शाम के वक्त खबरों को पढऩे के दौरान एक खबर की अंतिम पंक्ति पर मेरी नजर पड़ी। उसमें लिखा था बंदरों के उत्पात की वजह से पंछियों की संख्या कम हो रही है। बंदर घौसलों को तोड़ देते हैं। इसी में अगली लाइन यह भी थी कि गमले और पेड़-पौधों को भी बंदर तोड़ रहे हैं। मैं देख रहा हूं कि बंदरों के आतंक की खबरें पिछले 10-15 सालों से आ रही हैं। इधर पांच-सात सालों से स्थिति ज्यादा भयावह हो गयी है। एक बार खबर आई कि मध्य प्रदेश के बंदरों को उत्तराखंड के जंगलों में छोड़ा जायेगा। ऐसी ही खबर कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान भी आयी कि कोई राज्य तैयार नहीं है दिल्ली के बंदरों को लेने के लिए।
खैर खबर की यह अंतिम पंक्ति मैंने पढ़ी तो मुझे लगा खबर तो यहीं है। खबर संबंधी जो औपचारिकताएं, बातें हो सकती थीं, हुईं। अगले दिन छपी भी। लेकिन मुझे एक पुरानी कहानी याद आ गयी। कहानी कुछ इस तरह थी-
एक बंदर जाड़े में ठिठुर रहा था। उसे ठिठुरते देख पास में ही अपने घौंसले में बैठी एक चिडिय़ा ने कहा, तुम हमारे घौंसले की ही तरह अपने लिए कहीं घर क्यों नहीं बना लेते हो। बंदर को चिडिय़ा का यह सुझाव नहीं सुहाया। उसने तुरंत उस चिडिय़ा के घौंसले को भी तोड़ दिया। कहानी तो यह सीख देने के लिए थी कि मूर्खों को उपदेश देने से कोई फायदा नहीं।
लेकिन कहानी को इससे आगे जोड़ा जाये तो दूसरी बात सामने आयेगी। बंदरों के उत्पात को देखकर चिडिय़ा इंसानों की बस्ती में चली आयी। यहां उसने घरों की छतों पर, पेड़ों पर घौंसले बनाये। पर अफसोस बंदर भी इनसानों की बस्ती में चले आये। यहां फिर उसने घौंसलों पर हमला बोला। अब इस तरह की खबरें आने लगीं कि चिडिय़ों की संख्या कम होने लगी। गौरैया नामक चिडिय़ा की कम होती संख्या के बारे में हम अक्सर सुनते पढ़ते रहते हैं। यहीं पर मेरे जेहन में एक बात और आती है कि ये बंदर कबूतरों के घौंसलों पर धावा क्यों नहीं बोलते। आज तमाम कालोनियों में कबूतरों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। अब बात चाहे जो हो इस खबर में अगली लाइन थी हरियाली के भी दुश्मन बन रहे हैं बंदर। घरों के बाहर रखे गमलों को तोड़ रहे हैं। फलदार पेड़ों के भी जानी दुश्मन बन रहे हैं। बात एक खबर छपने भर की नहीं है। बात वाकई गंभीर है। उस खबर में अन्य बातें भी थीं, मसलन छोटे बच्चों को उठाकर ले जाते हैं। कई लोगों की जान तक जा चुकी है वगैरह-वगैरह। बंदरों के इस आतंक पर गंभीर रूप से सोचने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो रासायनिक हमलों की तरह कोई किसी इलाके में या देश पर बंदर हमला न करवा दे या फिर बंदर दंगा...।
खैर खबर की यह अंतिम पंक्ति मैंने पढ़ी तो मुझे लगा खबर तो यहीं है। खबर संबंधी जो औपचारिकताएं, बातें हो सकती थीं, हुईं। अगले दिन छपी भी। लेकिन मुझे एक पुरानी कहानी याद आ गयी। कहानी कुछ इस तरह थी-
एक बंदर जाड़े में ठिठुर रहा था। उसे ठिठुरते देख पास में ही अपने घौंसले में बैठी एक चिडिय़ा ने कहा, तुम हमारे घौंसले की ही तरह अपने लिए कहीं घर क्यों नहीं बना लेते हो। बंदर को चिडिय़ा का यह सुझाव नहीं सुहाया। उसने तुरंत उस चिडिय़ा के घौंसले को भी तोड़ दिया। कहानी तो यह सीख देने के लिए थी कि मूर्खों को उपदेश देने से कोई फायदा नहीं।
लेकिन कहानी को इससे आगे जोड़ा जाये तो दूसरी बात सामने आयेगी। बंदरों के उत्पात को देखकर चिडिय़ा इंसानों की बस्ती में चली आयी। यहां उसने घरों की छतों पर, पेड़ों पर घौंसले बनाये। पर अफसोस बंदर भी इनसानों की बस्ती में चले आये। यहां फिर उसने घौंसलों पर हमला बोला। अब इस तरह की खबरें आने लगीं कि चिडिय़ों की संख्या कम होने लगी। गौरैया नामक चिडिय़ा की कम होती संख्या के बारे में हम अक्सर सुनते पढ़ते रहते हैं। यहीं पर मेरे जेहन में एक बात और आती है कि ये बंदर कबूतरों के घौंसलों पर धावा क्यों नहीं बोलते। आज तमाम कालोनियों में कबूतरों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। अब बात चाहे जो हो इस खबर में अगली लाइन थी हरियाली के भी दुश्मन बन रहे हैं बंदर। घरों के बाहर रखे गमलों को तोड़ रहे हैं। फलदार पेड़ों के भी जानी दुश्मन बन रहे हैं। बात एक खबर छपने भर की नहीं है। बात वाकई गंभीर है। उस खबर में अन्य बातें भी थीं, मसलन छोटे बच्चों को उठाकर ले जाते हैं। कई लोगों की जान तक जा चुकी है वगैरह-वगैरह। बंदरों के इस आतंक पर गंभीर रूप से सोचने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो रासायनिक हमलों की तरह कोई किसी इलाके में या देश पर बंदर हमला न करवा दे या फिर बंदर दंगा...।