indiantopbligs.com

top hindi blogs

Sunday, July 26, 2020

गमले में वसंत

करेले की बेल
यह मौसम वसंत का तो नहीं है, लेकिन मेरे गमलों में इन दिनों माहौल वसंत जैसा ही है। पेड़-पौधों से बहुत स्नेह है और इस संबंध में बहुत कुछ लिखता भी रहा हूं। पिछले साल गमलों में गेंदे के फूल खिले। रोज पूजा के लिए तोड़ता और अगले दिन फिर खिले मिलते। गेंगे के फूल मुझे बेहद भाते हैं। गमलों में कुछ पौधे तो 10 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। असल में चंडीगढ़ आए हुए सात साल हो गये हैं। जब चंडीगढ़ आया तो गमलों को भी साथ ले आया। मूवर्स एंड पैकर्स के जरिये सामान लाने का फायदा ये हुआ कि गमले सुरक्षित पहुंचे। एक पौधा बौंगनविलिया यानी कागजी फूल का है। इस फूल में कोई खुशबू नहीं होती, लेकिन इसकी छटा निराली होती है। पता नहीं क्या बात है पिछले दो सालों से इसमें फूल नहीं आ रहे हैं। लगता है उसकी उम्र पूरी हो गयी। कुछ दिन और देखूंगा फिर वहां पर कुछ नया पौधा लगेगा। पिछले साल छोटे बेटे धवल को स्कूल से एक पौधा लगाने का प्रोजेक्ट मिला था। उसने एक नीले रंग के फूल अपराजिता की बेल लगायी। खूब फूल आये। इस बार वह नहीं हुआ। इस बार धवल ने मिर्च का एक पौधा लगाया जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है। बोंगनविलिया की ही तरह एक और पेड़ सदाबहार का है। दसियों बार कटाई-छंटाई कर चुका हूं। छोटे-छोटे लाल फूल आते हैं।
Add caption
एक मनी प्लांट का पौधा है। एक बार तो वह यहां आंगन में पूरा फैल गया। अब उसे हमने कांट-छांट कर गमले तक ही सीमित कर दिया। पिछले साल पत्नी ने एक गमले में पुदीना यानी मिंट लगा दिया। खूब चटनी खाई। इन दिनों कुछ सूख सा गया है। क्योंकि उसी गमले में गेठी की बेल बहुत फैल गयी है। गेठी पहाड़ों में होती है। आप कह सकते हैं बेल पर लगने वाला आलू। लेकिन इस आलू में शुगर नहीं होता। यह पहले हरा होता है बाद में काला। छिलका निकालने के बाद अंदर से आलू जैसा ही होता है। बचपन में इसे खूब खाते थे। इसे पकाकर खाइये या भूनकर। अभी सिर्फ बेल ही खूब फैली है, उस पर गेठी आनी बाकी है। इसे भी पत्नी ने लगाया था। बेहद रोचक किस्सा है। ससुराल से गुछ गेठियां आई थीं। एक गेठी में तोर आ गया। पत्नी ने उसे हल्का सा काटा और गमले में डाल दिया और गेठी की बेल खूब फैल गयी। पहले साल कुछ नहीं हुआ। अगले साल खूब गेठियां आईं। उसके बाद मैंने बेल को जड़ से काट दिया। क्योंकि वह अपने मौसम के हिसाब से सूख चुकी थी। एक बार गांव में किसी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि बेल को उखाड़ना नहीं चाहिए था। क्योंकि अपना मौसम आते ही वह फिर फलने-फूलने लगती है। मुझे अफसोस हुआ कि मैंने क्यों गमला नयी पौध के लिए तैयार किया होगा। लेकिन यह क्या इस बार भी गेठी अपनेआप पनप गयी। यानी थोड़ी सी जड़ गमले में रह गयी होगी। गेठी के अलावा इन दिनों करेले की बेल भी खूब फैल गयी है। उस पर करेले भी लगे हैं। भिंडी के तीन पौधे लगे हैं। तीनों में भिंडियां आ रही हैं। कभी दो तो कभी चार। दो पौधे तुलसी के हैं। कुल मिलाकर चंडीगढ़ के जिस मकान में मैं किराये में रहता हूं, वहां गमले में वसंत आया हुआ है। सात साल हो गये इसी मकान में हूं। मकान मालिक राजेंद्र मोहन शर्मा जी बेहद अच्छे स्वभाव के हैं। बच्चों ने कई ख्वाब संजोये हैं आने वाले समय के लिए, देखना होगा उन ख्वाबों में वसंत बहार कब तक आती है।  

