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Thursday, July 29, 2021

मुबारक हो मित्रता, दोस्ती और फ्रेंडशिप डे

केवल तिवारी

दिवस यानी डे मनाने का देश-दुनिया में जो चलन है, वह अनूठा तो है। इधर कुछ दशकों से अपने देश में भी जिस तरह से यह ‘culture’ फैला है, वह भी काबिल-ए-गौर है। मदर्स डे हो या फादर्स डे। वेलेंटाइन डे हो या फ्रेंडशिप डे। डॉक्टर्स डे हो या फिर कोई अन्य। मैंने कई दिवसों पर लिखा है, मुझसे लिखवाया भी गया है। विरोध में कभी नहीं रहा मैं। हालिया मसला है फ्रेंडशिप डे का। लोग कहते हैं कोई एक दिन थोड़ी हो सकता है मित्रता का। मित्रता तो शाश्वत है। मैं भी मानता हूं कि मित्रता तो एक ऐसी ‘रिश्तेदारी’ है जो टूटती नहीं। मित्रता के जिक्र पर मुझे याद आया मशहूर लेखक प्रताप नारायण मिश्र (Pratap Narain Mishra) का एक निबंध जिसका शीर्षक ही था ‘मित्रता’ शायद यह हमारे हिंदी के कोर्स में भी था। नौवीं और दसवीं के दौरान। बात आगे बढ़ाऊं, यहां पर यह उल्लेख करना जरूरी है कि हाल ही में नौवीं और दसवीं के ही पुराने साथियों ने एक व्हाट्सएप ग्रूप (Whatsapp group) बनाया है। मित्र विमल तिवारी की शायद पहल थी। फिर तो कई मित्र उसमें जुड़े। मित्र भजनलाल से भी मैं कई बार इस तरह के ग्रूप को बनाने के लिए कह चुका था, क्योंकि उनके संपर्क में कई मित्र हैं। इसी दौरान पत्रकारिता के दौरान मित्रों का भी एक group बना। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में हम पढ़े। इस ग्रूप का नाम पंछी एक डाल के रखा गया। मित्र मनोज भल्ला ने इसकी पहल की। इन ग्रूप्स में विचारों में भिन्नता है, लेकिन मन में नहीं। यानी मतभेद हैं, मनभेद नहीं। परिवार के ग्रूप को छोड़ दें तो (क्योंकि ऐसे ग्रूप तो होने ही हैं आत्मीय) मेरे पसंदीदा ग्रूप में ‘हिंदी हैं हम’ शामिल हैं। बड़े भाई समान हीरावल्लभ शर्मा जी ने मुझे इसमें जोड़ा। अनेक विद्वजन इसमें हैं। विचारों का आदान-प्रदान होता है। अच्छे और सकारात्मक संदेश पढ़ने को मिलते हैं। इसी तरह बेसहरा एवं गरीब बच्चों के लिए सार्थक प्रयास कर रहे उमेश पंत की पहल पर बना एक समूह करीब डेढ दशक से निर्बाध चल रहा है। कोरोना काल को छोड़ दें तो महीने-दो महीने में 20-22 लोग मिलते हैं और साल में ये सभी परिवार। इस समूह के लोग धन संग्रह ग्रूप से जुड़े हैं। कोरोना काल में भी अनेक ग्रूप बने जो सिर्फ सहायतार्थ बने। किसी को कोई जरूरत थी तो उसके लिए या किसी का नंबर लेने के लिए। लेकिन वर्चुअल (Virtual) दुनिया तो वर्चुअल ही होती है। अंतत: लोग Good morning Good night पर आ ही जाते हैं।

खैर... बात मैं मित्रता दिवस यानी Friendship Day पर कर रहा हूं। मेरी बात पीछे छूट गयी थी प्रताप नारायण मिश्र जी की रचना मित्रता पर। उसी में शायद एक कहानी का जिक्र था जिसमें एक राजकुमार कुछ दिनों से अपने पिता के साथ नहीं आ-जा रहा था। यानी पिता से कटा-कटा सा रहता था। राजकुमार की जब राजा ने खैर ख्वाह ली तो उन्होंने संदेश भेजा, ‘मुझे बुखार है।’ राजा ने गौर किया कि इस दौरान राजकुमार के तमाम मित्र उससे मिलने आते हैं प्रसन्नचित्त दिखते हैं। आते हुए भी जाते हुए भी। पता चला कि राजकुमार आमोद-प्रमोद में लीन होने लग गए थे। उनके कथित मित्र इस सबका आनंद ले रहे थे। एक दिन राजा स्वयं राजकुमार का हालचाल लेने पहुंच गये। राजकुमार के मित्र इधर-उधर से नौ दो ग्यारह हो गये। पिताजी के अचानक आगमन से राजकुमार अचंभित। क्या कहें? डर भी कि पता नहीं राजाजी क्या करेंगे। राजा ने धैयै से पूछा, ‘अब बुखार कैसा है?’ राजकुमार को कुछ नहीं सूझा, बोले-‘पिताजी बुखार ने मुझे अभी-अभी छोड़ा है।’ राजा ने राजकुमार के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘बहुत अच्छी बात है, कुसंगति रूपी बुखार जितना जल्दी छोड़ दे, अच्छा है। ये न छोड़े तो व्यक्ति को स्वयं ऐसी संगत को छोड़ देनी चाहिए।’ यह एक कहानी थी मित्रता के बारे में बताने की। यानी अच्छी संगत है तो ठीक, बुरी संगत है तो सब गड्डमड्ड। संगति को लेकर भी अलग-अलग विचार हैं। एक विचार है कि यदि व्यक्ति स्वयं ठीक है तो कुसंगति उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इसका तर्क देने वाले कबीर दास जी को कोट करते हुए कहते हैं-

संत ना छोड़े संतई, जो कोटिक मिले असंत। चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

या इस तरह से

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत। चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।

