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Friday, October 29, 2021

वह सफर और सफर के कितने हमसफ़र : काठगोदाम यात्रा

 केवल तिवारी

मैं लिखता जरूर हूं, तुम मत ढूंढ़ना किंतु-परंतु

आपका जिक्र न भी हो तो मानिए 'सर्वे संतु।'



जी हां, लिखता जरूर हूं, सो लिख रहा हूं। डायरी लेखन थोड़ा कम कर दिया है। एक तो डायरियों का ढेर लग गया है। दूसरे, बाद में उन्हें रद्दी ही तो होना है। मैं हर मंच पर कहता हूं कि डायरी लेखन मेरा ईश्वर से सीधा संवाद है, अब यह संवाद दिल ही दिल में ज्यादा होता है। डायरी लेखन बिल्कुल बंद नहीं हुआ। डायरी लेखन यानी ईश्वर संवाद 'positive' 'All type' जारी है, थोड़ा हौले-हौले। खैर छोड़िये अभी डायरी की बात। अभी आपको ले चलता हूं अपनी काठगोदाम तक की यात्रा पर। पहली बार इतनी लंबी ड्राइव। चंडीगढ़ से सीधे काठगोदाम। चूंकि किसी शायर ने ठीक ही कहा है-

हर मंजिल की एक पहचान होती है। और हर सफ़र की एक कहानी!

इस सफर की भी कहानियां हैं। जाते वक्त की भी और आते वक्त की भी। 3 अक्तूबर को बड़े बेटे कुक्कू का JEE Advance का पेपर था, 4 अक्तूबर की सुबह हम लोग निकल पड़े ‘आदरणीय गूगल चाचा’ के इशारों पर। कहां-कहां नहीं ले गये गूगल चाचा। हमने जो परेशानियां झेलीं, वह तो हम ही जानते हैं, लेकिन जब समय पर मंजिल पर पहुंच गए तो सभी ने कहा, नहीं सही रूट दिखाया होगा तभी तो इतनी जल्दी पहुंच गए। खैर छोड़िये सफर है तो परेशानियां आएंगी ही। आनंद भी तो आया। आत्मविश्वास भी तो जगा। फिर सबसे बड़ी बात अपनों से मुलाकात। घूमने-फिरने का बहुत शौकीन हूं। जब मौका मिलता है कहीं जाने का तो चला जाता हूं। काठगोदाम में जब हम भावना के चाचा सुरेश जोशी जी से मिला तो उनकी एक बात बहुत अच्छी लगी कि जब तक शरीर फुर्तीला है तब तक खूब घूमना चाहिए। वो सब बेकार की बातें हैं कि आराम से बुढ़ापे में घूम लेंगे। उन्होंने बताया कि वह बहुत पहले ही चार धाम यात्रा के अलावा देश के विभिन्न तीर्थ स्थलों एवं पर्यटन स्थलों पर घूम चुके हैं। मैं उनकी बात से पूरी तरफ इत्तेफाक रखता हूं। शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर गालिब साहब कह गए-

सैर कर दुनिया की गालिब जिन्दगानी फिर कहां, 

जिन्दगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां!


