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Sunday, October 24, 2010

दायें या बायें नैनीताल फिल्म समारोह में भी

दीपक डोबरियाल अभिनीत फिल्म दायें या बायें को नैनीताल फिल्म समारोह में भी प्रदर्शित किया जाएगा।
एजेंसी वार्ता से जारी फिल्म के प्रदर्शन और अन्य जानकारियों के बारे में खबर
प्रतिरोध के सिनेमा का नैनीताल फिल्म समारोह 29 से
नई दिल्ली . 24 अक्टूबर . वार्ता . । प्रतिरोध के सिनेमा को परदा
मुहैया कराने वाला दूसरा नैनीताल फिल्म समारोह 29 से 3। अक्टूबर
तक आयोजित किया जाएगा ।
आयोजकों ने आज यहाँ बताया कि नैनीताल क्लब के शैले हाल में
आयोजित इस तीन दिवसीय समारोह में कुल तीन फीचर और लगभग
।5 डाक्यूमेंटरी फिल्में प्रदर्शित की जाएंगी । किसी प्रायोजक के
सहयोग के बिना आयोजित इस समारोह में हिस्सा लेने के लिए टिकट
या पास की जरूरत नहीं होगी ।
यह जन संस्कृति मंच के फिल्म समूह . द ग्रुप . प्रतिरोध के सिनेमा का
।5 वां समारोह होगा । इससे पहले ए समारोह गोरखपुर में पांच .
लखनऊ में तीन . भिलाई में दो और इलाहाबाद . पटना . बरेली और
नैनीताल में एक बार आयोजित किए जा चुके हैं ।
गिर्दा और निर्मल पांडे की याद में आयोजित इस समारोह में दिखाई
जाने वाली फीचर फिल्में बेला नेगी की दाएं या बाएं . परेश कामदार की
खरगोश और संकल्प मेश्राम की छुटकन की महाभारत होगी ।
समारोह में वसुधा जोशी की तीन डाक्यूमेंटरी फिल्मों अल्मोडियाना .
फार माया और वायसेस फ्राम बलियापाल का प्रदर्शन किया जाएगा ।
इसके अलावा गिर्दा और निर्मल पांडे पर प्रदीप पांडे . मोहन जोशी और
प्रदीप दास की लघु फिल्में भी दिखाई जाएंगी ।
इसमें दिखाई जाने वाली अन्य डाक्यूमेंटरी फिल्में होंगी संजय
काक की जश्ने आजादी . अजय भारद्वाज की कित्ते मिल वे माही .
देवरंजन सारंगी की हिन्दू टू हिंदुत्व . अनुपमा श्रीनिवासन की आई
वंडर और अजय टी जी की अंधेरे से पहले ।
फिल्मकारों के साथ सीधे संवाद के अलावा इस समारोह में उत्तराखंड
में हाल में हुई प्राकृतिक आपदा पर फोटो पत्रकार जयमित्र बिष्ट की
तस्वीरों की प्रदर्शनी भी लगाई

Friday, October 22, 2010

फिल्म दाएं या बाएं से दीपक की जोरदार एंट्री


मित्र राजेश के मार्फत मित्र बने दीपक डोबरियाल की एक और फिल्म आ रही है दाएं या बाएं। वह इसमें मुख्य किरदार की भूमिका निभा रहे हैं। 29 अक्टूबर को रिलीज हो रही है। संभव हो तो देख लें