Thursday, July 23, 2020

बहादुर मां और साहसी पड़ोसियों को सलाम

केवल तिवारी

एक मुद्दत से मेरी मां सो नहीं पायी
मैंने इक बार कहा था मुझे डर लगता है।

मां को समर्पित यह मशहूर शेर आज जैसे मौजूं लगता है। मां ममतामयी होती है। मां साहसी होती है। बच्चे पर आंच आये तो वह जान की भी परवाह नहीं करती। ऐसा ही हुआ दिल्ली के शकरपुर इलाके में। पूरी कहानी से पहले मैं उस मां को सलाम करता हूं। और उन पड़ोसियों को भी, जो मदद की गुहार सुनते ही जैसी अवस्था में थे, वैसे ही दौड़ पड़े। वर्ना आज कहां कोई किसी की मदद के लिए दौड़ता है। खासतौर पर दिल्ली में तो कई बार ऐसे किस्से सामने आये हैं कि लोग तमाशबीन तो खूब बने, लेकिन आगे आकर मदद की बात तो बस फिल्मों में ही देखते थे।
सीसीटीवी फुटेज।


खैर, अब आते हैं पूरे मामले पर। दिल्ली के शकरपुर इलाके में। यहां दो बाइक सवार बदमाश आये। उनमें से एक स्टार्ट बाइक पर बैठा रहा। दूसरा किसी के घर में घुसा। चार साल की बच्ची को उठाया और स्टार्ट बाइक के पीछे बैठने ही वाला था कि बच्ची की मां तेजी से घर से निकली और बदमाशों से भिड़ गयी। साथ ही शोर मचाती रही। मां की हिम्मत देख बच्ची को उठाने वाला शख्स तेजी से बाइक छोड़कर आगे भाग गया। थोड़ी दूर जाकर वह अपने बैग में कुछ तलाशने लगा। शायद हथियार निकालने की कोशिश कर रहा था। इसी बीच शोर सुनकर दो-तीन लोग निकले। इन सभी लोगों को सलाम कि वे मदद की गुहार सुनते ही दौड़े आये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो जिस अवस्था में था उसी अवस्था में दौड़ आया। एक व्यक्ति कच्छे में ही था। हो सकता है वह नहाने के लिए जा रहा हो। या हो सकता है सोकर उठा हो। जो भी हो, उसने परवाह नहीं की और दौड़ पड़ा बदमाश के पीछे। तभी दूसरी तरफ भी दो-तीन लोग निकल आये और बदमाशों को घेर लिया। बदमाश डर के मारे बाइक वहीं पर छोड़ भाग गये। इस बीच, एक बदमाश को चोटें भी आयीं। बदमाश का पीछा करना वाकई खतरे से खाली नहीं था। क्योंकि बाद में पता चला कि उनके पास हथियार भी थे। लेकिन लोगों ने हौसला दिखाया। बाद में इसी बाइक के बलबूते पुलिस पूरी साजिश का पर्दाफाश कर पायी।
सगे चाचा ने रची थी साजिश
पुलिस के मुताबिक बाइक के नंबर प्लेट से उसके मालिक का पता चला। तय पते पर गये तो उसने कहा कि यह साजिश बच्ची के सगे चाचा ने ही रची थी। वह बच्ची के बदले फिरौती लेना चाह रहा था। यह सुनकर मन और द्रवित हो गया और उस बात की एक बार फिर ताकीद हुई कि अपराध करने वाले ज्यादातर तो अपने ही इर्द-गिर्द के लोग होते हैं। एक बार क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हवाले से कहा गया था कि बच्चियों से कई तरह के अपराध में ज्यादातर मामले अपनों से ही होते हैं। इसी के बाद यह बात भी कही गयी कि बच्चों को बेड टच और गुड टच के बारे में समझायें। इसका एक पहलू था कि बच्चियों को चौकन्ना बनाया जाये, दूसरा दुखद पहलू यह भी रहा कि भरोसे का रिश्ता धीरे-धीरे कम होता गया।
दिल्ली में मदद को कम ही लोग आते हैं
मैंने दिल्ली के जीवन में करीब 17 साल बिताये हैं। ब्लू लाइन बसों की खूब सवारी की है। उन दिनों बसों में जेब काटने की बहुत वारदात होती थीं। कई लोगों को पता होता था कि जेब कतरों का गैंग बस में घुस चुका है, लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं था। एक बार मैंने एक सज्जन से धीरे से कहा कि अपनी जेब का ध्यान रखना, जेब कतरे घूम रहे हैं, लेकिन वह व्यक्ति जोर से चिल्ला उठा, 'जेब कतरे कहां हैं।' तभी एक जेब कतरा मेरे पास आया, बोला-बहुत सयाना बनता है, तेरे मुंह पर ब्लेड ऐसा मारूंगा कि आइंदा भूल जाएगा। सच मानिये मैं कई हफ्तों तक उस रूट की बस में गया ही नहीं। धीरे-धीरे दिल्लीवाला जैसा बनता चला गया। बाद में ऑफिस की कैब मिली तो आते-जाते सड़क हादसों में कई लोगों की मदद अन्य मित्रों के साथ की। मैं देखता था लोग सड़क पर दुर्घटना देखने के बावजूद निकल पड़ते थे। हम लोग करीब 20 लोगों को अलग-अलग समय पर अस्पताल ले गये। कई बार पुलिस के बेजा सवालों से भी दो-चार हुआ। खैर शकरपुर की इस घटना से जहां स्तब्ध हूं, वहीं खुशी है कि कुछ लोग मदद को तुरंत आगे आये तो। उस मां को तो बड़ा सैल्यूट है। दिल्लीवालों को भी। नहीं तो एक आम धारणा तो ऐसी थी कि-

