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Thursday, August 26, 2010

हिन्दी की बात, निबंध प्रतियोगिता और मैं

पिछले दिनों ब्लॉग पर मैंने एक नई पोस्ट हिन्दी के खिलाफ साजिश शीर्षक से प्रकाशित की थी। तीन-चार लोगों की प्रतिक्रियाएं उसको लेकर आईं। मेरे एक मित्र ने इस बहस को आगे बढ़ाने की सलाह दी है। इसी बीच हमारे अखबार (नईदुनिया) की ओर से आयोजित निबंध प्रतियोगिता के तहत आईं हजारों प्रविष्टियों में से बेहतरीन निबंधों को छांटने की जिम्मेदारी मुझे दी गई। विषय था, मेरे सपनों का भारत। कक्षा तीन से 12वीं तक के विद्यार्थियों ने बहुत जोश के साथ इसमें भाग लिया था। कुछ स्कूलों से आईं प्रविष्टियों से साफ झलक रहा था कि अध्यापक ने बच्चों को सामने बिठाकर उन्हें निबंध लिखवाया है। एक सी भाषा और एक सी बात। लेकिन आश्चर्यजनक यह था कि विषय को पकड़ने में उसमें बहुत देरी की गई थी। ऐसा ही कुछ स्कूलों ने बच्चों से निबंध तो खुद लिखने को कहा, लेकिन उसे उत्तर पुस्तिका की तरह जांचकर भेज दिया। यानी जगह-जगह उसमें पेन के निशान, शब्दों को सुधारने की कोशिश दिख रही थी। इन सबके बावजूद हजारों निबंध बहुत अच्छे थे। उसमें लग रहा था कि बच्चों ने विषय को समझा है और सीधे उस पर लिखना शुरू किया है। यह जरूर है कि कई बच्चों ने मर्यादाओं को समझा नहीं था। खैर रोचक था यह काम और कम समय होने के कारण मुझसे अन्य लोगों की मदद लेने के लिए भी कहा गया। मैंने साथ के लोगों को ज्यादा परेशान करने के बजाय, हमारे संस्थान में प्रशिक्षण के लिए आए पत्रकारिता के विद्यार्थियों को कुछ निबंध बांट दिए। जिन लोगों को मैंने ये निबंध दिए, उनमें से ज्यादातर ने तो पचासों सवाल इस तरह मुझसे पूछ लिए कि मुझे वे प्रविष्टियां वापस मांगनी पड़ीं। कुछ बच्चों ने कह दिया, 'सर एक्चुअली मेरी हिन्दी थोड़ी वीक है।" उनके इस तर्क पर मेरा सवाल था, फिर भी आप हिन्दी अखबार में प्रशिक्षण के लिए आए हैं, वो तो सर 'वर्क कल्चर देखने के लिए।" जवाब फिर एक मुस्कान। मैंने तर्क देना उचित नहीं समझा। धीरे-धीरे कर प्रविष्टियां मुझे उसी अवस्था में लौटा दी गईं। एक सज्जन ने कुछ छांटकर दीं। उन्हें मैंने गौर से देखा तो मेरा सवाल था, क्या है इन निबंधों में जो आपको सही लगीं। उन 'भावी पत्रकार" महोदय का जवाब था, देखिए सर इसने लिखा है कि भारत सोने की चिड़िया था, बांग्लादेशियों की समस्या को खत्म करो। लोग अपने देश से प्यार नहीं करते। सब नेता गद्दार हैं। मैंने कहा, आपको जो विषय मैंने बताया था, उस पर इन्होंने क्या लिखा है। वह सज्जन कुछ सकपका गए। दर्जनभर लोगों में से किसी ने 'कुछ" किया तो है सोचकर मैंने उनको ज्यादा नहीं छेड़ा। खैर....।
