह लक्षण दिखें। इतना सुनते ही निखिल कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। डॉक्टर साहब क्या बात करते हैं! फिर वह निशा की ओर देखने लगा। निशा फफक कर रोने लगी। डॉक्टर साहब कुर्सी से उठे और निखिल को बिठाते हुए बोले, देखिए अभी इनीशियल स्टेज में यह बीमारी आप लोगों में है। एक टेस्ट और होगा, लेकिन उससे पहले बच्चे का ब्लड सैंपल हमें लेना होगा। दोनों पति-पत्नी बच्चे का ब्लड सैंपल देकर घर आ गए। उस दिन तो दोनों कुछ भी नहीं बोल रहे थे, लेकिन लग रहा था जैसे घर में कोहराम मचा हुआ है। घर में सन्न्ाटा था, मरघट जैसी खामोशी थी। यश्शु कभी खेलता, कभी रोने लगता। लेकिन उसकी ओर किसी का कोई ध्यान नहीं था। निखिल उसके लिए दूध बनाकर लाया। दोनों ने उस रात कुछ खाया नहीं। सुबह निखिल ऑफिस भी नहीं गया। आस-पड़ोस के लोगों ने उनके चेहरे देख कुछ पूछा भी तो उन्होंने तबीयत ठीक नहीं होने की बात कहकर उन्हें टरकाया। पड़ोस की सीमा भाभी उनके घर आई। घर में सन्न्ाटा देख उन्होंने अंदाजा लगाया कि पति-पत्नी में कोई झगड़ा हुआ होगा। वह दोनों के लिए चाय-नाश्ता बनाकर ले आई और यश्शु को अपने घर लेकर चली गईं। करीब 11 बजे डॉक्टर दयाल खुद उनके घर आए। इस वक्त डॉक्टर दयाल निशा और निखिल को किसी खतरनाक सूचना देने वाले व्यक्ति केक रूप में दिख रहे थे। लेकिन इस बार सूचना अच्छी थी और वह यह कि यश्शु की ब्लड रिपोर्ट में ऐसा कोई सिमटम नहीं था। डॉक्टर साहब ने यह बात दोनों को बताई और यह भी स्पष्ट किया कि इसका मतलब एचआईवी उन दोनों को यश्शु के होने के बाद हुआ है। अब निशा का शक निखिल के प्रति गहराने लगा। निखिल ने उसे लाख समझाने की कोशिश की, लेकिन वह बस रोती रही। अंतत: निखिल ने एक बार 15 दिन तक घर न आने का राज बताया। उसने डॉक्टर उयाल से कहा, डाक्टर साहब मैं एक बार दो निद के लिए टूर पर गया था। लेकिन आया 17 दिन बाद। निशा रोज फोन करती, मैं कहता थोड़ा काम फंसा है, बस आने वाला हूं। निखिल जैसे-जैसे यह बात कह रहा था, वैसे-वैसे निशा के मन में किसी भयानक खबर को सुनने का अंदेशा पलता जा रहा था। निशा को लगा कि अब निखिल कहेगा कि वह किसी के साथ हम बिस्तर हो रहा था। उसकी कोई पे्रमिका है। वह आज भी वहीं रहती है। निखिल अक्सर वहां जाता है....। लेकिन बात ऐसी कुछ भी नहीं थी। निखिल अपनी बात पूरी करने से पहलू सूटकेस से कुछ कागजात निकाल लाया। डॉक्टर साहब की ओर कागजात बढ़ाते हुए उसने कहा, डॉक्टर साहब मैं हैदराबाद में भयानक रूप से बीमार पड़ गया था। निशा प्रेगनेंट थी, मैं इसे परेशान नहीं करना चाहता था। होते-करते मुझे करीब 14 दिन अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। मुझे आशंका है कि यह बीमारी मुझे वहीं से लगी और निशा को मुझसे। निशा अपनी बीमारी से जितनी परेशान थी, इस वक्त निखिल की बातें सुनकर उसे उससे अधिक सुकून मिल रहा था। डॉक्टर दयाल ने दोनों को अपने सामने बिठाया और कहा कि परेशान मत होओ, आगे का प्लान करो। बच्चे की देखभाल का इंतजाम करो। मैं आप लोगों को कुछ दवा दे रहा हूं, नियमित लेते रहें। परेशानी और रोना-धोना मामले को और गंभीर बनाएगा। इतना कहते ही डॉक्टर साहब जाने को हुए तो निशा ने उन्हें रोक लिया और बोली डॉक्टर साहब मैं चाय बनाती हूं, आप नाश्ता हमारे साथ करेंगे। डॉक्टर दयाल आग्रह मानकर वहीं धमक गए। सबसे पहले निशा पड़ोस से यश्शु को ले आई। फिर उसने चाय-पराठे बनाए। शाम को निखिल और यश्शु संग निशा पार्क में गई। वहां बहुत देर तक उन लोगों ने यश्शु को खिलाया और तय किया कि अब वे दूसरा बच्चा नहीं करेंगे। यश्शु की परवरिश पर खास ध्यान देंगे। दवा नियमित लेने और नियमति जांच का वादा एक दूसरे से करने के बाद दोनों ने नारियल पानी पीया और घर का रुख किया। पार्क में बिताई वह शाम उन लोगों के लिए नई सुबह जैसी थी।
