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Saturday, August 24, 2013

तान्या जब बन गयी निशा

जिन लोगों ने मेरी कहानी एक थी तान्या पढ़ी है, उन्हें यह कहानी अच्छी तरह समझ में आ जाएगी। वैसे जो लोग उसे नहीं पढ़ पाये थे, वे भी इस कहानी को लेकर कुछ तो जुड़ाव महसूस करेंगे, यह मेरी उम्मीद है।

तान्या के बारे में जब खबर लग गयी कि उसका बचना मुश्किल है तो कोई भी कंप्यूटर स्क्रीन पर उसके ऑनलाइन होने का इंतजार नहीं करता। न मोहित बाबू, न जोगेन्द्र और न ही उनका टीम लीडर रोहित। आईटी विभाग में हैं ये लोग। शिफ्ट बदलती रहती है। ज्यादातर की जनरल शिफ्ट रहती है। पहले सबको शाम होते-होते तान्या का इंतजार होने लगता था। तान्य, अनदेखी लडक़ी। खुद को एक पत्रकार बताने वाली। जीमेल पर दोस्त बनी। सबसे बात करती। चैटिंग के जरिये। न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन की तरह। जानते सब थे कि तान्या से चैटिंग पर हर कोई लगा रहता है, लेकिन छिपाते भी सब थे एक दूसरे से। और जब खबर लगी कि उसका एक्सीडेंट हो गया है। बुरी तरह से चोटिल है। अस्पताल में भर्ती है। किसी ने फिर कुछ भी जानने की जहमत नहीं उठाई। कोई उसके ऑनलाइन होने का इंतजार भी नहीं करता। कुछ लोगों ने चैटिंग बॉक्स में जाकर उससे हुई चैटिंग टैक्स्ट को ही डिलीट कर दिया है। अब क्या याद रखना।
अब तो हालत यह रही कि कुछ लोगों के पास शाम के चार से छह बजे तक जैसे कोई काम ही नहीं बचता था। पहले तान्या से चैटिंग में बिजी रहते। अब बस घर जाने के लिए ड्रॉपिंग वाली गाड़ी का इंतजार करते। लेकिन यह क्या धीरे-धीरे लोगों ने फिर से अपने कंप्यूटर स्क्रीन को छिपाना शुरू कर दिया है। जोगेन्द्र बाबू ने स्क्रीन को तिरछा कर लिया है और थोड़ा झुका भी लिया है। क्या फिर से तान्या आ गई है। पहले तो स्क्रीन को छिपा-छिपाकर चैटिंग का यह कार्यक्रम शाम के वक्त ही होता था, लेकिन अब हर समय होता है। आखिर हुआ क्या है। मोहित जी सोचते, अगर तान्या ठीक होकर आ गई होती तो हमारे जी मेल पर भी तो ऑन लाइन दिखती। टीम लीडर रोहित जी का पता लगाया जाये। आखिर उन्होंने ही तो तान्या की पूरी खोजबीन कर ली थी। उसका बायोडाटा तक मंगवा लिया था। फोन नंबर पता कर लिया था। यह भी पता लग गया था कि वह जालंधर में है। सब लोग जब उसके ऑन लाइन न होने से दुखी थे तब रोहितजी ने ही तो सारा माजरा पता लगवाया था। लेकिन रोहित जी के हावभाव देखकर नहीं लगता कि तान्या फिर से ऑन लाइन हो गयी है।