निबंधों में से कुछ को छोड़कर शेष में से चयन करने में मुझे खासी दिक्कत हुई। बच्चों के सपनों के भारत के बारे में क्या-क्या बातें आईं, यह तो मैं आगे इसी क्रम में लिखी गई खबर को ही लगा दूंगा, लेकिन उनको पढ़कर हिन्दी भाषा में लिखे निबंध में अशुद्धियों से मैं परेशान हो उठा। अशुद्धियां ही नहीं, जानकारी भी गलत। 12वीं का छात्र यदि यह लिखे कि हम भारत में रहते हैं इसलिए इंडियन हैं। या फिर तीसरी का छात्र यह लिखे कि भ्रष्टाचारी नेताओं ने देश का माल गटक लिया है.... मुझे अजीब लगा। छोटे बच्चे को भ्रष्टाचार की चिंता खाई जा रही है, 12वीं का छात्र जो अब कॉलेज की डगर पकड़ेगा कह रहा है कि भारत में रहते हैं इसलिए इंडियन हैं। ऐसी कई पंक्तियां देखकर तो और माथा खराब हो गया जिसे काटकर अध्यापक महोदय ने ठीक किया था दुर्योग से वह ठीक, गलत निकला। खैर निबंधों में से पुरस्कृत निबंधों को अलग से निकाला गया। बड़ी मशक्कत के बाद। सपनों का भारत भी बच्चों का जान पड़ा, लेकिन इस बीच के अनुभव बहुत अजीब रहे।
हिन्दी नहीं जानने की बात कहने वाले सज्जन को एजेंसी पीटीआई का एक टेक दिया और उससे कहा कि जैसी हिन्दी जानते हो या हिन्दी-अंग्रेजी मिली भाषा (हिंग्लिश) में ही कुछ लिख दो। थोड़ी देर बाद वे आए बोले, मेरी एक अर्जेंट कॉल आई है, इसे आज करना जरूरी है, मैंने कहा, घर से कर के ले आना। वे बोले फिर इसका क्या यूज। मैंने कहा, इंटर्नशिप के लिए आए हो, कुछ काम नहीं सीखोगे...। वह सज्जन चले गए और लौटकर नहीं आए। एक को कोर्ट की खबर दी जिसमें लिखा था दिस पेटिशन कैन नॉट बी इंटरटेन... साहिबान ने लिखा इस याचिका पर मनोरंजन नहीं हो सकता। वह भी अंग्रेजी ज्यादा जानने और हिन्दी कम आने की बात कहते थे। खैर इन बच्चों में ज्यादातर ऐसे थे जिन्हें वे हिन्दी फीचर लेख लिखने या पढ़ने में बहुत मजा आता है जिसमें कुछ भी हिन्दी, अंग्रेजी में लिखा हो। जैसे बारिश में खूब एंजॉय किया, लोग पार्क में गए, शॉपिंग की। या फिर इस तरह का जैसे ही रोहित ने मॉल में एंटर किया वह शॉक रह गया, सामने स्टेज पर...। मुझे ऐसा लगा आम बोलचाल की भाषा कहकर ऐसा लिखने वाले वाकई हिन्दी जानते ही नहीं। या फिर उन्हें डर है कि कहीं वे गलत नहीं लिख दें।

