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Friday, December 6, 2019

फर्राटेदार सफर की यादगार बातें

रविवार की उस भोर में सूरज खिला-खिला था। सुबह करीब साढ़े आठ बजे चंडीगढ़-अंबाला हाईवे पर डॉक्टर चंद्र त्रिखा साहब की गाड़ी रुकी। पुराने एयरपोर्ट चौक के पास। स्वभाव से बेहद विनम्र त्रिखा साहब को पढ़ता बहुत पहले से रहा हूं, मुलाकात पिछले कुछ वर्षों से है। उनसे कई बार दवा (होम्योपैथ) भी ले चुका हूं। हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू भाषा के जानकार डॉ. त्रिखा फिलवक्त हरियाणा उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष हैं। उनसे कई बार हमारे अखबार में ‘अचानक’ कुछ लिखवाया गया। उनकी हस्तलिखित कॉपी को देखकर हैरान रहता था। एक तो कुछ ही मिनटों में उनका लेख आ जाता, दूसरे उसमें कहीं कोई कट नहीं होता। यानी धारा प्रवाह बोलने की कला की मानिंद उनमें लिखने का भी वैसा ही गुण। इन दिनों यूट्यूब पर समसामयिक और रोचक मुद्दों पर उनका एक चैनल भी चलता है, जहां बिना नागा रोज एक नया विषय फ्लैश करता है। खैर...
साहित्य सभा में अपनी बात रखते डाॅ त्रिखा
त्रिखा साहब (Dr. Chandra Trikha) के साथ बैठा। बैठते ही एक किताब की चर्चा कर डाली। उसकी समीक्षा जल्दी ही हमारे अखबार में छपेगी। थोड़ी दूर जाने पर हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक डॉ मुक्ता भी उसी गाड़ी में बैठीं। औपचारिक परिचय के बाद कुछ पलों की खामोशी रही, फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया। असल में हम लोग कैथल के लिए निकले थे। कैथल साहित्य सभा का सालाना कार्यक्रम था। डॉ. त्रिखा साहब दो पुरस्कारों को अपनी ओर से देते हैं। मैंने कुछ बातें कहीं। फिर त्रिखा साहब ने कुछ रोचक किस्से बताये। असल में एकदम ईमानदारी से कहूं तो मैं उन्हें सुनना ही चाह रहा था। एक तो उन्हें कई अखबारों में पढ़ता रहता हूं। दूसरे विभाजन के दर्द और उस समय की विभीषिका का उन्होंने देखा है। कई कार्यक्रमों में उनको सुन चुका हूं। उन्होंने अपने लाहौर यात्रा का जिक्र करते हुए एक बुजुर्ग महिला का जिक्र किया, जो एक होटल वाले से अक्स पूछतीं, उधर से कोई आया है क्या? उधर से उनका आशय भारत से होता था। पूरे किस्से का जिक्र करते हुए उन्होंने उस महिला की ‘गंगा तो हमारी संस्कृति’ है वाली बात को बताया तो हम लोग कुछ देर को चुप रहे। डॉ. मुक्ता ने कहा, ‘हिंदू-मुस्लिम तो सियासत कराती है, हम सब इंसान हैं।’ इसी दौरान मैंने उनकी किताब ‘सूफी लौट आए हैं’ का जिक्र किया। इसके अलावा उन्होंने उस कहानी को सुनाया जिसमें विभाजन के दौरान पाकिस्तान से एक परिवार भारत लौट आता है, लेकिन घर की बुजुर्ग महिला नहीं आती। उधर, वह मकान किसी को अलॉट हो जाता है। बुजुर्ग महिला उस परिवार को घर में घुसने नहीं देती और अंतत: धीरे-धीरे इंसानी जज्बातों और प्यार का ऐसा उमड़-घुमड़ होता है कि बुजुर्ग महिला सबकुछ उन्हें दे जाती है।
साहित्य सेवी उर्मि कृष्ण का सम्मान।

समय के साथ करें कदमताल
साहित्य सभा के कार्यक्रम में डॉ. त्रिखा साहब ने बेहद बेबाकी से कहा कि महज लिखने के लिए नहीं लिखें। उन्होंने कहा कि एक कार्यक्रम कर चंद लोगों के बीच फोटो खिंचाकर फिर तालियां बजाने से कुछ नहीं होता। उन्होंने कहा कि समय के साथ बदलें। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर आयें। स्तरीय लिखें। वाकई कुछ बातें बेशक ‘चुभने’ वाली हो सकती हैं, लेकिन यह सत्य है कि समय के साथ नहीं बदले तो सब गड्डमड्ड हो जाएगा।
हास्य विनोद...मैं ऑटो से चला जाता हूं
कैथल से लौटते वक्त जीरकपुर के पास डॉक्टर मुक्ता ने कहा कि वह पटियाला चौक के पास उतर जाएंगी। यहां से ऑटो से चली जाएंगी। मैंने कहा अगर आपका रूट दूसरा हो तो मैं यहां उतर जाता हूं, आप पंचकूला के रास्ते चले जाइयेगा। यहां से मुझे सीधे ऑटो मिल जाएगा। डॉ त्रिखा हंसे.. बोले आप लोग गाड़ी में ही रहें, मैं ऑटो से चला जाता हूं। इस दौरान सभी लोग मुस्कुरा दिए।
उनका ड्राइवर को प्यार से समझाना
इस सफर में कई बार ऐसे मौके आए जब डॉक्टर साहब को ड्राइवर साहब को मनाना पड़ा। वह उन्हें प्यार से समझाते। एक बार वह फोन पर लंबी बात करने लगा तो डॉक्टर साहब ने ताकीद दी कि या तो रोकककर बात कर लो या फिर संक्षेप में बात करो। ऐसे ही एक-दो मौकों पर उसे समझाया, लेकिन विनम्रता से। वाकई ऐसे ही लोगों के बारे में कहा गया है, ‘फलों से लदा पेड़ झुका रहता है।’

डॉ मुक्ता का किताबों के प्रति स्नेह दिखाना
सफर के दौरान बातचीत के क्रम में डॉक्टर मुक्ता जी ने कई किताबों की बात की। अंत में उन्होंने समीक्षा के संबंध में भी अपनी रुचि दिखाई जिसे मैं अपने ऑफिस में दर्ज करा चुकुा हूं।
मीनाक्षी जी से अक्सर होती है चर्चा
डॉक्टर साहब की चर्चा अक्सर उनकी बेटी और ऑफिस में हमारी बॉस मीनाक्षी जी से होती रहती है। ट्रिब्यून में आने के बाद मीनाक्षी जी उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने बहुत मदद की। ऑफिस के बाहर भी कई बार परिवार सहित मीनाक्षी जी और उनके पति सुनील जी से मिला तो बेहद अपनापन मिला। सुनील जी भी बहुत नेकदिल इंसान हैं।
और मेरा वह सम्मान...

कैथल में मुझे धीरज त्रिखा पत्रकारिता सम्मान से नवाजा गया। धीरज के बारे में बेहद मार्मिक कहानी है। इस बारे में फिर कभी जिक्र होगा। कार्यक्रम में कैथल के संवाददाता ललित शर्मा से मुलाकात हुई। साहित्य सभा में ढाई दशक से सक्रिय भूमिका निभाने वाले मदान साहब से मुलाकात हुई। भल्ला जी मिले। अनेक अन्य साहित्य अनुरागियों, पत्रकारों से मिला। हमारे समाचार संपादक हरेश जी के पिताजी दामोदर जी का अनेक लोगों ने जिक्र किया।
कार्यक्रम के बाद संस्कृत के अध्यापक एवे रेडियो पत्रकार दिनेश के साथ फल्गू तीर्थ भी जाने का मौका मिला। वह सफर मेरे लिए सचमुच यादगार है। इस याद और इस सम्मान से जुड़े सभी को साधुवाद।

Thursday, November 28, 2019

जूजू की शादी...

पापा की लाडली, पापा का प्यार।
मां ने छिपाए आंसू हजार।
विदाई बेला का वो मंजर अजब था
चेहरे पर मुस्कान, आंसुओं में अदब था।

23 नवंबर, 2019 की सुबह की बेला थी। हंसी-मजाक चल रही थी। साथ ही चल रहा था पूजा-पाठ का कार्यकम। एक दौर चाय का चल चुका था। जान-पहचान, परिचय-मुस्कुराहटों के औपचारिक क्रियाकलापों के बीच सब जान रहे थे कि एक कन्या अब ‘अपने घर’ के लिए विदा होने वाली है। बच्ची (हर संतान मां-बाप के लिए बच्चा या बच्ची ही होती है) के माता-पिता लोगों से बात कर रहे थे और भावुकता उनके चेहरे पर झलक रही थी। लग रहा था मानो कुछ भावनाओं को सप्रयास दबाया जा रहा है। यह पूरा वाकया है अपर्णा जिसे प्यार से घरवाले जूजू कहते हैं, की शादी का। कार्यक्रम तो पहले से चल रहे थे, लेकिन मुख्य समारोह 21 नवंबर से शुरू हुए। पिछले सात सालों से इस बच्ची को मैं भी अच्छे से जानता हूं। जहां मिलती है, पूरे अपनेपन के साथ पूछती है, ‘हैलो अंकल...हाउ आर यू?’ बच्ची के पिता हरेश वशिष्ठ। ऑफिस में मेरे बॉस और घर में लोकल गार्जन। जब से चंडीगढ़ आया, इत्तेफाक से इनके पड़ोस में ही किराये पर मकान मिल गया। मामला ऐसा जमा कि मैं उसी घर में अभी भी जमा हूं। बच्ची की मां यानी हरेश जी की पत्नी श्रीमती विनोद वशिष्ठ, आईटीबीपी से वीआरस लेकर बच्चों और घर परिवार को समर्पित महिला। मेरी पत्नी भावना और दोनों बच्चों को समय-समय पर जरूरी ताकीद देने वालीं।