तान्या के एक्सीडेंट की खबर सुनकर सब परेशान तो थे, लेकिन सिर्फ इस बात से कि अब चैटिंग किससे होगी। आज अगर कुछ लोग उत्साहित हैं तो सिर्फ यह जानने के लिए कि क्या तान्या ऑन लाइन हो गयी है। उसे कितनी चोट लगी, अब वह कैसी है। जिंदा है भी या नहीं। इन बातों से किसी को कोई मतलब नहीं था। उन्हें तो बस शाम का कुछ वक्त चाहिए था चैटिंग के लिए। बस एक महिला होनी चाहिए, जबकि किसी को यह भी मालूम नहीं था कि तान्या वाकई कोई लडक़ी थी भी या कोई काल्पनिक महिला थी। ऐसा तो नहीं कि उन्हीं के बीच का कोई बंदा हो जो उन्हें तान्या बनकर मजे ले रहा हो। लेकिन कौन हो सकता है। हर कोई तो तान्या के चैटिंग प्रेम का दीवाना था। इन सबमें जवान लोगों के साथ-साथ तीन-चार बच्चों के बाप तक शामिल थे। ऑफिस का शायद ही कोई मर्द होगा जो तान्या के फ्रेंडलिस्ट में न हो। यानी तान्या सही में कोई थी। ऐसा न होता तो उसका बायोडाटा कैसे दस मिनट की चैटिंग में ही रोहित बाबू के पास आ गया। पूरी जानकारी के साथ। इतनी जल्दी कोई इतना बड़ा फर्जीवाड़ा कैसे कर सकता था। फिर कई बातें मेल खाती हैं, इस बात को सिद्ध करने के लिए तान्या कोई जीती-जागती युवती थी। पत्रकार थी। दोस्त बनाना शायद उसका शौक था। चैटिंग भी सबसे करती थी। किसी को निराश नहीं करती थी। अब तो वह गई। पता नहीं इस दुनिया से या फिर इस बनावटी दुनिया यानी चैट वाली दुनिया से उसने नाता तोड़ लिया। किसी को इस बात से मतलब भी नहीं था। किसी ने ज्यादा जानने की कोशिश भी नहीं की। कोशिश सिर्फ इस बात की हुई थी कि वह अब चैटिंग पर क्यों नहीं आती और उसी कोशिश में उसके एक्सीडेंट वाली बात सबको पता चली।
अब तान्या नहीं है तो फिर यह जोगेन्द्र आखिर कंप्यूटर स्क्रीन को घुमाकर किससे चैट कर रहे हैं। कोई बात तो है। मोहित बाबू भी परेशान थे। रोहित तक भी बात पहुंची। एक-दो फिर तीन-चार दिन। धीरे-धीरे सब व्यस्त रहने लगे। यानी लगता है इन कुंठित लोगों की जमात को फिर कोई मिल गयी है चैटिंग के लिए। अब तो सभी के चेहरे पर मुस्कान दिखने लगी और कंप्यूटर मॉनीटर की गर्दन भी तोड़ी-मरोड़ी जाने लगी। अरे यह क्या पूरे ऑफिस में फिर वही चहल-पहल। कुछ लोग उस ऑफिस से जरूर इधर-उधर चले गये हैं। किसी ने नौकरी बदल ली है, किसी का ट्रांसफर हो गया है। लेकिन पुराने लोगों में जो दो-चार थे, उनके चेहरे पर वही पुरानी वाली चमक लौट आई है। तान्या का तो नियत समय था ऑन लाइन होने का। लेकिन लगता है उनकी नयी फ्रेंड कभी भी ऑन लाइन हो जाती है। बस फर्क यह है कि नयी बनी यह दोस्त फेसबुक पर ऑन लाइन है। इसके बारे में भी शायद लोग जानना चाहते हैं। कौन है। क्या करती है। कहां रहती है। इसी टीम में एक दो लोगों के पास फेस बुक खोलने की परमिशन नहीं। बड़ी मिन्नत करके उन्होंने भी अपना फेसबुक अकाउंट खोल लिया। एक दिन तिरछी निगाह से जोगेन्द्र बाबू ने मोहित के कंप्यूटर पर देख लिया। निशा से चैटिंग चल रही है। वह मुस्कुराये। पकड़ में आते देख मोहित धीरे से उठे और जोगेन्द्र बाबू के कंधे में हाथ रखते हुए ऊपर के फ्लोर की तरफ बढ़े। धीरे से बोले, तुम्हारी फ्रेंड लिस्ट में भी तो है निशा। निशा रोहतगी। वाल पर लिखा है निशा रोहतगी, गोरखपुर। जोगेन्द्र बाबू हंसे। अरे सभी की फ्रेंड बन गयी है निशा। मोहित और जोगेन्द्र एक साथ हंस दिये।