इस वक्त कौन जाए वहां धुआं देखने
आग कहां लगी, कल अखबार में पढ़ लेंगे।

Tuesday, July 21, 2020

प्रकृति साधना का मौसम

केवल तिवारी
सावन-भादो या जुलाई-अगस्त। मिले-जुले मौसम के दो महीने। गर्मी भी, बारिश भी। तपिश भी, बौछारें भी। हवा चले तो ठंडी-ठंडी, रुक जाये तो पसीने से तर-बतर। यह समय है कुछ सीख देने वाला। कुछ त्यागने और कुछ अपनाने का समय। कुदरत को और करीब से समझने का मौसम। प्रकृति की समृद्धि का काल। मन और तन से प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने के महीने। तृप्ति का मौसम। तृप्ति धरती की। सावन में जब बादल बरसते हैं तो धरती पर हरियाली आती है। हरियाली सुख और समृद्धि का प्रतीक है। यानी प्रकृति हरी-भरी होगी तो मानवमात्र सुखी होगा। इस सुख और हरियाली का महत्व पर्यावरणीय संतुलन से भी है। शिव की अाराधना का यह वक्त होता है। संकल्प का समय है। संकल्प प्रकृति से अनुराग का। संकल्प बुराई से विराग का। प्रकृति की साधना का। जो हमें दिख रहा है, वह तो सुहाना है ही और जो नहीं दिख रहा, वह भी हम सबके लिए सुखद है। मन प्रफुल्लित हो। नाचे मन मोरा मगन तिघ धा धी गी धी गी… की तरह।
सावन छोड़ने और जोड़ने का भी समय है। यानी संयम का समय है। संतुलन का समय है। इसीलिए तो सावन में उन सभी चीजों के सेवन की मनाही की जाती है जो पचने में दिक्कत करती हैं। यानी गरिष्ट होती हैं। मांसाहार का निषेध। हरी सब्जियों के सेवन का निषेध। चारों ओर हरियाली है, लेकिन उसके सेवन की मनाही, जहां यह संदेश देती है कि हमें हरियाली को सहेजना है, उसे उजाड़ना नहीं है, वहीं इसका दूसरा कारण है कि अनेक कीट-पतंगे इन दिनों पनप जाते हैं। वे हरी पत्तियों से चिपके होते हैं। साथ ही फंगस की भी समस्या इस मौसम में रहती है। इसलिए इस मौसम में हरियाली को अपनाने की सलाह दी जाती है, उसके उपभोग की नहीं। इस हरियाली में काट-छांट भी करनी है। जो हमें सीख देती है कि एक जैसा रहना तो पशुवत है। हमें खुद में बदलाव करना है। अपनी बुरी आदतों में बदलाव। अपनी सोच में बदलाव। यही बदलाव तो सृष्टि है। सावन से पहले सूखा फिर हरियाली और फिर धीरे-धीरे मौसम का संधिकाल। कुदरत हमें हमारे जीवन चक्र की तरह कई चीजें समझाती है।
संयम रखने का समय
सावन से पहले ही विवाहिताएं मायके चली जाती हैं। मायके में उनका जोरदार स्वागत होता है और सखी-सहेलियों संग वह मौसम का आनंद लेती हैं। असल में पीहर जाने के रिवाज के पीछे संयम है। जानकार कहते हैं कि इस मौसम में शारीरिक रूप से संयमित रहना जरूरी है। यह मौसम मनुष्य को अपने भीतर को समृद्ध करने का है। भाई-बहन का प्यारा त्योहार रक्षाबंधन भी तो इसी दौरान मनाया जाता है।
पर्याप्त दूरी का संदेश