जनकवि एवं समाजसेवी स्व. गिरदा ने भी निभाया किरदार
छोटे बजट की सशक्त फिल्म साबित होने का दावा
अगले हफ्ते रिलीज होने वाली कम बजट की फिल्म दाएं या बाएं से कई लोगों की उम्मीदें जगी हैं। बेला नेगी निर्देशित इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई है ओमकारा, 1971, दिल्ली-6, शौर्य, 13बी, गुलाल, मुंबई कटिंग, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दीपक डोबरियाल ने। फिल्म का निर्माण्ा और लेखन भी किया है बेला नेगी ने। इसमें जाने माने समाजसेवी एवं जनकवि गिरीश तिवारी उर्फ गिरदा ने एक स्कूल प्रधानाचार्य की भूमिका निभाई है।
नईदुनिया से फोन पर बातचीत करते हुए मुख्य किरदार निभा रहे दीपक डोबरियाल और बेला नेगी ने कहा कि फिल्म कम बजट की जरूर है लेकिन इसमें संदेश बहुत सशक्त है। फिल्म में दीपक शहरों में पढ़ा-लिखा एक युवक है। वह पहाड़ के अपने गांव में आकर वहां अध्यापक लगता है। उसकी दिली इच्छा है कई तरह के परिवर्तन की। उसके रास्ते में आने वाली अड़चनों और अंतत: उनसे पार पाने को बहुत ही अच्छे ढंग से फिल्माया गया है। हिंदी भाषा में बनी इस फिल्म के सभी दृश्य पहाड़ी इलाकों की है। फिल्म में वहां के जन-जीवन को और उनसे जुड़ी अन्य बातों को भी बहुत सशक्त तरीके से दिखाया गया है। दीपक और गिरदा के अलावा फिल्म में मानव कौल, बदरुल इस्लाम, भारती भट्ट, प्रत्यूष डोकलन आदि हैं। फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि यह फिल्म अपने सशक्त पटकथा और पहाड़ों की पृष्ठभूमि को सशक्त माध्यम से उठाने के लिए तो चर्चित रहेगी ही महान आंदोलनकारी एवं कवि गिरीश तिवारी गिरदा, जिनका हाल ही में निधन हुआ था, को भी श्रद्धांजलि होगी।
केवल तिवारी

Tuesday, October 19, 2010

महाश्वेता देवी से बहुत प्रभावित हैं नुजहत हसन

करीब सालभर पूर्व नेश्ानल बुक ट्रस्ट की निदेशक नुजहत हसन (वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी) नईदुनिया दफ्तर में आईं थीं। उनके पति भी आईपीएस अफसर हैं। पुलिस प्रशासन में भी काम करने का उनका लंबा अनुभव है। उनसे नईदुनिया की मेट्रो टीम ने विस्तार से बातचीत की और मैंने बाद में उस बातचीत को खबर के रूप में लिखा। पेश है ब्लॉग पढ़ने वालों के लिए वह स्टोरी:
एनबीटी निदेशक नुजहत हसन से बातचीत

सारे मनुष्य बुनियादी तौर पर एक जैसे हैं
काम कोई भी हो रमने पर अच्छा लगता है
पुलिस की वर्दी और नए काम से कुछ सीखा ही है
किसी को भी कभी मुगालते में नहीं रहना चाहिए
पुलिस अफसर से किताबों की दुनिया में बैठने का काम तो एकदम अलग है, लेकिन इससे बहुत कुछ नया सीखने को मिला है। नेशनल बुक ट्रस्ट की निदेशक आईपीएस अधिकारी नुजहत हसन का मानना है कि चीजें बदलने से अनुभव ही मिलता है। नईदुनिया दफ्तर में आईं श्रीमती हसन ने अपने पुलिस सेवा के अनुभवों और निजी जीवन के बारे में विस्तार से बात की। पेश है बातचीत के कुछ अंश