वशिष्ठ परिवार से मिले अपनेपन का ही असर था कि मैं बिल्कुल परिवार की तरह पूछता, ‘जब भी काम हो बताइयेगा।‘ यह अलग बात है कि मुझे इसी दौरान एक और विवाह कार्यक्रम में गाजियाबाद जाना पड़ा। वहां भी एक बच्ची गीता की शादी थी। वह हमारे सामने बड़ी हुई। खैर...।
21 नवंबर को हरेश जी, दीपक जी के जरिये उनके परिवार के अन्य लोगों से मिला। इस बीच, दिल्ली से आईं उनकी बहन और बहनोई के साथ ही भांजे-भांजियों से मुलाकात हुई। कोटा से आए बड़े भाई साहब से मिला। उनके छोटे भाई जस्टिस चंद्रशेखर से भी मुलाकात हुई। कई बातें भी हुईं। दामाद शिव कुमार जी भी पढ़ने-लिखने वाले व्यक्ति हैं। उनके साथ भी कई घंटे की बातचीत हुई।
कुछ रस्मों को पूरा करने के दौरान जूजू से बात हुई। तभी खबर मिली कि उसने ज्यूडिशियरी के जिस एग्जाम को हाल के दिनों में दिया था, उसे क्लीयर कर लिया है। उसे बधाई दी। विवाह वाले दिन दामाद राहुल से मुलाकात हुई। जस्टिस राहुल। बेहद सरल और सहज। लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिले हैं। इस बीच, उसी दिन अपने कई पुराने-नये जानकार मिले। पूरे प्रसंग में बेहतरीन फोटोग्राफर और पत्रकार आशा अर्पित का जिक्र जरूर करूंगा जो मुझे और मेरे परिवार को विवाह स्थल तक ले गयीं और वहां से लेकर आईं।
कनु की वह सक्रियता और बेहतरीन आइडिया
हमेशा पढ़ाई-लिखाई में तन्मयता से लगी रहने वाली जूजू की दीदी कनु यानी कनुप्रिया की सक्रियता मुझे बेहद भा गयी। बारातियों के स्वागत के समय तिलक लगाने की बात हो या फिर उन्हें बुके देने की। पगड़ी की याद दिलानी हो या फिर कोई और चीज, वह इधर से उधर भाग-भागकर चीजों की याद दिलाती। कभी-कभी मुझसे भी कहती, ‘अंकल आप यहीं रहना...।’ ऐसे मौकों पर ऐसी ही फुर्ती की जरूरत होती है।
कनु और जूजू से जब भी मिलता हूं, मुझे मेरी भतीजी याद आती है। इत्तेफाक से उसका नाम भी कनु है। सर्टिफिकेट वाला नाम भावना है। एबीपी न्यूज में सीनियर प्रोड्यूसर है। यह इत्तेफाक ही है कि हरेश जी के पिताजी और मेरे पिताजी का नाम भी समान है। दामोदर। माताजी के नाम का कभी जिक्र नहीं हुआ।
जूजू की विदाई बेला पर मैं और भावना थोड़ा भावुक हुए। घर आकर एक-एक चाय पी। अगले दिन भाभीजी मिलीं। उन्होंने कहा, ‘बार-बार कानों में गूंज रहा है मम्मी ब्लैक टी देना, मम्मी कॉफी बना दो। हरेश जी ने खुद को बड़ी मुश्किल से रोने से रोका है, वह तो पापा की बेहद लाडली है।’

गनीमत है कि आज संचार के इतने साधन हैं। यातायात के इतने साधन हैं। बेटी दूर जाती है, लेकिन नजदीक ही रहती है। फिर यहां तो बेटी हो बेटा, कौन टिकता है घर पर। किसी को करिअर ले जाता है और किसी को ससुराल जाना होता है। शादी का यह पूरा समारोह बेहद शानदार रहा। स्मृति पटल पर छप चुका है हर लम्हा। इस मौके पर रोना नहीं है, जूजू से बातें शेयर करते रहना है। राहुल-अपर्णा को बहुत-बहुत बधाइयां और आशीर्वाद।

Sunday, November 10, 2019

पापा नहीं है धानी सी दीदी

केवल तिवारी
(Haldwani Uttarakhand)
सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले... पापा नहीं है धानी सी दीदी, दीदी के साथ हैं सारे।
80 के दशक में लखनऊ में दीदी।

बचपन में जब इस गीत को सुनता था तो लगता था कि इसे क्या हमारे लिए ही लिखा गया है। कक्षा 6 में था जब लखनऊ पुष्पा दीदी के पास आ गया था। तब से लेकर अब तक की तमाम यादें इन दिनों दिमाग में किसी फिल्म की तरह चल रही हैं। उस चलचित्र में एक ही किरदार है पुष्पा दीदी। हमारी मां जैसी। कभी अचार बनाती दीदी। आम, नींबू, गाजर, गोभी का अचार। कभी गाय को बांधती दीदी। कभी मेरे लिए स्कूल की ड्रेस खरीदती दीदी। कभी मुझे डांटती दीदी, कभी नियम-कानून सिखाती दीदी। कभी इस रूप में याद आती दीदी तो कभी उस रूप में। अब उसे यादों में ही तो आना है। वह चली गयी दुनिया से। दिवाली के दिन। एक दिन बाद मुझे उससे मिलने जाना था। सोचा था भाईदूज पर बेहद बीमार दीदी के दर्शन कर आऊंगा। उसका बचना मुश्किल लग रहा था, लेकिन दर्शन नहीं हुए। ऐसा ही होता है मेरे साथ। मां के साथ भी अंतिम समय नहीं रह पाया। भाई
दूज के दिन हल्द्वानी पहुंचा। दीदी का भतीजा अपनी चाची का अंतिम संस्कार कर कोने में बैठा था। भानजी रुचि सुबक रही थी, लोगों से मिल भी रही थी। दामाद दीपेश से भी बातों को शेयर कर रहे थे। इन लोगों ने दीदी की भरपूर सेवा की। लगभग आठ साल से वह बिस्तर पर थी। भाई दूज के दिन ही लखनऊ से बड़े भाई साहब, भाभीजी और विमला दीदी भी पहुंचे। चूंकि दीदी लंबे समय से अस्वस्थ थी, इसलिए उसके जाने जैसी खबर के लिए मानसिक तौर पर सब तैयार थे, लेकिन किसी का जाना होता तो दुखद ही है। प्रेमा दीदी जब वहां पहुंची तो एक बार फिर माहौल गमगीन हो गया। आंसू सभी के छलक आए। प्रेमा दीदी अक्सर बड़ी दीदी से मिलने के लिए आ जाया करती थी। लखनऊ से शीला दीदी लोग कुछ दिन बाद वहां गये और जब फोन पर पीपलपानी यानी तेरहवीं होने की बात बताई तो मैं थोड़ा रो पड़ा। इस बीच, मन में घूम रहे चलचित्रों में मुझे याद आ रहा है कि बड़े भाई साहब एक बार दीदी को ‘नदिया के पार’ फिल्म दिखाने ले गये थे। दीदी उन दिनों चलती साइकिल में कूदकर बैठ जाती थी। बहुत एक्टिव थी दीदी। दीदी फिल्मों की बहुत शौकीन भी थी। वह बताती हैं कि जीजाजी के साथ उसने कई दर्जन फिल्में देखी थीं। उसी से हम धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, रेखा, बलराज साहनी, राजकपूर जैसे कई हस्तियों के नाम सुनते थे जिनकी फिल्में आगे चलकर हम लोगों ने भी देखीं।
मां (एकदम बाएं) और दीदी के साथ मैं।

मन में कभी बैर नहीं पालती थी
पुष्पा दीदी की सबसे बड़ी तारीफ वाली बात थी कि वह मन में बैर नहीं पालती थी। वह किसी भी मुद्दे पर जब डांटती थी तो ठीकठाक डांटती थी। डांट खाने वाला उसे कई दिन तक भले ही याद रखे, लेकिन वह कुछ घंटों या कुछ पलों में ही उसे भूल जाती थी। वह सामान्य हो जाती थी। उसके मन में बैर नहीं था। इसके अलावा अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह सबका भला करती थी। आर्थिक रूप से या फिर सांत्वना के तौर पर। यह अलग बात है कि उसे दो मीठे बोल सुनने में ही बड़ा अर्सा लग जाता था।
शादी से पहले मुझे दी बड़ी सीख
दीदी के माध्यम से ही मेरी शादी की बात चली। मैं उन दिनों शादी नहीं करने के लिए अड़ा रहता था। आखिरकार मैंने मन से मान लिया कि शादी तो करनी ही पड़ेगी। दीदी ने जब रिश्ते की बात आगे बढ़ाई तो मुझे आदेश दिया कि हल्द्वानी आ जाओ और लड़की को देखना है। मैंने साफ कर दिया कि मुझे नहीं देखना आप लोग तारीख पक्की कर लो, बस तत्काल कोई तारीख मत निकालना। दीदी ने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तू अपनेआप को आमिर खान समझता है। तुझे भी लड़की देखेगी।’ मुझे उसका यह डांटना बेहद भाया। क्योंकि लड़की को देखने का रिवाज मुझे हमेशा से खराब लगा। बंदा शाही अंदाज में बैठा है। लड़की चाय या फल लेकर आती है। तमाम लोग उसे देखते हैं। यह परंपरा गलत है।

खैर दीदी को लेकर तो यादें, बातें इतनी ज्यादा हैं कि एक पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है। उनमें से कुछ अच्छी यादों को सहेजे रखना होगा। दीदी तुम जहां भी चली गयी हो अपना आशीर्वाद पूरे परिवार पर बनाये रखना। सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले गीत की अंतिम पंक्ति के साथ ही कहूंगा... सरगम हो गयी पूरी अब क्या होगा आगे...।

Wednesday, September 11, 2019

खबर से इतर कोटा यात्रा (Trip to Rawat Bhata Nuclear Plant, Kota, Rajasthan)