निबंधों को छांटने के बाद जो खबर मैंने लिखी
देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत 10 हजार से अधिक बच्चों ने लिखे निबंध
केवल तिवारी
नई दिल्ली। एक-एक निबंध में देशभक्ति की भावना का समावेश। तीसरी कक्षा का बच्चा हो या फिर 12वीं का छात्र। सबकी लेखनी से सपनों के भारत की इतनी खूबसूरत तस्वीर झलकी कि पुरस्कृत करने के लिए उनके चयन में खासी दिक्कत आई। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जब निबंध प्रतियोगिता की घोषणा की गई तो नईदुनिया अखबार के दफ्तर में एक के बाद एक प्रविष्टियां आने लगीं। देखते ही देखते आंकड़ा दस हजार पार कर गया। दिल्ली-एनसीआर के बच्चों को गांवों की भी सुध है और तकनीकी रूप से समृद्ध होना भी उनका सपना है।
नईदुनिया ने तीन वर्ग के बच्चों के लिए निबंध प्रतियोगिता आयोजित की थी। विषय था 'कैसा होगा अपने सपनों का भारत।" पहले वर्ग में तीसरी कक्षा से छठी कक्षा के बच्चों को अपने सपनों के भारत की तस्वीर पेश करनी थी। दूसरे वर्ग में सातवीं कक्षा से दसवीं तक के बच्चों को निबंध लिखना था। तीसरे वर्ग में ग्यारहवीं और 12वीं कक्षा के विद्यार्थियों ने प्रविष्टियां भेजीं।
जब इन निबंधों को पढ़ने की शुरुआत की तो छोटे से बच्चे से लेकर 12वीं के विद्यार्थी ने अपनी भावनाओं को मानो उसमें उड़ेल दिया। कोई सर्वशिक्षित भारतवासी का सपना देखता प्रतीत हो रहा है तो किसी को बांग्लादेशी घुसपैठियों से दिक्कत है। भ्रष्टाचार की तपन ने बच्चों को विचलित किया है। तकनीकी रूप से समृद्ध होना इन बच्चों का सपना तो है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली-एनसीआर के बच्चों को गांवों का दर्द मालूम नहीं है। वे चाहते हैं हर गांव में अच्छी सड़क, स्वास्थ्य, पेयजल आदि सुविधाएं हों।
खूबसूरत अंदाज में अपने भावनाओं को उड़ेलने वाले इन बच्चों की प्रविष्टियां देखने लायक थीं। किसी ने निबंध वाले कागज को तिरंगे का रूप देते हुए भारत को फिर से सोने की चिड़िया सरीखा बनाने का सपना देखा है। किसी ने मोती सरीखे शब्दों से निबंध को नईदुनिया दफ्तर में भेजा है।
कई बच्चों ने अपना दर्द भी निबंध में उड़ेला है। किसी को यह बात परेशान करती है कि कई बच्चे सुबह राष्ट्रगान के समय पर गंभीर नहीं होते। किसी को अपने भले के लिए झूठ बोलने वालों से नफरत है तो कोई अपने निबंध के जरिये कल्पना करना है कि भारत फिर जगद्गुरु बने। एक प्रक्रिया के तहत दस हजार से अधिक निबंधों में तीनों वर्गों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कृत निबंध चयनित किए गए। इसी तरह 10 सांत्वना पुरस्कार भी चयनित किए गए। कुछ छात्रों का प्रयास भी बेहद सराहनीय रहा। पुरस्कारों की श्रेणी में नहीं आ पाने पर भी छात्रों का यह उत्साह और देशप्रेम सचमुच उत्साहित करने वाला है।
साभार नईदुनिया

