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Friday, September 23, 2016

कहानी बूढ़ा ससुराल

बूढ़ा ससुराल
केवल तिवारी
पता तो यही बताया था। लेकिन पहाड़ी इलाकों में पता लगाना जितना आसान है, उतना ही कठिन भी। मन में बुदबुदाता अधेड़ उम्र का यह युवक तेज-तेज डग भरता हुआ चला जा रहा था। उसे पता था कि पहाड़ के जिस इलाके में वह जा रहा है, उसके लिए बेहद अनजान है। यदि रात हो गई तो कहीं रुकने का ठौर-ठिकाना नहीं। जाएगा कहां। साथ में पत्नी भी है। दोनों के बीच सौ-दो सौ मीटर का फासला। कई बार फासला बढ़ जाता तो बीवी की डांट के बाद कदम या तो धीमे हो जाते या वहीं ठिठक जाते। वह ताकीद करता कि मैडम कदम तेज बढ़ाओ। रात हो गई तो बुरे फंसेंगे। ऊपर से मौसम खराब हो रहा है। अरे सही से पता मालूम नहीं था तो दोपहर बाद बाजार से इधर को आने की क्या जरूरत थी। कल सुबह आ जाते। चले तो ऐसे कान्फीडेंस से थे कि जैसे सबकुछ पता हो। अब भी देर नहीं हुई है। लौट चलो। कल आ जाएंगे या जब मौका लगेगा तब आ जाएंगे। बीबी ने एक सांस में अपनी बात खत्म की और वहीं धम्म से बैठ गई। पति महोदय भी बीस कदम उल्टे आकर पास में ही बैठ गए। दूर-दूर तक देवदार और चीड़ के घने जंगल दिख रहे थे। एक अजीब सी खामोशी पूरे जंगल में फैली हुई थी। आसपास कोई दिखता भी नहीं कि पता पूछें और पहुंच जाएं अपनी मंजिल तक। दोनों पास-पास बैठ तो गए पर खामोश। उनकी खामोशी के बीच मे तेज हवा के बीच लंबे-लंबे पेड़ों से निकलती सांय-सांय की आवाज थी। पति ने ही बातचीत शुरू की, कल कैसे आ सकते हैं। यहां आकर एक रात रुकना पड़ेगा और फिर मुझे परसों ड्यूटी भी तो ज्वाइन करनी है। तो फिर आ जाएंगे, ऐसी कौन सी आग लगी है। जब दो-चार दिन की छुट्टी होगी तो आ जाएंगे। आज किसी को बताया भी नहीं है। दोबारा आएंगे तो इन लोगों को खबर करके आएंगे। या फिर इन्हें ही बाजार तक बुला लेंगे। चलो वापस चलते हैं। पत्नी अपनी बात खत्म कर खड़ी हो गई। पति ने हाथ पकड़ा, कैसी बात करती हो। आज ही पहुंचना जरूरी है। तुम समझने की कोशिश करो। आग तो लगी ही है। बेटा बार-बार बीमार हो रहा है। तुम गाहे-बगाहे बीमार हो जाती हो। पुछ्यारी ने कहा तो है कि इसका एकमात्र इलाज यही है, जिसके लिए हम जा रहे हैं। जिद छोड़ो और तेज-तेज चलो। पति ने आगे बढ़ने का जतन किया। पत्नी कुछ नहीं बोली और साथ चल दी। थोड़ी दूर जाकर पत्नी ने ही खामोशी तोड़ी। उसने कहा, देखो जी! बात तो ठीक है कि घर में दिक्कतें हैं, मुझे भी परेशानी हो जाती है, लेकिन मेरी समझ में यह कतई नहीं आता कि करे कोई और भरे कोई। आपके पिताजी का किया-धरा हम लोग भोगें, यह बात मेरी समझ से परे है। पति ने लंबी सांस छोड़ी और बोले, हां...! तुम बात तो सही कहती हो, आखिर हम लोगों का क्या कसूर है। लेकिन कभी-कभी मैं सोचता हूं कि यह सब इसलिए भी हो रहा होगा या भगवान ने कोई ऐसी लीला रची होगी कि आगे चलकर हम लोग कोई ऐसी गलती नहीं करें। पत्नी कुछ नहीं बोली। कुछ देर तक दोनों के बीच खामोशी। खामोशी के बीच बस आवाज आती तो उनके कदमों की या फिर कई बार पैरों से फिसलकर गिर रहे पत्थरों के टकराने की। करीब एक किलोमीटर चलने के बाद उन्हें एक गांव नजर आया जिसमें 10-12 मकान होंगे। पति ने चहकते हुए कहा, शायद यही गांव है। क्योंकि बाजार में जो लोगों ने बताया था उस हिसाब से हम लोग ठीक आ रहे हैं। अरे वह देखो मोबाइल फोन का टाॅवर। पत्नी बोली, गांव में और सुविधाएं हों या न हों पर ये मोबाइल टाॅवर हर जगह दिख जाते हैं। पति ने कहा इसमें हर्ज क्या है। कम से कम लोगों को एक सुविधा तो मिली है। लेकिन ऐसी सुविधा किस काम की। कहकर पत्नी फिर बैठ गई और बोली थोड़ी देर रुको फिर चलेंगे। पत्नी बैठ गई और पति खड़े रहकर ही इस बात का अंदाजा लगाने लगा कि आखिर गांव है कितनी दूर। पत्नी बोली, दिख रहा है पास में होगा, लेकिन अभी बहुत चलना पड़ेगा, थोड़ा बैठ जाओ। हां... कहकर पति बैठ गया और वहां बिखरे कुछ चीड़ के फलों को एक जगह रखने लगा, जैसे मानो इन्हें उसे झोले में डालकर ले जाना होगा। पत्नी ने दो छोटे-छोटे पत्थर उठाए और खुद में बुदबुदाने लगी, मरने के बाद भूत लगने के तो कई किस्से सुने थे, लेकिन