(Rawat Bhata Nuclear Plant, Kota Rajasthan)
यह खबर नहीं। यह यात्रा वृतांत नहीं। पर यह यादगार है। कोटा के सफर की यादें। बोलने में कोटा, लेकिन भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में पड़ने वाले रावतभाटा का ट्रिप। कोटा से कोई 70 किलोमीटर दूर। एक हफ्ते का टूर। नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट (आई) के तहत नेशनल स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन और परमाणु ऊर्जा विभाग के साझा कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। वहां जाकर वैज्ञानिकों से जो जानकारी मिली और जितना मैं समझ पाया, उन्हें तो अलग शेप में अखबार में जगह मिल गयी या पत्रकार बंधुओं के साथ साझा कर लिया, लेकिन यात्रा के दौरान खबरों इतर भी बहुत कुछ हुआ। अनेक नये लोग मिले, रावतभाटा का खूबसूरत नजारा देखा। खिलजी वंश के दौरान तोड़-फोड़ वाले मंदिर और मूर्तियों के अवशेष देखे। परमाणु ऊर्जा केंद्र देखा, हैवी वाटर प्लांट देखा, वैज्ञानिकों के विचार जाने, वैज्ञानिक के साथ वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का ज्ञान रखने वाले जानकार से मिले। डीएई के बेहद को-ऑपरेटिव स्टाफ से मिलने का मौका मिला। बच्चों की दुनिया देखी, कड़ा जीवन देखा, कुछ सुनने-सुनने का भी वक्त मिला। नये मित्र मिले। साहित्यिक चर्चा हुई। कथा-कहानियों और फिल्मों पर भी बौद्धिक जुगाली हुई। विजय क्रांति जी, अशोक मलिक जी, रविशंकर जी, सिल्वेरी जी, डीीजीऔर एचडब्ल्यूबी के स्टाफ से कई मुद्दों पर चर्चा हुई। कुछ सुनने-सुनाने का दौर चला। सिलसिलेर करता हूं चर्चा-
पश्चिम एक्सप्रेस का एकाकी सफर और रेल मित्र
4 अगस्त को मुझे चंडीगढ़ से निकलना था। पहले एनयूजे अध्यक्ष अशोक मलिक जी से पूछा कि और कौन-कौन हैं? उन्होंने कुछ नाम बताये, लेकिन उनमें जानकार सिर्फ अवतार सिंह थे। पंजाबी ट्रिब्यून के वह हमारे साथी रहे हैं। लेकिन पता चला कि वह विजयवाड़ा से वहां सीधे पहुंचेंगे। खैर मैंने पश्चिम एक्सप्रेस में रिजर्वेशन कराया और 11:30 पर ट्रेन में बैठ गया। कुछ देर सन्नाटा रहा। थोड़ी देर में ओडिशा के रहने वाले एक व्यक्ति से बातचीत होने लगी। वह अपनी दो बेटियों के साथ मुंबई जा रहे थे। काफी देर तक अच्छी बातें होती रहीं, लेकिन पता नहीं क्यों वह अचानक बोल पड़े कि लोगों को सुविधाएं मिल गयी हैं न इसलिए बिगड़ गये हैं। उन्होंने बड़ी हिकारत से कहा कि स्लीपर में चलने वाले भी अब एसी क्लास में चलने लगे हैं। मैं उनसे इस मुद्दे पर कतई सहमत नहीं था। मैंने कहा, हर किसी को आगे बढ़ने और तरक्की करने का अधिकार है। खैर इसी बीच टीटी महोदय से भी दोस्ती हो गयी। उनके किस्सों में कब सफर कट गया पता नहीं चला। रात करीब 11 बजे मैं कोटा पहुंचा। वहां डीएई के विनय मीणा पहुंचे हुए थे। वह एक गाड़ी में ड्राइवर के साथ मौजूद थे। हल्की बारिश के दौरान घनघोर जंगलों से होकर गुजरना बेहद रोमांचक रहा। रात करीब डेढ़ बजे हम लोग रावतभाटा पहुंचे।
विशेष बच्चों से भावुक मुलाकात
रावतभाटा में रहने के दौरान हैवी वाटर बोर्ड और डिपार्टमेंट ऑफ एटोमिक एनर्जी के लोग हमें कुछ स्कूलों में ले गये, जिनका निर्माण इन्हीं की ओर से कराया गया था और कुछ ऐसे केंद्र पर भी ले गये जहां विशेष बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाता है। सचमुच वहां पहुंचकर बेहद भावुक हुआ। पहले तो एक सरकारी स्कूल में गये। वहां बच्चों को सिखाया गया था कि योग मुद्रा में बैठे रहेंगे। मैंने यूं ही पूछा, ‘बच्चो इतनी भीड़ देखकर परेशान तो नहीं हुए, मालूम है हम लोग क्यों आए हैं (असल में हमल लोग करीब 25 पत्रकार, कुछ अधिकारी और अन्य लोग थे)’ एक बच्ची बोली, ‘चेक करने वाले।’ मैंने इस पर ज्यादा नहीं कुरेदा। फिर कुछ अध्यापकों से बात हुई। फिर हम लोग गए विशेष बच्चों के केंद्र में। यहां बच्चों ने इशारों में राष्ट्रगान पेश किया। डांस पेश किया। ऐसे बच्चों ने डांस किया जो सुन और बोल नहीं सकते। उनके अभिभावकों से बात हुई। ज्यादातर ने कहा कि जब से यहां बच्चे आए हैं उनमें बहुत सुधार है।
... और हमारी अग्रणी का मासूम सवाल
वापसी वाले दिन भानजे पंकज के यहां भी गया। वह दो माह पहले ही कोटा शिफ्ट हुआ है। शाम करीब पांच बजे पंकज के घर बारा रोड पर पहुंचा। वह ऑफिस से चल चुका था। घर में मनीषा और बेटी अग्रणी थी। अग्रणी पहली में पढ़ती है, घर में उसे तनी कहते हैं। बेहद प्यारी बच्ची। सबसे पहले हाथ पकड़कर बालकनी में ले गयी और वहां से अपने स्कूल को दिखाया। फिर थोड़ी देर में वह कागज के दो पंखे बनाकर ले आयी। थोड़ी देर में पंकज भी आ गया। इस दौरान मनीषा-पंकज और अग्रणी से बातें होती रहीं। बच्ची बार-बार अपनी कुछ बात बताती। वह चाहती थी कि मैं वहीं रुक जाऊं। ऐसी बच्ची जो मेहमानों के आने से खुश होती है। रात में पंकज, मनीषा और अग्रणी मुझे छोड़ने स्टेशन आये। स्टेशन पर बच्ची बोली, ‘आप कल फिर आना और हम फिर स्टेशन आएंगे।’ मैं बच्ची की बात पर मुस्कुरा दिया। घर आकर कई दिनों तक बच्ची की ही चर्चा होती रही।
कई वैज्ञानिकों से बातचीत और चार यार
इस सफर में कई वैज्ञानिकों से बातचीत हुई। एमएल परिहार साहब ने वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के बारे में बताया। वेंकटेश साहब ने कई बातें बताईं। उनके साथ रोज नाश्ते की टेबल पर भी बात होती। इस बीच, अजमेर से आए तरुण जैन, हरियाणा से आए जग्गा जी एवं पराशर जी से खासी दोस्ती हो गयी। साथ में रहे हमारे पंजाबी ट्रिब्यून के पुराने साथी अवतार जी। यादें तो इस सफर की बहुत सारी हैं। वहां के कई लोकल पत्रकारों से भी अच्छी बात होती रही। एक तो समय एक माह से ज्यादा हो गया, दूसरे अब कुछ बातें पुरानी ही लगने लगी हैं।
पत्रकार पिता और पुत्री

इस सफर में शिव सिंह चौहान और उनकी बेटी से भी मुलाकात हुई। चौहान साहब रोज अखबारों में कवरेज की फोटो व्हाट्सएप ग्रूप में डालते। आते वक्त दोनों की एक फोटो ली। बहुत अच्छा लगा। बेटी अभी करिअर के मुकाम पर हैं। चौहान साहब से व्हाट्सएप पर बातें होती रहती हैं।

Friday, August 23, 2019

मेरे जेहन में हंसी दीदी

हंसी दीदी के बारे में कुछ यादें साझा करने से पहले गालिब साहब के एक शेर की दो पंक्तियां लिख रहा हूं जिसके बोल हैं-न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता! ऐसा क्यों लिखा, यह आगे संदर्भ में आ जाएगा। अब शुरू करता हूं श्रद्धांजलि स्वरूप अपनी बातें-
हंसी दीदी। अब स्वर्गीय हंसी दीदी। कुछ दिन पहले तक हम उन्हें अपने ताईजी-ताऊजी की अंतिम जीवित संतान के तौर पर जानते थे, चर्चा करते थे। दीदी के निधन की खबर आई तो ऑफिस में चर्चा की। लोगों ने सांत्वना दी साथ ही कई की नजरों में मुझे सवाल तैरते नजर आए। कुछ घनिष्ठ मित्रों ने पूछ लिया, ताऊजी की बेटी इतनी बुजुर्ग थी। मेरा सवाल था ज्यादा बुजुर्ग तो नहीं थी, हां शायद 70 के आसपास की होंगी। लोगों को फिर भी बात समझ में नहीं आयी। तब मैंने अपनी निजी बातें जिन्हें शेयर करने का मन नहीं करता, बता दीं। मैंने कहा कि मैं जब इस दुनिया में आया तो मेरे पिताजी की उम्र 65 वर्ष थी। बाकी क्या कहें, जब दुनिया में आते हैं तो समय तय होता है। खैर... अब बात हंंसी दीदी की
हंसी दीदी से आमने-सामने मुलाकात की याद मुझे तब से है जब मैं दसवीं की परीक्षा देकर गांव गया था। जाहिर है उम्र का इतना अंतर है कि मेरे पैदा होने से पहले उनकी शादी हो गयी होगी। फिर वह कभी-कबार आती भी होंगी तो मुझे याद नहीं। उसके बाद पांचवी पास करने के बाद मैं लखनऊ आ गया। खैर वर्ष 1987 में वह भी उसी दिन पहुंचीं। हम लोग डाबर घट्टी में मिले। उसने सिर पर हाथ फेरा। अन्य लोगों से बातचीत हुई। मुझसे ज्यादा नहीं हुई। गांव में जाने के बाद अगले दिन दीदी ने कहा, 'केवल के पैर बिल्कुल चाचा जैसे हैं।' पहली बार मैंने अपनी तुलना अपने पिताजी से होते हुए सुनी। उसके बाद तो दीदी से लगातार मिलना हुआ। मेरी शादी में तो वह खूब नाचीं। अभी भी वही चेहरा याद आता है। माथे तक घूंघट। फिर मिलने का यह सिलसिला चलता रहा। कभी पारिवारिक समारोहों में, कभी गांव में। मेरी हालिया मुलाकात मेरे भानजे मनोज की शादी में हुई। मैं हंसी दीदी को संस्कारों की प्रतिमूर्ति कहता था। वह हम लोगों से कहती अपने जीजाजी से कुछ कहो। उसका तात्पर्य चुहलबाजी से होता। जीजाजी भी खूब मजाक करते। हंसी दीदी का मुस्कुराता चेहरा याद आ रहा है। उसे नमन। श्रद्धांजलि। दीदी के निधन के बाद मेरी अभी जीजाजी से मुलाकात नहीं हुई है, लेकिन जब मिलूंगा तो न जाने कैसे एक-दूसरे से हम रिएक्ट करेंगे।