धीरे-धीरे सब समझ गये कि निशा से अब चैटिंग शुरू होने लगी है। मन में यह भी था कि क्या निशा भी तान्या की तरह एक दिन चली जायेगी। क्या कभी निशा से बात हो पायेगी। क्या निशा का नंबर मिल जायेगा। एक दिन शाम को चाय के वक्त जोगेन्द्र बाबू ने मोहित से कहा, यार इसका भी बायोडाटा मंगवा लेते हैं। रोहित जी को ही यह जिम्मेदार दी जाये। वह लड़कियों से अच्छी तरह बात कर लेते हैं और लड़कियां उनकी बातों में आती भी जल्दी हैं। मोहित ने कुछ जवाब नहीं दिया। क्या हुआ बॉस। जोगेन्द्र ने सवाल किया। मोहित ने कहा, यार एक बात बताऊं किसी को बताओगे तो नहीं। जोगेन्द्र ने कहा, अरे किसी से क्यों बताऊंगा, बोलो ना। मोहित ने चहकते हुए कहा, मेरे पास निशा का फोन नंबर है। जोगेन्द्र बाबू ने सवाल किया, कभी बात की है। नहीं। फिर दोनों बिना एक दूसरे से बात किये चाय पीने लगे। खामोशी को मोहित ने ही तोड़ा, यार किसी को बताना मत। जोगेन्द्र बाबू ने कहा, बताना तो तुम भी मत भाई। नंबर तो मेरे पास भी है। अरे वाह, मोहित ने सवाल किया, तुमने बात की है क्या कभी। जोगेन्द्र ने कहा, यार बात तो नहीं की है, पर एक बात मैं भी बताऊंगा, प्लीज किसी से कहना मत। अब क्या बात हो सकती है। कहीं वही तो नहीं जो मोहित छिपा रहे थे। हो न हो, वही बात होगी। मोहित ने कहा, नहीं कतई नहीं, तुम बताओ तो सही। जोगेन्द्र बाबू कुछ देर चुप रहे, फिर बोले सही बताओ कभी बात नहीं हुई। मोहित ने कहा, कसम से। मोहित को लगने लगा हो न हो, जोगेन्द्र बाबू की बात भी हो चुकी है। वह बोले, यार लगता है तुम्हारी बात हो चुकी है। सही बताओ न। तुम्हें कसम है। जोगेन्द्र बाबू ने चाय का गिलास दुकान के सामने रखते हुए मोहित से थोड़ा दूर आने के लिए कहा। करीब दस कदम किनारे जाकर बोले, यार बात तो नहीं हुई है हां एसएमएस जरूर करते हैं एक दूसरे को। अच्छा फेस बुक पर चैटिंग से दो कदम आगे, तुम तो एसएमएस भी करते हो। अपना नंबर देते हुए डर नहीं लगा। जोगेन्द्र ने कहा, डर? फिर तुम्हारे मोबाइल में उसका नंबर कैसे फीड है। अरे वो तो उसने चैटिंग के दौरान ही दे दिया था। मैंने सेव कर लिया। बस इसके आगे कुछ नहीं। मोहित ने अपनी सफाई में कहा। कभी उसको फोन मिलाने की कोशिश नहीं की। जोगेन्द्र ने पूछा। नहीं। हिम्मत नहीं हुई।