दूसरी ओर संगति के असर पर तर्क दिया जाता है-

काजल की कोठरी से कैसे ही सयानो जाये, एक लीक लागि है, लागि है पै लागि है।

खैर मेरा विचार है कि संगत, कुसंगत का असर किशोरावस्था तक ही सीमित है। प्रैक्टिल लाइफ में तो आपको कितने ही लोग मिलते हैं और आप सबको टैकल करते हुए चलते हैं। वैसे मित्रता की परिभाषा समझाने वाले कहते हैं कि जरूरी नहीं समान विचारधारा वाले ही मित्र बनें। समान हैसियत वाले ही मित्र बनें। कृष्ण-सुदामा की मित्रता की चर्चा हमारे यहां की जाती है। एक समय बाद जब मैच्योरिटी आ जाती है तो संगत-कुसंगत गौण हो जाती है। विचार भिन्नता तो हो सकती है, लेकिन खुद को ही श्रेष्ठ और सबकुछ मानने वाले व्यक्ति के साथ शायद ही किसी की मित्रता हो सकती हो। तभी तो शायद रहीमदास जी ने कहा-

कह रहीम कैसे निभे, बेर-केर को संग। वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।

 

कोरोना का दौर और मित्रता

रहीम दास जी का एक दोहा है-

कह रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीति, विपत्ति कसौटी जे कसे तेई सांचे मीत।

विपत्ति में काम आने वाला ही असली मित्र है। कोरोना काल में अनेक मित्र भी असहाय से हो गये थे। अस्पतालों में पद, पैसा और प्रतिष्ठा कोई चीज काम नहीं आ रही थी, लेकिन फिर भी लोगों ने कोशिशें कीं। सोशल साइट्स पर कई ग्रूप बने। जिससे जितना बन पड़ा, उतनी मदद की। किसी की मदद काम आ गयी, कोई उदास ही रह गया। वह दौर तो था ही ऐसा। अकल्पनीय।

 

कुछ तो बात है, वरना कैसे हो जाती है मित्रता?

बेशक मित्रता किसी का चुनाव या चयन करके नहीं की जाती, लेकिन कुछ तो ऐसा होता है जो दो लोगों को मित्र बना देता है। एक कहावत भी तो है कि आप एक मैदान में हजार लोगों को छोड़ दीजिए, कुछ ही देर में आपको 10-10 या 20-20 लोगों का समूह बना मिलेगा। यानी विचारों के मैच करने पर दोस्ती हो ही जाती है। कई बार आप ट्रेन में सफर कर रहे होते हैं तो आपके अनजान लोग मित्र बन जाते हैं। यह मित्रता लंबी चलती है। फिर भी आगाह किया जाता है कि-

गिरिये पर्वत शिखर ते, परिए धरनी मंझार। मूरख मित्र न कीजिए, बुड़ो काली धार।।

अच्छे मित्र की महत्ता को इस तरह से बताया गया है-

कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय। खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय।।

इसी तरह तुलसीदास जी कहते हैं-

आवत ही हरषै नहीं नैनं नहीं सनेह। तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।

मित्रता हो जाये तो जरा-जरा सी बात पर उसमें दरार नहीं आनी चाहिए। मुझे याद है बचपन में एक बार बड़े साहब ने मित्रता के बारे में कहा था जब दो सत्यवादी सती हो जायें वही मित्रता है। उन्होंने दोस्ती को दो सती नाम दिया। इसका अर्थ उन्होंने समझाया कि जब दो लोगों के बीच हुई बातें तीसरे तक न पहुंचे, यही मित्रता है। इस मित्रता को अपने इगो या गलतफहमी में तोड़ना नहीं चाहिए, क्योंकि-

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ परि जाय॥

साथ ही यह भी कहा गया कि अच्छा व्यक्ति यदि रूठ जाता है तो उसे मनाना चाहिए। कहा गया-

टूटे सुजन मनाइये जो टूटे सौ बार। रहिमन फिरि-फिरि पोहिये, टूटे मुक्ताहार।।

इसी तरह रीतिकालीन कवि बिहारी ने भी आगाह किया कि मित्रता को शाश्वत बनाये रखने के उपाय यही है कि इसमें धन-वैभव न आने दें। -

जौ चाहत, चटकन घटे, मैलौ होइ न मित्त। रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह-चीकन चित्त॥

कहीं-कहीं रिश्तेदारी को भी मित्रता कहा जाता है। असल में वह भी मित्रता ही तो है। मित्रता को लेकर संस्कृत के दो श्लोक इस तरह से हैं-

 

कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥ ...

जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥ .

 

इस तरह शुरू हुआ इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे

इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक फ्रेंडशिप डे की शुरुआत वर्ष 1930 से 1935 के बीच अमेरिका से हुई थी। कहानी के मुताबिक एक व्यापारी ने इस दिन की शुरुआत की थी। जोएस हाल नाम के इस व्यापारी ने सभी लोगों को बधाई देने का सिलसिला शुरू किया। कहा जाता है कि इस खास दिन को मनाने के लिए उस व्यापारी ने 2 अगस्त के दिन को चुना था। बाद में यूरोप और एशिया के बहुत से देशों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। दुनियाभर के अलग-अलग देशों में फ्रेंडशिप डे अलग-अलग दिन मनाया जाता है। 27 अप्रैल 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने 30 जुलाई को आधिकारिक तौर पर इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे घोषित किया था। हालांकि, भारत सहित कई दक्षिण एशियाई देशों में अगस्त के पहले रविवार को फ्रेंडशिप डे मनाया जाता है। ओहायो के ओर्बलिन में 8 अप्रैल को फ्रेंडशिप डे मनाया जाता है। इस बार फ्रेंडशिप डे पहली अगस्त को है। सभी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं। Happy friendship day.

 

Monday, July 26, 2021

18 बरस का कुक्कू

 


प्रिय बेटे कुक्कू। सदा खुश रहो। खूब तरक्की करो। आज तुम 18 वर्ष को हो गये हो। इस उम्र का मतलब समझते हो। अब वह बैंक अकाउंट सिर्फ तुम्हारे नाम होगा जिसको अब तक आपकी मम्मा ऑपरेट करती थीं। वोटर कार्ड तुम्हारे नाम से बनेगा। यानी अब तुम वोटर बन जाओगे। और भी कई बदलाव होंगे और सबसे बड़ी बात कि अब तुम कॉलेज लाइफ में प्रवेश करोगे जहां तुम्हारा वास्ता बहुत अलग तरह की दुनिया से पड़ेगा। उस दुनिया से तालमेल बिठाते हुए जहां तुम्हारी नजर भविष्य पर अपने लक्ष्य पर होगी, वहीं कॉलेज लाइफ को एंजॉय भी करना होगा।