सावन के महीने में शिव आराधना का बहुत महत्व है। शिव आराधना अपने घर में या आसपास के मंदिरों में। ज्यादा दूर नहीं जाना है। नदियों के आसपास तो बिल्कुल नहीं। इन दिनों नदियां भी साफ होती हैं। कई बार उनका रौद्र रूप भी दिखता है। शिव को जल अर्पित करें, लेकिन घर या घर के आसपास। इसीलिए तो शिवार्चन, रुद्राभिषेक का कार्यक्रम इन दिनों घरों में लोग करते हैं। यह संदेश है कुदरत को समझने, उससे पर्याप्त दूरी बनाने और उसके संदेश को अपनाने का। नहाते वक्त तभी तो यह मंत्र उच्चारित किया जाता है- गंगे च यमुने चैव गोदावरी, सरस्वति! नर्मदे, सिंधु, कावेरि, जलेSस्मिन‍् सन्निधिं कुरु। यानी समस्त नदियों का हमारे स्नान वाले जल से मेल हो जाये।
झूला झूलने का महत्व
सावन में पड़ने वाले तीज पर झूला झूलने की परंपरा है। कहीं-कहीं तो पूरे सावनभर झूलने की परंपरा है। सावन में झूला झूलने के आध्यात्मिक महत्व के अलावा इसके अन्य फायदे भी हैं। जानकारों का कहना है कि बारिश के मौसम में जठराग्नि क्षीण हो सकती है। यानी इस मौसम में पाचन शक्ति अपेक्षाकृत कमजोर हो जाती है। ऐसे में झूला झूलते वक्त ताजी हवा के झौंके और लंबी-लंबी सांस लेते वक्त जठराग्नि में विशेष फायदा होता है। इस मौसम में धूल और कार्बन के कण समेत हानिकारक तत्व बारिश के साथ जमीन पर आ जाते हैं। परिणामस्वरूप वायु शुद्ध हो जाती है। अन्य मौसम में ये कण हवा में तैरते रहते हैं, जिससे जमीन से ज्यादा ऊपरी सतह पर हवा में ज्यादा अशुद्धता रहती है। बारिश में जब कण जमीन पर बैठ जाते हैं तो झूला झूलने के दौरान जब हवा में हम शरीर लहराते हैं तो हमें ताजी हवा मिलती है। इस दौरान व्यायाम भी हो जाता है। शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिलती है। रस्सी पर हाथों की मजबूत पकड़, बार-बार खड़े होने और बैठने की प्रक्रिया से शरीर में फुर्ती आती है। इसलिए जब रिमझिम फुहार हो और पक्की रस्सी कहीं बंधी हो तो पींग बढ़ाकर छू लीजिए नभ को।
हरेला पर्व
सावन के महीने की शुरुआत में ही कई जगह हरेला का पर्व होता है। यह खेती-बाड़ी के महत्व को इंगित करता है। इसमें लोग अपने घर के मंदिर में पांच या सात तरह के अनाज को छोटे-छोटे डिब्बों में मिट्टी भरकर उगाते हैं। नियमित तौर पर देखभाल करते हैं। करीब दस दिन बाद उगे पौधों की कटाई कर पहले उसे भगवान को चढ़ाते हैं, फिर घर के सभी सदस्यों के सिर पर आशीर्वाद स्वरूप रखते हैं। इस पर्व को मनाने का एक कारण यह भी है कि लोग अच्छी फसल की कामना करते हैं। हरियाली बरकरार रहने की कामना करते हैं।
 नोट यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के रविवारीय पत्रिका लहरें के आस्था पेज पर छप चुका है।