Friday, June 28, 2019

गांव की यात्रा और नयी उम्मीदें (Trip to village Dadoolie, Uttarakhand,

(Ranikhet, Almora, Uttarakhand)
(Dadoolie)
मन किया उन सब दरवाजों-रोशनदानों को खोल दूं
जो उजाला भर दें मेरे घर में
लेकिन, एक अजीब सी आशंका मन में घूम रही थी।
मन मसोस कर रहा मैं और अंधेरे में ताकने लगा
उन कोनों, बक्सों को जहां अब सिर्फ यादें थीं
ऐसी यादें जो अब हमारी तरह धीरे-धीरे उम्र दराज हो रही थीं
कुछ पुराने जानकार मिले, कुछ अपने भी अपरिचित से लगे
गांव की इस यात्रा में उम्मीदों के दीये जगे।
ये पंक्तियां यूं ही मन से निकलीं और कागज पर उतर गयीं। मौका था गांव की यात्रा का।
(Dhooni Mandir) धूनी मंदिर के द्वार पर

 पिछले साल की तरह इस बार भी गांव जाने का मौका लगा। समय इतना मिला कि अपने पुश्तैनी घर का कोना-कोना झांक आया। नींबू, आड़ू के उन पेड़ों की जगह भी देख आया जहां अब जमीन भी ‘बह’ सी गयी है। बचपन के उन संगी-साथियों से भी मिला जिनके चेहरे पर उम्र अपनी छाप छोड़ने लगी है। पलायन का दंश झेल रहे अपने गांव में एक वैसी ही रौनक देखी जो करीब 40 साल पहले दिखती थी जब गर्मियों की छुट्टी में लोग घर आते थे। कुछ निराशा हुई, कुछ उम्मीदें जगीं। कुछ बुजुर्गों का आशीर्वाद मिला, कुछ युवाओं का साथ।
(Kainchi temple) कैंचीधाम मंदिर परिसर


खैर यात्रा विवरण लिखते-लिखते मुझे महान गीतकार गुलजार की चंद पंक्तियां याद आ रही हैं-
खिड़कियां खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है, शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद!
बंद कमरे में कभी-कभी जब दीये की लौ हिल जाती है तो
एक बड़ा सा साया मुझको घूँट घूँट पीने लगता है
आँखें मुझसे दूर बैठकर मुझको देखती रहती है
कब आते हो कब जाते हो
दिन में कितनी-कितनी बार मुझको - तुम याद आते हो
खैर मजबूरी है। कोई दिल्ली है तो कोई कहीं और है। लेकिन गांव पहुंचे सैन्य अफसर और रिश्ते में मेरा भतीजा लगने वाले विनोद ने कहा, ‘गर्मियों में तो हर साल कुछ दिन आना चाहिए।’ ऐसे ही कुछ और अल्फाज उम्मीद से जगा गये कि मिलेंगे अपनों से। हरियाली देखेंगे। जीभर ताजी हवा में सांस लेंगे। बदलते पहाड़ दिखेंगे। अपनेपन-परायेपन के बीच नये समाचारों से रूबरू होंगे। खैर सिलसिलेवार बताता हूं इस यात्रा के बारे में-
भागवत पारायण के बाद भंडारा

इस बार भी जून में ही गांव जाने का मौका मिला। रानीखेत। दिल्ली से विपिन का परिवार। लखनऊ से शीला दीदी का परिवार (भांजे सौरभ को छोड़कर, वह दुबई में है)। चोरगलिया से प्रेमा दीदी का परिवार। लखनऊ से दाज्यू लोग नहीं आ पाये क्योंकि उनके मकान का रिनोवेशन चल रहा है। ऐसे ही कई निजी कारणों से गुलाबी बाग दिल्ली से हरीश, दीप आदि का भी कार्यक्रम नहीं बन पाया। यूं तो समस्त कार्यक्रम का सूत्रधार था भतीजा प्रकाश। उसकी योजना भी बहुत अच्छी थी। लेकिन सबको एकजुट रखकर आगे चल पाना भी तो बहुत मुश्किलभरा होता है। अंततः स्वयं प्रकाश हमारे लौट आने के बाद गांव जा पाया। खैर यह तो थी गांव पहुंचने की भूमिका। असल में बात तो अब शुरू होती है। मंगलवार 11 जून की रात नौकरी कर मैं अखबार की गाड़ी से देहरादून के लिए निकल गया। कुछ लोगों ने सलाह दी कि यूपी में गढ़ मुक्तेश्वर (गजरौला के पास) पर बहुत जाम मिलेगा क्योंकि अगले दिन गंगा दशहरा था। इसलिए रूट बदला। देहरादून सुबह 4 बजे देहरादून पहुंच गया। बल्लू चैराहे पर। वहां पहुंचते ही बारिश शुरू हो गयी। एक दुकान पर गया, वहां एक चाय पी फिर ऑटो लेकर बस अड्डे तक आया। वहां दो बसें खड़ी थीं। एक रानीखेत के लिए, दूसरी हल्द्वानी वाली। चूंकि मेरा हल्द्वानी जाना ही पहले जरूरी था वहां से छोटे बेटे को लेना था फिर बड़ी दीदी से मिलना था। मैं उस बस में बैठ गया। वह सफर इतना गंदा गुजरा जिसका बखान भी नहीं कर सकता। हरिद्वार से बाहर निकलने में ही चार घंटे लग गये। पूरे 11 घंटे लगे हल्द्वानी पहुंचने में। वहां पहले भांजी रेनू के यहां गया। सड़क पर ही भांजा मनोज मुझे लेने पहुंचा हुआ था। रेनू के यहां दोनों दीदीयां और जीजाजी भी मौजूद थे। उनके संग भांजी रुचि यानी बड़ी दीदी के यहां आये। कुछ देर में छोटा बेटा धवल भी अपने मामा के साथ वहां पहुंच गया। इससे पहले मेरा कार्यक्रम कुछ और लोगों से भी मिलने का था, लेकिन बस से हुई देरी के कारण सब गड्डमड्ड हो गया। खैर----।
अडगाड़ का शीतल जल

अगले दिन यानी बृहस्पतिवार को सुबह पांच बजे हम लोग तैयार हो गये। हमारी गाड़ियां करीब 6 बजे आयीं। भतीजे विपिन और उनकी पत्नी बीना तो रानीखेत एक्सप्रेस से समय पर पहुंच गये, लेकिन रिजर्वेशन कनफर्म न होने के कारण बच्चे नितिन, दिव्या और मनीषा वोल्वो बस से आ रहे थे। रास्ते में इनकी बस पंक्चर हो गयी। तय हुआ कि बड़ी गाड़ी में बाकी लोग निकलते हैं और एक व्यक्ति बच्चों को लेकर बाद में दूसरी गाड़ी से आएगा। पहाड़ों का दुर्गम सफर, जी मचलने की आशंका के चलते प्रेमा दीदी और अपने बेटे को तो मैंने दवा खिलवा दी, खुद ओवर कान्फिडेंट था कि मुझे तो कुछ नहीं होता, लेकिन जैसा सोचा वैसा हुआ नहीं। सब तो ठीक रहे, मुझे ज्योलीकोट पहुंचते-पहुंचते परेशानी महसूस होने लगी। मैंने ड्राइवर मेहरा साहब से कहा। उन्होंने एक झरने के पास गाड़ी रोक दी। वहां कुछ देर आराम किया। हाथ मुंह धोया और लखनऊ से आये जीजा जी पूरन चंद्र जोशी जी ने मुझे भी एक गोली खाने को कहा। मैंने दवा ली और हमारा सफर फिर शुरू हो गया। भांजा कुणाल मेरे बेटे धवल को गोद में लेकर आगे बैठा था। दूसरा भांजा गौरव पीछे हमारे साथ। कुछ देर बाद कुणाल को भी दिक्कत हुई। खैर धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ। इस बीच हमारी बातचीत विपिन से होती रही। (विपिन बच्चों को लेकर दूसरी कार से आ रहे थे) वे लोग भी चल चुके थे। आगे चलकर हम कैंची धाम मंदिर में भी रुके। वहां कुछ देर प्रार्थना की और प्रसाद ग्रहण किया। इसके बाद मेहरा साहब से नाश्तेपानी की बात हुई। वे बोले, आगे फकीरदा की दुकान पर पकौड़ा-रायता अच्छा मिलता है। कुछ देर बाद हम लोग फकीरदा की दुकान पर पहुंच गये। कुछ ने रायता पकौड़े खाये, कुछ ने चना-रायता। भांजों और मेरे बेटे ने बन-मक्खन लिया। कुछ देर यहां विश्राम के बाद हम आगे बढ़े। आगे एक दुकान से गांव के कुछ लोगों को लिए मिठाई खरीदी। उसके करीब आधे घंटे बाद हम लोग ताड़ीखेत पहुंच गये। ताड़ीखेत में ग्वेल देवता के मंदिर में हाथ जोड़े। उसके बाद प्रसाद आदि की खरीदारी हुई। बातों का सफर आगे चले, यह बताना जरूरी है कि शुक्रवार को घर में पूजा-पाठ, शीला दीदी द्वारा बच्चों के नाम की बधाई। ग्वेल देवता के यहां विपिन द्वारा कराई गयी पूजा, धूनी मंदिर में प्रेमा दीदी द्वारा गाया गया भजन, स्कूल के दर्शन बेहद अविस्मरणीय पल रहे।