यह बर्थडे वास्तव में खास है, लेकिन इस खास में कोरोना महामारी का फीकापन सवार हो गया। नहीं तो इस वक्त शायद तुम नये संस्थान में एडमिशन लेने की जद्दोजहद में होते या शायद एडमिशन हो चुका होता। खैर कोई बात नहीं। सब समय का फेर है। इसी तरह आज के दिन मेरे और तुम्हारी मम्मा के भी बहुत कुछ करने के अरमान थे। जैसे सुबह पूजा-पाठ, फिर कहीं घूमने का कार्यक्रम। शाम को बर्थडे सेलिब्रेशन आदि। पूजा-पाठ नातक (प्रमोद का बेटा हुआ है, शुभ सूचना है। नातक में सूखी पूजा होगी) के कारण विस्तार से नहीं होगी। कुछ पकवान तो बनेंगे ही। बाकी कुछ न भी हो पाये तो भावना तो बहुत कुछ करने की है ही। कार्तिक तुमसे बेटा कुछ भी नहीं छिपा है। आर्थिक स्थिति से लेकर, सामाजिक व पारिवारिक। बस बेटा, इतना ध्यान रखना बड़ों का सम्मान करना। छोटों को प्यार देना। दोस्ती परखकर करना। बात सबसे करना, लेकिन जहां तुम्हें कुछ अटपटा लगे, खुद ही किनारे हो जाना। वैसे मैंने देखा है कि संगति के मामले में तुम्हारा चयन ठीक रहता है। अब एक बड़ा काम तुमको वैक्सीन लगाने का है। देखते हैं कब लग पाती है। जेईई एडवांस का पेपर देने के बाद जरूर तीन-चार दिन घूमने चलेंगे ताकि रिलैक्स होकर नयी शुरुआत कर सको। अपनी एक कविता के साथ तुम्हें फिर से ढेर सारी बधाइयां, शुभकामनाएं।