कुछ मामले आर्थिक पहलुओं के चलते रुक जाते हैं और कुछ पर योजनाएं कारगर नहीं हो पाती। लेकिन आशाजनक यह है कि पुस्तक संस्कृति बेहतर तरीके से विकसित हो रही है। अच्छे विषयवस्तु के साथ तमाम भाषाओं में पुस्तकों के प्रकाशन से हमें बेहद खुशी है और एकदम बदले परिवेश में काम करने का अनुभव भी अच्छा मिल रहा है। नेशनल बुक ट्रस्ट की निदेशक नुजहत हसन का कहना है कि किताबों की दुनिया में आकर बहुत कुछ नया सीखने को मिला। यहां आकर ही मैं महाश्वेता देवी के करीब आई और उनसे बहुत प्रभावित हुई।
बातचीत के दौरान पुरानी यादों को कुरेदने का जब सिलसिला शुरू हुआ तो तमाम यादों को उन्होंने बांटा। कोई यादगार लम्हे के बारे में पूछने पर श्रीमती हसन ने बताया कि एक छोटी सी घटना है, लेकिन है बहुत रोचक। उन्होंने बताया कि घटना तब की है जब वह पूर्वी दिल्ली में पुलिस उपायुक्त थीं। किसी इलाके में चोरी हो गई। घटना का विस्तृत विवरण लिखा जा रहा था, तभी एक किशोर बोला कि मेरे नए जूते खो गए हैं। जूते बहुत अच्छे थे। उस समय पुलिस ने इसे बहुत सामान्य अंदाज में लिया। असली मकसद चोरों का भांडा फोड़ना था। लेकिन बाद में जब रिकवरी हुई तो वे जूते भी बरामद हो गए। सामान जब सौंपा गया तो उस बच्चे की खुशी देखने लायक थी। हमें तब बेहद सुकून मिला।
एनबीटी निदेशक नुजहत हसन ने कहा कि एक अजीब सा यह अनुभव भी रहा कि लोग पूरी जानकारी के बगैर आरोप लगाना शुरू कर देते हैं। उन्होंने कहा कि एक बार बच्चा खोने की एक घटना में लोग पुलिस पर आरोप लगा रहे थे कि जांच ठीक नहीं हो रही। मुझसे लोगों ने लिखित शिकायत की। मैंने जब अपने स्तर पर मामले को देखा तो जांच सही दिशा में चल रही थी। कुछ दिनों बाद बच्चे को मुक्त भी करा लिया गया।
फिलहाल वर्दी का रौब छूट गया है, अजीब नहीं लगता, पूछने पर उन्होंने कहा कि किसी को भी कभी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। आज वर्दी है, कल नहीं भी हो सकती है। फिर एक जैसे काम से बोरियत भी तो हो जाती है। हां एनबीटी में आने पर शुरू में अजीब थोड़ा इसलिए लगा कि इस ढांचे को ठीक से जानती नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। उन्होंने कहा कि बुनियादी तौर पर मनुष्य एक जैसा होता है। श्रीमती हसन ने कहा कि वह कई बार खुद से ही सवाल करती हैं। यदि कोई अपने काम को ही ठीक से आंक ले तो सबकुछ ठीक हो जाता है।
खुद आईपीएस अधिकारी और जीवन साथी भी आईपीएस हैं, कैसे निभती है पूछने पर श्रीमती हसन बोलीं, मैं कुछ भी होती, लेकिन शादी पुलिस अफसर से ही करती। क्यों? नुजहत कहती हैं कि जो व्यक्ति इतने सारे पुलिसिया महकमे को देख रहा है, वह निश्चित रूप से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी संतुलन बनाए रखेगा। पुलिस अधिकारियों का घर में भी समान रौब चलता है, पूछने पर श्रीमती हसन ने कहा कि दरवाजे तक पुलिस की वर्दी होती है, अंदर हर कोई आम इंसान होता है। बातों बातों में पुलिस और हिंदी फिल्मों की बात छिड़ गई। एक सवाल के जवाब में श्रीमती हसन ने कहा कि पुलिस की छवि का नुकसान जितना ज्यादा हिंदी ने किया है, उतना किसी ने नहीं। इसी संदर्भ में उन्होंने यह भी कहा कि उनकी रुचि खुद फिल्मों के निर्माण की है, लेकिन कई बार आदमी चीजों को सिर्फ सोच ही पाता है। पुलिस सेवा में फिर कब से लौट रही हैं, सवाल पर पहले श्रीमती हसन हंसती हैं फिर कहती हैं आना तो है ही। जब हुक्म आ जाए।

