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Sunday, April 6, 2014

फ्लैट बिरादर

फ्लैट कल्चर वाले शहरी जीवन, खासतौर पर मेट‏्रो शहरों और उसके आसपास के इलाकों के बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि यहां एक नया संसार बस जाता है, जिसमें मतलब ज्यादा झलकता है। नफा-नुकसान का गणित आंककर दोस्ती बनायी और बिगाड़ी जाती है। इसके घर ज्यादा आना-जाना शुरू करो, शायद काम आ जाये। वहां जाने से क्या फायदा। इससे बात करो, उससे नहीं। वगैर-वगैरह...। लेकिन मुझे ये तमाम बातें गलत लगीं। यह भी लगा कि सचमुच ऐसी धारणा बनाना एकदम गलत है। मुझे एक खूबसूरत और भावुक अहसास हुआ हाल ही में गाजियाबाद से चंडीगढ़ शिफ्ट करने के दौरान। ट‏्रक में मेरी गृहस्थी लद चुकी थी। बीवी-बच्चों सहित मैं भी तीसरे फ्लोर स्थित अपने फ्लैट से नीचे उतर आया था। एक तरफ मैं पैकर्स वालों की बनाई लिस्ट से सामान गिन रहा था, दूसरी तरफ आने-जाने वालों का सवाला। थोड़ी देर में बीवी और उसके साथ करीब 20 औरतें फ्लैट से नीचे उतर रही थीं, सभी महिलाएं रो रही थीं। मैंने हंसते हुए कहा, अरे माहौल को इतना इमोशनल मत बनाओ। लेकिन माहौल था कि इमोशनल होता चला रहा था। कुछ देर पहले तक जिन मित्रों के साथ में हंस-बोल रहा था, उनके चेहरे पर भी एक अजीब उदासी छलक रही थी। शहरी जीवन के जिन लोगों को बहुत फ्लैट कहा जाता है, वाकई वे तो बहुत भावुक होते हैं, कई बार अपनों से भी ज्यादा। अपने सगे बिरादरों से भी ज्यादा। चाहे उन्हें हम फ्लैट बिरादर ही क्यों न कहें।
असल में, मैं जुलाई में ही चंडीगढ़ आ चुका हूं। दैनिक टि‏‏्रब्यून में। तब से मैं यहां अकेले रह रहा था और परिवार गाजियाबाद में। अभी 29 मार्च की शाम पूरा सामान समेटकर हम सब लोग चंडीगढ़ को आ गये। गाजियाबाद के वसुंधरा में मेरा फ्लैट है। कुछ मित्रों की मदद और सलाह काम आई और वर्ष 2004 में मैंने वहां एक छोटा सा फ्लैट ले लिया था। उसके बाद नौकरी और जीवन के तमात उतार-चढ़ाव देखे। मेरी मां भी यहीं मेरे साथ रहती थी। मां ने वर्ष 2008 के मध्य में लखनऊ बड़े भाई साहब के यहां जाने की जिद की और वहीं 5 जनवरी 2009 का उनका निधन हो गया। उनको कैंसर था। लेकिन कभी भी हमने उन्हें यह बात नहीं बताई थी। निधन से एक माह पूर्व उनकी स्थिति कुछ बिगड़ गयी और भाई साहब ने हमें सूचना दी तो मेरी पत्नी वहां एक महीने उनके साथ रही। यह अलग बात है कि मां को बहुत प्यार करने का दावा करने और दंभ भरने वाला मैं था और मैंने उनका मरा हुआ चेहरा ही देखा। गाजियाबाद के जिस फ्लैट को खालीकर हम चंडीगढ़ आये हैं, उसमें मेरी मां की बहुत यादें हैं। उन्होंने अपने हाथों से सिलकर हमारे बच्चों के लिए बिस्तर बनाये थे, जिसे में अपने साथ चंडीगढ़ ही ले आया हूं।
खैर मैं बात कर रहा था फ्लैट बिरादर की। ट‏्रक पर जब पूरा सामान चढ़ चुका था तो उसकी रवानगी और हमारी जाने की तैयारी के बीच एक मित्र ने चाय का आग‎्रह किया। आदतन उन्होंने पूछा मुझसे और बनवा डाली करीब 20 कप चाय। महिलाओं में से ज्यादा ने चाय पीने से इनकार कर दिया। हम मित्र लोग हंस भी रहे थे और चाय के घूंट भी भ‎र रहे थे। इसी बीच कुछ लोग उस भावुक पलों के गवाह बन गये। आसपास के मेरे मित्र, मेरी बीवी के जानकार और मेरे बेटे के दोस्त और उनके अभिभावक। जब फाइनल चलने की बात आई तो एक मित्र ने कहा, चलो बाहर तक चलते हैं, इन लोगों को आने दो फिर चल पडऩा। लेकिन इधर वाकई रोना-धोना ऐसे चलने लगा मानो कोई लडक़ी अपने मायके से विदा हो रही हो। बाहर दुकान तक चलने का आग‎्र्रह करने वाले मेरे मित्र भी अपने को रोक नहीं पाये और उन्होंने मुझे उस कार में बिठा दिया जिसके जरिये मुझे पहले फरीदाबाद फिर चंडीगढ़ के लिए आना था। वह मित्र गले मिले और बहुत भावुक हो गये। सभी मित्रों से मिलकर मैंने अपने पड़ोसियों से हाथ जोड़े और कहा, यदि कभी कोई गलती हुई तो माफी चाहता हूं। मेरा इतना कहना था कि सब बोले, ऐसा कहकर हम सब लोगों को और न रुलाएं। इसी बीच हमारे पड़ोस की एक भाभी ने कहा, आप किसी को बाय मत बोलिये। आप जा रहे हैं, आपका फ्लैट यहीं है और आपको यहां आते-जाते रहना है। फिर चंडीगढ़ के पते और फोन नंबर का पता वे लोग भी पूछने लगे जो राह चलते कभी-कबार मिलते थे। वाकई फ्लैट संस्कृति के बारे में भले कुछ कहा जाये, लेकिन लोग तो यहां भी वही हैं जो गांव की माटी की सुगंध और भावनाएं को बटोरे आर्थिक कारणों से सुदूर आ बसे हैं। यहां उनका अपना एक नया संसार है।
केवल तिवारी