Sunday, July 12, 2020

बिजनेस में छा जाने का है इरादा गुलनार का

इरादे नेक हों तो सपने भी साकार होते हैं, अगर सच्ची लगन हो तो रास्ते आसां होते हैं। यह कहावत चरितार्थ की है चंडीगढ़ की छात्रा गुलनार ने। पूरा नाम है गुलनान जोसन। गुलनार चंडीगढ़ के सेक्टर 9 के निवासी और स्ट्रॉबेरी फील्ड्स की छात्रा हैं। गुलनार जोसन ने आईसीएसई में 12वीं में ह्यूमनिटीज स्ट्रीम में अव्वल अंक हासिल किए हैं। गुलनार के इतिहास में 100%, फिजियोलॉजी में 98% और अर्थशास्त्र में 97% अंक आए हैं। यानी कुल 96.75% के साथ स्कोर करने वाली इस छात्रा का उद्देश्य व्यवसाय प्रशासन में करिअर बनाने का है। गुलनार ने कहा कि नियमित अध्ययन ही सफलता की कुंजी है। उनके पिता अश्वनजीत सिंह जोसन एक व्यवसायी हैं और माता डिंपल जोसन गृहिणी हैं। गुलनार के लिए माता-पिता रोल मॉडल हैं। गुलनार का कहना है कि आपको चीजें अपने घर से ही सीखने को मिलती हैं। पिता की कड़ी मेहनत और मां का पूरे घर को संभालना देखकर ही उन्होंने अपनी पढ़ाई को एक गति दी। उन्होंने अपनी पढ़ाई के लिए एक टाइम टेबल बनाया। लगातार उसी पर चलीं और अध्ययन करती रहीं। गुलनार का कहना है कि व्यापार में वह एक मुकाम को छूना चाहती हैं। निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। गुलनार अपने सफर पर चल पड़ेंगी। इस होनहार छात्रा के लिए पेश है एक शेर-
परिंदो को मिलेगी मंज़िल एक दिन
ये फैले हुए उनके पर बोलते है
और वही लोग रहते है खामोश अक्सर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते है

GULNAR JOSON  WANTS TO  ESTABLISH HER  IMPRINTS  IN  BUSINESS  WORLD.

Resident  of  Sector  9,  Chandigarh  GulnarJoson  student  of  Humanities stream  in  Strawberry  Fields  High  School,  Chandigarh  has  scored  100% in  History,  98%  in  Physiology  with  97%  in  Economics  with  overall 96.75%.    Her  Career  aim:  To  pursue  Business  administration.  Her  success mantra:  She  planned  all  her  studies  before  hand  and  worked according  to it.  Regular study  is the key.   Parents:  Father,  Ashwanjit  Singh  Joson  is  a  businessman  and  mother Dimple Joson is a  homemaker.   Her Parents are her Role Models.



ये है विवरण
GulnarJoson
Age: 18

Stream: Humanities

Marks: 96.75%

School: Strawberry fields high school

Career aim: To pursue Business administration

Success mantra: I planned all my studies before hand and worked according to it. Regular study is the key.

Parents: Father, Ashwanjit Singh Joson is a businessman and mother Dimple Joson is a homemaker.