मोहित बात का तारतम्य तोडक़र दो कदम आगे और तीन कदम पीछे चलते हुए चहलकदमी करने लगे। जोगेन्द्र ने कहा, क्या हुआ? कुछ नहीं यार मोहित ने मरे मन से जवाब दिया। अरे बताओ तो सही। जोगेन्द्र ने मोहित के कंधे को पकडक़र हिलाया। चलो कैंटीन से बाहर चलते हैं, मोहित ने कहा। अब जोगेन्द्र को लगने लगा कि मोहित कुछ छिपा रहा है। इनकी बात होती जरूर होगी। सीढिय़ों से नीचे उतरकर दोनों ऑफिस के बाहर लॉन में आ गये। जोगेन्द्र की व्याकुलता जैसे बढ़ रही थी। उन्होंने ही बात शुरू की, बताओ यार बात क्या है? यार तुम प्लीज मेरी बात पर हंसना मत। मोहित ने बड़ी मासूमियत से कहा। कतई नहीं। जोगेन्द्र ने आश्वासन दिया। असल में यार मेरी निशा से बात तो नहीं हुई है, पर मैं उसका फोन तीन बार रिचार्ज करा चुका हूं। उसने बहुत रिक्वेस्ट की। एक बार दो सौ रुपये में और दो बार सौ-सौ रुपये में। मोहित ने एक सांस में अपनी बात खत्म की। जोगेन्द्र की कोई प्रतिक्रिया न देख, मोहित ने उसकी तरफ देखा, जैसे कुछ तो बोले। जोगेन्द्र इस बार भी चुप रहा। मोहित ने कहा, यार चुप क्यों हो। अबकी जोगेन्द्र ने लंबी सांस ली और कहा, ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हो चुका है। दोनों अब फिर खामोश हो गये। मोहित ने ही कहा, यार हम लोग ये क्या कर रहे हैं। किसी अनजान का मोबाइल रिचार्ज करा रहे हैं। तुम उसको एसएमएस करते हो। क्या यह ठीक है। यार ठीक नहीं ठीक अलग बात है। कोई दोस्त बन गया तो उसमें क्या किया जाये। जोगेन्द्र जैसे अपनी बात को जोर लगाकर सही ठहराने की कोशिश कर रहा हो। दोनों आफिस में आ गये और अपनी-अपनी सीट पर बैठ गये।
दो-तीन दिन बाद पता चला कि सभी निशा के फ्रेंड बन गये। ठीक उसी तरह जैसे तान्या के फ्रेंड बने थे सब। टीम लीडर रोहित के साथ भी निशा ने वही किया। दो दिन की चैटिंग के बाद तीसरे दिन अपना मोबाइल नंबर दे दिया। रोहित से चैट पर उसने यह भी लिखा कि वह उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानती है। रोहित को यह बात मालूम पड़ चुकी थी कि सभी लोग निशा से चैट करते हैं। शाम को ड्रॉपिंग की गाड़ी में निशा की चर्चा छिड़ गयी। बात हो ही रही थी कि रोहित ने निशा के दिये हुए नंबर पर कॉल कर दिया। स्पीकर ऑन करने के बाद। हेलो। एक मर्दाना आवाज आई उधर से। रोहित ने कहा, मैं रोहित बोल रहा हूं, क्या यह निशा का नंबर नहीं है। उस व्यक्ति की आवाज में तुरंत नरमी आ गयी और उसने एक सेकेंड कहने के बाद फोन किसी और को पकड़ा दिया। उधर से अब एक महिला की आवाज थी, हेलो। रोहित ने कहा निशा। जी बहुत मधुर आवाज में उसने जवाब दिया। पहले किसने फोन उठाया था, वो मेरे पति। नहीं मेरा दोस्त। दो बातें एक साथ निशा कहने वाली लडक़ी बोल पड़ी। रोहित ने कहा, तुम मुझे कैसे पहचानती हो। वह बाद में बताऊंगी। पहले आप मेरा फोन रिचार्ज करा दो। अभी यह रोमिंग में है, ज्यादा देर बात नहीं हो पायेगी। रोहित ने कहा, ठीक है देखता हूं। फिर फोन काट दिया। सब लोग अजीब