Tuesday, February 18, 2014

सडक़ और पलायन का रिश्ता

करीब पांच सालों बाद अपने गांव रानीखेत जाने का मौका लगा। पहले राम नगर गए। वहां से ताड़ीखेत फिर वहां से जीप में बैठकर गांव की ओर। यह रास्ता पिछले सात-आठ सालों से वहां के लिए बना है, नहीं दो आठ-दस किलोमीटर पैदल जाना ही होता था। जीप में कुछ बातें चल रही थीं। इसी बीच एक सज्जन ने मेरा नाम और पता पूछा। उसके बाद वह जोर से हंसे और बोले पांच साल पहले आपने मुझे पहचाना और पांच साल बाद मैं आपको पहले पहचान रहा हूं। असल में यह सज्जन मेरे बचपन के दोस्त राम सिंह रौतेला के बड़े भाई हैं। राम सिंह फौज में है और अभी असम में पोस्टेड है। मैं और राम सिंह पांचवीं क्लास तक साथ पढ़े हैं। उसके बाद हमारी मुलाकात नहीं हुई। भाई-बहनों के जरिये कुशल क्षेम पूछते रहते हैं। इस यात्रा के दौरान राम सिंह के बड़े भाई पान सिंह मिले। पांच साल बाद मैंने उन्हें पहचान लिया। पता नहीं कैसे। राम सिंह की शक्ल भी उनकी तरह होगी, ऐसा मेरा अनुमान है। पान सिंह जी की पत्नी अभी ग्राम सभापति हैं। आजकल चुनाव चल रहे हैं। अब वह सीट महिला से बदलकर जनरल हो गई है। इसलिए पानसिंह जी चुनावी तैयारी में हैं। हमारे गांव में भी मेरे बचपन के दोस्त की पत्नी ग्राम सभापति थीं, अब खुद वह दोस्त दिनेश इसके लिए कोशिश कर रहा है। जीप में बैठे-बैठे बातों का सिलसिला जारी था। इस बीच मैंने पूछा, अरे यह सडक़ डामर की कब हो गई। जीप में बैठे सब लोग मेरी तरफ विस्मित नजरों से देखने लगे। पान सिंह ने कहा, कच्ची सडक़ को पक्की हुए तो तीन साल से ज्यादा समय हो गया है। मैंने कहा, अरे मैं तो पांच सालों बाद आ रहा हूं। तभी पान सिंह ने चर्चा छेड़ी पलायन की। बोले, अब तो पलायन इस हद तक हो चुका है कि गांव के गांव वीरान हैं। यदि यह सडक़ 20 साल पहले आ गई होती तो निश्चित रूप से पलायन का यह रूप समझ में नहीं आता। पहले मुझे सडक़ से पलायन के इस रिश्ते की बात समझ में नहीं आई। हालांकि हमारा परिवार भी गांव में नहीं रहता। मेरे ताऊजी का परिवार दिल्ली में 60 साल पहले आकर बस गया था। मेरे भाई साहब 1975 में लखनऊ आ गए थे। 1980 में मैं भी लखनऊ आ गया था। नौ साल पहले माताजी के निधन के बाद अब गांव आने का सिलसिला भी हम लोगों का बहुत कम हो गया है। मैंने पूछा कि ऐसा क्यों। सडक़ से पलायन का क्या ताल्लुक। पान सिंह ने स्पष्ट किया कि कुछ लोग बहुत पहले चले गए, उनकी बात छोड़ दीजिए। हालांकि रिटायर होने के बाद यहां कई लोगों ने बसना चाहा पर पैदल चलने के डर से यहां कोई आ नहीं पाया। उसके बाद कुछ युवाओं ने अपना रोजगार शुरू करने की कोशिश की तो सडक़ न होने से उन्हें दिक्कतें हुईं। उन्होंने करीब दर्जनभर ऐसे उदाहरण बताए जिनमें हमारे गांव के ही युवा महज 10 या 20 किलोमीटर दूर जाकर या तो कोई व्यवसाय चला रहे हैं या फिर नौकरी कर रहे हैं। स्वयं पान सिंह का परिवार ताड़ीखेत में शिफ्ट हो गया है। मैंने इस बात पर मंथन किया। वाकई सडक़ का भी पलायन से ताल्लुक है। यदि सडक़ें अच्छी हों तो काम और अच्छे हो सकते हैं। सडक़ का पलायन से उतना ही गहरा नाता है जितना आंदोलनों का सडक़ से।
केवल तिवारी