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Sunday, December 26, 2010

इन 'पुत्रों" की लंबी उम्र नहीं चाहते लोग

इस बार भी 'बेटा" ही हो गया। चार दिन से ज्यादा नहीं बचेगा। उसे दूध ही नहीं दिया जाएगा। दूध पिलाएंगे भी क्यों। इतनी मतलबी दुनिया में जब ये किसी काम ही नहीं आएंगे फिर इन्हें पालकर क्या होगा। ज्यादा पुरानी बात नहीं कुछ साल पहले की ही बात है, कुछ काम तो ये आ जाते थे। हल जोतने के या फिर सामान ढोने के। लेकिन अब तो ये बेटे उस लायक भी नहीं रहे। जी हां! यही हो रहा है। इन बच्चों को तड़पाकर मारा जा रहा है। यह अलग बात है कि इनके मरने पर कोई रोने वाला नहीं। इनकी मां थोड़ी खटपट करेगी भी तो उसे भी डंडे के जोर पर जुल्म ढाकर ठंडा कर दिया जाएगा।
मैं बात कर रहा हूं। पशुओं के बेटों की। यानी गाय-भैंसों के बच्चों की। दिल्ली-एनसीआर में हाल बुरा है। एक तो जमीन कम हो गई है। उस पर मुआवजे का पैसा लोगों को मिला है। दूध के लिए गाय-भैंसें लोगों ने पाली हैं। यदि बछिया या पड़वा हो गया तो ठीक है, लेकिन बछड़ा या कटरा हो गया तो खैर नहीं। अब न तो कोई उन्हें खरीदता है और न ही वे सामान ढोने के कार आ रहे हैं। लोगों के पास महंगी गाड़ियां हो गई हैं। ट्रैक्टर हो गए हैं। रहट अब चलता नहीं। खेती-बाड़ी के काम में जानवरों को इस्तेमाल नहीं होता। गाय-भैसों को मशीन से गाभिन कर दिया जाता है। ऐसे में दूध के लिए गाय-भैंस पालने वाले ऐसी व्यवस्था कर देते हैं कि यह जानवरों का बेटा बस दो-चार दिन देख ले इस दुनिया को फिर नमस्ते। एक तरफ इनसान खुद का बेटा होने के लिए मन्न्तें मांगता है। भू्रण हत्या करने से भी बाज नहीं आता दूसरी तरफ ये जानवरों की दुर्दशा है। सब दुनियादारी है, हमारी-आपकी बनाई हुई। कोई ऐसा जानवर बच भी गया तो जल्दी ही कसाईयों के हवाले हो जाता है। दुनिया महान, दुनियादारी महान।

Friday, December 10, 2010

करीब सात साल पुराना एक ब्लॉ : फिर एक अपराध बोध

शायद और लोगों के साथ भी ऐसा होता हो, पर मेरे साथ यदा-कदा ऐसा होता है जब मुझे अपराध बोध होता है। हालिया घटना एक अजीबोगरीब है। मैं ऑफिस की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था और मुझे मंडी हाउस जाने की जल्दबाजी थी। वहां मेरी दीदी आई हुई थी। कुछ देर वहां रुककर मुझे तुरंत ऑफिस वापस भी आना था। मेट्रो की भीड़ और शाम छह बजे की नजाकत (उल्लेखनीय है शाम का यह समय हम जैसे कथित पत्रकारों यानी डेस्क पर काम करने वालों के लिए बहुत ही व्यस्तता वाला होता है।) उस पर एक मीटिंग का, होगी या नहीं होगी का झंझट। अंतिम सीढ़ी के पास एक किशोर एक महिला के साथ वहां खड़े थे। वह महिला शायद उस किशोर की मां होगी। किशोर मेरी तरफ मुखातिब होकर बोला, सर यहां टॉयलेट कहां है। क्या बताता....., कनॉट प्लेस में सार्वजनिक टॉयलेट तो कहीं नजर आते ही नहीं। फिर हमारी बिल्डिंग के नीचे जो एक विश्वविद्यालय का फ्रेंचाइजी दफ्तर है, का एक टॉयलेट वहां पर था जहां उस समय तक ताला लग चुका था। शाम हो गई थी, उस दफ्तर के लोग घर जा चुके थे। मैंने वहां एक नजर दौड़ाई फिर कहा, यहां तो कहीं नहीं है। फिर उनकी तरफ देखे बगैर मैं भागने लगा। मैं दौड़ता हुआ राजीव चौक मेट्रो स्टेशन के ए ब्लॉक से नीचे उतर गया। साथी पत्रकार से मेट्रो स्मार्ट कार्ड मांगकर ले गया था, दनादन अंदर चला गया। मेट्रो में चढ़ने ही वाला था कि ऑफिस से कॉल आ गई तुरंत आओ मीटिंग होगी। वापस आया। मेट्रो के नियमानुसार कार्ड में से छह रुपए कट गए। ऑफिस के नीचे आकर उस युवक और महिला को इधर- उधर देखा। वे नहीं थे। चुपचाप आकर मीटिंग में बैठ गया। अपने काम के लिए जिस तेजी से भागा। फिर ऑफिस के लिए जिस तेजी से आया। इस बीच यही सोचता रहा काश मैं उस किशोर या महिला के लिए दो मिनट और खर्च कर लेता। मैं उन्हें अपने ऑफिस का टॉयलेट दिखा देता। वह बहुत परेशानी में थे। काश! ऐसा किया होता। उनके लिए महज दो मिनट खर्च न कर पाने के अफसोस के पीछे भी शायद मेरा ही स्वार्थ था कि यदि में इतना और रुक गया होता तो भागदौड़ बचती और जो बेवजह आठ रुपए स्मार्ट कार्ड से कट गए वह भी बच जाते। सही में हम लोग कितना आत्ममुखी, आत्मसुखी और स्वार्थी हो गए हैं।