Sunday, October 17, 2010

फ्लैट संस्कृति में कन्या पूजन कार्यक्रम से गदगद हुआ

शहरी जीवन खासतौर पर फ्लैट संस्कृति में एकाध मौकों को देखकर लगता है जैसे चहल-पहल लौट आई। जैस नवरात्र का ही मौका। लोग अचानक भक्ति में लीन दिखते हैं। इस दौरान शराब नहीं पीते। यह अलग बात है कि विजयदशमी के दिन से ही फिर कई रावण जिंदा हो उठते हैं। मुझे भक्ति का प्रदर्शन तो बहुत खराब लगता है जैसे माइक लगाकर फुल स्पीड में जागरण करना, रामायण पाठ करवाना, वगैरह-वगैरह। लेकिन इस बार की नवरात्र में मैं कन्या पूजन कार्यक्रम देखकर बहुत गदगद हो गया। पत्नी के विशेष आग्रह पर मैंने भी कन्याओं को खिलाने के कार्यक्रम के लिए सहमति दी। वह बच्चियों के लिए कुछ उपहार खरीद लाई। तय हुआ कि सुबह जल्दी उठकर पकवान बनाए जाएंगे, पूजा की जाएगी और कन्याओं को खिलाया जाएगा। कन्याओं का हिसाब लगाया गया फ्लैट नंबर से। हमारी कालोनी में 30 ब्लॉक हैं। प्रत्येक ब्लॉक में 16 फ्लैट हैं। मेरे ब्लॉक में एक घर अब तक बंद पड़ा है, यानी वहां कोई नहीं रहता। इस तरह 15 घर हैं। एक घर में स्टूडेंट्स ही रहते हैं। यानी घर में बच्चों वाला माहौल नहीं है। चार-पांच फ्लैट ऐसे हैं जिनमें फ्लैट के मालिक नहीं रहते। किराएदार अक्सर बदलते रहते हैं। इस तरह फ्लैट नंबरों से कन्याओं का हिसाब लगाया गया। जैसे एक बच्ची 3108 में है। एक 2109 में है। एक बगल के ब्लाक में 2080 में है, वगैरह-वगैरह। मेरे गदगद होने की यही मुख्य वजह थी। अपने परिवार, मोहल्ले, रिश्तेदारी में पहले भी कन्या पूजन कार्यक्रम देखे थे। ज्यादातर जगह देखा कन्या पूजन में भी जात-पात का खास ख्याल रखा जाता था। कभी गांव गया तो वहां तो पूरा गांव ही ब्राह्मणों का था। कभी कन्याएं कम हुईं तो यह कभी न सुना और न देखा कि किसी ठाकुर साहब की बेटी को बुला लिया गया हो या फिर किसी शिल्पकार (अनुसूचित जाति) की बेटी को। पंडित की ही बेटी होनी चाहिए। कम हो गई तो एक हिस्सा ऐसे ही रखकर किसी पंडित को दान दे दिया गया।
इस बार नवरात्र में इस फ्लैट संस्कृति में पत्नी के आग्रह पर कन्या पूजन कार्यक्रम में मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया। ये बच्चियां कौन-कौन हैं। उसने फ्लैट नंबर गिना दिए। मैंने कुरेदा अरे भई ये बताओ कि पांडेजी की बेटी है, शर्माजी की बेटी है, तिवारी जी की है या किसकी। पत्नी ने कहा, मुझे नहीं मालूम। यह बच्ची तान्या है, यह श्रद्धा है। यह तीसरी बगल वाले ब्लॉक से आई है। दो ये नीचे यादव जी की बेटियां हैं और वह त्यागी जी की। यादवजी को और त्यागीजी को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं क्योंकि कभी आरडब्लूए में सक्रियता के चलते और कभी जीना उतरते-चढ़ते नमस्कार हो जाती है। उनकी बच्चियां भी अंकल नमस्ते करती हैं। मुझे बहुत खुश्ाी हुई। यह जानकर कि पत्नी ने कन्याओं के इंतजाम में जाति का ब्रेकर नहीं लगाया है। काश! ऐसा ही हो हर मामले में। कन्या पूजन में जैसे किसी पांडेजी, तिवारी जी, शर्माजी को नहीं ढूंढ़ा गया, इसी तरह अन्य मसलों पर भी यह सब नहीं देखा जाता। नवरात्र पर ऐसी कन्या पूजन से मैं वाकई खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं।
उधर विजय दशमी की शाम को ही नौ दिन के सूफी लोगों को रावण जैसा बनते भी मैंने देखा। कुछ तो प्यालों पर ऐसे टूट पड़े जैसे जेलखाने से छूटा आदमी बाहर की दुनिया देखता है। उनकी इस भगवत भक्ति पर वही शेर याद आया
मस्जिद में बैठकर पीने दे मुझे, नहीं तो वह जगह बता जहां खुदा नहीं।
केवल तिवारी