मरने से पहले ही भूत लगने का यह अनोखा मामला हम लोगों के गले पड़ गया है। पति ने यह बुदबुदाहट सुन ली और बोला, देखो इस तरह भूत-भूत लगना मत बोलो। यह कोई भूत का मामला नहीं है। तो फिर क्या है। पत्नी झल्लाते हुए बोली। पति बोला, देखो वह महिला सच्चरित्र रही होगी। तभी तो उसके बुढ़ापे में ही सही हम सबको उसकी याद तो आई। पत्नी तर्क को मानने को तैयार नहीं थी। उसने पूछा-याद-वाद हम लोगों को दिलाने के पीछे भगवान की क्या मंशा हो सकती है। पति इस बार चुप रहा। खड़ा हुआ और बिना पत्नी से चलने के लिए कहे, कदम बढ़ा दिया। करीब दो सौ मीटर आगे जाकर पीछे मुड़कर देखा। पत्नी भी हौले-हौले चली आ रही थी। शाम लगभग घिर आई थी। थोड़ी भी अगर देर हुई तो रास्तों पर कुछ दिखेगा नहीं और बाकी का सफर पूरा करना कठिन होगा। तभी कंधे पर भारी बोझ लादे दो महिलाएं, एक बच्चा और एक पुरुष दिखा। पति-पत्नी ने उनके पास आते ही एक सवाल दागा, भाई साहब गुलेटी गांव कहां है। कोई उनकी बात का जवाब देता उससे पहले ही बच्चा बोल पड़ा हम वहीं जा रहे हैं। साथ चल रही दो महिलाओं में से एक बोली, बेटा इनका झोला पकड़ ले। बच्चे ने उस दंपती से झोला लेने की कोशिश की तो पति बोले, नहीं धन्यवाद, बस यह बताइए कितना समय और लगेगा। उसके बोलने के अंदाज से इन लोगों ने अंदाजा लगा लिया कि ये पहाड़ों में चलने के आदी तो नहीं हैं। एक महिला बोली, बस 15 मिनट और। आपके 15 मिनट का मतलब है हमारा पौन घंटा, पति बोला। वे लोग हंसते हुए बोले नहीं धीरे-धीरे भी आएंगे तो आधे घंटे में पहुंच जाएंगे। इतना कहते ही यह पूरा परिवार तेजी से आगे बढ़ गया। थोड़ी दूर जाकर एक महिला ठिठकी, जैसे कुछ पूछना अभी बाकी रह गया हो। उसने इस दंपती से सवाल दागा, आखिर आप लोगों को किसके घर जाना है। मियां-बीबी ने एक दूसरे को देखा। कुछ देर दोनों चुप रहे, फिर बोले, बद्रीदत्त जी के यहां। अच्छा... आप उनके कौन हुए, महिला ने एक और सवाल पूछ लिया। दूर के रिश्तेदार, इस बार पति ने बिना देर लगाए जवाब दे दिया। फिर महिला ने कुछ नहीं पूछा और वह तेजी से आगे बढ़ गई। रात घिरते-घिरते यह दंपती आखिरकार गुलेटी गांव पहुंच गए। बद्री दत्त जी, उनकी पत्नी माधुरी और बेटा सुरेश घर के बाहर ही थे। उन तक खबर लग गई थी कि एक महिला और पुरुष उनके घर आने वाले हैं। क्योंकि रास्ते में मिले कुछ लोग इन लोगों से 20-25 मिनट पहले पहुंच गए थे। गांव में कुल मिलाकर 12 घर थे। उनमें से दो पर ताला जड़ा था।    रात घिर रही थी, लोग अपने मवेशियों को चारा दे रहे थे। कुछ लोग सिर पर पानी की गगरी लेकर आ रहे थे। अंधेरी होती रात में एक अजीब रौनक थी, ठीक वैसे ही जैसे दिन की शुरुआत होती है। पति ने बद्री दत्त जी से ही पूछ लिया, यहां बद्रीदत्तजी का घर कहां पर है। मैं ही बद्रीदत्त हूं, उन्होंने जवाब दिया। उनके बेटे सुरेश ने पूछा आप कहां से आए हैं। माधुरी बोली, पहले अंदर बिठा लो। यह कहते हुए उन्होंने पत्नी की तरफ इशारा किया और पांच-सात सीढ़ियों को पार कर अंदर पहले कमरे में ले गईं। कमरे में एक बड़ी चारपाई थी। चार कुर्सियां पड़ी थीं और नीचे बैठने के लिए चटाई बिछी थी। माधुरी ने चप्पल उतारे तो लगभग अंदर जा चुकी महिला ने वापस आकर अपनी सैंडिल उतारीं। तब तक सभी लोग अंदर आ चुके थे। आवाजें सुनकर अंदर से एक बुजुर्ग महिला भी बाहर आ गई। कौन है माधुरी, महिला ने पूछा। दीदी तू यहां बैठ जा, अभी बताते हैं। कहकर बद्री दत्त जी ने सवाल किया, शाम होने को आई है, ठंडा पानी पीएंगे क्या। यहां तो झरने का पानी बहुत ठंडा है, कहिए तो गर्म करा दें। इस बार महिला ने जवाब दिया, हां ठंडा ही पिला दीजिए। बहुत थक गए हैं। बुजुर्ग महिला से फिर नहीं रहा गया, उसने फिर सवाल किया, कहां से आए हो तुम लोग। इस बार उस पुरुष ने ऐसा बोला कि अंदर चाय की तैयारी करने जा रही माधुरी और सुरेश भी जहां के तहां ठिठक गए। पुरुष ने कहा, मैं आपका बेटा हूं। बाकी लोग कुछ पूछते या कहते, बुजुर्ग महिला बोली अरे तू दिनेश है। पुरुष बोला हां और यह आपकी बहू, इसका नाम नीता है। क्या कहा गीता, नहीं नीता या नीतू, कुछ भी कह लीजिए। माजरा बद्रीदत्त जी को भी समझ में आ गया। बोले आप रुद्रपुर