Role model: Parents

Saturday, July 11, 2020

आत्महत्या कोई विकल्प नहीं

केवल तिवारी
पिछले दिनों दो तरह की खबरें आईं। एक तो यह कि मध्य प्रदेश में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले एक युवक को मनरेगा के तहत मजदूरी करते देखा गया और दूसरे, बेरोजगारी से तंग एक युवक ने जान दे दी। इन दोनों खबरों पर कहीं कोई तवज्जो नहीं दी गयी, क्योंकि न तो इनमें से सुशांत सिंह राजपूत था और न ही कोई विकास दुबे। खैर मध्य प्रदेश के इंजीनियर की कहानी को थोड़ा स्पेस मिलना चाहिए था क्योंकि उसने आत्महत्या के बजाय मेहनत का रास्ता अख्तियार किया, दूसरे युवक को स्पेस नहीं भी मिला तो कोई बात नहीं क्योंकि आत्महत्या कोई विकल्प नहीं। इसी दौरान दिल्ली में एक पत्रकार द्वारा प्रतिष्ठित एम्स की बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या की खबर आई। हालांकि पत्रकार के तमाम मित्र कह रहे हैं कि यह आत्महत्या हो ही नहीं सकती। इसके कई कारण गिनाये गये जिनमें से प्रमुख हैं कि वह बहुत जीवट पत्रकार था। दूसरे उसके संस्थान ने उसे निकाला नहीं था। उसके खाते में जुलाई के शुरू में भी वेतन डाल दिया गया था। आत्महत्या की या नहीं, की तो क्यों? इन सब पर जांच चल रही है। उधर, सुशांत सिंह राजपूत का मामला भी जितनी तेजी से उठा था उतनी ही तेजी से वह ठंडा भी पड़ गया। फिलहाल कुछ दिनों से मीडिया की सुर्खियों में कानपुर वाला विकास दुबे छाया हुआ है। आत्महत्या की खबरों को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए, साथ ही हर किसी को समझना चाहिए कि परेशानी के कई दौर आते हैं, लेकिन उनसे हार नहीं माननी चाहिए। मौत को गले लगा लिया तो बचा ही क्या। थोड़ी सी परेशानी से रू-ब-रू होंगे तो जल्दी ही उससे उबरेंगे भी। हां कोई ऐसा काम न करें कि आप समाज से आंखें चुराते फिरें। नौकरी से परेशान होना, आर्थिक तंगी कोई नजरें चुराने वाली बात नहीं है। न ही ये भी कि आप कहीं बच्चे की फीस नहीं दे पा रहे हैं या विलासिता का जीवन नहीं जी पा रहे हैं।
लाइफ स्टाइल को बिल्कुल न उलटें
कोरोना महामारी के दौर में कई खबरें सुनने को मिलीं। अनेक लोगों की नौकरी चली गयी। कुछ ऐसे किस्से सुनने को मिले जिससे यह लगा कि अपनी लाइफ स्टाइल को हमने एकदम से बदल दिया और नौकरी गयी तो मौत के सिवा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आया। एक युवक का किस्सा बताता हूं। करीब चार साल पहले उसकी बहुत अच्छी जॉब लग गयी। मल्टी नेशनल कंपनी में। बेंगलुरू में शिफ्ट हो गया। शादी हुई। मध्यम वर्ग के परिवार से निकले इस युवक ने पहले डेढ़ करोड़ का फ्लैट खरीदा, एक महंगी गाड़ी ली। ड्राइवर रख लिया। घर में दो मेड रख लिये। पत्नी के लिए भी गाड़ी ड्राइवर रख लिया। महीने में जो डेढ़ लाख के करीब सैलरी मिलती थी, वह सब यूं ही उड़ जाती। बहुत मस्त उसका जीवन चल रहा था कि कोरोना संकट आ गया। पहले तो कंपनी ने वेतन आधा किया फिर जून आते-आते नौकरी से चलता कर दिया। बंदा अचानक जमीन पर आ गया। 40 हजार रुपये महीना मकान की किस्त। कारों की किस्त अलग से। समाज में बना झूठा रुतबा भी चला गया। अब करे तो क्या? फ्लैट बिक नहीं सकता, खाने के लिए भी कोई सेविंग्स नहीं। गनीमत रही कि उसने आत्महत्या नहीं की और वह अपने मूल गांव चला गया। फिर से जीवन को संवारने की कोशिश कर रहा है। ऐसे कई मौके आते हैं जब हम अचानक अपनी लाइफ स्टाइल बदल लेते हैं। अगर उक्त युवक भी तत्काल फ्लैट नहीं खरीदता। या सस्ता फ्लैट ले लेता। एक ही कार से काम चला लेता। मेड नहीं रखता। तो संभवत: वह हर माह 50 हजार रुपये तक बचा लेता। चार साल की नौकरी के बाद उसके पास अच्छी खासी रकम होती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसलिए अपनी लाइफ स्टाइल को एकदम उलटिए मत। 

Friday, July 3, 2020

... तो क्या पापा चिट्ठी वाली ऑनलाइन क्लास होती?

पिछले साल की एक तस्वीर
केवल तिवारी
आज सुबह छोटे बेटे धवल ने एक मजेदार सवाल पूछा, ‘पापा आपके जमाने में कोरोना जैसी बीमारी फैलती तो आपकी ऑनलाइन क्लासेज लेटर (चिट्ठी) से होती।’ मैं हंस दिया। फिर खुद ही बोला, ‘आज आप कोई सवाल पूछने के लिए अपने टीचर को चिट्ठी भेजते तो एक हफ्ते बाद जवाब आता।’ मुझे उसकी बातों में मजा आने लगा। मैंने उससे चिट्ठी को लेकर कई बातें साझा कीं। मैंने कहा, ‘हिंदी फिल्मों के कई गीत हैं जिनमें चिट्ठी का गुणगान किया गया है।’ मैंने फिर यह भी कहा कि कई कविताएं, शेर-ओ-शायरी भी चिट्ठी पर लिखी हैं। वह बोला, ‘आज हमारा देखो, सीधे टीचर से बात। सवाल पूछना हो तो चैट बॉक्स।’ यह कहते हुए वह दूसरे कमरे में चला गया। असल में उसके स्कूल की एक ऑनलाइन मीटिंग थी। गूगल एप पर। टीचर्स ने बच्चों को समझाना था। अब इसी पर क्लासेज चलेंगी। फिर मैं खो गया पुराने दिनों में जब लखनऊ से अपने घर रानीखेत में अपनी माताजी एवं दीदी के लिए चिट्ठी लिखा करता था। फिर मुझे वे शेर याद आने लगे जिनका मैं अक्सर जिक्र करता रहा हूं, जैसे-