ग्वेल देवता का मंदिर

खत्म हुआ सड़क वाला सफर
आधा घंटा ताड़ीखेत रुककर हम लोग गांव की तरफ बढ़े। करीब सात किलोमीटर चलकर हम सरना पहुंच गये। हमारी गाड़ी यहीं तक पहुंच सकती थी। वहां सामान उतारा। मेहरा जी को पैसा दिया। वहां कुंदन सिंह की दुकान अमूमन खुली रहती थी, लेकिन पता चला पिछले दिनों उनके चाचा का निधन हो गया था। उस वक्त उनका पूरा परिवार गांव के पास ही एक झरने पर तिलांजलि देने गये थे। खैर अन्य सामान तो सब ले गये, लेकिन बिस्तर का बंडल बहुत भारी था। उसे वहीं रख दिया। पहाड़ों की यह बात तो वाकई बहुत अच्छी है कि कुछ चोरी होने की कोई आशंका नहीं। कुंदन की दुकान बंद थी, घर पर भी कोई नहीं था फिर भी हम लोग बिस्तर बंद को ऐसे ही छोड़ आये। उसके बाद हम लोग पैदल चल पड़े। करीब डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई करनी थी। पहले तल्ला बाखई पहुंचे। वहां कई बुजुर्ग लोग, कुछ साथ के लोग और कुछ नये-नये जवान हुए लोग मिले। उधर, करीब आधे घंटे बाद विपिन लोग भी आ गये। विपिन का बेटा नितिन भी बहुत नेक है। एमएनसी में काम करने वाले इस युवक को भी कोई झिझक नहीं होती। वह पूरे बिस्तर को सिर पर रखकर ले आया।
व्यास जी

पानी की समस्या और सहयोग
गांव पहुंचते ही हम अपने घर में गये। विपिन लोग अपने घर में। विपिन की कैलाश से बात हो चुकी थी। वह खाना बनाने में मशगूल था। कैलाश की पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, लेकिन उसकी छोटी-छोटी प्यारी बच्चियां पूरे शिद्दत से काम में लगी थीं। थोड़ी देर में कैलाश पहले पानी लेकर आया फिर हम सब लोगों ने उसी के यहां दिन का भोजन किया। कुछ ही देर में हमें खिलगजार में भागवत में जाना था। हम लोग प्रयागदा के परिवार से भी मिले। इन दिनों वह थोड़ा परेशान थे। घर में एक नवजात आया और महीनेभर में ही चला गया।

खिलगजार में भागवत, भतीजे का ओजस्वी प्रवचन, मित्रों से मिलन
हमारी बुजुर्ग भाभी जी के भागवत का ही आमंत्रण मुख्य था कि हम गांव गये। दोपहर में हम लोग खिलगजार पहुंच गये। वहां भागवत चल रहा था। ‘व्यासजी’ उस वक्त भ्रमर गीत प्रसंग और कृष्ण भक्ति की चर्चा कर रहे थे। उन्होंने रसखान की कविता का भी पाठ किया। बेहद ओजस्वी अंदाज। उनकी टीम बीच-बीच में माहौल को संगीतमय बना देती। बेहद आनंद आया। आरती शुरू होने से पहले मैं व्यास गद्दी के पास गया। वहां प्रणाम किया। भाभी जी को प्रणाम किया। थोड़ी देर बाद व्यासजी वहां से आये तो पता चला अरे यह भी तो हमारे भतीजे साहब हैं। ललित। पेशे से अध्यापक। इससे पहले कई बार उनसे बात होती रहती थी। इसी बीच कुछ लोग आये। सबने एक ही सवाल पूछा, ‘पहचाना।’ एक महिला ने पूछा, ‘केवल पहचान।’ मैंने कहा पहचान तो लिया पर पूरी तरह से नहीं। वह तो हिमतपूर पुष्पा दीदी थीं। शीला दीदी की सहेली। एकदम वैसी हीं। सुंदर। सहज। इसी बीच एक महिला ने दूर से पुकारा, ‘ओये केवल इधर आ।’ मैं वहां चला गया। वह बोलीं-पहचान। मैं नहीं पहचान पाया। उस महिला के बालों में हल्की सफेदी थी। चेहरा बढ़ती उम्र की चुगली कर रहा था। मैंने कहा, ‘पहचान फिर हो जाएगी पहले पैर तो छू लूं।’ उन्होंने हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘मैं जानकी हूं, तेरे साथ पढ़ती थी।’ मैं हक्का-बक्का रह गया। मैंने सवाल किया, बड़ी जल्दी बालों में सफेदी आ गयी। वह बोलीं, तेरे में भी तो गंजापन आने लगा है। फिर हंसते हुए कहा, ‘नजला रहता है मुझे।’ इसके बाद बच्चे कितने हैं, क्या चल रहा है जैसे मुद्दों पर बातचीत होने लगी। इसी बीच ग्राम प्रधान पान सिंह मिले। उनसे बात कर ही रहा था कि कई महिलाएं आकर पैर छू गयीं। पास में खड़े दीप चंद्र, कृपाल और नवीन परिचय कराते रहे। कुछ बच्चियां ससुराल से आईं थीं। कुछ रिश्ते में बहू लगती थीं। इसी दौरान साथ पढ़ा बबलू मिला। मेरे से एक क्लास जूनियर रहा और अब लेक्चरर पद पर आसीन राजू मिला। थोड़ी देर में हम उमेशा दा, हरीश दा, दीपदा की मांताजी से मिलने गये। वह हमारी भाभी लगती हैं। उम्र 80 से ज्यादा। क्रिकेट की दीवनी। उन्होंने बहुत प्यार से सिर-माथे पर हाथ फेरा। कुछ देर बातकर हम फिर नीचे आ गये। अगले दिन पारायण था ललित से बहुत बातें हुईं। आजकल की और पुरानी कविताओं पर खूब चर्चा हुई। ललित को अपना ब्लॉग भी पढ़वाया।

...और फिर वापसी
शनिवार सुबह मैं फटाफट तैयार हुआ। बेटे को भी तैयार किया। बस पकड़ने के लिए हम 7 बजे नीचे सड़क पर आ गये, लेकिन पता चला कि उस दिन हल्द्वानी वाली बस जा ही नहीं रही है। किसी तरह से बीरू सिंह की जीप में ताड़ीखेत तक आया। इस दौरान भागवत कराने वाली भाभी की बेटी किरन भी मिल गयीं। उसने बताया कि रामनगर के रास्ते ठीक रहेगा। फिर मैं और धवल किरन के साथ ही रामनगर तक आये। रामनगर आकर किरन ने बड़ी मदद की। वह फटाफट बस में सीट घेरने चली गयी और हमें विदा कर चली गयीं। वह रामनगर के पास ही कहीं रहती है। सफर वापसी हो गयी। मनुष्य कर्म के अधीन है। पहुंचना जरूरी था। इस चर्चा को गुलजार के ही गीत से समाप्त करता हूं-
कुछ खो दिया है पाइके, कुछ पा लिया गवांइके। कहां ले चला है मनवा मोहे बांवरी बनाइके।






Monday, June 3, 2019

वह भावुकता, वह जश्न ए आजादी और वह शाम

30 अप्रैल 2019, सुबह के करीब 10 बजे। शारदा राणा जी से फोन पर बात हुई। जैसा कि अक्सर हम पहले कुछ लिखने-पढ़ने की बात करते फिर ऑफिस में मिलने की बात के साथ ही हमारी बात खत्म हो जाती। लेकिन 30 अप्रैल को ज्यादा बात नहीं हुई। शारदा जी ने पहले ही ताकीद दी कि भावुकता न हो। मैं स्वतंत्रता की कल यानी पहली मई को पार्टी दे रही हूं, तुम्हें आना है। मैंने कहा जी आऊंगा। उन्हें लगा कि मेरे आऊंगा शब्द में कुछ किंतु-परंतु छिपा है। उन्होंने कोई समस्या नहीं, मुझे मालूम है तुम्हारी ड्यूटी नाइट होती है। ड्यूटी पूरी करके आना। अगले दिन यानी पहली मई 2019 को ऑफिस में उन्होंने लिखित तौर पर सबको आमंत्रित किया। मेरी ऑफिशियल ड्यूटी रात 12 बजे तक थी। 
शारदा जी के साथ संपादक जी एवं अन्य साथी।
शारदा जी की ओर से आयोजित पार्टी में ऑफिस से कई लोग गये। कुछ ने थोड़ी जल्दी छुट्टी ले ली। कुछ लोग थोड़ा समय निकालकर हो आये। मैं ड्यूटी पूरी करके ही जाना चाहता था। रात 12 बजे फ्री हुआ। फिर सीधे प्रेस क्लब गया। मेरे साथी नरेंद्र और जतिंदरजीत मेरे ही साथ-साथ गये। वहां ऑफिस के ज्यादातर लोग जा चुके थे, लेकिन शारदा जी और कुछ अन्य साथी मौजूद थे। गीत-संगीत पर बहस चल रही थी। बीच-बीच में लोग नग्मे भी सुना रहे थे। थोड़ा सा मैंने भी सुनाया। बीच में अटका तो नानकी जी ने आगे की पंक्तियां बताईं। आजादी की वह पार्टी वाकई ऐसी ही थी। उसमें कोई औपचारिकता नहीं थी। उसमें कोई उद्दंडता नहीं थी। उस मौके पर मुझे दो पंक्तियां याद आईं जो मैं मन ही मन गुनगुना रहा था- उसके बोल थे-
जादा जादा छोड़ जाओ अपनी यादों के नुक़ूश, आने वाले कारवाँ के रहनुमा बन कर चलो।
कुछ चर्चा 