सी खामोशी के बीच कुछ-कुछ बोल रहे थे। रोहित ने अपने बाकी चार साथियों से चाय पीने की इच्छा जताई। ड्राइवर से कहा गया और चारों एक ढाबे पर उतर गये। ड्राइवर से कहा कि तुम भी चाय ले लेना बस 15 मिनट में चलते हैं। रोहित बोला, मुझे ड्राइवर की मौजूदगी में बातें करना अच्छा नहीं लग रहा था। अबकी सभी ने बताया कि निशा का नंबर सबके पास है। सबने नंबर बताये तो सारे नंबर अलग-अलग थे। यानी हर व्यक्ति से अलग नंबर रिचार्ज कराया जाता था। इस बार जोगेन्द्र से कहा गया कि वह फोन लगाये। जोगेन्द्र ने अपने मोबाइल से फोन लगाया तो महिला की आवाज आई हेलो। निशा बोल रही हैं, हां। मैं जोगेन्द्र बोल रहा हूं। अरे हां जोगेन्द्र कैसे हो। आपको पता है मैं आपको बहुत करीब से जानती हूं आप भी मुझे अच्छे से जानते हो। घबराओ मत मैं तुम्हारी दोस्त ही हूं। अच्छा एक काम करो प्लीज अभी मेरा फोन रिचार्ज करा दो। जोगेन्द्र ने भी वही जवाब दिया कि थोड़ी देर में देखता हूं। जिनके पास भी अलग-अलग नंबर थे, सबके साथ यही हुआ। रोहित ने कहा कोई बड़ा फ्रॉड है। कोई किसी का नंबर रिचार्ज मत कराना। मोहित बाबू और जोगेन्द्र एक दूसरे का मुंह देखने लगे। जोगेन्द्र ने मोहित से चुप रहने का इशारा किया। सबने चाय पी और घर चले गये।
अगले दिन चारों के नंबर पर निशा नाम की लडक़ी के नाम से सेव नंबर से कई बार मिसकॉल आयी। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। धीरे-धीरे कई दिन बीत गये। निशा अब फेसबुक पर भी ऑन लाइन नहीं रहती। मोहित और जोगेन्द्र बाबू जब भी आमने-सामने पड़ते हैं तो दोनों की हंसी छूट जाती है। लोग उनकी इस हंसी का राज ढूंढऩे में व्यस्त हैं। कंप्यूटर मॉनीटर पर न तो किसी से चैट चल रही होती है और न ही मॉनिटर का स्क्रीन टेढ़ा होता है। फिर ये दोनों मिलते ही हंसते क्यों हैं। ये तो यही जानें। 

Sunday, August 18, 2013

ऑटो वाला नहीं मिला
चंडीगढ़ आये हुए मुझे लगभग सवा महीना हो गया है। इस बीच तीन बार दिल्ली हो आया हूं। इस बात से कई मित्रों को आश्चर्यजनक खुशी हुई, कुछको अखरा कि मैं उनसे नहीं मिल पाया और कई लोगों को कुढऩ भी कि वाह भई ये तो बार-बार आ रहे हैं। ये कैसी नौकरी है। पर इन सबसे इतर इस बार 15 अगस्त के मौके पर दिल्ली गया था। हमारी सोसायटी में ध्वजारोहण समारोह हुआ। साहिबाबाद विधानसभा के वसुंधरा क्षेत्र में मेरा घर है। वहां से बसपा विधायक अमरपाल शर्मा मुख्य अतिथि थे। अन्य कार्यक्रमों की ही तरह माइक संभालने का जिम्मा मुझे दिया गया। जैसा भी बोल सकता था मैंने बोला। विधायक जी आये। जैसा कि होता है। सत्ता के गलियारे के लोग बहुत व्यस्त होते हैं। खैर वे नियत समय पर आये, ध्वजारोहण, पौधारोपण किया और चले गये। कई अन्य कार्यक्रम भी हुए। इस बार मुझे जो