तुम बालिग हो गये हो तो क्या

हो तो जिगर के टुकड़े।

जिगर बड़ा नहीं होता

पर उसके बगैर

काम भी तो नहीं चलता।

जीवन की गति की मानिंद

अब तुम पकड़ोगे रफ्तार

रफ्तार पर नियंत्रण भी होगा रखना

हां, यही तो मेरा है कहना

अपना ध्यान तुम अब ज्यादा रखना।

बहुत कुछ तो सीखता हूं तुमसे

इस सिखाने को जारी रखना

नयी खोजों पर तुम्हारे ज्ञान का हूं कायल

हां जीवन की सीख तुम मुझसे लेते रहना।

केवल की भावना को तुम समझते रहना

धवल के पथ पर भी अनुभव बिखेरना।

ताऊ-ताई, बुआ-फूफा सबको प्रणाम करना

दद्दा, दीदी को भी बातें बताते रहना।

बहुत हुए उपदेश चलो अब आगे चलें

आओ बालिग कुक्कू का बर्थडे एंजॉय करें।

तुम्हारा पापा

केवल तिवारी

Thursday, July 22, 2021

अतीत से घबराना और अतीत को ही सहेजना

 केवल तिवारी

कुछ बुजुर्गों और कुछ ‘झिलाऊ’ लोगों की तरह कुछ-कुछ अपनी भी आदत है अतीत के कुछ किस्सों को सुनाने की। गनीमत है कि बीबी और बच्चे धैर्य से सुनते हैं और कभी-कभी लगता है इंट्रेस्ट भी ले रहे हैं। हां अनेक बार ऐसा भी हुआ है कि मैं किस्सा शुरू करता हूं और बच्चे उसे पूरा करते हुए कहते हैं, ‘आप इस बात को कई बार बता चुके हैं।’ फिर लगता है किस्सागोई में क्या मैं गरीब हो चुका हूं। फिर अपनी आत्मा से ही बात करते हुए कहता हूं कितनी बातें तो मैं एडिट करके बताता हूं। किस्से भी क्या होंगे मेरे जीवन के। आज इन बातों को लिखने का असल में एक खास कारण बना। अपने बचपन की बातों को याद करते हुए पत्नी भावना बोली, भगवान अगर मुझसे पूछे क्या चाहती हो मांगो तो मैं बोलूं, एक बार बचपन के उन दिनों में ले चलो। बड़े बेटे कार्तिक ने जवाब दिया, ‘फ्यूचर में जाना तो हो सकता है कभी संभव हो जाये, लेकिन भूतकाल में जान संभव नहीं।’ छोटा बेटा धवल बोला, ‘क्या मम्मा आपको अच्छा लगेगा नानी जी बीमार थीं, नाना जी भी बीमार थे।’ भावना बोली बेटा में बचपन की बातें कर रही हूं, जब हम भाई बहन लड़ते थे। पापा यानी आपके नाना जी हर हफ्ते दही-जलेबी लाते थे। हर इतवार को त्योहार जैसा होता था क्योंकि नानाजी शनिवार को आते थे और सोमवार को निकल जाते थे। असल में वह उन दिनों की बात कर रही थी जब वह आठवीं या नौवी में पढ़ती होगी। उनके पिता मनोहर दत्त जोशी नैनीताल में पोस्टेड थे। वे health department में जॉब करते थे। भावना की बात खत्म हुई तो फिर वैसा ही सवाल मुझसे भी हुआ। क्या कहता? मैंने कहा नहीं बच्चो मैं तो भविष्य की ओर देखने वाला व्यक्ति हूं। मैं अपने अतीत में जाना नहीं चाहता। फिर ज्यादा मैं कुछ नहीं बोला। धवल और कार्तिक एक साथ बोले, पुराने दिनों की अलग-अलग यादें होती हैं। जैसे हम कहेंगे कि हम लोग कैसे साथ खाना खाते थे। कभी-कभी प्रेस क्लब जाते थे। पापा पहले नाइट ड्यूटी करते थे तो हम लोगों से मुलाकात भी रोज कहां होती थी। पापा जब उठते थे हम स्कूल जा चुके होते थे। पापा जब रात को आते थे, हम सो चुके होते थे। बच्चों की यह बात तो यहीं खत्म हो गयी, लेकिन मैं न जाने क्यों अतीत की ओर झांकने लगा। दिमाग पर जोर देकर कि देखता हूं कहां तक पहुंचता हूं। पिताजी की छवि तो मेरे दिमाग में बिल्कुल भी नहीं है। हां पहाड़ में अपने घर की खिड़की पर बैठकर एक व्यक्ति सब्जी काटता हुआ मेरे जेहन में बचपन से है। शायद वो पिताजी ही होंगे। वैसे मैंने नाना-नानी भी नहीं देखे। जब पिताजी को नहीं देखा तो दादा-दादी की बात क्या करूं। असल में इसमें संपूर्ण दुर्भाग्य मेरा ही तो है। पहली बात तो मैं धरती पर आया, यही आश्चर्यजनक है, फिर जिंदा रहा यह भी आश्चयर्जजनक। ईजा बतातीं थी कि पिताजी जब अंत समय के दौर में थे तो कहते थे, भुवन ‌(बड़े भाई साहब) को इंटर ज़रूर करा देना, बेटियां अपनी किस्मत से खाएंगी और इसको (मेरे लिए) बचना नहीं है। खैर मैं बच गया और देखते-देखते जीवन के 50 बरस पूरे करने जा रहा हूं। खैर... अतीत में झांकने की कोशिश में मैं चला गया हूं कक्षा चार में। नयी किताबें ला नहीं सकते। माता जी करीब 10 किलोमीटर पहाड़ी सफर तय कर कहीं किताबें लेने गयीं, ‘सेकेंड हैंड।’ पहले दिन जवाब मिला, हम किताब बेचते नहीं.... दूसरे दिन फिर वही सफर। इस बार वो पिघल गये जिन्होंने एक दिन पहले किताबें देने को मना किया था और इस तरह मेरी ‘नयी’ किताबें आ गयीं। यह किस्सा में बच्चों को हर साल तब सुनाता हूं जब उनके लिए नयी कॉपी-किताबें आती हैं। मुझे याद है मैं और शीला दीदी कहीं शादी-व्याह में जाते थे तो जब कोई हमसे पूछता तुम किसके बच्चे हो तो हमारा जवाब होता हम ‘भुवन के भाई-बहन हैं।’ यानी बड़े भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी के छोटे भाई-बहन हैं। यही तो पहचान थी हमारी। यही अब भी है। फिर एक धुंधली सी याद आती है प्रेमा दीदी की शादी की। मुझे आधी रात को बिस्तर से उठाया गया ताकि मैं खील देने की परंपरा का निर्वहन कर सकूं। फिर कई बातें। अभी शायद मेमोरी ठीक है, फिर तो कई किस्से याद हैं जो मैं बच्चों को बताता रहता हूं। मसलन, कक्षा 6 बाल विकास मांटेसरी स्कूल में मेरा एडमिशन और काउ (गाय) पर निबंध की बात। मैं तो काव मतलब काल समझता था। पुष्पा दीदी का मुझे कमांड हास्पिटल दिखवाने ले जाना। जीजा जी यानी स्व. ख्यालीराम जोशी का मुझे भगत कहना, आठवीं में बड़े भाई साहब द्वारा मेरा एडमिशन लखनऊ मांटेसरी में करवाना और मुझे खुद लिस्ट देखने के लिए भेजना और पीछे-पीछे चुपचाप उनका आना, लखनऊ मांटेसरी तक कई बार पैदल जाना, अनेक बार डॉ. अग्निहोत्री द्वारा लिफ्ट दिया जाना, पूरे तेलीबाग में कुछ ही घरों में टेलीविजन होना, बाद में हमारे घर में भी टीवी आना, छत पर जाकर एंटीना को ठीक करने में ही विशेष मजा आना, वो किस्से भी जब भाई साहब मुझे आकाशवाणी लेकर जाते थे। इसके बाद वह किस्सा भी जब मैं आठवीं में पढ़ता था जब भाभीजी को लेने गांव गया। फिर बाद में एक बार किस तरह हमने ट्रेन पकड़ी, फिर टिकट लेने लालकुआं स्टेशन पर उतरा। तब तक ट्रेन चलने लगी। भाभीजी और छोटा सा भतीजा दीपू उसमें बैठे थे। भाग-भागकर ट्रेन पकड़ी। अगले स्टेशन पर उस डिब्बे को ढूंढ़ने लगा जिसमें भाभीजी और भतीजा बैठे थे। बड़ी मुश्किल से वहां तक पहुंचा। ऐसे ही एक किस्सा जब मैं शाहजहांपुर से गांव गया तो रानीखेत से आगे बसें शाम सात बजे बाद नहीं चलती थीं, तब मैंने ठिठुरते-ठिठुरते रानीखेत में पूरी रात बिताई। ऐसे ही अनेक किस्से। शाहजहांपुर में विमला दीदी के यहां निवास के, बाद में भानजे पंकज का केंद्रीय विद्यालय मे एडमिशन की जद्दोजहद। उसके बाद यानी करिअर पथ के अनेक किस्से। फिर अपने बारे में सोचता हूं या जब कोई आत्मीय हो जाता है और मेरे बारे में पूछता है तो कहता हूं-

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।

 

गालिब साहब के इस शेर की अगली पंक्तियां हैं-

हुआ जब ग़म से यूं बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का,

न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता।

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।


क्या-क्या याद किया जाये। अतीत में जाना नहीं चाहता, यह मैं कहता जरूर हूं, लेकिन अतीत को सहेजते भी रहता हूं। वर्ष 1996 में जब दिल्ली आया तो डायरी लेखन को नियमित कर दिया। पहले भी लिखता था, लेकिन तब कुछ किंतु-परंतु उठ गये तो बंद सा किया। अब तो करीब 15 डायरियां भरी हुई रखी हैं। बाकी जारी हैं। दिल्ली आने के कुछ समय बाद मुझे लगा यह डायरी लेखन नहीं, यह तो ईश्वर से मेरा सीधा संवाद है। इसलिए जब परेशान होता हूं या खुश होता हूं तो डायरी तक खुद-ब-खुद कदम बढ़ जाते हैं। डायरी लेखन को कोई नियत समय नहीं। कभी भी, कहीं भी।

अब तक के जीवन पर नजर डालते हुए एक बात पर सचमुच आश्चर्य होता है कि मुझे मित्र बहुत अच्छे मिले हैं। कुछ बड़े भाई की तरह, कुछ छोटे भाई की तरह और कुछ जुड़वां भाई की तरह। मेरा अतीत शायद जानते हों या शायद न जानते हों, लेकिन मेरा वर्तमान तो उनके सामने ही रहा, हमेशा ही। यह अलग बात है कि कुछ ऐसे लोग भी मिले जिनसे मेरा सीधे कोई नाता नहीं, लेकिन एक अजब सी चिढ़ या कंपटीशन की भावना उन्होंने मेरे साथ रखी। कुछ को गलतफहमियां भी हुईं। उनमें से कुछ मित्रों की गलतफहमियां दूर करने का मेरा मन है, लेकिन कुछ का नहीं। उन्हें उसी अंदाज में चलते रहने देना चाहता हूं।