में रहते हैं। दिनेश बोले, हां परिवार वहां है, मैं इन दिनों नैनीताल में पोस्टेड हूं। किस विभाग में। रोडवेज में। फिर दिनेश ने पूछा और आप। बद्रीदत्त जी बोले, अध्यापक था अब रिटायर हो चुका हूं। फिर बिना रुके बोले, कुछ-कुछ कहानी इन्होंने बताई तो थी, लेकिन आप यहां तक आ जाएंगे, इसका अंदाजा नहीं था और न ही उम्मीद थी। आपकी पत्नी इनकी बहन हुई न, दिनेश ने पूछा। हां। बस इतना ही जवाब दिया बद्रीदत्त जी ने और अंदर चले गए। कुछ देर पूरे घर में सन्नाटा छाया रहा। फिर बुजुर्ग महिला से नहीं रहा गया। बोली, कितने बच्चे हैं दिनेश तेरे। मां दो बेटे हैं और एक की शादी होने वाली है। अच्छा इतने बड़े हो गए हैं। फिर दिनेश ने कहा, मैं तुम्हें लेने आया हूं। तब तक बद्री दत्त जी बाहर के कमरे में आ चुके थे। अरे आप अचानक कैसे ले जा सकते हैं। मुझे इनके मायके वालों से पूछना पड़ेगा। आखिर इनको यहां मेरी जिम्मेदारी पर छोड़ा गया है। माधुरी को बद्रीदत्त जी के स्वभाव का पता था, डर था कहीं झगड़ न पड़ें। अरे अभी थोड़ी ले जा रहे हैं। चाय पी लो, खाना खा लो। फिर कल आराम से हो जाएंगी बातें। उन्होंने नीतू से कहा, तुम चाहो तो हाथ-मुंह धोने पीछे जा सकती हो। एक छोटा सा गुशलखाना बना रखा है। पहाड़ों में तो ऐसा ही ठहरा। उसका उत्तर जाने बिना माधुरी ने पूछा, खाने में क्या पसंद है। पहाड़ की कोई चीज पसंद हो तो बताना, वह भी बन जाएगी। नीतू बोली हां चाय पी लूं, फिर हाथ-मुंह धो लूंगी। खाने में आप कुछ भी बना लो, कोई विशेष भूख नहीं है। बुजुर्ग महिला चुपचाप चाय सुड़कने में व्यस्त हो गई। बद्री दत्त जी अब कुछ नहीं बोल रहे थे। दिनेश ने बात शुरू की। आप कल सुबह इनके मायके वालों से फोन पर बात कर लीजिए। असल में मेरा इनको ले जाना बहुत जरूरी है। घर में आए दिन कोई न कोई समस्या हो जाती है। सबकुछ होते हुए भी हम लोग परेशान रहते हैं। एक जगह पूछ कराई तो इनके बारे में पता चला, उसके बाद सीधे इनको लेने आ गए हैं। आपको पता ही नहीं था, बद्रीदत्त जी ने आश्चर्य से पूछा। दिनेश ने कहा, सही में हमें नहीं मालूम था। जब पूछ करने पर पता चला तो हम सीधे अपने गांव गए। वहां पिताजी छोटे भाई के साथ रहते हैं और बहुत बीमार हैं। उनसे भी जब हमने सवाल किया तो पहले वे गुस्से में थे, बातों को टाल रहे थे, लेकिन अंततः उन्होंने हामी भर दी कि हां, यह बात सही है कि तुम्हारी एक मां और है। फिर हमने तमाम जगह से पता लगाया और यहां पहुंचे हैं। लेकिन अब लेजाकर क्या इनकी देखभाल कर पाओगे, अब तो इनके भाई भी इस दुनिया में नहीं रहे। दिनेश ने कहा, आप चिंता न करें। कुछ और बातें करने के बाद और बिना बुजुर्ग महिला की सहमति के खाना खाकर सब सो गए। अगले दिन गाजियाबाद रह रहे बुजुर्ग महिला की भाभियों और भतीजों को फोन लगाया गया। सारी कहानी बताई गई और पूछा गया कि क्या भेज दें। इधर इन लोगों ने मंत्रणा के लिए आधे घंटे का वक्त मांगा। बड़े भाई के बेटे के यहां यह बुजुर्ग महिला अक्सर आती रहती थी, जब तक उनकी मां जीवित थी। लोगों ने एक दूसरे से पूछा, बात हुई। फिर कहा गया कि इसमें बुराई कैसी। आधे घंटे बाद गुलेटी गांव फोन किया गया कि ले जाने दीजिए। तय हो गया कि महिला को अब दिनेश के साथ जाना है। पैदल रास्ता था, बुजुर्ग महिला के साथ दिनेश और उनकी पत्नी सुबह आठ बजे चल पड़े। लोगों ने कुछ सवाल पूछने चाहे। कुछ को बद्रीदत्त जी ने चुप करा दिया और कुछ से माधुरी ने कहा कि बाद में सब बताएंगे। असल में यह सब जानते थे कि ये बुजुर्ग महिला जो इतने समय से इनके साथ रह रही है माधुरी की बहन है। यह भी सब जानते थे कि बचपन में उनकी शादी हुई थी और कुछ ही समय बाद कुछ अनबन की वजह से उनके पिताजी उनको मायके ले आए थे। आज न उनके पिता जीवित हैं, न माताजी। और तो और भाई भी एक के बाद एक चलते बने, बस एक भाई हैं, उनकी भी हालत खराब है। भाभियों में एकमात्र भाभी बची हैं। खैर आज इस बुजुर्ग महिला को ससुराल जाना था। जाते वक्त माधुरी और उनकी बड़ी बहन यानी यह बुजुर्ग महिला गले मिलीं। कुछ देर को सुबकीं। आंसू पोछे और चलते बने। माधुरी ने कहा, चिंता मत कर हम वहां आते रहेंगे। और बजुर्ग महिला अपने बेटे और बहू के साथ चल पड़ीं ससुराल को। उस ससुराल की ओर जहां के लोगों को भी इस मां या दादी-नानी के बारे में तब पता चला, जब वहां कुछ लोगों को दिक्कतें आनी शुरू हो गईं। रास्ते में दिनेश ने अपनी मां से बेहद औपचारिक भाव से खाने या पानी पीने के लिए पूछा। बुजुर्ग महिला बस ना में सिर हिला देती। बहू नीतू से कोई बात नहीं हुई।