केवल तिवारी

Wednesday, June 2, 2010

गौरैया का पंख

story कहानी (sparrow)
गर्मियां शुरू होने पर दो बातें हमेशा कुछ परेशान सा करती हैं। मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी और बच्चे को। एक समस्या को पत्नी अपने हिसाब से कम ज्यादा मान बैठती है, दूसरी शाश्वत समस्या है। इन समस्याओं में एक तो कूलर अपने मन से शुरू न कर पाने का दंश और दूसरा बच्चे के स्कूल से मिला भारी-भरकम होमवर्क। कूलर हम कई बार इसलिए अपने मन से नहीं खोल पाते क्योंकि अक्सर हमारा कूलर कबूतरों के लिए 'मैटरनिटी सेंटर" बन जाता है। कूलर खोलते ही कभी वहां कबूतरनी अंडों को सेती हुई दिखती है और कभी छोटे-छोटे बच्चों के मुंह में खाने का कुछ सामान ठूंसती हुई सी। कबूतरों का मेरे कूलर के प्रति प्रेम कई वर्षों से है। जब मेरी मां जीवित थी, कहा करती थी घर में चिड़ियों का घौंसला बनाना बहुत शुभ होता है। किराए के एक मकान में एक बार कबूतर ने हमारे घर में घौसला बनाया, अंडे दिए और उसके बच्चे हमारे सामने उड़े। उसके कुछ माह बाद मेरे घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। घौंसला बनाना और उसमें बच्चे होना शुभ होता है, यह बात मेरी पत्नी के दिमाग में घर कर गई है। लेकिन कबूतरों के प्रति मेरे मन में स्नेह कभी नहीं पनप पाया। उल्टे एक बार चोरी-छिपे मैंने उसके घौंसेले को तोड़ दिया था। असल में उसका घौंसला अभी बन ही रहा था कि गर्मियों ने ऐसा तेवर दिखाना शुरू कर दिया कि कूलर की जरूरत महसूस होने लगी। मेरी पत्नी ने ताकीद की कि कूलर की सफाई करने में मेरी मदद करो। मैंने तुरंत हां कर दी और काम की शुरुआत पहले मैं ही करने को इसलिए राजी हो गया क्योंकि मुझे पूरी आशंका थी कि घौंसला देखते ही वह कूलर वाली खिड़की के किवाड़ बंद कर देगी। और न जाने दिन ये किवाड़ बंद कर देंगे। हो सकता पूरी गर्मी भर। इस आशंका को भांपते हुए मैंने पत्नी को चाय बनाने भेजा और कूलर वाली खिड़की खोलने लगा, देखा कबूतरों का एक जोड़ा अपना घर बनाने में मशगूल है। खिड़की खोलते ही जोड़ा तो उड़ गया, लेकिन आशियाना लगभग तैयार था। मैंने सबसे पहले उसे उठाकर नीचे फेंक दिया। असल में हमारे पूरे मोहल्ले में इतने अधिक कबूतर हैं कि हर समय वही चारों तरफ दिखते हैं। जहां बैठे तुरंत गंदगी कर देते हैं। बालकनी को दिनभर साफ करते रहो। कपड़े तार में डाले नहीं कि तुरंत गंदा कर दिया। आलम तो यह था कि इधर कूलर अंदर खिसकाने की आवाज सुनते ही पत्नी आई और बोली कोई घौंसला तो नहीं बनाया है न कबूतरों ने। मैंने कहा नहीं। उसने अच्छा इतनी जोर से कहा, जैसे आश्चर्य और खुशी दोनों बातें उसमें मिली हुईं थी। खैर वह गर्मी हमारी ठीक कटी। कूलर चलने के बाद जब तक वह रोज खुलता, बंद होता कोई पक्षी वहां अपना आशियाना बसाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उन्होंने आसपास अपना ठौर ढूंढ़ लिया। वह वर्ष बच्चे के स्कूल का पहला साल था, इसलिए होमवर्क भी बहुत नहीं मिला था और वह गर्मी हमारे लिए बहुत अच्छी बीती।