जरा सी बात पर मैं कहां से कहां चल दिया। वैसे मेरा मानना है कि छोटी-छोटी बातों को याद रखना चाहिए, लेकिन उन्हीं बातों को जो खुशी देती हों। जैसे परिवार संग कहीं घूमने गये तो कई बार उसकी चर्चा की। मित्रों संग घूमने गए तो कई यादें सहेज लीं, तभी तो गीत बना छोटी-छोटी बातों की है यादें बड़ी... भूलें नहीं बीती हुई एक छोटी घड़ी... लगता है कुछ ज्यादा लिख दिया है। स्वांत: सुखाय के लिए इससे ज्यादा लिखना ठीक नहीं। अपने आप को बहलाने के लिए कुछ और शेर और कॉपी पेस्ट कर देता हूं जिन्हें इंटरनेट से उठाया है जो मशहूर भी हैं-

ज़माना तो बड़े शौक से सुन रहा था, हम ही रो पड़े दास्तां कहते कहते..

 

मेरे जीवन का बस इतना फसाना है, कागज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है..

 

कर लो एक बार याद मुझको, हिचकियां आए भी ज़माना हो गया...

तमाम बातों को याद करते हुए अंत में उसी गीत को याद करूंगा जिसके बोल हैं-ये जीवन है, इस जीवन का यही है यही है यही है रंग रूप, थोड़े गम हैं, थोड़ी खुशियां हैं...

Tuesday, July 20, 2021

खुशी, गम, उत्साह, बेचैनी और जन्मदिन पर शानदार बधाइयां

केवल तिवारी

कभी खुशी, कभी गम या दुख, कभी बेचैनी और कभी उत्साह। दिनचर्या में ऐसे ही मनोभावों से तो गुजरते हैं हम लोग। कभी खुश हम अपने कारणों से होते हैं तो कभी दूसरों के कारण भी। इसी तरह दुख का कारण भी कभी हम खुद होते हैं तो कभी कोई और होता है। वैसे तो कारणों की पड़ताल करें तो कई बातें सामने आएंगी, लेकिन वर्तमान पल को जी लेने की जो शिक्षा हमारे बड़े-बुजुर्ग देते हैं, वह है बहुत शानदार। आप कोशिश करें खुशी के पलों को भरपूर जीने की। फिर कभी उदासी में उन्हें याद करें। इसी तरह कभी आप दुख वाले पलों को याद करें फिर कारण जानें संभव हो तो उनका निदान करने की कोशिश करें। मामला 18 जुलाई का है। यानी 18 जुलाई, 2021, मेरा जन्मदिन। बधाई संदेशों का तांता लग गया। मजे की बात यह है कि मैं खुद कई बार लोगों को जन्मदिन पर बधाई नहीं दे पाता। एक तो मैं फेसबुक नहीं देख रहा, दूसरे याददाश्त की कमी है। जन्मदिन पर मैसेज तो पहली रात से ही आने लगे थे, लेकिन 18 जुलाई की सुबह से ही बधाई के लिए फोन भी आने लगे। हमारे पूर्व समाचार संपादक हरेश वशिष्ठ जी का फोन सबसे पहले आया। फिर ट्रिब्यून से ही रिटायर वरिष्ठ पत्रकार कमलेश भारतीय जी का। इसके बाद बैंकिंग क्षेत्र के शीर्ष पदाधिकारी एवं यूनियन में सक्रिय अश्विनी राणा जी का। ऑफिस आया तो संपादक जी ने आशीर्वाद दिया। फिर वरिष्ठ पत्रकार रास बिहारी जी का फोन आया। ऐसे ही अनेक मित्रों, अनुजों के फोन आये। कमलेश भारतीय जी ने उम्र पूछी तो मैंने कहा कि 50 के करीब पहुंच गया हूं। उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा, यानी 10 साल और दैनिक ट्रिब्यून की सेवा करनी है। उनकी ये blessing अच्छी लगी। उस दिन मैंने सुबह और शाम दोनों टाइम डायरी लिखी। ब्लॉग भी लिखने का मन था, लेकिन समय नहीं मिल पाया। शाम को डॉ चंद्र त्रिखा जी का मैसेज भी आया, उन्होंने आशीर्वाद दिया। उनके चैनल से भी कई जानकारियां मिलती हैं। birthday के बाद आज (मंगलवार 20 जुलाई, 2021) भी सुबह से ठानी थी कि ब्लॉग लिखूंगा। फिर मंगलवार का व्रत। सुबह पूजा-पाठ का लंबा कार्यक्रम चला। दोपहर को जब ऑफिस के लिए निकला तो मन उदास हो गया। मेरी गाड़ी के windscreen पर किसी ने पत्थर मारा था। पहला शक तो बच्चों पर ही जा रहा है जो कॉलोनी के बाहर की तरह बने घर की छत पर खेलते रहते हैं। करीब महीने भर पहले ही मैंने शीशा बदलवाया था। मारुति के सर्विस सेंटर से। बाकी तो बीमा क्लेम हो गया, लेकिन करीब डेढ़ हजार फिर भी लगे। दिनभर काम में व्यस्त रहा। ऑफिस आकर भी मूड खराब सा ही रहा। फिर सोचा, अब उदासी से क्या होगा। कुछ solution ढूंढ़ना होगा। शीशा तो  बदलना ही होगा, लेकिन उससे बड़ा झंझट सारे स्टीकर फिर से बनवाने का है। शाम होते-होते जब काम तो थोड़ा फारिग हुआ तो ब्लॉग लिखने बैठ गया। दिनभर इस मसले ने उदास ही करके रखा। असल में एक तो हम जैसे lower middle class वालों के लिए कार लेना भी घर लेने जैसा ही है, तिस पर इस तरह के खर्च और झंझट अंदर तक तोड़ देते हैं। दो दिन बाद ही कार से अंबाला जाना है। खैर चलिए क्या कर सकते हैं। इस बार का जन्मदिन बधाइयों के मामले में खास रहा। आज के समय में जहां अनेक लोग तोलमोल के बधाई देते हैं या नफा-नुकसान का अंदाजा लगाकर मैसेज या फोन करते हैं, उस दौर में बेहद आत्मीयता से मुझे बधाइयां मिलीं, मैं गदगद हुआ। अब इस नये संकट से भी उबर ही जाऊंगा। शाम को जब हमारे यहां से ही रिटायर हुए और Tribune Society Complex में मेरे पड़ोसी गणेश जी से बात हुई तो मन थोड़ा हल्का हुआ। जीवन के विविध आयाम हैं, चलते रहिए।