फूल तुम्हें भेजा है ख़त में फूल नहीं मेरा दिल है प्रीयतम मेरे तुम भी लिखना क्या ये तुम्हारे क़ाबिल है।  

चिट्ठी आई है आई है, चिट्ठी आई है।

खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू, कैसे होती है सुबह से शाम बाबू

मैं रोया परदेस में, भीगा मां का प्यार। दिल ने दिल से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।

खैर... आज तो शायद कई लोग ऐसे होंगे जिन्हें यह पता ही नहीं होगा कि अंतर्देशीय पत्र क्या होता है। पोस्टकार्ड क्या होता है। तार क्या होता था। मुझे खत-ओ-खतूत से बड़ा प्यार है। कुछ नहीं तो एक खत लिखकर अपने पास ही रख लेता हूं। कभी-कबार घरवालों के नाम भी। भाई साहब-भाभी जी की विवाह की 25वीं सालगिरह पर उन्हें खत भेजा था। उसके बाद छोटी दीदी-जीजा जी की शादी की 25वीं सालगिरह पर। ऐसे ही गाहे-ब-गाहे खत लिखता रहता हूं। अजब इत्तेफाक है कि पिछले दिनों एक किताब समीक्षा के लिए मिली, ‘पत्र तुम्हारे लिए।’ यह एक प्रयोग था। अच्छा प्रयोग। मैंने जो समीक्षा में लिखा उसे नीचे दे रहा हूं-
सोशल मीडिया के इस दौर में चिट्ठियों का तो जैसे जमाना ही चला गया, लेकिन चिट्ठियों के जरिये संदेश पहुंचाने की इच्छा शायद हर व्यक्ति के मन में होती है। या कह सकते हैं कि ऐसा भाव होता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पूरी बात सामने वाले से कह सके। वह वार्तालाप ऐसा हो, जिसमें प्रतिवाद न हो। बात पूरी हो जाये। मां-बाप अपनी संतान से कुछ कहना चाहें या कोई लड़का-लड़की अपने माता-पिता से या फिर रिश्ता कोई भी, चिट्ठियां ही आज भी सशक्त माध्यम हैं संप्रेषण की। अपनी एक खास मुकाम रखने वाली इसी चिट्ठी विधा को सहेजने का अनूठा प्रयोग किया है डॉक्टर विमला भंडारी ने। उन्होंने एक पत्र लेखन प्रतियोगिता आयोजित करवाई। उनमें से बेहतरीन 37 पत्रों को किताब के रूप में सामने ले आईं। सचमुच पत्र इतने बेहतरीन लिखे गए हैं कि पढ़ने वाला भी भावुक हुए बिना नहीं रह सकता है। उन लोगों के लिए तो यह किताब खजाना सरीखा है जिन लोगों ने उस दौर को जिया है जब चिट्ठी ही संचार का एक सहज माध्यम था। यही नहीं आज भी चिट्ठी के माध्यम से अपनी बात कहने वालों को यह किताब बहुत पसंद आई होगी। कहीं एक मां अपनी बेटी को उसके 16वें बरस पर चिट्ठी लिख रही है कि बेटा थोड़ी सी शरारत कर लेना। कीचड़ में उछल लेना और हां, 18 बरस की हो जाओ फिर तुम्हारे सपनों के राजकुमार की भी तो बातें करनी होंगी। ऐसी ही कहीं एक पिता अपने बेटे को ताकीद करता है कि संघर्ष को समझो। कहीं एक बेटी अपनी सफलता की कहानी अपने घरवालों को लिख भेजती है और हां एक जगह एक बच्ची दादी से कहती है, इस बार तो आपके साथ बहुत सारा समय बिताना है। कहीं मां-बाप बच्चों की छुट्टियों का इंतजार करने की बात लिख रहे हैं तो कहीं दोस्तों की बातें चल रही हैं। वाकई अलग-अलग भावों से भरी चिट्ठियों को एक किताब की शक्ल देने का यह प्रयोग है बहुत सुंदर।

मेरा मानना है कि चिट्ठी लिखने की परंपरा कायम रहनी चाहिए। चाहे उसे व्हाट्सएप पर ही क्यों न लिखा जाये।



Wednesday, July 1, 2020

मुश्किल नहीं है कुछ भी गर ठान लीजिए...