मित्र के ब्लॉग सोत्डू पर एक पीस अच्छा लगा हूँ ब हूँ यहाँ दे रहा hoon

बॉसत्व एक भाव है.... स्थिति नहीं, पद नहीं.... भाव। कुछ लोग इसी भाव के साथ पैदा होते हैं (प्रोफेशन में)..... कुछ लोग उम्र गुज़ारने के बाद भी- पद पाने के बाद भी इस भाव को प्राप्त नहीं हो पाते.... कुछ जो ज़्यादा स्मार्ट होते हैं, मौका मिलते ही भाव को प्राप्त हो जाते हैं.... लेकिन ऐसे विरले ही होंगे जो पद न रहने पर इस भाव से मुक्ति पा जाएं.....
पहले भी सोचता रहा हूं- पिछले कुछ वक्त से ज़्यादा साफ़ दिख रहा है कि - अपन बॉस मटीरियल नहीं हैं। बॉसत्व प्राप्त लोगों से अपनी कभी अच्छी पटी भी नहीं.... कुछ मित्र भी बॉसत्व को प्राप्त हो गए हैं लेकिन वो तभी तक मित्र हैं जब तक उनके साथ काम न करना पड़े (एक के साथ करना पड़ा तो अब वो मित्र नहीं है)।
वैसे बॉसत्व की एक स्थिति को मैं भी प्राप्त हो गया हूं (करीब साल भर से) लेकिन भाव को प्राप्त नहीं हो पाया। अब भी मैं एक टीम लीडर ही हूं। वही टीम लीडर जो अमर उजाला में था (चाहे टीम दो-तीन आदमियों की क्यों न हो)। निश्चित काम, काम की निश्चित शर्तें और उसे डिलीवर करने का निश्चित समय। इन चीज़ों के साथ अपन ठीक रहे..... थोड़ी-बहुत जॉब सेटिस्फेक्शन भी मिलती रही। लेकिन बॉस के मन को पढ़ लेने की कला में अपन हमेशा ही पिछड़े रहे.... इसलिए करियर में भी पिछड़े ही रहे।
ये बात अब पुरानी हो गई है कि जिन्हें हम चूतिया कहते थे (काम के लिहाज से) वो आगे बढ़ते रहे..... अब वो इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उन्हें चूतिया कहना दरअसल खुद बनना है। पहले तो समझ नहीं आता था अब साफ़ दिखता है.... काम करने वाला हमेशा काम ही करता रहेगा और तरक्की करने वाला तरक्की का रास्ता ढूंढ ही लेगा।
अभी कुछ वक्त पहले एक ने पूछा-
कहां हो
यहीं
मतलब काम कहां कर रहे हो
काम या नौकरी
मतलब
मतलब काम क्या और नौकरी कहां
अच्छा नौकरी कहां कर रहे हो
साधना न्यूज़ नोएडा
(मुझे पता था वो कहां है) तुम क्या कर रहे हो
वही जो हमेशा करते थे
मतलब- बकलोली
वो बुरा मान गया
लेकिन वो बॉस हो ही नहीं सकता जिसे बकलोली न आती हो..... बॉस से दबना और जूनियर्स को दबाना... ख़बर या अफ़वाह सही आदमी तक पहुंचाना.... बॉस के मूड के हिसाब से काम करना और सही वक्त पर सही आदमी चुनकर उसके लटक जाना..... इसके अलावा तरक्की का क्या कोई और नुस्खा है ?
अगर जानते हो तो मुझे भी बताना
साभार सोत्डू