इस साल भी गर्मी भयानक पड़ी और गर्मी शुरू होने से पहले से ही कबूतरों का खौफ मेरे मन में था। माताजी वाले कमरे का कूलर हमने अंदर ही निकाल रखा था। क्योंकि मां अब इस दुनिया में रही नहीं, वह कमरा अमूमन खाली भी रहता है। कभी कोई मेहमान आ गया तो ठीक। या फिर टीवी देखना हो या खाना खाना हो तो हम उस कमरे का इस्तेमाल करते हैं। उस कमरे के कूलर को पहले से इसलिए अंदर निकालकर रख दिया गया कि कहीं दूसरे कूलर के पास अंडे-बच्चे हो गए तो इस कूलर का इस्तेमाल किया जा सकेगा। दूसरे कमरे के कूलर के आसपास भी मैं कबूतरों को फटकने नहीं दे रहा था। होते-करते कबूतर मुक्त कूलर की खिड़की हमें मिल गई, लेकिन उनका अड्डा बालकनी और अन्य स्थानों पर होने लगा। उनकी संख्या लगातार इस कदर बढ़ रही थी कभी-कबार पत्नी भी झल्ला जाती। खासतौर पर तब जब उसे धुले कपड़े दोबारा धोने पड़ते। इस गर्मी में कूलर तो गर्मी शुरू होते ही चल निकला, लेकिन बच्चे को होमवर्क अच्छा-खासा मिल गया। खैर यह होम वर्क तो मिलना ही था, इसलिए यह मान लिया गया कि कोई बात नहीं, किसी तरह से कराएंगे। बच्चा अपनी मां के साथ लखनऊ एक विवाह समारोह में चला गया और योजना बनी कि कुछ दिन वहां मेरे बड़े भाई के घर रहा जाए। बच्चा अपने ताऊ और ताई के साथ रहना और मौज-मस्ती करना बहुत पसंद करता है। इधर छोटे से बच्चे को भी अपने होमवर्क की बहुत चिंता थी। मैंने भरोसा दिलाया कि कुछ काम लखनऊ में पूरा हो जाएगा। मेरी दीदी का छोटा बेटा कुछ करा देगा और कूुछ काम मैं पूरा करा दूंगा। उसको मिले तमाम कामों में एक यह भी शामिल था, जिसमें पांच प्रकार की चिड़ियों के पंखों को एकत्र करना था। मैंने इस काम को पूरा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर में अकेला था। एक दिन सुबह देर से उठा, बालकनी का दरवाजा खुला तो देखा वहां गौरैया इधर-उधर घूम रही है। कबूतरों से नफरत करने वाला मैं गौरैया को देखते ही बहुत खुश हो गया। मुझे इस बात का दुख हुआ कि मेरे पास कैमरा नहीं है। एक पुराना कैमरा है भी तो रील वाला, उसमें रील नहीं है। मेरे बालकनी में जाने से वह भाग नहीं जाए, इस आशंका से मैं अंदर आ गया। जिज्ञासावश थोड़ी देर बाद मैं फिर बालकनी मैं गया। मैंने चारों तरफ देखा मुझे गौरैया नहीं दिखी। मुझे तमाम उन खबरों की जानकारी थी, जिसमें कहा जा रहा था कि गौरैया अब कहीं नहीं दिखती। उनकी प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। मुझेे लगा हो न हो मेरा भ्रम रहा होगा। वह पंछी गौरैया तो नहीं रही होगी। तभी मैंने देखा फुर्र से उड़ती हुई बालकनी की छत से गौरैया सामने की छत की तरफ उड़ गई। मैंने जिज्ञासावश बालकनी की छत की ओर देखा। वहां पंखा लगाने के लिए बने बिजली के बड़े छेदनुमा गोले में कुछ घासफूस लटकती दिखाई दी। गौरैया मेरे घर में घौंसला बना रही है। मैं इतना खुश हो गया मानो मुझे कोई खजाना मिल गया हो। मैंने बालकनी में कुछ चावल के दाने बिखेर दिए और बालकनी बंद कर कमरे में आ गया। अब मैं दरवाजे के छेद से देख रहा था, गौरैया बार-बार उन दानों को उठाती। फिर कहीं से तिनका लाती और बालकनी की छत में अपने आशियाना बनाने में मशगूल हो जाती। मैं मन ही मन बहुत खुश हुआ कि चलो शायद गौरैया जिसके बारे में कहा जा रहा है कि विलुप्त होने वाली है अब कुछ बच्चों को यहां जनेगी। अब मेरी जिज्ञासा रोज बढ़ती। सुबह उठकर मेरा पहला काम उस