Friday, July 16, 2021

छोटी-छोटी बातों की यादें बड़ी

 ऑफिस के लिए तैयार हो चुका था। बेटे कार्तिक के पास फोन आया। वह बोला मैं बाहर आ रहा हूं। मेरी छठी इंद्रिय सक्रिय हो गयी। क्या मंगाया है? पूछा तो भावना बोली पता नहीं। छोटा बेटा धवल, जो ऑनलाइन क्लास ले रहा था, बोला मास्क मंगाये हैं। आपके ऑफिस जाने के लिए। पहले जो मंगाये थे, वे कम पड़ गये हैं। भावना, धवल बात कर भी रहे थे और मंद-मंद मुस्कुरा भी रहे थे। मैं ऑफिस के लिए तैयार तो हो गया था, बस जूते पहनने बाकी थे। जूते जिन्हें कई दिनों से धोने की योजना बन रही है। भावना कई बार कह चुकी है कि गंदे हो गये हैं, लेकिन धो देंगे तो सूखेंगे नहीं। कार चलाने में मुझे पता नहीं क्यों ये लाइटवेट जूते ही कंफर्ट लगते हैं। एक जोड़ी और भी जूते हैं जो हैवी हैं, उन्हें गाड़ी चलाते वक्त पहनता हूं तो अटपटा लगता है। खैर...। भावना बोली पांच मिनट रुक जाओ। तभी कार्तिक यानी कुक्कू एक पैकेट लेकर आ गया। बेहद उत्साहित। ये क्या हैं? फिर मैंने सवाल किया। फिर खुद ही जवाब भी दिया, लग रहा है जूते हैं। ओह... समझा। मेरे लिए गिफ्ट। दो दिन बाद मेरा जन्मदिन जो आ रहा था। यानी 18 जुलाई। इस 18 जुलाई को 49 सालों का हो जाऊंगा। यानी अर्धशतक से एक साल पीछे। अरे क्यों मंगाये। मैंने कपड़े दिए तो हैं सिलाने के लिए, मेरा सवाल था, पूरे परिवार से। ये कपड़े सिलवाने की जिद भी भावना की ही थी। कपड़े गिफ्टेड थे, बस उन्हें सिलवाना था। गिफ्ट का पैकेट आया और मैंने जूते कहा तो पैकेट को खोलने की तैयारी हो गयी। उसी वक्त धवल दौड़कर आया और पैकेट लाकर छिपाने लग गया, बोला नहीं आपके बर्थडे के दिन खोलेंगे। तभी देखना इसमें क्या है। कुक्कू बोला, पापा को पता लग गया है। भावना ने भी कहा, अब खोलकर पहन ही लो। धवल नाराज हो गया। मैं कहने लगा अरे बच्चे की जिद मान लेते। खैर... जूते खोले गये। बहुत शानदार। रंग भी बहुत शानदार। हल्के। मैंने पहन लिए। धवल की थोड़ी नाराजगी से परेशान हुआ, लेकिन उसकी नाराजगी का भी एक अलग मजा था। कुछ समय पहले वह मेरे से लिपटालिपटी कर रहा था। परिवार की यही खुशी तो अनमोल खजाना है। मैं कार चलाते वक्त भावुक हो गया। भावुकता में शायद थोड़ा सुबक भी गया। मुझे पहले वह गीत आया जिसके बोल हैं छोटी-छोटी बातों की है यादें बड़ी, भूलें नहीं बीती हुई एक छोटी घड़ी। सोचता रहा। सचमुच ये बातें कितनी अनूठी होती हैं। गिफ्ट छोटा या बड़ा नहीं होता। मैं कितना खुश हो जाता था जब धवल और कुक्कू मुझे कागज पर हैप्पी बर्थडे पापा लिखकर देते थे। ऐसे ही जब मैं लखनऊ में ट्यूशन पढ़ाता था तो कई बच्चे मुझे न्यू ईयर कार्ड बनाकर देते थे। गिफ्ट परंपरा को मैं बहुत अच्छा नहीं मानता। लेकिन परिवार के बीच खुशियों के इस तरह के पल मुझे भावुक कर जाते हैं। मैं आज सुबह से तमाम बातें याद कर रहा था। हरेला के दौरान मुझे बचपन, फिर जवानी और अब बची-खुची जावानी याद आ रही थी। इसी दौरान मुझे याद आया एक शेर जिसके बोल हैं-

इस प्यारी सी दुनिया में एक छोटा सा मेरा परिवार है,
खुशियां मुझे इतनी मिलती है जैसे रोज कोई त्योहार है।

सचमुच त्योहार ही तो था यह। आज तो वैसे भी हरेला पर्व था। सुबह उसकी खुशी भी की सेलिब्रेट। हरेला काटा। एक दूसरे के सिर पर रखा। आशीर्वाद दिया। मंदिर गये। बच्चों के लिए कुछ पकवान बने। हम सबने खाये। फिर भावना को डॉक्टर के यहां ले गया क्योंकि उसके मुंह में कुछ छाले हो रहे थे। वहां डॉक्टर ने मेरा शुगर चेक कराया। डॉ कमल बहुत केयरिंग हैं। वह अक्सर मेरा हालचाल लेते हैं। शुगर आज 187 आया। अमूमन मेरा शुगर 220 या 230 आता है। मैंने लाइफ स्टाइल में बहुत बदलाव किया है। इस बदलाव में और शुगर लेवल कम करने में परिवार का पूरा हाथ है। असल में मीठे की यह बीमारी खत्म भी होती है मीठे से ही यानी घर में वातावरण अच्छा है, तनाव नहीं है तो बीमारी खत्म। बीमारी बढ़ने का कारण भी परिवार ही हो सकता है, लेकिन इतना विस्तार में क्या जाना। इस वक्त तो चार पंक्तियां और याद आ रही हैं जिसमें कवि ने कहा है-