बात अब तक सालती रही, वह यह कि मैं रहा तो तीन दिन दिल्ली में, लेकिन अपने परिवार के साथ मिलबैठकर बमुश्किल दो घंटे बातें की होंगी। एक दिन अभिनेता शाहरुख खान के साथ बातचीत के असाइनमेंट में बीत गया। एक दिन अपने जरूरी कामों को निपटाने में और एक दिन पहले पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम फिर एक छोटी फिल्म लेवल की शूटिंग में बीत गया। खैर अब चंडीगढ़ वापस आ गया हूं। यहां दैनिक ट्रिब्यून के रीलांच की तैयारी जोरों पर है। चूंकि बातें अभी ऑफ दि रिकार्ड हैं, इसलिए सारा खुलासा नहीं कर सकता, लेकिन यकीनन आने वाले नये सप्लीमेंट और अखबार का कलेवर और तेवर जुदा होगा। लोगों को पसंद आयेगा।
चंडीगढ़ की बातों के बारे में अभी मैं इसलिए कुछ नहीं लिख पाऊंगा कि मुझसे ज्यादा और लोग जानते हैं। यहां आने के करीब आठ दिन बाद मैं पहली बार दिल्ली पहुंचा तो मेरे बेटे ने पूछा जो अभी पांचवी कक्षा में है, पापा सुखना लेक देखी, मैं दंग रह गया। नाम भी नहीं सुना था। मैंने कहा नहीं। तुम मुझे चंडीगढ़ की खास जगहों के बारे में बताओ अबकी देखूंगा, हालांकि वह संभव नहीं है अभ तत्काल। यहां हरियाली बहुत अच्छी है। यहां कहीं अवैध निर्माण नहीं दिखता। लेकिन कुछ लोगों के व्यवहार ने दुखी किया। शायद भांप जाते हैं कि बाहर का है।
लेकिन इन सबसे अलग एक ऑटो वाले का व्यवहार आश्चर्यजनक लगा। जहां मैंने किराये पर घर लिया है, वहां से ऑफिस आने तक ऑटो का किराया दस रुपया है। एक दिन मैंने ऑटो लिया और बैठते ही कह दिया भाई सौ का नोट है आज खुला नहीं है। उसने बैठने का इशारा किया। रास्ते में दो तीन महिलाएं भी बैठीं। ट्रिब्यून चौक पर उतरकर मैंने सौ का नोट दिया। उसने सवाल किया खुले नहीं हैं। मैंने कहा, बैठते ही बता दिया था। हां बता तो दिया था। वह बोला। मैंने पीछे बैठी महिलाओं से कहा, आप लोग इसे किराया दे दें तो यह लौटा देगा। एक महिला बोली, हमने दे दिये हैं। क्योंकि इस बीच मैं खुला कराने एक दुकान के पास गया था, शायद उन्होंने तीस रुपये दे दिये थे। खुले नहीं मिले। ऑटो वाले ने कहा, चलो फिर दे देना। मैंने बताया भाई यही मेरा ऑफिस है। मैं रात को लगभग नौ बजे निकलता हूं। तब से आज तक वह ऑटो वाला मुझे नहीं मिला। यह किस्सा मैंने आफिस में भी बताया, कुछ को विश्वास हुआ कुछ को नहीं। ट्रिब्यून में आते ही लिखना पढऩा तेज किया है। दो-तीन किताबों की समीक्षा भी की है जो छपी है। एक मित्र ने ब्लाग भी रेगुलर लिखने के लिए कहा है। पूरी कोशिश है। अब निजी किस्से कहानियां कम कुछ रचनात्मकता वाले लेख लिखूंगा। आज इतना ही।
नमस्कार

Monday, August 5, 2013