जश्न ए आजादी के इस मौके पर तमाम लोगों ने अपनी बातों को रखा। सबसे अच्छी बात यह रही कि ज्यादातर समय हिंदी फिल्मी गीतों और उसके बोलों पर ही रही। समय बीतता गया। चूंकि कई लोगों को वहां पहुंचे ती-तीन घंटे तक हो चुके थे। फिर बात चला चली की हुई- यूं कि कह रहे हों-
जाते हो ख़ुदा-हाफ़िज़ हाँ इतनी गुज़ारिश है, जब याद हम आ जाएँ मिलने की दुआ करना, माना की ये दौर बदलते जायेंगे। आप जायेंगे तो कोई और आयेंगे।
मगर आपकी कमी इस दिल में हमेशा रहेगी। सच कहते हैं हम आपको इक पल न भूल पाएंगे। मुश्किलों में जो साथ दिया याद रहेगा। गिरते हुए को जो हाथ दिया याद रहेगा। आपकी जगह जो भी आये वो आप जैसा ही हो।
हम बस ये ही चाहेंगे। सच कहते हैं हम आपको इक पल न भूल पाएंगे।
और जश्र का समापन
शारदा जी का दैनिक ट्रिब्यून के सरगम सप्लीमेंट में एक फिल्मी कॉलम चलता है। इसका नाम है, 'फ्लैशबैक।' बहुत पहले से वह इस कॉलम को लिख रही हैं। लेकिन उनका नाम नहीं छपता था। बहुत समय पहले मैंने ही पूछा मैडम ये कॉलम कौन लिखता है, उन्होंने कहा, 'कैसा है, कोई कमी हो तो बताओ, लिखने वाले से कहूंगी।' मैंने कहा, 'नहीं कुछ लोग पूछ रहे थे। इस पर चर्चा हो रही थी, यह बहुत ही बेहतरीन तरीके से लिखा जाता है।' उसी वक्त शारदा जी के साथ ही फीचर संभाल रहीं कविता ने हंसते हुए कहा, 'सर इसे मैडम ही लिखती हैं।' मैं भी हंस दिया साथ ही कहा कि अच्छा हुआ मैंने बुराई नहीं की। शारदा जी भी हंस पड़ीं, बोलीं-'बुराई निकालते तो ज्यादा अच्छा होता।' खैर यह कॉलम जारी है, खुशी हो रही है कि इसमें शारदा जी का नाम जा रहा है। मुझे भी उन्होंने बहुत मौका दिया। उम्मीद है जल्दी ही फिर मुलाकात होगी।

Sunday, April 14, 2019

दुनिया के टॉप 10 रहस्य


(यह लेख 14 अप्रैल 2019 को दैनिक ट्रिब्यून के लहरें में कवर स्टोरी के तौर पर ‘दुनिया के अनसुलझे रहस्य’ शीर्षक से छप चुका है)
रहस्य। रोमांच। खौफ। जानने की ललक। किस्सागोई। वैज्ञानिक तथ्य। किसी खास मसले पर इन सारी चीजों का घालमेल करें तो एक अजीब सा माहौल बनेगा। सन्नाटा सा। सुना-सुनाया सा। जाना-अनजाना सा। असल में मनुष्य ही एकमात्र प्राणि है जो अपनी हदों से बहुत आगे बढ़कर जानने की ललक रखता है। जानता है। जानने-समझने की इसी भूख में छिपा होता है रहस्य और रोमांच। इन्हीं रहस्यों से पर्दा उठाते वक्त कभी मंजर खौफनाक भी आता है और कभी सफलता का ऐसा सतरंगी धनुष बनता है कि वह जानने के क्रम में और आगे बढ़ता है। जानने-समझने के इस विशाल समुंदर में हम बात करते हैं कुछ रहस्यों की। ऐसे रहस्य जिनकी चर्चा बहुत होती है, लेकिन वे अब तक रहस्य ही बने हैं। ऐसे किस्से लाखों होंगे, लेकिन यहां हम बात करते हैं दुनिया के टॉप 10 रहस्यों की।
1. बरमडूा ट्राइएंगल : इसे डेविल्स ट्रायंगल भी कहा जाता है। विशाल समुद्री इलाका। यह क्षेत्र उत्तरी अटलांटिक महासागर में है। अभी तक इस त्रिकोण यानी ट्राइएंगल की ठोस व्याख्या भी नहीं हुई है। माना जाता है कि यह क्षेत्र  बरमूडा, मियामी (फ्लोरिडा) और सैन जुआन (प्यूर्टो रीको) के बीच है। यहां हवाई जहाज, शिप के अलावा लोगों के गायब होने की जो बात की जाती है, वह बहुत ही रहस्यमयी है। वैसे यहां के बारे में चर्चित है कि 19 वीं सदी में पहली बार जहाज लापता हुआ था। दुर्घटना की खबर आई लेकिन जहाज का मलबा नहीं मिला। कहा जाता है कि अमेरिका की खोज करने वाले कोलंबस भी इस इलाके में भटक गये थे। बताया जाता है कि कोलंबस ने इस इलाके में ‘समुद्र से निकलने वाली सुनहरी रोशनी की एक चमकती हुई गेंद’ देखी जो लगातार बड़ी होती चली गयी। इसके सैकड़ों साल बाद विभिन्न पायलटों और नाविकों ने दावा किया कि समुद्र के इस इलाके में पहुंचते ही वे विशाल बादलों के गुबार में फंस गये। इसके बाद वे अचानक उस युग में चले गये जब फ्रांसीसी क्रांति हुई। बाद में कहा तो यहां तक गया कि यहां समुद्री राक्षस भी दिखे। कई जहाज अपनेआप यहां खिंचे चले आए और गुम हो गए।
वैज्ञानिक तथ्य : वैज्ञानिक डरावनी बातों से इनकार करते हुए कहते हैं कि यहां जलवायु में अचानक बड़ा परिवर्तन होता है। भारी मात्रा में मीथेन के कारण पानी और धुंध का घनत्व कम होता है। इसके चलते भारी गुबार बनता है। इसी वजह से कई बार यहां का सीन डरावना बन जाता है।

2. डेंडेरा लाइट : डेन्डेरा लाइट रहस्य के बजाय विवादास्पद कहानी के रूप में ज्यादा प्रचलित है। कहा जाता है कि मिस्र के एक मंदिर की दीवारों में देवी हाथोर में एक आकृति दिखती है। जबसे इस आकृति की खोज हुई तब से यह सभी के लिए रहस्यमयी बनी हुई है। पहली नज़र में इसमें ऐसा लगता है कि सांप रूपी धागे जैसी किसी चीज से कोई दीपक या लैंपनुमा वस्तु बंधी है। साथ ही दिखता है कि एक पुजारी ने इस लैंप को पकड़ा है। मंदिर के अंदर का कॉरिडोर बहुत ही जटिल बना हुआ है। अंदर सूरज की रोशनी नहीं पहुंच सकती। लेकिन दीपक की लौ की कतार की स्थिति बहुत ही रहस्यमयी लगती है। मिस्र के इस रहस्य के बारे में कहा जाता है कि उस समय रोशनी के तथ्यों के बारे में खोज आज से कहीं अधिक थी।
वैज्ञानिक तथ्य : अध्ययन और शोध बताते हैं कि वहां की दीवारों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है। अंदर प्रकाश पहुंचाने के लिए प्रतिकृति या प्रतिबंब थ्योरी का इस्तेमाल किया गया होगा।

3. शैतान की बाइबिल
ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबिल के बारे में हम-आप सब जानते हैं। लेकिन एक बाइबिल ऐसी भी है जिसको लेकर रहस्य बना हुआ है। यह है कोडेक्स गिगास या शैतान की बाइबिल। यह बाइबिल बहुत विशाल है। इसकी लंबाई से इसके आकार का पता लगाया जा सकता है। यह 92 सेमी (36 इंच) लंबी पुस्तक है। चर्म पत्र पर लिखी हुई। पहले पन्ने पर एक विशालकाय शैतानी चित्र है। बताया जाता है कि मध्य काल में एक भिक्षु ने अपनी एक प्रतिज्ञा तोड़ दी। उसके मठ ने उन्हें दीवार में चिनवाने की कठोर सजा सुना दी। इस पर भिक्षु ने सजा से मुक्ति चाहते हुए वादा किया कि वह एक रात में एक ऐसी विशाल पुस्तक लिखेंगे जिसमें दुनिया का सारा ज्ञान होगा। आधी रात होते-होते उसे अहसास हो गया कि वह इस काम को नहीं कर पाएगा। उसने खास तांत्रिक तरीके से शैतान को बुलाया। शैतान ने किताब पूरी कर दी और भिक्षु सजा से बच गया। किताब को लेकर एक और बड़ा रहस्य है। मई 1697 की एक रात स्टॉकहोम के शाही महल में भीषण आग लग गई और रॉयल लाइब्रेरी बुरी तरह से जल गई। इस किताब को आग से बचाने के लिए खिड़की से बाहर फेंका गया। उसी दौरान इसके कुछ पन्ने अलग हो गये। कहा जाता है कि वे पन्ने आज तक नहीं मिले। बेशक इसे शैतान की बाइबिल कहा जाता है, लेकिन इसमें चिकित्सा पद्धति, तपस्या आदि जैसे कई मसले भी दिये गये हैं। आज यह पुस्तक स्वीडन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में संरक्षित है।
वैज्ञानिक तथ्य : शोधकर्ताओं का कहना है कि उस समय की परिस्थितियां और सुविधाओं के हिसाब से ऐसी पुस्तक को लिखने में करीब 30 साल लगते। इसलिए एक रात वाली कहानी गले नहीं उतरती। हो सकता है इसे लिखकर पहले से रखी गयी हो। हालांकि इसमें राइटिंग एक ही व्यक्ति की है।