रूद्रपुर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई। इनके वहां पहुंचते ही आसपास के लोग वहां आ गए। कुछ ने कहा, अच्छा किया बेचारी को ले आए, कुछ बिन मांगी सलाह देने लगे। बुजुर्ग महिला को उनका कमरा दिखा दिया गया। यह भी कहा गया कि तीन दिन बाद गांव जाना है पीपलकोट। वहां पिताजी अंतिम सांसें ले रहे हैं। बुजुर्ग महिला के पास आधे घंटे बाद एक गरीब सा दिखने वाला युवक जो था तो 35 वर्ष के करीब का, पर लग रहा था 50 का, एक गिलास में चाय ले आया। बुजुर्ग महिला चाय हाथ में लेते हुए उसकी तरफ कुछ पूछने के अंदाज में देखने लगीं। खुद ही बोल पड़ा युवक-मैं आपका छोटा बेटा हूं महेश। नौकरी नहीं है, यूं ही कभी-कबार कुछ काम कर लिया करता हूं। शादी हो गई। नहीं। दोनों के बीच बात के बाद कुछ देर सन्नाटा। तब तक बाहर से आवाज आती है, महेश वहीं रुक गया। वह दौड़ा-दौड़ा चला आता है। बुजुर्ग महिला के समझ में कुछ-कुछ आ रहा था।
तीन दिन बाद सब लोग पीपलकोट पहुंच गए। वहां एक बुजुर्ग खाट पर लेटे थे। कुछ तीमारदार आसपास बैठे थे। पास में एक बर्तन में कुछ मिट्टी डाल रखी थी। बुजुर्ग अचानक तेज खांसी खांसते कुछ कफ उस बर्तन में थूकते, फिर लेट जाते। इनके जाते ही वहां कुछ हलचल हुई। बुजुर्ग ने इशारों में सबको आशीर्वाद दिया। दिनेश बोला, पिताजी ये... ईजा...वो ... कहते-कहते वह रुक गया। बहू ने कहा, तमाम पूछ कराने के बाद पता चला कि इनके कारण दिक्कतें आ रही हैं तो हम इन्हें लिवा लाए हैं। बुजुर्ग ने एक नजर महिला की तरफ देखा और आंखें बंद कर ली। रात के खाने की तैयारी घर में अन्य लोगों ने की। सबने ताकीद की कि पिताजी की तबीयत बहुत नासाज है। रातभर बारी-बारी से जगना पड़ता है। बुजुर्ग महिला बोली, आज मैं जग जाऊंगी, कोई दिक्कत होगी तो आप लोगों को उठा दूंगी। बहुत मुश्किल से बुजुर्ग पुरुष यानी इस महिला का पति बोला, नहीं तू सो जा... थकी है.. बच्चे हैं, देखभाल के लिए। महिला के आंखों में आंसू आ गए। पुरुष भी किसी तरह अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करने लगे। इतने में चाय आ गई। सब चाय सुड़कने लगे। अचानक बुजुर्ग पुरुष खांसते-खांसते उठे और महिला की ओर देखकर हाथ जोड़ने लगे और वहीं खाट पर गिर पड़े। सब हड़बड़ाकर उठ बैठे। बुजुर्ग पुरूष को देखा गया। आंखें खुली थीं, पर कोई हरकत नहीं। सांस भी थम गई है, एक व्यक्ति बोला। महेश जोर-जोर से रोने लगा। सबने उसे चुप कराया। महिला रो तो नहीं पा रही थी, पर बेचैन बहुत हो रही थी।
पूरे पंद्रह दिन लग गए। गांव में क्रिया-कर्म और खेती-बाड़ी सौंपने और अन्य काम में। महेश ने एक बार इच्छा व्यक्त की कि उसे और मां को गांव में ही रहने दिया जाए, लेकिन भैया-भाभी तैयार नहीं हुए। सब लोग फिर से रूद्रपुर आ गए। अब दिनेश के पास बिल्कुल छुट्टी नहीं बची थी। उसे अगले ही दिन नैनीताल निकलना था। यूं वह हर हफ्ते आते रहते। धीरे-धीरे एक साल होने को आया। दिनेश के पिताजी की बरसी करीब आ गई। तय हुआ कि गांव में ही चलकर बरसी की जाए। सबलोग गए, पर बुजुर्ग महिला को इस बार ले जाने के लिए कोई राजी नहीं हुआ। मुरादाबाद उनके भतीजे को फोन लगाया गया। मजबूरी बताई गई। भतीजा रातोंरात जाकर बुआ को ले आया। अब आएदिन बुजुर्ग महिला को मुरादाबाद भेजने के कारण या बहाने ढूंढ़े जाते। इस बीच दिनेश के बेटे की शादी तय हो गई। तैयारियों के सिलसिले में इधर-उधर जाना होगा, इस बहाने से बुजुर्ग महिला को मुरादाबाद भेजने की तैयारी हुई। इस बार भतीजा सख्त हो गया। उसने सख्त लहजे में कहा, 75 साल रखा है अपनी बुआ को आगे भी रख लेंगे, लेकिन ये रोज-रोज का ड्रामा नहीं चलेगा। ससुराल पक्ष को लगा, बेटे की शादी के दौरान बुढ़िया कोई शाॅप न दे दे। डर के मारे बुजुर्ग महिला को अपने पास ही रखा। बेटे की शादी भी हो गई। अब तो बस इंतजार था, बुढ़ापे में ससुराल आई इस औरत के इसके पति के पास जाने का। जिस पति के साथ जीते जी नहीं रह पाई, क्या वह किसी और जहां में मिलेगा, कौन जाने।