मुसीबत में खड़ा जो साथ बन दीवार होता है, हमारा हौसला हिम्मत वही परिवार होता है,
बड़े मजबूत दुनिया में लहू के रिश्ते होते हैं, कहां सबके नसीबों में लिखा ये प्यार होता है।

थैंक्स धवल, थैंक्स कुक्कू और थैंक्स भावना।

Monday, July 12, 2021

‘ट्रेजडी किंग’ ने महसूस किया हर रंग



स्मृति शेष : दिलीप कुमार

साभार : दैनिक ट्रिब्यून

केवल तिवारी

रील लाइफ में ज्यादातर त्रासद-दुखद अभिनय के कारण ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर हुए दिलीप कुमार निजी जीवन में हर रंग से रू-ब-रू हुए। वह भरपूर जीवन जी गये। बीच के थोड़े से समय को छोड़ दें तो उनका जीवन बेहतरीन रहा। उन्हें मोहब्बत हुई, उन्होंने शोहरत की बुलंदियों को छुआ, मुफलिसी का दौर भी झेला, राजनीति के मंच पर चमके, परिवार की जिम्मेदारियों को भी निभाया। 25 साल की उम्र में बतौर अभिनेता अपनी पहचान बना चुके दिलीप साहब ने 54 साल के फिल्मी कॅरिअर में लगभग इतनी ही फिल्में कीं, जबकि उनके अभिनय से बहुत कुछ सीखने वाले कई दिग्गज अभिनेताओं ने अपने करिअर में फिल्मों का शतक लगाया और उससे आगे भी गये। अकसर यह सवाल उठता है कि दिलीप साहब जैसे महान अभिनेता ने कम फिल्में ही क्यों कीं, इस पर स्वयं एक बार उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था कि वह संख्या बढ़ाने पर विश्वास नहीं रखते। फिल्में ऐसी हों जो समाज को कोई संदेश दे। यहां उल्लेखनीय है कि दिलीप साहब ने स्वयं कई फिल्मों में अभिनय करने से इनकार कर दिया। वर्ष 1998 में बनी फिल्म किला के बाद उन्होंने किसी फिल्म में काम नहीं किया। उन्होंने 1961 में ‘गंगा-जमुना’ फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमें उनके साथ उनके छोटे भाई नासिर खान ने काम किया। उनकी चर्चित फिल्में हैं-

सुपर-डुपर हिट :
जुगनू, मेला, अंदाज, आन, दीदार, आजाद, मुगल-ए-आजम, कोहिनूर, गंगा-जमुना, राम और श्याम, गोपी, क्रांति, विधाता, कर्मा और सौदागर।
 
सुपर हिट :
शहीद, नदिया के पार, आरजू, जोगन, अनोखा प्यार, शबनम, तराना, बाबुल, दाग, उड़न खटोला, इंसानियत, देवदास, मधुमती, यहूदी, पैगाम, लीडर, आदमी, संघर्ष।

हास्य अभिनय :
शबनम, आजाद, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम, गोपी।

दबंग भूमिका :
आन, आजाद, कोहिनूर, क्रांति।

नेगेटिव रोल :
फुटपाथ, अमर।

अधूरी रहीं फिल्में :
काला आदमी, जानवर, खरा-खोटा, चाणक्य-चंद्रगुप्त, आखिरी मुगल।

अभिनय से किया इनकार :
बैजू बावरा, प्यासा, कागज के फूल, संगम, दिल दौलत और दुनिया, नया दिन नयी रात, जबरदस्त, लॉरेंस ऑफ अरेबिया, द बैंक मैनेजर।

बनने गये थे लेखक, बन गये एक्टर

इसे समय का फेर कहिये या किस्मत का करिश्मा कि मुफलिसी के दौर में दिलीप कुमार बनने तो गये थे लेखक, लेकिन बन गये एक्टर। किस्सा कुछ इस तरह से है। पिता के व्यवसाय में घाटा हो जाने के कारण उनको कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने पुणे के फौजी कैंटीन में मामूली नौकरी कर ली और फलों का व्यवसाय भी जारी रखा। मुंबई में यूसुफ अपने पिता के व्यवसाय को फिर से बढ़ाने की सोच ही रहे थे कि अब्बा ने उन्हें राय-मशविरे के लिए पारिवारिक मित्र डॉ. मसानी के पास भेजा। डॉ. मसानी को पता था कि यूसुफ की उर्दू अच्छी है और साहित्य में भी उनकी रुचि है, इसलिए उन्होंने उन्हें देविका रानी से मिलने की सलाह दी जो उन दिनों बॉम्बे टॉकीज का संचालन कर रही थीं। बॉम्बे टॉकीज उन दिनों प्रसिद्ध फिल्म निर्माण संस्था थी। यूसुफ ने देविका रानी से भेंट की और लेखक के रूप में काम मांगा। यूसुफ को देखकर उन्होंने उन्हें एक हजार रुपए प्रतिमाह पर अभिनेता के रूप में नियुक्ति दे दी। देविका रानी ने ही उन्हें अपना फिल्मी नाम दिलीप कुमार रखने की सलाह दी थी।

शुरू में घरवालों से छिपायी एक्टिंग

यूसुफ खान से दिलीप कुमार बने इस नये अभिनेता ने बॉम्बे टॉकीज में काम शुरू करने की बात अपने अब्बा को नहीं बतायी। अब्बा की फिल्मी लोगों के बारे में अच्छी राय नहीं थी। इसीलिये दिलीप कुमार ने घरवालों से झूठ बोला। उन्होंने अपने घर पर बताया कि वे ग्लैक्सो कंपनी में काम करने लगे हैं। अब्बा खुश हुए और फरमान सुनाया कि रोज ग्लैक्सो कंपनी के बिस्किट घर में लाना। क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध की वजह से खाद्यान्न का बड़ी किल्लत थी और परिवार भी बड़ा था। इससे दिलीप कुमार एक नयी मुसीबत में फंस गए। ऐसे में कॉलेज का एक मित्र काम आया, जो शहर में जहां भी ग्लैक्सो बिस्किट मिलते दिलीप तक पहुंचा देता। एक दिन राजकपूर के दादा दीवान बशेशरनाथ ने इसका भंडाफोड़ कर दिया। कुछ समय नाराज रहने के बाद अब्बा ने यूसुफ को माफ कर दिया। दिलीप कुमार की फिल्म ‘शहीद’ उन्होंने परिवार के साथ देखी और फिल्म उन्हें पसंद आई। फिल्म का अंत देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए थे और उन्होंने यूसुफ से कहा था कि आगे से अंत में मौत देने वाली फिल्में मत करना। यह भी अजीब इत्तेफाक है कि ‘ट्रेजडी किंग’ कहे जाने वाले दिलीप कुमार ने फिल्मों में जितने मृत्यु दृश्य किए हैं, उतने शायद किसी अन्य भारतीय अभिनेता ने नहीं दिए। फिल्म फेयर अवार्ड में रिकॉर्ड बनाने वाले दिलीप कुमार को वर्ष 1995 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1991 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण की उपाधि से नवाजा। 1998 मे उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ भी प्रदान किया गया।