4. चंगेज खान का मकबरा  : चंगेज खान के बारे में कहा जाता है कि वह दुनिया का बेहद शक्तिशाली सम्राट था। कहा यह भी जाता कि अगर उसका साम्राज्य आज भी चल रहा होता तो दुनिया के 16 फीसदी हिस्से पर उसका कब्जा होता। वैसे इतिहास में कई लेखकों ने चंगेज खान को हत्यारा और निर्दयी तानाशाह भी माना है। कई लोग उसे मंगोलिया के संस्थापक और धार्मिक नेता के तौर पर याद करते हैं। असल में चंगेज खान के बारे में रहस्य उसके मकबरे को लेकर है। बताया जाता है कि चंगेज खान की इच्छा थी कि उसकी कब्र अनजान जगह पर बने। साथ में मकबरे का पता किसी को न हो। माना जाता है कि कब्र के स्थान को छुपाने के लिए, अंतिम संस्कार में जाने वाले हर व्यक्ति को मार दिया गया था ताकि कोई गवाह न रहे। यह भी कहा गया कि चंगेज खान को दफनाने के बाद वहां हजारों घोड़ों को दौड़ाया गया ताकि वहां जमीन समतल हो सके। वर्ष 2004 में एक बात यह भी सामने आई कि मकबरे को उनके जन्मस्थान के पास खेंटी प्रांत में, ओन नदी के करीब कहीं बनाया गया होगा। हालांकि 1950 के दशक में, चीन ने चंगेज खान की याद में एक भव्य मकबरा बनवाया, लेकिन यह मूल मकबरे के स्थान पर नहीं है। कुछ लोग यह तक कहते हैं कि अगर चंगेज खान का मकबरा मिल गया तो तबाही आ जाएगी।
वैज्ञानिक तथ्य : जानकार कहते हैं कि जब चंगेज खान ने खुद ही अपनी कब्र का खुलासा नहीं करने की बात अपनी वसीयत में लिखी तो जाहिर है वहां कोई मकबरा बनाया ही नहीं गया होगा। उन्हें दफनाकर जमीन समतल कर दी गयी होगी और यह काम बहुत गोपनीय तरीके से हुआ होगा।

5. ईस्टर आईलैंड की विशालकाय मोआई मूर्तियां : वर्ष 1722 में एक डच खोजकर्ता ने ईस्टर द्वीप की खोज की। जिस जगह को वीरान समझा जाता था वहां दो से तीन हजार लोगों को देखकर वह हैरान हो गया। हैरानी इस बात की थी वह द्वीप ज्वालामुखी से बना था और वहां आबादी होने की किसी को उम्मीद नहीं थी। इससे भी हैरानी की बात थी कि मूल आबादी वाले इलाके से 17 किलोमीटर दूर 887 भीमकाय मूर्तियों का होना। हर मूर्ति 33 फुट से अधिक लंबी थी। एक-एक मूर्ति का वजन 87 टन से अधिक था। सवाल यह था कि पूरी दुनिया से कटे हुए इन लोगों ने इन मूर्तियों को तराशा कैसे और फिर इतनी दूर इसे ले कैसे आये। एक और खास बात थी कि ये मूर्तियां लगभग एक जैसी थीं। जैसे कि एक ही सांचे में इन्हें ढाला गया हो। सवाल यह था कि इन मूर्तियों को लाने या बनाने का कारण क्या रहा होगा? कहा यह भी जाता है कि द्वीप पर सालों पहले एलियंस ने यहां आकर इनका निर्माण किया था और वे इन्हें बीच में ही आधा छोड़कर चले गए थे।
वैज्ञानिक तथ्य : जानकार कहते हैं कि अपने पूर्वजों की याद में यहां रहने वाले रापा नुई जनजाति के लोगों ने इन मूर्तियों को बनाया। धीरे-धीरे मूर्तियां बनाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। इन्हें बनाने के चक्कर में जंगल उजड़ रहे थे। एक समय ऐसा आया कि वहां खाने के लाले पड़ गये और अंतत: वहां के लोग इसे छोड़कर चले गये।

6. चीन के पहले सम्राट की रहस्यमयी कब्र : चीन के पहले सम्राट चिन बेहद शक्तिशाली थे। चिन राजशाही वंश के इस सम्राट का पूरा नाम चिन शी हुआंग था। उनके ही नाम से चीन का नामकरण हुआ। उनके मकबरे के बारे में कई रहस्य हैं। सबसे बड़ा तो यही कि उसे अब तक कभी जानकारी जुटाने के नाम पर छेड़ा ही नहीं गया। कहा जाता है कि तकनीक के मामले में अव्वल रहने वाले चीन जैसा देश भी इस मकबरे में जा नहीं सका। कई जानकार कहते हैं कि इस मकबरे की खुदाई करने की बेहतरीन तकनीक नहीं आई है। मिस्र के कुछ रहस्यमयी मकबरों को हुए नुकसान का हवाला देते हुए इस मकबरे को लेकर और भी कई तरह की बातें की जाती हैं। यह मकबरा एक पहाड़ के अंदर गुफानुमा क्षेत्र में है। यह भी कहा जाता है कि मूल मकबरे के पास विषैले पारे की झील है। हालांकि मकबरे के आसपास की खुदाई में एक टेराकोटा सेना का पता चला। वहां खुदाई में पता चला कि 16 हजार टेराकोटा सैनिक हैं। हर कोई अलग-अलग। कई दशकों की खुदाई के बाद पुरातत्वविदों को कई अहम जानकारियां भी मिलीं। इस पहले चीनी सम्राट के बारे में कहा जाता है कि उनका निधन 39 वर्ष की आयु में हो गया। असल में उनकी प्रबल इच्छा बहुत अधिक जीने की थी। अमर बनने के लिए उन्होंने पारे की कई गोलियां ले लीं। इसी से उनका निधन हो गया।
वैज्ञानिक तथ्य : इस कब्र की खुदाई की कोशिश जनभावना को भी देखते हुए नहीं की गयी। लोगों का मानना है कि खुदाई से प्रलय आ जाएगा। वैसे आस्था के आगे कई चीजों को दबा भी दिया जाता है।

7. आखिर कहां चला गया वह पानी का जहाज : बात 1947 की है। जून का महीना था। मलक्का जलडमरूमध्य में व्यस्त मार्ग से यात्रा करने वाले कई जहाजों को पास के एक स्थान से एसओएस संदेश मिला। इस मैसेज में लिखा था, ‘कप्तान सहित सभी अधिकारी चार्ट रूम और पुल में पड़े हुए हैं। संभवतः पूरी तरह से मृत चालक दल।’ संदेश पढ़कर हर कोई भयभीत था। इसी दौरान अंतिम मैसेज आया, ‘मैं मर गया।‘ जिस जहाज पर यह सिग्नल आया वह एक डच फ्रीटर, एसएस औरंग मेडन के नाम से जाना जाता था। इससे वहां पहुंचने वाला पहला जहाज सिल्वर स्टार था। एसएस औरंग मेडन में मारे गए लोगों में से किसी के ऊपर कोई चोट या मारपीट का थोड़ा सा भी संकेत नहीं था। पूरे दल के अचानक निधन का कोई अन्य कारण भी नहीं था। सिल्वर स्टार के चालक दल ने इसके साथ जहाज को वापस भेजने का फैसला किया। लेकिन अचानक दुर्भाग्य से जहाज के तहखाने से धुआं निकलने लगा। सिल्वर स्टार चालक दल जान बचाने के लिए भागने लगे। उसी समय एसएस औरंग मेडन में विस्फोट हो गया और समुद्र में डूब गया। आज तक कोई इस रहस्य को समझ नहीं पाया। आखिर पहले संदेश किसने भेजे फिर वह जहाज डूबा कैसे।
वैज्ञानिक तथ्य : संदेश वाली बात तो रहस्यमयी है, लेकिन जानकार कहते हैं कि समुद्र में फिसलन से जहाज में फंसी प्राकृतिक गैसों के बादल घिर गये। इसी घेरे में जहाज आ गया और कोई रासायनिक गतिविधि होने से विस्फोट हो गया। 

8. सौ साल ईसापूर्व की वह चमत्कारी मशीन : माना जाता है कि मशीनों का निर्माण गैलीलियो के जमाने में किया गया। हालांकि तब तक उनका रूप इतना विकसित नहीं था। सही मायने में औद्योगिक क्रांति 1800 के दशक में आई। लेकिन कितना आश्चर्य होगा यह सुनकर कि ईसा पूर्व 100 साल पहले की मशीनें उस समय से भी अधिक विकसित थीं। असल में वर्ष 1900 में गोताखोरों के एक समूह को एक ग्रीक जहाज़ का मलवा मिला। इसमें कुछ मशीनों जैसी सामग्री भी मिली। कार्बन डेटिंग की मदद से देखा गया तो इन मशीनों को 100 साल ईसा पूर्व का माना गया। बाद में कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के नये रूप से इसे स्कैन किया गया और तब भी इन मशीनों के इतने पुराने होने का खुलासा हुआ। तब वैज्ञानिकों ने पाया कि इसमें तो गियर्स भी हैं। बता दें कि गियर्स के बारे में कहा जाता है कि इसकी खोज तो बहुत बाद में हुई। यही नहीं इस मशीन में खगोलीय घटनाक्रमों की जानकारी जुटाने जैसे उपकरण लगे हुए थे। यह बात भी आश्चर्यजनक थी क्योंकि खगोल विज्ञान का उन्नत रूप तो बाद में आया। बता दें कि गैलीलियो 16वीं और न्यूटन 17वीं सदी में आये। वास्तव में यह मशीन आश्चर्यजनक है।
वैज्ञानिक तथ्य : जानकार कहते हैं कि वैज्ञानिक खोजें प्राचीन काल में भी बहुत हुईं। संभव है कि 100 साल ईसा पूर्व भी ऐसी खोज हुई हो।

9. चरवाहा स्मारक शिलालेख : इंग्लैंड के स्टेफोर्डशायर में एक प्रसिद्ध स्मारक है। यहां की खूबसूरती कई शताब्दियों से लोगों को आकर्षित करती है। यहां पर एक शिलालेख है। इसे चरवाहा स्मारक शिलालेख कहा जाता है। लेकिन इस शिलालेख पर कोडनुमा लिखे कुछ शब्दों का आज तक रहस्य नहीं सुलझ पाया। असल में चरवाहा स्मारक में धातु की प्लेट पर अंकित शूरवीरों और योद्धाओं की कुछ तस्वीरें भी दिखाई गई हैं। लेकिन उस पर अंकित कोड को डीकोड नहीं किया जा सका है। इस पर कई शोध हो चुके हैं और कई चल रहे हैं, लेकिन सटीक बात अब तक सामने नहीं आयी है। अनेक शोधकर्ताओं ने इस कोड को क्रैक करने की कोशिश की है। ऐसा करने वालों में चार्ल्स डिकेंस और चार्ल्स डार्विन भी शामिल हैं। अब इसके पीछे का रहस्य क्या है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन चरवाहों के संबंध में इस शिलालेख की चर्चा होती दुनियाभर में है।
वैज्ञानिक तथ्य : ज्यादातर शोधकर्ता यह मान चुके हैं कि इसका कोई अर्थ नहीं है। यह सिर्फ कुछ अक्षरों का एक समूह है। हालांकि कुछ को पूरा विश्वास है कि कोड में कोई न कोई संदेश छिपा है। खैर सच्चाई जो भी हो, चर्चा तो इसकी दुनियाभर में है।