घौंसले की तरफ देखना होता था। नीचे रखे गमले में मैं कुछ पानी भर देता। शायद इसमें से वह पानी पी लेगी। एक दिन तो मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी। मैंने देखा गौरैया का छोटा सा बच्चा मुंह खोलकर चूं-चूं कर रहा है और उसकी मां इधर-उधर से कुछ लाकर उसके मुंह में डाल रही है। कई बार टुकड़ा बड़ा होता तो नीचे गिर जाता। गौरैया फट से नीचे आती उस गिरे टुकड़े को उठाकर ले जाती और अपने बच्चे के मुंह में डाल देती। इस बार आश्चर्यजनक यह था कि मेरे वहां खड़े होने पर भी गौरैया डर के मारे भाग नहीं रही थी। मैं यह देखकर कुछ चावल के दाने और ले आया। मेरे सामने ही गौरैया उन दानों पर टूट पड़ी। मैंने फिर बालकनी का दरवाजा बंद किया और अपने काम में मगन हो गया। मन किया कि लखनऊ फोन करके बताऊं कि गौरैया ने एक घौंसला बनाया है। बालकनी की छत पर। उसका बच्चा भी हो गया है। शायद मेरी पत्नी बहुत प्रसन्न् हो। इसलिए कि अक्सर कबूतरों को भगाने और उन्हें घौसला नहीं बनाने देने को आतुर एक चिड़िया का घौंसला देखकर कितना खुश हो रहा है। लेकिन एक हफ्ते बाद वे लोग आ ही जाएंगे, फिर उन्हें सारा नजारा दिखाऊंगा, यह सोचकर मैंने फोन नहीं किया। लेकिन कैमरा नहीं होने का दुख मुझे सालता रहा। मैं बालकनी बंद कर घर में आ गया और नहाने के बाद ऑफिस के निकल गया। ऑफिस के रास्ते में अनेक मित्र मिले, मैंने सबसे गौरैया के घौंसले की बात बताई। किसी ने कहा, वाह कितनी अच्छी बात है। ज्यादातर ने यह कहा कि गौरैया का घौंसला बनाना तो बहुत शुभ होता है। इधर बच्चे के होमवर्क के लिए चिड़ियों के पंख एकत्र करने की बात मुझे याद आई। कबूतरों के तो अनगिनत पंख मेरे इर्द-गिर्द रहते हैं, कभी-कबार देसी मैना भी दिख जाती है। मैंने कहा, पंख एकत्र हो ही जाएंगे। मेरे मन में इन दिनों रोज-रोज बढ़ते गौरैया के बच्चे को लेकर उत्सुकता बनी हुई थी। मैं कल्पना करता काश! यहीं गौरैया अपना स्थायी निवास बना ले। यह बच्चा हो, इसके बच्चे हों। कभी दूसरी गौरैया आए। इस तरह के तमाम खयाल मेरे मन में आते। गौरैया परिवार की चर्चा भी अक्सर अपने मित्रों से करता। खैर एक दिन गौरैया के बच्चे को अपनी मां के मुंह से रोटी का छोटा सा टुकड़ा खाता देख मैं ऑफिस चला गया। अगले दिन मैं किसी मित्र के यहां रात में रुक गया। उसकी अगली दोपहर घर पहुंचा तो सबसे पहले बालकनी में पहुंचा। बालकनी में बच्चा जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था उल्टा लटका हुआ था। वह अक्सर तब भी ऐसे ही लटकता दिखता था जब उसकी मां उसे खाना खिलाती थी। मैं दो-चार मिनट तक उसे लगातार देखता रहा। मेरा दिल धक कर रहा था। उसमें कोई हरकत नहीं दिख रही थी। उसकी मां भी कहीं नहीं दिखरही थी। एक दिन पहले वहां डाले चावल के दानों में से कुछ किनारे पर पड़े हुए थे। मैं कुछ समझ नहीं पाया। मैंने कुर्सी लगाकर जोरदार तरीके से ताली बजाई। लेकिन बच्चे में कोई हरकत नहीं हुई। वह बस उसी अंदाज में उल्टा लटका हुआ था। मैंने गौर से देखा कि बच्चा मर चुका था। उसकी मां गायब थी। मैं अंदर आकर धम से बैठ गया। मन बहुत खिन्न् हो गया। कभी इधर जाता, कभी इधर। पानी पीने को भी मेरा मन नहीं हुआ। फिर बालकनी में गया, मरे हुए बच्चे का एक पंख नीचे गिर गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस पंख को अपने बच्चे के होमवर्क के लिए सहेज कर रख लूं या उड़ जाने दूं।

केवल तिवारी