Thursday, September 15, 2016

कहानी कृष्ण पक्ष की चांदनी



कृष्णपक्ष की चांदनी
माथे पर हथेली की छतरी बनाकर वह दूर-दूर तक देखने की कोशिश करती। अभी आये नहीं फिर दौड़कर आंगन से होती हुई घर में दाखिल हो जाती। चूल्हे पर रखी दाल को देखने के लिये। पकने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा क्योंकि मिली-जुली दाल जो है। असल में बहू और उसके बच्चों को यही दाल बहुत पसंद है। बेटा तो कुछ भी खा लेता है। वैसे बेटे ने कभी अपनी पसंद भी कहां जाहिर की। छोटा बेटा जरूर नाक-भौं सिकोड़ता। नाराज भी हो जाता। प्यार भी जताने लगता। लेकिन बड़े बेटे की चंचलता का कोई वाकया शायद ही याद होगा। वैसे चंद्रकला देवी उर्फ चांदनी का अतीत में झांकने को कोई मन भी नहीं करता। अगर वह भविष्य की भी चिंता न करती तो शायद महान हस्ती होती। गीता का ज्ञान उसे पूरा हो लेता, कल बीत चुका है, आने वाला कल किसने देखा है, क्यों चिंता कर रहे हो। वर्तमान चल रहा है, उसमें जीयो। बीते कल की बातें वह करतीं जरूर, पर कोई भावनात्मक रूप से नहीं। वर्तमान में खूब जीती, लेकिन भविष्य की चिंता हमेशा रहती। वैसे वह अब इस दौर में थी कि उसे भविष्य की चिंता करनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन मन है, पता नहीं कैसा भविष्य होगा। ऐसे ही खयाल आते। पर यह कभी नहीं सोचा जिस भविष्य की वह चिंता कर रही है, वह कितना बडा होगा और कब आयेगा।
आज चंद्रकला देवी उर्फ चांदनी का बड़ा बेटा अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पूरे दो साल बाद आ रहा था। यह बेटा उसके पास रहा ही बहुत कम। दसवीं पास करने के बाद हास्टल चला गया। वहीं से एक नौकरी के लिए परीक्षा दी तो उसमें सफल हो गया और पहली ही पोस्टिंग मिली मुरादाबाद में। छोटा बेटा मस्तमौला। पिता कभी-कबार उसे डांटते, पर बेटा सबकुछ अपने हिसाब से ‘मैनेज’ कर लेता। बड़े की नौकरी लग गयी। छोटा अभी पढ़ रहा था, पिता के काम में भी हाथ बंटाता। वैसे पिता का कोई कारोबार नहीं था। वह तो छोटे-मोटे किसान थे। पंडिताई भी जानते थे तो शादी-व्याह के सीजन में छोटा बेटा भी साथ चल देता। पंडिताई अच्छी चलती थी। बाहर के काम तो इनके पिता अच्छे से करते, लेकिन घर में वह आराम को ही प्राथमिकता देते। चांदनी यानी चंद्रकला देवी आज अपने बड़े बेटे मोहन, उसकी पत्नी सुजाता और पोते मनन और पोती अनु का इंतजार कर रही थी। उसके पति पंडित राधेश्याम पांडेय आज किसी यजमान के बेटे की शादी कराने गये थे। छोटा बेटा भी उनके साथ गया था। छोटा बेटा चंचल तो था, पर पढ़ाई में बुरा नहीं। माता-पिता का हाथ बंटाता, पिता के साथ पुरोहिती करने भी जाता, लेकिन उसका मन कोई एक जगह नहीं लगता था। तमन्ना उसकी भी बाहर जाकर नौकरी करने की होती। चंद्रकला देवी के पति यानी इन्हीं दो बेटों के पिता पंडित राधेश्याम पांडेय परिवार का खर्च चलाने के लिए पुरोहिती तो करते, पर बाकी कुछ नहीं। जैसे कि कभी घर के कामों में हाथ बंटाना, दूर झरने से पानी भरकर लाना, वगैरह-वगैरह। यह अलग बात है कि कभी-कबार हारी-बीमारी में वह काम करते। पर उन्हें अच्छा लगता अगर ऐसे मौकों पर भी गांव का कोई परिवार उनकी मदद कर देता। घर के कामों में चंद्रकला देवी का कोई मददगार भी नहीं होता और कभी उसे इसकी शिकायत भी नहीं रही। ऐसा माहौल उसने बचपन से देखा था। ससुराल में भी ऐसा ही माहौल था। असल में चंद्रकला देवी का जीवन रहा ही ऐसा कि शायद शिकायत, शिकन, परेशानी जाहिर करने वाला कैमिकल उसमें कभी पनप ही नहीं पाया। 9 भाई बहनों में पांचवे नंबर की चंद्रकला को पंडित राधेश्याम पांडे के साथ 17 वर्ष की उम्र में व्याह दिया गया। पिताजी घर-परिवार के तमाम मसलों पर ऐसे उलझे कि असमय ही चल बसे। भाई तीन थे। उनमें से एक चंद्रकला की शादी के चंद वर्षों बाद ही चल बसे। एक का पता ही नहीं चला कि गया कहां? और तीसरे की पत्नी से तकरार हो गयी तो अलग-थलग रहने लगा। चंद्रकला देवी की जिस गांव में शादी हुई, वहां उसकी दीदी और बुआ पहले से ही व्याही थीं। बहुत कम ही उम्र थी शादी के वक्त चंद्रकला देवी की, लेकिन बुआ और दीदी का गांव है, इसलिए चंद्रकला देवी यानी चांदनी थोड़ी सी आश्वस्त थी।