Sunday, October 10, 2010

व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस

भ्रष्टाचार एक वायरस की तरह आज पूरी व्यवस्था में घुस चुका है। इसकी गहरी जड़ों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आधिकारिक रूप से लिए गए निर्णय और उसके बाद कार्रवाई पर भी इसका चाबुक बीस साबित हो जाता है। व्यवस्था में बने रहने की बात हो या उसी का हिस्सा बनने की, भ्रष्टाचार का गोल चक्कर ऐसा है कि यह जुमला बन गया कि 'मुफ्त में कुछ नहीं होता।"
मृत्यु प्रमाणपत्र बनाने की बात हो या फिर शवों की अंत्येष्टि का मामला, शल्य चिकित्सा और दवा आपूर्ति का मामला हो सामान्य ट्रैफिक चालान से लेकर एफआईआर दर्ज करने की बात या फिर कोर्ट में चल रहा ट्रायल, राशन कार्ड से लेकर भू रिकॉर्ड की बात हो या पार्किंग से लेकर रेहड़ी-पटरी की बात हो। निर्माण की अनुमति का मामला हो या फिर तोड़फोड़ कार्रवाई की बात, खरीद मामला हो, फाइल आगे बढ़ाने की बात हो, चेक भुगतान का मामला हो, विकास कार्य या कल्याण योजना की बात हो, विभिन्न् तरह के अनापत्ति प्रमाणपत्र की बात हो या फिर कर निर्धारण का मामला। बात किसी की नियुक्ति या प्रोन्न्ति का हो, स्थानांतरण या फिर दंडित करने की बात। या यह कहें कि कोई भी सरकारी कामकाज, सबमें आज स्थिति यह है कि लेने-देने की बात को जैसे आत्मसात कर लिया गया हो। शायद ही कोई ऐसा काम होगा जहां लेन-देन की प्रकिया या इसकी बात न होती हो।
भ्रष्टाचार के वायरस का एक भयावह पहलू यह भी है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा व्यक्ति इससे बच निकलने का रास्ता भी जानता है। कैसे वह पकड़ से बाहर रहे और यदि पकड़ा भी जाए तो कैसे उससे बचा जाए उसे भलीभांति आता है। व्यवस्था के कई चक्र ऐसे हैं कि जांच में भी मुश्किल आती है। असल में लंबी न्यायिक प्रणाली, गवाहों की खरीद-फरोख्त और लंबा समय निकलने के बाद यह युक्ति का चल जाना कि 'वह तो अब तक दोषी साबित नहीं हुआ" इस मामले को और घातक बनाता है। लगता है हमारे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जोश-ओ-खरोश दिखाने में कुछ हिचकिचाहट है। इससे इतर स्कैंडिनेवियाई जैसे न्यूजीलैंड या ऐसे ही कुछ और देशों में इसके स्तर को दसवें हिस्से तक लाया जा चुका है। अपने यहां हम यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस मामले में 'शून्य सहनशीलता" का फार्मूला अपनाएं या इसे छोड़ देने का। हमारे यहां भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में उत्साही कदम बढ़ाने के बजाय ज्यादातर ध्यान और शक्ति दिखावे के कामों में बर्बाद हो रही है।
कितना दुखद पहलू है कि सार्वजनिक सेवा में आने के बाद शपथ लेने वाले अगले ही पल उसका अनुपालन भूल जाते हैं। वह शपथ लेते हैं कि 'हम भारत के सार्वजनिक सेवा में जुड़े लोग सत्य और निष्ठा से शपथ लेते हैं कि अपने हर तरह के कार्य में पारदर्शिता बरतते हुए एकता को कायम रखते हुए भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कार्य करते रहेंगे।" आज यह सर्वविदित है कि कितने लोग शपथ पर कायम रह पाते हैं।