मेहनतकश 
केवल तिवारी
एक पुरानी हिंदी फिल्म का गीत है, ‘हम मेहनत कर इस दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे, एक बाग नहीं, एक खेत नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।’ यहां हमने इस गीत से सिर्फ 'मेहनत' शब्द की बात उठाई है। मेहनत भी हंसते-खेलते। मेहनतकश भी 60 के पार वाले। असल में कुछ लोगों का एक समूह सुबह-सुबह पार्क में आता है। मेहनत करने। सिर्फ मेहनत। कुछ मांगने नहीं। कोई बाग नहीं। कोई खेत नहीं। मेहनत सबके लिए। सार्वजनिक पार्क है। पार्क में एक मंदिर है। मंदिर परिसर को साफ करने के लिए ‘कार सेवा’ यानी श्रमदान का अभियान चलाया गया। पार्क के लिए श्रमदान पूरा हुआ तो गलियों में सफाई का अभियान चल गया। इलाका है पंजाब सीमा से सटा चंडीगढ़ का प्रवेश द्वार रायपुर खुर्द। सोसायटी है ट्रिब्यून सोसायटी कांप्लेक्स। करीब आठ दिन पहले हरेश वशिष्ठ जी का फोन आया। श्रमदान के लिए आपकी सेवा भी अपेक्षित है। उसके बाद से मैं भी सुबह उठकर चला जाता हूं। जैसा कि मैंने पहले बताया पार्क में श्रमदान के लिए आने वाले ज्यादातर लोग 60 पार के हैं, लेकिन प्रत्येक का जज्बा एक नौजवान सरीखा है। चूंकि साफ-सफाई का काम है और सोसायटी के कुछ लोगों से पिछले सात सालों से आत्मीयता है तो मैं भी थोड़ा-बहुत काम कर लेता हूं। गणेश जी। जोगेंद्र लाल जी। राजीव जी। गर्ग साहब। केके सिंह साहब। चौधरी साहब। वालिया साहब। गुप्ता साहब। राजेंद्र मोहन शर्मा जी। अनेक लोग हैं जो रोज सुबह एक युवा की तरह वहां डट जाते हैं। नेक काम में जुटे ‘बुजुर्ग युवाओं’ को देखता हूं तो सहसा वह पंक्ति याद आती है जिसमें किसी ने लिखा था-
मंज़िल क्या है, रास्ता क्या है, हौसला हो तो फासला क्या है।
(यहां स्पष्ट कर दूं कि 60 पार शब्द को अन्यथा न लिया जाये। कुछ 60 से कम हैं और कुछ 70 के आसपास या इससे भी ऊपर, लेकिन जज्बा सबका समान)
वाकई कोई फासला नहीं। पूरे शिद्दत से 24 जून से जुटे लोगों ने पार्क को सुंदर बना दिया है। अब काम गलियों में शुरू हो चुका है। लोगों से अनुरोध भी किया जाता है कि यहां पर कचरा न फेंके। बेशक कुछ लोग नहीं मानते, लेकिन ज्यादातर मंदिर में पूजा-पाठ करने आते हैं और ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ की कामना करते हैं।

एक अकेला थक जाएगा तो मिलकर बोझ उठाना


एक से जुड़ा दूसरा
दिलीप कुमार साहब की फिल्म ‘नया दौर’ की मानिंद लोग एक-दूसरे का हाथ बंटाते हैं। कोई कस्सी चलाता है, कुछ देर मेहनत के बाद थकता है तो दूसरा उसे थाम लेता है। सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा खयाल, मन से आत्मीयता। बिना कहे कोई घास को एक जगह एकत्र करता है तो कोई अपील करता है कि कुत्तों को पॉटी कराने के लिए यहां न लाएं। इन ‘बुजुर्ग युवाओं’ में कोई फिट है तो किसी की हल्की तोंद निकली है, कोई दुबला-पतला है तो कोई हृष्ट-पुष्ट। इन सबकी मिली-जुली मेहनत देख एक शेर कहूंगा-

न मेरा एक होगा, न तेरा लाख होगा, तारीफ तेरी, न मेरा मजाक होगा। गुरूर न कर शाह-ए-शरीर का, मेरा भी खाक होगा, तेरा भी खाक होगा।


पूरी तल्लीनता
सावन से पहले श्रमदान का यह काम बेहतरीन कदम है। मुझे याद आया कि वसुंधरा-गाजियाबा में अपनी कॉलोनी में कैसे हम लोग हर छुट्टी के दिन घर-बार छोड़कर सोसायटी के काम में लगे रहते थे। ट्रिब्यून सोसायटी कांप्लेक्स, रायपुर खुर्द में, मैं बेशक किराएदार हूं, कुछ समय बाद यहां से चला भी जाऊंगा, लेकिन जिन लोगों से मन जुड़ा हूं, उनकी बातें तो प्रेरणा देती ही रहेंगी।