मोहब्बत भी हुई

दिलीप कुमार अपने जमाने के नंबर वन हीरो थे। व्यक्तित्व आकर्षक था। स्वभाव रोमांटिक। मीना कुमारी और नरगिस से दिलीप कुमार के दोस्ताना ताल्लुकात थे। वैजयंतीमाला और वहीदा रहमान के साथ भी फिल्मों में उनकी भागीदारी अच्छी निभी, लेकिन उनके करीबी जानकारों के हवाले से कहा जाता है कि दो अभिनेत्रियों से दिलीप कुमार ने सचमुच प्यार किया। वे थीं कामिनी कौशल और मधुबाला। 1948 और 50 के बीच दिलीप-कामिनी ने चार फिल्मों में साथ काम किया था। कामिनी कौशल ब्याहता थीं। उनका वास्तविक नाम उमा कश्यप था। बड़ी बहन की असामयिक मृत्यु के कारण दीदी की छोटी बच्चियों की खातिर जीजा से विवाह करके मुंबई आ गई थीं। पति बन चुके जीजा ने कामिनी को फिल्मों में काम करने की आजादी दे रखी थी। सामाजिक ताना-बाना उस वक्त का ऐसा था कि दिलीप साहब और उमा ने अपने प्रेम को दबाया और जरा सी भनक लगने का अहसास हुआ तो कई सालों तक एक दूसरे के सामने भी नहीं पड़े। मधुबाला-दिलीप कुमार ने एक साथ सिर्फ चार फिल्में की। इनमें ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) उनकी अंतिम फिल्म है, जिसे लोग इन दोनों की प्रेम कहानी के रूप में ही देखना पसंद करते हैं। दिलीप कुमार के जीवन में प्रेम संबंधों के कई नाटकीय मोड़ आये।

11 दिसंबर, 1922 को पेशावर (अब पाकिस्तान में) में जन्मे दिलीप साहब (यूसुफ खान) ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 मे विवाह किया। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष के और सायरा बानो उनसे आधी उम्र की थीं। 1980 में उन्होंने असमा रहमान नाम की एक युवती से दूसरी शादी भी की, हालांकि यह ज्यादा नहीं चली।

46 साल बाद अमिताभ को मिला ऑटोग्राफ

यह बात शायद सबको अटपटी लगे कि उस दौर के बड़े अभिनेता का ऑटोग्राफ अमिताभ नहीं ले पाये थे। दिलीप कुमार का ऑटोग्राफ लेने के लिए अमिताभ को 46 बरस तक लंबा इंतजार करना पड़ा था। यह बात अमिताभ ने खुद अपने ब्लॉग पर लिखी है। बिग बी ने दिलीप साहब को पहली बार 1960 में देखा था। तब वह अपने पिता के साथ मुंबई गए थे। अमिताभ ने लिखा है कि उस समय साउथ बांबे के एक प्रसिद्ध रेस्तरां में वह अपने परिवार के साथ खानपान में जुटे थे कि उस समय के सुपर स्टार दिलीप साहब अंदर आए और अपने कुछ मित्रों से बात करने लगे। अमिताभ, दिलीप कुमार का ऑटोग्राफ लेने के लिए इतने उतावले थे कि रेस्तरां से निकले और भागकर पास की एक स्टेशनरी की दुकान से ऑटोग्राफ बुक खरीद लाये। हांफते हुए वह रेस्तरां के अंदर घुसे और डरते हुए दिलीप साहब के पास पहुंचे। ऑटोग्राफ लेने के लिए बुक उनकी ओर बढ़ा दी। दिलीप साहब की नजर इस बच्चे पर नहीं पड़ी। ब्लॉग में अमिताभ लिखते हैं कि कुछ ही समय बाद दिलीप साहब वहां से चले गये, उन्हें ऑटोग्राफ नहीं मिल पाया। धीरे-धीरे समय गुजरता गया। अमिताभ हिंदी सिनेमा के नए सुपरस्टार बन गए। इस बीच अमिताभ को दिलीप साहब के साथ एक फिल्म में काम करने का मौका मिला। रेस्तरां की घटना के बाद अमिताभ ने दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में दिलीप साहब को देखा जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कलाकारों के सम्मान में पार्टी दी थी। उस समय बच्चन परिवार के नेहरू परिवार से बेहद घनिष्ठ संबंध थे और बच्चन परिवार को भी आमंत्रित किया गया था। यहां अमिताभ ने राज कपूर, देव आनंद तथा दिलीप साहब को एक साथ पहली बार देखा था। अमिताभ लिखते हैं कि समय बीत गया। 2006 में वडाला के आईमैक्स में उनकी फिल्म ‘ब्लैक’ का प्रीमियर था। फिल्म समाप्ति के बाद बाहर इंतजार कर रहे दिलीप साहब के पास अमिताभ गये। उन्होंने अमिताभ के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। अमिताभ लिखते हैं, ‘उसके दो दिन बाद मुझे दिलीप साहब का एक खत मिला, जिसमें मेरी एक्िटंग की तारीफ की हुई थी। इसी खत में नीचे दिलीप कुमार के दस्तखत थे।’

राजनीति से हुआ मोहभंग

भले दिलीप साहब लंबे समय तक कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सांसद रहे, लेकिन राजनीति में उन्होंने लंबी दिलचस्पी नहीं दिखायी। यह अलग बात है कि उन्होंने कई बार नेताओं का प्रचार किया। इस सबके बावजूद जवाहरलाल नेहरू, शाहनवाज खान, मौलाना आजाद और फखरुद्दीन अली अहमद से उनके अच्छे रिश्ते रहे। सन 1980 में दिलीप कुमार को मुंबई का शेरिफ नियुक्त किया गया।