कम उम्र में शादी और उस पर गांव ऐसा कि पहले दिन से ही नयी नवेली बहू को पानी लाना है, खेतों में जाना है, गाय भैंसों को भी देखना है। ये सारे काम तो वह मायके से भी करती आ रही थी, इसलिए दिक्कत नहीं हुई, लेकिन अब इन कामों के अलावा कुछ जिम्मेदारियां और बढ़ गयीं, मसलन, बहू बनकर भी रहना है, पति की इच्छाओं का भी ध्यान रखना है। नये माहौल में खुद को एडजस्ट भी करना है। समय बीतता गया। कभी बुआ से बातें कर ली, कभी दीदी के यहां चली गयी और मौका लगा तो कभी-कबार मायके भी। ससुराल में कई दिक्कतें आईं। पति का फक्कड़ स्वभाव, गाय-भैंसों की खास जिम्मेदारी। यही तो होता है ‘लड़कियों’ के भाग में, यह सोचकर चंद्रकला देवी रम गयी गृहस्थी में। शादी के दो साल बाद एक बेटा हुआ। बधाइयों के तांते लग गये। मायके में बेटियां ही बेटियां थीं। पिता की भी और दादाजी की भी। कहीं उसकी भी बेटियां ही न हों, इस दंश और पति की आशंकाओं से पहली मुक्ति तो मिली। बेटा खूबसूरत था। स्वस्थ भी। दिनोंदिन बढ़ता गया। अपने में मस्त रहने वाले उसके पति पंडित राधेश्याम बेटे का पूरा ध्यान रखते। उसे नहला भी देते, मालिश कर देते। कई बार तो बेटे का इतना ध्यान रखते कि पुरुष प्रधान समाज में हंसी का पात्र भी बन जाते। फिर दिखावे के लिए वह चांदनी को कभी फटकारते भी कि देखो बच्चा गंदगी से सना है, ध्यान नहीं रखती। सच तो यह था कि चांदनी को बहुत जरूरत होती ही नहीं थी बच्चे का ध्यान रखने की। वह उसे दूध पिलाने और अपने साथ सुलाने के अलावा ज्यादा ध्यान नहीं रखती। राधेश्याम जी खुश थे। पति खुश तो सारे जहां की खुशियां चांदनी को मिल गयीं।
तीन साल बाद दूसरा बच्चा हुआ। इस बार भी बेटा ही। फक्कड़ी स्वभाव का पति अब मस्त भी रहने लगा। दो बेटे हो गये। गृहस्थी अच्छी चल रही थी, और क्या चाहिए। इस बीच कुछ बुरी खबरें भी आईं। कभी मायके से तो कभी ससुराल से। ससुराल में पड़ोस में ही व्याही गयी बुआ के पति का अचानक निधन हो गया। छोटे-छोटे बच्चे। भविष्य के प्रति ज्यादा चिंतित रहने वाली चंद्रकला देवी को बुआ और उनके बच्चों के भविष्य के प्रति चिंता होने लगी। लेकिन परिवार को ही अपना संसार मानने वाली चंद्रकला कुछ मदद करने की स्थिति में नहीं थी। शायद थी भी तो कर नहीं पाती। वह चिंता कर लेती, यही क्या कम था। मायके से भी कभी पिता के गुजरने की खबर आयी तो कभी माता के। एक भाई भी चल बसे। तमाम दुखद सूचनाओं को विधि का विधान मान चंद्रकला देवी रमी रही अपनी गृहस्थी में। दोपहर में लोग भोजन के बाद आराम करते, लेकिन वह खेतों में जाती घास काटने के लिए। दो गाय और एक भैंस जो पाल रखी थी। शाम को भोजन बनाना, दूर से पानी लाना और इसी बीच कुछ समय निकालकर पास-पड़ोस की महिलाओं के साथ गप्पें भी मारना। वह अपने संसार में खुश रहती। शायद ही मन में यह बात होगी कि आराम कब मिलेगा। पति बाकी काम करें या न करें, लेकिन बच्चों को पढ़ाने और उनके नहलाने-धुलाने का काम जरूर कर देते। समय बीता और बड़ा बेटा 10वीं पास कर गया। छोटा पहुंच गया छठी में। दसवीं के बाद गांव के करीब वाले स्कूल में विज्ञान की पढ़ाई नहीं होती थी। यानी साइंस साइड नहीं थी। आर्ट्स या कामर्स ही था। बेटा दूर एक जगह हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करने लगा। वह पढ़ाई में ठीक था। 12वीं करते-करते एक परीक्षा दी पास हो गया और नौकरी लग गयी। इस बीच पड़ोस में रहने वाली बुआ के पुश्तैनी मकान में रौनक खत्म सी हो गयी। सभी बच्चे बाहर सैटल हो गये। बेटियों की शादी हो गयी और एक दिन बुआ भी दुनिया छोड़कर चल बसी। उस दिन चांदनी बहुत दुखी हुई। ऐसे तो बुआ बुढ़ापे में इधर-उधर जाती। कभी बेटे के पास तो कभी बेटी के पास। घर पर कम ही रहती, लेकिन बुआ के होने का अहसास ही चांदनी के लिए बहुत था। अब वह भी नहीं रही। परेशानियों से जूझने में माहिर चांदनी ने यहां भी बाजी मार ली। बुआ के बच्चों ने उसी को घर दे दिया देखभाल के लिए। चांदनी ने बुआ के घर में कुछ जरूरी सामान रख दिया। एक तरह से स्टोर रूम की तरह घर बन गया। कभी बुआ के बच्चे आते तो वह घर को साफ सुथरा कर देती। चाय पानी की भी व्यवस्था करती। हरदम भागती सी रहने वाली चांदनी कुछ पल बैठकर हालचाल जरूर लेती।