भ्रष्टाचार उन्मूलन के मामले में एक महत्वपूर्ण बात सबके लिए विचारणीय है कि भ्रष्टाचार के विष को खत्म करने में अगर हम खुद को असमर्थ पाते हैं तो कम से कम उसके प्रसार को रोकने में तो कुछ भूमिका निभाई जा सकती है। इस संबंध में जोसेफ पुलित्जर ने संभवत: सही कहा है, 'किसी भी अपराध, चकमेबाजी, चाल, ठगी, अनैतिक कार्य गोपनीय नहीं रह सकते। इन सब चीजों को खुले दिमाग से मीडिया के माध्यम से सबके सामने रखें, गलत पर प्रहार करें, उनका तिरस्कार करें फिर देखिए जल्दी ही जनमत उन्हें साफ कर देगा।" यानी भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को सामाजिक बहिष्कार का कड़वा घूंट देना होगा। समाज को इस दिशा में अपना रुख बदलना होगा तभी सदियों पुरानी इस बीमारी का मुकाबला करने में कुछ सफलता मिल सकेगी।
हमारे समाज में भ्रष्टाचार कोई एक दिन में पनपा विषाणु नहीं है। चाणक्य ने भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए कई कदम उठाए। अकबर ने भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए कई सख्त फैसले सुनाए। इसी तरह अंग्रेजों के शासनकाल में वारेन हेस्टिंग और रॉबर्ट क्लाइव के भ्रष्ट आचरण की बात सब जानते हैं। इस कारण ईस्ट इंडिय कंपनी को हुए नुकसान और भ्रष्टाचार मसले पर उनको दिए दंड की बहुत चर्चा होती है। आजादी के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि स्वशासन के लिए प्राप्त आजादी में कई लोगों के बलिदान, नैतिक समर्थन आदि को भुलाकर कुछ लोग निजी स्वार्थों के लिए तंत्र का उपयोग कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार को लेकर हमारे समाज में अजीब तरह का विरोधाभास है। एक तरफ सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की उम्मीद की जाती है, दूसरी तरफ भ्रष्ट लोगों को एक खास किस्म का सम्मान मिलता है। भ्रष्टाचार के कुछ बड़े मामले जैसे पशुपालन, जेएमएम घूसकांड, संसद में सवालों के लिए पैसा, ताज कॉरिडोर आदि इसके उदाहरण हैं। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि समाज का एक विशेष बड़ा तबका (सफेदपोश) ज्यादा खतरनाक भ्रष्ट लोगों में शुमार है। जनता के पैसे डकारना और सरकारी पैसे को चबा जाना जैसे आयकर की चोरी, स्टांप शुल्क, सीमा शुल्क आदि की चोरी या अधिनियम का उल्लंघन बहुत घातक है। इस तरह के मामलों में छोटी सी चोरी करने वाला तो पकड़ा जाता है, बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन चारों ओर से मशीनरी का दुरुपयोग करने वाले को या तो बख्श दिया जाता है या फिर उसे पकड़ने की नीयत साफ नहीं होती। कभी पकड़ होती भी है तो ऐसे लोग एक जनसमूह को अपने पक्ष में ला खड़ा करता है।
ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम नहीं उठाए गए। बड़े-बड़े प्रयास हुए, अधिनियम आए लेकिन समय-समय पर बदली परिस्थितियों और अन्य कमियों के चलते वे कारगर नहीं हो पाए। असल में हमारी मशीनरी इस शक्तिशाली वायरस (भ्रष्टाचार) से लड़ने के लिए पर्याप्त रूप से सफल नहीं हो पाई। 1947 के पीसी अधिनियम की धारा 5 के तहत तीन साल की सजा का प्रावधान रखा गया। एक आशावादी धारणा थी कि भ्रष्टाचार पर इस तरह की सख्ती से अंकुश लग जाएगा। ऐसा नहीं होने पर 1950 में इसे पांच साल किया गया। 1952 में सजा के नाम पर इसे दस साल का प्रावधान किया गया। लेकिन सिर्फ प्रावधान बना देने से कुछ नहीं होता। फिर हुआ वही जिसकी आशंका थी, यह वायरस बढ़ता ही रहा।