10. झील का वह राक्षस : 1930 के दशक तक स्कॉटलैंड के हाइलैंड्स में लोकनेस एक सामान्य झील थी। उसी दौरान वहां घूमने गए एक जोड़े ने दावा किया कि झील में एक विशालकाय राक्षस था। कहा गया कि उसकी बहुत लंबी गर्दन थी, पीठ पर कूबड़ निकले थे। कुछ लोगों ने कहा कि यह राक्षस डायनासोर की तरह दिखता था। इसकी आवाज भी डरावनी थी। इसके बाद वर्ष 1934 में इस कथित राक्षस की एक तस्वीर भी सामने आ गई। इसके बाद तो लोग हर जगह इसकी चर्चा करने लगे। एक सर्कस ने तो राक्षस के लिए 20000 डॉलर का इनाम भी रखा। धीरे-धीरे कहा जाने लगा कि झील में राक्षस तो है। फिर खुलासा हुआ कि 565 ईसा पूर्व में सेंट कोलंबा ने भी इसे देखा। उस वक्त कहा गया था कि कोई बड़ी चीज झील में तैरती हुई दिखी। वर्ष 1934 में नेस्सी की पहली तस्वीर आई। आज भी लोग दावा करते हैं कि वहां कोई राक्षस है।
वैज्ञानिक तथ्य : राक्षस जैसी कोई चीज नहीं। हो सकता है किसी चीज से कोई ऐसी आकृति बन गयी हो कि लोग ऐसा कहने लगे। इलाके को बदनाम करने या ज्यादा प्रसिद्धि दिलाने के लिए भी ऐसा कहा जा सकता है।

Wednesday, April 10, 2019

वृंदावन-मथुरा की वह यादगार यात्रा



वृंदावन में हम सब लोग। फोटो खींचने वाला बच्चा बाद में दिखेगा
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव। नमो भगवते वासुदेव। राधे-राधे। भगवान कृष्ण की पूजा-अर्चना में अक्सर गुनगुनाये जाने वाले इन वाक्यों/शब्दों के साथ ही साझा करता हूं उस यात्रा का वर्णन जिसका कार्यक्रम अचानक बना। ऐसे अचानक जैसे कि हम अक्सर कहते हैं कि बुलावा आया होगा। पहले प्रोग्राम बना सपरिवार चलना है। फिर हुआ अभी नहीं, दूसरी बार। फिर सारा कार्यक्रम अमृतसर का बना और आखिरकार पहुंचे वृंदावन और मथुरा। विस्तार से जिक्र करने के लिए आइये चलते हैं सिलसिलेवार ढंग से-
31 मार्च की सुबह सवा सात बजे का समय। भास्कर जोशी (मेरे ब्रदर इन लॉ) के मोबाइल की घंटी बजी। फोन था उनके पड़ोसी सीबी अग्रवाल साहब का। हेलो कहते ही पहला सवाल, ‘कहां पहुंचे।’ जवाब दिया गया, ‘बस वृंदावन की तरफ मुड़ चुके हैं।’ ‘आ जाओ, अभी हमने भी परिक्रमा शुरू नहीं की है।’ अग्रवाल साहब ने अगली बात कही और फोन काट दिया। मैं, मेरा बेटा कार्तिक, भास्कर की पत्नी प्रीति और उनका बेटा भव्य साथ थे। बच्चों को छोड़कर सभी बड़ों ने कहा, चलो अच्छा है साथ ही परिक्रमा और दर्शन हो जाएंगे। हम लोग मुश्किल से 10 मिनट में वृंदावन पहुंच गये। पास में ही एक हाउसिंग सोसाइटी के बाहर अग्रवाल साहब सपरिवार खड़े थे। उन्होंने पहले कार पार्क करवाई और हम सब चल पड़े। चलते-चलते ही नमस्कार हुई। मन में एक अनूठी उमंग थी। भास्कर लोग पहले भी आ चुके थे। अग्रवाल साहब तो थे ही यहीं के और महीने में एक या दो बार यहां आते रहते हैं। हम लोगों ने फैसला किया था कि पैदल ही परिक्रमा पूरी करेंगे। उस दिन एकादशी थी और शायद इसकी वजह से भी भीड़ अच्छी खासी थी। 47 साल की उम्र में यह पहला मौका था जब में वृंदावन, मथुरा आया था। भास्कर लोग फरीदाबाद रहते हैं। वहां तक अक्सर आता-जाता रहता हूं। उनसे वृंदावन और मथुरा जाने की बात भी होती रहती थी। इस बार भी बात की तो भास्कर ने कहा कि व्यस्तता तो है। मार्च का महीना है। आ जाना देख लेंगे। हां-ना करते-करते पहुंच ही गये और शानदार यात्रा रही। बेहद यादगार।
ये हैं भव्य जोशी। इन्होंने ही ऊपर वाली फोटो खींची।

वह स्थानीय बोली और मंदिर-मंदिर दर्शन
अग्रवाल साहब अपनी पत्नी और बेटी-बेटे के साथ थे और हम सब लोग। सबसे पहले मैंने खुशी जताई कि चलिए आज मैं भी आप लोगों के साथ दर्शन कर लूंगा। उनकी पत्नी बोली, सब ‘राधा की कृपा है।’ फिर कहा, धन्यवाद तो कुक्कू (मेरा बेटा कार्तिक) का है। असल में उससे ही मैंने वादा किया था कि परीक्षा के बाद कहीं चलेंगे। पहले शिमला का बना, फिर अमृतसर का। अमृतसर में होटल बुकिंग तक हो गयी। वाघा बॉर्डर के लिए दिल्ली से राजीव ने पास की भी व्यवस्था कर दी, लेकिन दर्शन तो बांके बिहारी और राधारानी के होने थे सो हुए। हम लोग जब परिक्रमा कर रहे थे अग्रवाल साहब किसी से पूछते, ‘कौन को लाला है’ यानी किसके बेटे हो। हर जगह उनके पहचान वाले मिले। काफी मदद मिली। वहां कोई वाहन चालक पास मांगता है तो वह भी ‘राधे-राधे’ कहता है।

रसखान और मीरा की भी रचनाएं आईं
परिक्रमा के दौरान कई बार ऐसा दौर आया जब हम कभी रसखान को तो कभी सूरदास को याद करते। एक जगह हमें कुछ गायें दिखीं। मैंने बेटे से कहा रसखान ने लिखा है, ‘जो पशु हों तो कहा वश मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मझारन।’ मेरे साथ सुरबद्ध होकर अग्रवाल साहब बोले, ‘मानुष हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’ ऐसे ही बीच-बीच में पाहन हों तो वही गिरि को। फिर एक जगह सुदामा-कृष्ण को लेकर वह रचना भी याद आई जिसमें कहा गया है, ‘शीश पगा न झगा तन पे प्रभु जाने को आही बसे केहि ग्रामा...’ कुछ ही देर में मीरा का वह पद आया, ‘बसों मेरे नैनन में नंदलाल।’

अग्रवाल साहब की निष्काम मदद
इस सबके बीच अग्रवाल साहब और उनके परिवार की निष्काम मदद ने मुझे बेहद प्रभावित किया। भास्कर तो उनके पड़ोसी हैं, लेकिन मेरे साथ भी उनका अपनत्व। सचमुच मैं तो ऐसा नहीं हो सकता। वह अपने घर भी ले गये। खाना भी खिलाया। परिक्रमा के दौरान भी खर्च किया। हम लोगों को कोई खर्च नहीं करने दिया। शाम तक हम थक चुके थे, वे भी थके थे। इसके बावजूद वे हमें इस्कान मंदिर, मथुरा जन्मभूमि आदि स्थानों पर ले गये। पर उन्होंने मेरा एक धन्यवाद तक लेने से इनकार कर दिया। उनके दोनों बच्चों के व्यवहार में भी उनके संस्कार झलकते हैं। हरे कृष्ण।
भास्कर की सेल्फी में समाये सब लोग।

लालकिले और नेशनल साइंस सेंटर की भी एक यात्रा
दो दशक तक दिल्ली रहने के बावजूद मैं कभी ऐतिहासिक लालकिले के अंदर नहीं गया। इस बार बेटे ने जिद की तो उसे और भव्य को लेकर चला गया। सचमुच वहां का विहंगम नजारा देखने लायक था। हाल ही में बना नेताजी सुभाष मेमोरियल भी लाजवाब था। इस दौरान मासूम भव्य के कई सवालों और उसके बाद की प्रतिक्रियाओं से बहुत प्रसन्न हुआ। पहले वह बच्चा सवाल करता, जब उसे पूरी कहानी समझायी जाती तो उसका मासूम सा सवाल फिर आता, ‘मैं समझा नहीं।’ इस दौरान वह बेहद थक गया। मुझे भी उस पर दया आयी। पहले दिन करीब 15 किलोमीटर पैदल चला आज फिर यही हाल। उसे बाहर लाया। मेट्रो पकड़कर पहले प्रगति मैदान तक गये फिर दूसरी तरफ के गेट तक ऑटो से। वहां नेशनल साइंस सेंटर में दोनों बच्चों ने जो एंजॉय किया, वह लाजवाब था। वहां दो छोटी-छोटी मूवी देखी। उस दौरान बच्चे ने अंतरिक्ष के संबंध में कई जानकारियां भी साझा की। सुबह 10 बजे के निकले हम लोग रात साढ़े आठ बजे घर पहुंचे। पूरी यात्रा अच्छी रही। अगले दिन मैं और बेटा कार्तिक चंडीगढ़ आ गये। इस यात्रा के सभी साथियो को बहुत-बहुत साधुवाद। 
लालकिले मैं और भव्य (ऊपर) और बेटे कार्तिक के साथ।