Tuesday, August 17, 2010

हिंदी के खिलाफ साजिश

हिन्दी के बारे में
पिछले दिनों हिन्दी के एक बड़े अखबार वाले से भाषा को लेकर कुछ बहस हुई। उन साहिबान का कहना था कि हिन्दी के अखबारों को अधिक से अधिक अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। मैं इसे बिल्कुल गलत मानता हूं। मेरा कहना है कि हिन्दी भाषा के साथ-साथ किसी भी अन्य भाषा का ज्ञान होना चाहिए। खूब होना चाहिए, लेकिन बोलचाल की भाषा का बहाना बनाकर अंग्रेजी शब्दों को ठंूसना सरासर गलत है।
हिन्दी बोलने-लिखने के साथ यह तर्क विशुद्ध रूप से गढ़ा गया है कि बोलचान की भाषा में दिक्कत होती है। अंग्रेजी के कई शब्दों को समझने के लिए, अर्थ ढूंढ़ने के लिए और उसके उच्चारण को समझने के लिए हम न जाने कितनी बार शब्दकोश का सहारा लेते हैं। जरा सोचिए कि हिन्दी के बीच में तमाम अंग्रेजी शब्दों को घुसेड़ने में भी क्या खासी दिक्कत नहीं हुई होगी। फिर उन्हें जबरन लोगों से बुलवाया गया होगा। कौन नहीं समझता उप निरीक्षक (सब इंस्पेक्टर), छात्र (स्टूडेंट), जौहरी (ज्वेलर), हत्या (मर्डर), विशेष (स्पेशल), मुठभेड़ (एनकाउंटर)...वगैरह-वगैरह। ऐसे अनगिनत शब्द हैं जो हिन्दी में अच्छे-खासे प्रचलित हैं, खूब बोले जाते हैं, लेकिन न जाने क्यों साजिशन महज यह कहकर कि आम बोलचाल की भाषा है उन शब्दों को खत्म किया जाता है। निवेश को इनवेस्ट कहना या लिखना, पर्वतीय इलाके को हिल एरिया, खूबसूरत को ब्यूटीफुल, नख-शिख को टॉप टू बॉटम कहना या लिखना एक साजिश नहीं तो क्या है।
हिन्दी के प्रयोग को लेकर इस लेख का यह अर्थ कतई नहीं कि अन्य भाषा को दरकिनार कर दिया जाए। हर भाषा की अपनी गरिमा है। फिर हिन्दी की समृद्धता को लेकर तो किसी भी प्रकार का किंतु या परंतु है ही नहीं। आप लिखने-पढ़ने का कुछ काम हिन्दी में में कर रहे हैं तो उस भाषा के साथ पूरी तरह से ईमानदारी बरती जानी चाहिए। दिमाग पर ज्यादा जोर देने के बजाय आप कहीं पर भी कोई शब्द, खासतौर पर अंग्रेजी का शब्द चला देते हैं तो यह चलताऊपन खोखले दिमाग का परिचायक है। आप सोेचिए थोड़ा जोर डालिए, आपकी मेहनत उस कार्य में खूबसूरती ही लाएगी। पोस्टमैन को डाकिया लिख देंगे तो वह गलत नहीं हो जाएगा। इंडिविजुअल को व्यक्तिगत लिख देंगे तो गलत नहीं होगा। क्या हर्ज होगा यदि आप सोशल को सामाजिक, डिस्टेंस को दूरस्थ, कैंपस को परिसर और ग्रीनरी को हरियाली लिख लेंगे तो। हिन्दी भाषा के महत्व को समझिए, इसकी इस खूबसूरती को तो समझिए ही कि जैसा लिखेंगे वैसा ही बोलेंगे। साइकोलोजी जैसे शब्द का आपको भ्रम नहीं होगा, सीन जैसा कोई शब्द भ्रामक नहीं रहेगा।
केवल तिवारी