दैनिक ट्रिब्यून की री लांचिंग प्रक्रिया तेज हो गई है। अलग से परिशिष्ट और नियमित पेजों का रंग-रूप और तेवर बदलने की तैयारी है। डॉ उपेन्द्र पांडे जी ने भी ज्वाइन कर लिया है। इधर डिजाइनिंग में मदद कर रहे डॉ कुलदीप धीमान जी एक दिन अपना कैमरा ले आए। मैं और चंडीगढ़ से हमारे रिपोटर दिनेश भारद्वाज बैठे थे कुछ नई योजनाओं के सिलसिले में। श्री अरुण नैथानी जी भी साथ में लगे हैं। लेकिन उनका रुटीन काम भी बहुत है। डॉ धीमान साहब कैमरा लाने वाले हैं, ऐसा पता होता तो निश्चित रूप से में दाढ़ी बनाकर आता। खैर इससे क्या फर्क पड़ता है। मैं जैसा हूं वैसा ही दिखूंगा बस बेहतरीन पेज की तरह दाढ़ी बनी होती तो फाइन ट्यून हो जाता। चलिए लिखने का यह सिलसिला जारी रहेगा। अभी शाम के सात बजे हैं। थोड़ी देर बाद संपादक श्री संतोष तिवारी जी के साथ बैठक होगी। संभवत: आज री लांच को लेकर अहम उच्च स्तरीय बैठक होने वाली है।



Friday, August 2, 2013

लग रहा है ब्लॉग पर अब नियमित रूप से लिखने लगूंगा। इसके दो कारण हैं। एक तो इसी से मिलता-जुलता एक काम मिला है, दूसरा अजनबी शहर में अकेला हूं। लिखने-पढऩे और गाना सुनने के अलावा कोई काम ही नहीं बचा है। कभी-कभी यह हिम्मत भी कर लेता हूं कि मित्रों से फोनबाजी या एसएमएसबाजी कर लेता हूं। लेकिन ये काम कम ही हो पाते हैं। अभी मेरा फोन पोस्टपेड हो नहीं पाया है।
खैर.. बात अब शुरू करता हूं। तमाम किंतु-परंतु, सवाल-जवाब और भी न जाने क्या-क्या होने हवाने और सोचने बतलाने के बाद आखिरकार मैं इन दिनों चंडीगढ़ आ गया हूं। दिल्ली से चंडीगढ़ आने तक के सफर और यहां रहने तक के बारे में उतना मैंने नहीं सोचा जितना मेरे शुभचिंतकों ने सोच लिया। सोचने का काम उनका था और लिखने का मेरा है। शहर अजनबी है। लोग अजनबी हैं। लेकिन एक बड़ा फर्क (तेरह साल पहले हिन्दुस्तान अखबार में नौकरी करने गया था उसकी तुलना में)और अच्छापन यह देखा कि यहां के हर व्यक्ति (पत्रकार, गैर पत्रकार) ने कहा, चिंता न करें हम सब लोग हैं। आपको परेशानी नहीं होगी। हर दूसरे दिन बाद यह भी पूछा कि शहर में मन लगा कि नहीं। पूछने का यह सिलसिला जारी है। दो दिन बाद ही यहां के लोगों ने किराये के घर के लिए पूरा जोर लगाया उन लोगों की मेहनत और मेरी किस्मत से घर अच्छा मिल गया। मकान मालिक ट्रिब्यून से ही रिटायर्ड हैं। भले मानुष हैं। दो कमरों का घर लिया है, लेकिन दूसरे को अब तक नहीं खोल पाया। कारण अकेले हूं। हां एक मित्र ने कहा है कुछ दिन बाद वह भी साथ रहने लगेगा। देखते हैं क्या होता है नये शहर में मेरे नवीनीकरण के तहत।
दोस्तो असली बात मैं अब चंडीगढ़ आ गया हूं। दैनिक ट्रिब्यून अखबार में। फिलहाल खबरों में घुसा हुआ पत्रकार नहीं, री-लांच के लिए योजना बनाने वाला व्यक्ति। आप सब लोगों की शुभकामनाएं चाहिए। पढऩा लिखना मेरा बहुत तेज हो जाए, दुआ कीजिए।
नमस्कार
केवल तिवारी