ऐसा नहीं कि पूरी व्यवस्था में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार व्याप्त है। लेकिन बाहुबलियों, सार्वजनिक सेवकों और कुछ नेताओं का ऐसा गठजोड़ है कि भ्रष्टाचार का भूत ज्यादा शक्तिशाली हो गया है।
भ्रष्टाचार के कई कारण हो सकते हैं लेकिन पिछले दशकों में यह बात सामने आई कि महंगा चुनाव राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारणों में प्रमुख है।
भ्रष्टाचार के बड़े पैमाने पर भांडा फोड़ने की जब हम बात करते हैं तो सबसे पहले तहलका का स्टिंग हमारे सामने आता है। मार्च 2001 में उसके खुलासे ने सनसनी फैला दी थी। रक्षा सौदों में घोटालों की यह बात उजागर होने से लोगों को गहरा धक्का लगा। फिर बीएमडब्लू हिट एंड रन मामले में न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार का खुलासा एनडीटीवी ने किया।
भ्रष्टाचार के संदर्भ में अगर हम धोखाधड़ी की बात करें तो कई मामले सामने आते हैं। जैसे परिवहन विभाग में लाइसेंस धोखाधड़ी, एमसीडी से संबंधित नालों से गाद निकालने का मामला, सामाजिक कल्याण विभाग में आवंटित धन की बंदरबांट। इन सबमें वरिष्ठों द्वारा मातहत के कंधे पर बंदूक रखकर रिश्वत लेने के कई मामले सामने आए। संगठनात्मक रूप से भी भ्रष्टाचार के कई मामलों को पिछले कुछ समय में खुलासा हुआ। जैसे नई दिल्ली नगर पालिका परिषद में दो दर्जन के करीब लोगों का स्टिंग हुआ। ट्रैफिक पुलिस का भांडा फूटा। खुलासे होने के क्रम में एक परिवर्तन यह सामने आया कि कई पीड़ित अपनी ओर से टैप या रिकॉर्ड करके भ्रष्टाचार निरोधक शाखा या ब्यूरो के पास आने लगे। असल में शाखा या ब्यूरो की सफलता भी इस पर निर्भर करती है कि तमाम मामलों को गुप्त रखते हुए त्वरित कार्रवाई की जाए।
भ्रष्टाचार रूपी वायरस को खत्म करने या इसको धीरे-धीरे अपनी व्यवस्था से हटाने का कोई सेट फॉर्मूला नहीं बना है। नोटिस देने, पैंफलेट चिपकाने, होर्डिंग्स बनाने या भ्रष्टाचार निरोधक सप्ताह मनाने भर से कुछ नहीं होगा। शपथ लेना या उक्त अन्य कार्य हमारी मानसिकता को नहीं बदल सकते। हमें अरुणाचल प्रदेश या इसी तरह की कई अन्य इलाकों की कुछ प्रथाओं से सबक लेना चाहिए। वे ऐसे मामलों में अपने रीति-रिवाजों के हिसाब से दंडित करते हैं। भ्रष्टाचार के बारे में पता लगने पर ऐसे व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ तमाम कार्रवाई के साथ ही भ्रष्ट के सामाजिक बहिष्कार की भावना को बलवती करना होगा। ईमानदार लोगों को एक सामाजिक पुल के रूप में काम करना होगा। भ्रष्टाचार इसी गति से बढ़ता रहा तो यह उन चंद लोगों के विश्वास को डिगाएगा जिन्हें इस वायरस ने अभी नहीं छुआ है।

लेखक डॉ. एन दिलीप कुमार वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त हैं उनके इस लेख को मैंने अनुवाद किया था : केवल तिवारी। साभार : नईदुनिया