मिठास और हिन्दी भाषा के विविध प्रयोग

हिन्दी गद्य और पद्य के विकास में खास भूमिका निभaaने वाले कलम के सिपाहियों ने अपनी लेखनी से विविध प्रयोग किए। हिन्दी दिवस के मौके पर उनकी कुछ रचनाओं को अगर याद किया जाए तो उसमें घ्ाुली मिसरी का सहज ही भ्ाान हो जाएगा। इस पर चर्चा करने से पहले मुझे याद आते हैं वे दिन जब स्कूलों में हिन्दी साहित्य के इतिहास के संदभर््ा में अध्यापक याद कराने के लिए रोचक तरीके से चीजों को बताते थे। उदाहरण के लिए आधुनिक हिन्दी साहित्य यानी भ्ाारतेन्दु युग से पूर्व चार महत्वपूर्ण लेखकों के नाम और उनकी रचनाओं को इस तरह से याद कराया जाता था-
दोसा लाई
याद करने का सामान्य तरीका था दक्षिण भ्ाारतीय व्यंजन दोसा (डोसा) लेकर कोई आई। लेकिन असल में यह था दो बार स और ल औ ई। यानी पहले स से तात्पर्य था सदासुख लाल और दूसरे वाले स का मतलब था सदल मिश्र। फिर आते हैं ल और ई। ल से मतलब था लल्लूलाल और ई से तात्पर्य था इंद्गाा अल्ला खां। अब याद करनी थी इनकी रचनाएं। इसके लिए भ्ाी बहुत आसान तरीका निकाला गया। जैसा नाम वैसी रचना यानी सदासुख लाल में सुख द्गाब्द है तो उनकी रचना का नाम था सुख सागर और सदल मिश्र यानी जाति से ब्राह्मण तो संस्कृत का प्रयोग इनकी रचना का नाम भ्ाी क्लिद्गट था यानी नासिकेतोपाख्यान। फिर लल्लूलाल सामान्य नाम और उसी अनुरूप रचना प्रेम सागर। फिर आते हैं इंद्गाा अल्ला खां। इनका जितना बड़ा नाम उतनी ही बड़ी रचना। इनकी रचना का नाम था रानी केतकी की कहानी। यह प्रसंग तो सहज इस रूप में था कि कुछ लोग तमाम तरह के किंतु-परंतु और बहाने लगाते हैं हिन्दी साहित्य के विकास की गाथा समझने या समझाने में।
हम अगर बात करें रहीम और कबीर के जमाने की तो आज द्गाायद ही कोई मौका होगा जब इनकी रचनाओं का जिक्र नहीं होता होगा। कबीर की रचनाओं में जहां कहीं भ्ाी एकरूपता नहीं दिखती वहीं रहीम, मीरा, रसखान और तमाम कवियों की रचनाओं में खास समानता और विद्गोद्गा बोली नजर आती है।
कबीर कहीं पर लिखते हैं-
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
कबीर ही यह भ्ाी लिखते हैं-
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़
उन्हीं कबीर की रचनाओं में अेसे द्गाब्द भ्ाी दिखते हैं-
अंसड़ियां झाईं पड़ियां, पंथ निहारि-निहारि, जीभ्ाणियां छाला पड़ियां राम पुकारि-पुकारि
रहीम की रचनाओं की अगर बात करें तो उनके दोहों और छंदों में एक खास पैगाम होता था। रहीम एक जगह लिखते हैं-
कह रहीम कैसे निभ्ो, बेर-केर को संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग
रहीम जी ही यह संदेद्गा भ्ाी देते हैं-
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय
तोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाय।
मीरा की रचनाओं में अगर नजर दौड़ाएं तो भ्ाक्ति के रस में सराबोर उनके द्गाब्द कहते हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई
रसखान की रचनाओं का रस अलग ही है, वे कहते हैं-
मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन
जो पद्गाु हों तो बसेरो करों, मिली कालिंदी कूल कदंब की डारन।
असल में इन महान विभ्ाूतियों का जिक्र इसलिए कहा जा रहा है कि हिंदी का विकास अपने समय के हिसाब से होता रहा। हर काल में इसे एक नया रस, नया आयाम और नई अनुभ्ाूति मिलती रही।
भ्ाारतेंदु हरिद्गचंद्र के बाद जिसे हम आधुनिक हिंदी साहित्य का काल कहते हैं, में भ्ाी कई प्रयोग हुए। फिर हिंदी में द्गोरन्ओ द्गाायरी का दौर आया। इसमें दुद्गयंत के कई प्रयोग बेहद याद किए जाते हैं-
कौन कहता है आसमान में छेद नहीं होता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
इसी तरह की तमाम रचनाओं, जिनकी द्गाायरी में हिन्दी पुट दिखता है, में द्गाामिल हैं निदा फाजली, बद्गाीर बद्र वगैरह-वगैरह।
निदा फाजली लिखते हैं-
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीद्गाान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
हिन्दी की मिठास की गति में तमाम तरह के प्रयोग होते रहे। आधुनिक हिन्दी में छायावाद, प्रयोगवाद नव प्रयोगवाद, उत्तर आधुनिक काल तमाम चलते रहे। इस नए प्रयोग में एक लेखक की कविता पर गौर करिए-
मां जा रही हो
हां
कब आओगी
द्गााम को
क्या लाओगी
थकान
हिन्दी का यह सतत विकास ही है जब आज तमाम पत्र-पत्रिकाएं उत्तरोत्तर विकास कर रही हैं। चैनलों पर हिन्दी में काम हो रहा है। कॉल सेंटर में हिन्दी के लिए विद्गोद्गा प्रद्गिाक्षण दिया जा रहा है और कई अेसे ज्ञान-विज्ञान के चैनल हैं जिनके हिन्दी कार्यक्रमों को खासी ख्याति मिल रही है। हिन्दी रचनाओं में हर काल में चाहे वह भ्ाक्तिकाल हो, वीरगाथा काल हो या फिर आधुनिक काल अपनी रचनाओं का रचनाकारों ने डंका बजाया है। हिन्दी के इस सतत विकास को एक नमन।

केवल तिवारी
साभaar - इस्पात भाषा भारती