समय तेजी से बीता। चंद्रकला देवी के बड़े बेटे बाहर सैटल हो गये। छोटा बेटा पिता के साथ काम में लगा रहता और नौकरी की तैयारी भी कर रहा था। लेकिन चंद्रकला की भागदौड़भरी जिंदगी में कोई ठहराव नहीं आया। उसे देखकर और लोग थकान महसूस करने लगते, लेकिन चंद्रकला को कभी उफ कहते किसी ने नहीं सुना। वह खुश रहती और वर्तमान में जीती, थोड़ी चिंता करती उसे पता नहीं क्यों भविष्य भयावह लगता। आज वह बहुत खुश थी। बेटा-बहू और बच्चे आ रहे थे।
दाल पक चुक थी। आम की चटनी बनाने की तैयारी करने से पहले एक बार फिर आंगन में गयी। अब दिख गये। बहुत दूर थे। लेकिन वह तो अपनी बहू और बेटे के चलने के अंदाज से ही समझ गयी कि यही लोग हैं। फोन होता तो शायद वह छोटे बेटे को भी तुरंत बुला लेती। ऐसा नहीं हुआ। वह दौड़कर कमरे में आयी। पानी की गगरी उठायी और झरने की ओर भागी। बहू-बेटे को आते ही ठंडा पानी पिलायेगी। बहू-बेटे के घर आने से पहले ही वह एक गगरी पानी भर लायी। झरने पर भीड़ थी, लेकिन वहां लोगों से विनती कर अपनी बारी पहले लगाकर वह घर आ गयी। घर आकर उसने बाहर के कमरे में कालीन बिछा दी। बगल में रखे एक बेड पर चादर बदल ली। यूं तो सब तैयारी उसने पहले से ही कर रखी थी, लेकिन पता नहीं क्या सूझा कि फिर से कालीन और चादर बदल दिये। इसी बीच बच्चे घर पहुंच गये। बेटा तो कम ही बोलता था, लेकिन बहू, पोते-पोती से बहुत देर वह बतियाती रही। सबको ठंडा पानी पिलाया। हालचाल लिया। थोड़ी देर बाद ही सबको भोजन के लिए आने को कहा। आम-पुदीने की चटनी और मिक्स दाल से बहू और बच्चे बड़े खुश हुए। उनको खुश देखकर चांदनी यानी चंद्रकला का तो जैसे एक पाव खून बढ़ गया।
इसी तरह की छोटी-छोटी खुशियों को ही जीने के लिए चंद्रकला शायद हाड़तोड़ मेहनत करती थी। इस बार बड़े बेटे ने अपने साथ चलने की जिद की। चंद्रकला ने कहा छोटे बेटे जतिन की शादी हो जाये तो जरूर चलेगी। चांदनी को ले जाने की जिद ज्यादा बढ़ती, चांदनी ना-नुकर करके शायद मान ही जाती। शायद मन के एक कोने में उसके जाने की इच्छा दबी थी, जो उभर सकती, लेकिन इन सबका मौका नहीं मिला। कुछ दिन रुककर बहू-बेटे चले गये। चांदनी को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन अजीब लगने से क्या होता है? वह उसी तरह लग गयी अपने कामों में, जैसे हमेशा से करती आती है। पानी भरना, खेतों में जाना, घास काटकर लाना, वगैरह-वगैरह।
समय बीतता गया। कुछ ही सालों में छोटा बेटा भी राजस्थान में एक कंपनी में नौकरी पर लग गया। बस इसी का तो इंतजार था चंद्रकला देवी को। नौकरी लगते ही शादी तय कर दी और धूमधाम से उसकी शादी कर दी। एक अजब बात थी चंद्रकला देवी में। वह खुद हमेशा गांव में रही। खूब काम किया। लेकिन उसने कभी बहुओं से कोई काम नहीं कराया। शादी के कुछ ही महीनों बाद बहुओं को बेटों के पास भेज दिया। बेटे कहते भी कि कुछ माह बहू को अपने साथ रखो। काम में हाथ बंटा देंगी, लेकिन चंद्रकला को यह कतई गंवारा नहीं था। इस बात को कोई नहीं समझ पाता। वह तो बहुओं को तब भी कुछ नहीं करने देतीं, जब वह कभी-कबार एक या दो महीनों के लिए गांव आतीं। इससे और कुछ समझ आये या न आये, यह तो लगता कि उसके मन में अत्यधिक काम किये जाने की टीस तो है। यदि घर परिवार और भविष्य की चिंता में मरे जाना ही असली जिंदगी होती तो वह बहुओं को इसमें शामिल करती। यदि महिलाओं की यही नियति है, वह मानती तो वह बहुओं से खूब काम कराती। अब तो लगता जैसे वह हाड़तोड़ मेहनत कोई विरोध स्वरूप कर रही हो। उसी तरह जैसे कई देशों में हड़ताल के दौरान श्रमिक दोगुनी मेहनत करते हैं। इस अंदाज में कि ‘देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।’ पर चांदनी के लिए ऐसा कुछ नहीं था कि वह किसी कातिल को देख रही हो। वह विरोध किसका कर रही थी? न सास, न कोई और। परिवार में और लोग थे, लेकिन सब अलग-अलग रहते थे। तो क्या वह अपनी किस्मत को अपनी मेहनत से पलट रही थी? क्या उसे नियति से रंज था? या फिर मेहनत उसकी नियति बन चुकी थी। क्या उसे आराम पसंद नहीं था। वह भागती रहती। भागती रहती। दोपहर में भी। सांझ को भी। रात में ही जो नींद निकाल पाती होगी। सुबह लोग उठते तो देखते चांदनी न जाने कब भैंस को दुह चुकी है। नहा चुकी है। नाश्ता बना चुकी है। कभी-कभी तो घास काटकर भी ला चुकी है। काम का ऐसा भूत क्यों सवार है चांदनी पर। चाहे कोई कितना भला बुरा कहे, एक बात तो सब कहते, कि यह लंबी उम्र जीयेगी। क्योंकि शारीरिक रूप से फिट है। मेहनत करती है। चांदनी से लोग यह बात सीधे भी कहते, लेकिन वह बस हंसकर रह जाती। कुछ लोग बताते हैं कि शुरू-शुरू में उसके पति उसे तेज काम करने को कहते। डांटते भी। कभी-कभी शायद हाथ भी उठा देते। लेकिन अब वह कुछ नहीं कहते। शायद इसलिए कि चांदनी में अब ढीलापन दिखता ही नहीं। हमेशा चौकन्नी। काम करते दिखती। गांव की देवकी ने एक दिन समझाया, ‘चंद्रकला अब बस कर। अब नाती-पोतों वाली हो गयी हो। कोई तनाव है नहीं। थोड़ा आराम किया कर।’ असल में देवकी कोई सलाहकार नहीं थी। एक दिन भरी दुपहरी उसने चांदनी को देखा था दूसरे गांव में जाते हुए। चांदनी एक पेड़ के नीचे लगभग हांफ सी रही थी। देवकी भी कहीं से आ रही थी। पूछा, ‘कहां जा रही हो।’ ‘सूखी घास लेने।’ असल में गर्मियों के मौसम के लिए कुछ लोग सूखी घास बेचते थे। चंद्रकला को भी लगा कि अभी सही रेट पर मिल जायेगा तो वह अकेले ही चल पड़ी घास लेने। देवकी ने पहली बार आज एक थकी-हारी सी चंद्रकला को देखा तो सलाह दे दी। चंद्रकला यहां भी हंसकर रह गयी और उस गांव तक जाते-जाते करीब 20 जगह बैठकर आराम किया होगा, जहां वह कभी बिना एक बार भी विश्राम किये चली जाया करती थी। करीब 40 किलो घास को बड़े से जाल में बांधकर वह सिर पर रखकर चल पड़ी। थोड़ी देर में हड़कंप मच गया, जब खबर आयी कि चांदनी घास सहित गिर गयी है। पंडित राधेश्याम कहीं गये हुए थे। चांदनी के आस-पास के लोग वहां गये। तब तक वह संभल चुकी थी और किसी तरह घास के जाल को अपने सिर पर रखने की कोशिश कर रही थी। लोगों ने पूछा क्या हुआ। चांदनी ने कहा पता नहीं क्यों अचानक चक्कर आ गया। सिर दर्द हो रहा है। लोगों ने घास को पांच-छह हिस्सों में बांटा और ले आये। चांदनी भी साथ-साथ चली आयी। हमेशा मदद से सीधे इनकार कर देने वाली चांदनी आज इस मदद पर कुछ नहीं बोली। न वह बहुत कृतज्ञता दिखा पायी और न ही उसके चेहरे से खुशी झलकी।
पंडित राधेश्याम शाम को घर पहुंचे। तब तक चांदनी खाना बनाने की तैयारी में लगी थी। आने पर पति को पानी पिलाया। चाय बनायी। आज पता नहीं कैसे चांदनी के चेहरे से छलक रहा था कि वह ठीक नहीं है। पति ने पूछ लिया, क्या हुआ? चांदनी ने फिर सिर दर्द वाली बात बतायी। पंडितजी ने कहा, ‘चल कल दवा ले आयेंगे।’ अगले दिन पंडित जी कुछ दूरी पर स्थित एक दुकान पर गये क्रोसीन लेने। इसी दौरान उन्हें पहले दिन वाले वाकये के बारे में पता चला। वह दवा तो ले आये, लेकिन इस बात से बेहद खफा थे कि चांदनी को चक्कर आया, आसपास के लोग घास लाये यह बात उन्हें बाहर से पता चली। घर आये तो देखा चांदनी लेटी हुई थी। ऐसा कभी नहीं होता था कि सुबह दस बजे के करीब चांदनी सोयी मिले। पंडितजी अपना गुस्सा पी गये। उन्होंने चंद्रकला को क्रोसीन खिलायी और सो जाने को कहा। खुद वह गांव के पास चौपाल पर चले गये। दोपहर को भोजन का वक्त आया तो, पंडितजी को ध्यान आया, अरे आज तो घर पर ही उन्हें रहना चाहिए था। चांदनी अकेले भोजन बना रही होगी। उसका सिरदर्द अलग से हो रहा है। वह घर पहुंचे तो देखा चांदनी चादर ओढ़कर सो रही है। पहले सोचा जगाऊं कि नहीं। लेकिन फिर बोले, ‘चंद्रकला उठो, अब तो बहुत देर सो चुकी है।’ लेकिन चंद्रकला नहीं उठी। पंडितजी अब चिल्लाये, ‘अरे कुछ खाने का तो बताओ।’ चंद्रकला अब भी नहीं बोली। पंडितजी पास गये और चादर हटाई। चंद्रकला को देखा तो घबरा से गये। कोई हरकत नहीं। दौड़कर आसपास के कुछ लोगों को बुला लाये। देवकी भी आ गयीं। नब्ज टटोली गयी। चंद्रकला शायद बहुत थक चुकी थी। वह पूरी तरह सो चुकी थी। ऐसी नींद, जहां उसे न काम की फिक्र है, न गाय-भैंसों की और न ही अपने बहू-बेटों के पसंद के भोजन बनाने की।