चोरगलिया, यादों का मन और मनमोहक जीवा

4 अक्तूबर को तो थकान थी सो कहीं अन्यत्र नहीं गए। अगले दिन हम लोग चले गए सितारगंज रोड स्थित चोरगलिया नामक स्थान पर। प्रेमा दीदी के यहां। साथ में भावना की बड़ी भाभी भी। वहां दीदी-जीजाजी से मिला। दीदी खेतों में गई थी। जब पता चला मैं आया हूं तो दौड़ी चली आई और उससे गले मिला तो जैसे बचपन की दीदी और अपनी माताजी याद आ गईं। एक खास तरह की घास की खुशबू से मन पुराने दिनों की ओर ले गया। फिर तुरंत संयत हुआ। दीदी से कुछ बातें हुईं। तब तक भानजे मनोज की पत्नी तनु (रेनु) ने भोजन बना दिया था। इस दौरान सबसे रोचक प्रकरण रहा मनोज की बेटी जीवा से बातचीत का। वह ऐसे बोलती है जैसे कोई सुंदर गुड़िया सी बच्ची किसी टीवी शो की डबिंग में अपनी आवाज दे रही हो। जैसे- क्या आपको मेरी याद आती थी। क्या आप नींबू पानी पीना पसंद करोगे। उससे कोई भी बात पूछो तो वह ऐसे जवाब देती मानो पूरा वाक्य याद किया हो साथ में फुल स्टाप भी। मैंने पूछा आप हमें याद करते थे, उसका जवाब था बिल्कुल। भावना ने पूछा चंडीगढ़ आओगे, उसका जवाब आना तो पड़ेगा। आपको गिफ्ट कैसा लगा के जवाब में बोली-बहुत अच्छा लगा। ऐसी ही कई बातों में कब तीन घंटे गुजर गए पता भी नहीं चला। वहां अन्य दीदीयों (दीदी की देवरानियां और जीजाजी की दीदी, उनकी पोती) आदि से मिला। शाम को लौट आए। हल्द्वानी आकर पहले भानजी रेनू से मिले फिर साढू भाई यानी भावना के दीदी-जीजाजी (गुड़िया जी एवं सुरेश पांडे जी) के यहां गए। वहां भावना के दूसरे नंबर के भाई-भाभी एवं भतीजा यानी शेखरदा, लवली भाभी और सिद्धांत जोशी पहुंचे थो। वहां डिनर के हल्का-फुल्का वॉक के दौरान बना अगले दिन रिसार्ट में जाने का।

कोटाबाग का रिसॉर्ट और आसमान के तारे












मशहूर संवाद लेखक एवं शायर राही मासूम राजा का एक शेर है-

इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई, 

हम न सोए रात थक कर सो गई।  

सचमुच ऐसा ही हुआ कोटाबाग के उस रिसॉर्ट में। असल में बुधवार की सुबह मैं, पांडे जी, उनका बेटा यीशू, मेरे बेटे कार्तिक और धवल एवं भावना के बड़े भाई नंदाबल्लभ जोशी (नंदू भाई जो उसी वक्त काठगोदाम से आए थे) निकल पड़े कोटाबाग के लिए। महिला मंडली नहीं आई, उन्हें कुछ खरीदारी करनी थी। हम लोग सबसे पहले वहां पांडे जी के मित्र के रिसॉर्ट ‘कॉर्बेट हिल्स रिसॉर्ट’ पहुंचे। बच्चे तो वहां का वातावरण और उस क्षेत्र की हरियाली में ही खो गए और फोटो सेशन में जुट गए। वहां चाय पीकर हम लोग दाबका नदी की ओर चल दिए। बेहतरीन लोकेशन और हमारे अलावा वहां कोई नहीं, फिर देर कहां लगनी थी और कपड़े उतारे और सभी घुस गए नदी में। एक घंटे पानी में पड़े रहे, फिर गीले-गीले में ही लंच किया (जो महिला मंडली घूमने नहीं आई थी, उन्होंने बेहतरीन लंच बनाकर पैक कर रख दिया था)। धीरे-धीरे ठंड सी लगने लगी। फिर वापसी का कार्यक्रम बना। शाम को उस इलाके में एकदम सन्नाटा। बच्चे बार-बार कहते ‘आसमान में देखिए क्या साफ तारे दिख रहे हैं।’ मुझे याद आया जब एक बार हिंदुस्तान में एक स्टोरी लाइट पर की थी। उस स्टोरी का लब्बोलुआब यही था कि बिजली की हैवी लाइट में तारे कहीं गुम हो गए हैं। वाकई आप शहरों में आसमान की तरफ देखिए आपको बहुत गौर करने से शायद तारे दिखेंगे। पर कोटाबाग के उस इलाके में तो मजा आ गया। अपने रूम से कुछ दूर आकर हमने रिसॉर्ट के ही कैफेटेरिया में डिनर किया। बच्चे रूम में चले गए और मैं, पांडेजी और नंदूभाई जी थोड़ा सैर करने निकल गए। वहां दूर-दूर इक्का-दुक्का घरों में जलती रोशनी एक अलग ही रुख दे रही थी। कुछ ही देर में आभास हुआ कि इतने बियाबान में ज्यादा दूर नहीं जाना चाहिए सो वापस लौट आए। बच्चे टीवी देख रहे थे, मोबाइल पर गेम भी खेल रहे थे। हम लोग बातें करते रहे। सोचा, ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं था, बल्कि चंडीगढ़ से तो यही सोचकर चले थे कि इस बार कोटाबाग कहां जाना होगा, लेकिन निदा फाजली साहब के शब्दों में कहूंगा-

अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं, 

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।

इस शानदार छोटे से ट्रिप के लिए पांडेजी का बहुत-बहुत धन्यवाद। साथ में उनके मित्र का भी जिनके रिसॉर्ट में रुके और जिनका बनता हुआ रिसॉर्ट देखा। आंवले भी तोड़े उस दौरान।

नवीन परिवार, लता का घर, दद्दू से बातचीत, रुचि-दीपेश और रिशू से मुलाकात




बृहस्पतिवार से नवरात्र शुरू थी। सो सुबह भावना, नेहा एवं भाभीजी के साथ गांव के मंदिर गए। वहां भी देवीस्वरूपा एक बच्ची मिली। शांत सी। भावना के आसपास मंडराती सी। मंदिर में हाथ जोड़े। दोपहर बाद हम लोग हल्द्वानी आए। कुछ मंदिर और गए और शाम होते-होते रिश्ते में भानजे लेकिन अनुभवी एवं उम्र में मेरे से खूब बड़े नवीन पांडे (राजस्थान वाले) के घर गए। उनसे बहुत सारी बातें हुईं। कोरोना काल में अपनों के खोने की चर्चाएं हुईं। फिर उनका घर देखा और उनकी छत से दिख रहे नजारे भी। अगले दिन हम पहले मेरी सबसे बड़ी भानजी लता के यहां गए। उसके पति हरीश पंत जी भीमताल में आजकल पोस्टेड हैं, लेकिन अच्छा इत्तेफाक रहा कि वह उसी दिन आ गए। उनसे बातचीत हुई। फिर पहुंचे दूसरी भानजी रुचि के घर। रुचि ने लंच तैयार किया था। दीपेश आये और लंच किया फिर दीपेश से गुजारिश की कि दद्दू के यहां ले चलो। दद्दू अब रुचि के ससुर हैं, लेकिन उनको जानता बचपन से हूं। खरी बात कहने वाले। दद्दू के यहां गए। दीपेश की माताजी इन दिनों बेहद अस्वस्थ हैं। वहां दीपेश की बहन भारती और उनकी बेटी भी आई हुई थी। कुछ देर बातें हुईं। चाय पी और लौट आए। इसी दौरान मनोज भी बहुत दूर से बाइक से आकर मिलने आ गया, बहुत अच्छा लगा। इससे पहले चोरगलिया में पप्पू भाई, गुड्डू नेताजी से भी बहुत बातें हो चुकी थीं। बेशक बहुत भागादौड़ी वाला सफर रहा, लेकिन फिर निदा फाजली का एक शेर ऐसे मौकों के लिए-

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो, 

सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो।

... और कालीचौड़ की भक्तिमय यात्रा




यूं तो शनिवार सुबह मेरा लौटने का कार्यक्रम था। मुझे हर हाल में रविवार को ऑफिस ज्वाइन करना था। क्योंकि-

जूते महंगे हैं अब, पर छोटा सा सफर है, 

एक तरफ ऑफिस, दूसरी तरफ घर है।

लेकिन तय हुआ कि रविवार अल्लसुबह निकल जाएंगे। शनिवार को काली चौड़ मंदिर चलते हैं। शेखरा को एक दिन पहले जरूरी काम से दिल्ली आना था। वे आए भी, लेकिन उनकी मीटिंग कैंसल हो गई इसलिए शुक्रवार देर रात वह आ चुके थे। बेशक वह दिल्ली गए और भागमभाग वापस आए और परेशान हुए, लेकिन हमारे लिए तो कालीचौड़ जाने का आनंद और बढ़ गया। सुबह पांडे जी अपनी माता जी, पत्नी एवं बेटी के साथ काठगोदाम पहुंच गए। यहां से शेखरदा का परिवार एवं नंदूभाई जी की बेटी नेहा तैयार हुई। हम चार तो थे ही। लंच का सामान यहां भी सुबह-सुबह तैयार हो गया। हम लोग गए। पहाड़ी मार्ग पर कार चलाने का थोड़ा सा अनुभव भी हुआ। यहां भी एक नदी मिली तो मैं, पांडेजी, सिद्धांत और धवल कूद गए। बाकी सब ने दूर से देखकर ही आनंद उठाया। दोपहर बाद आ गए और वापसी की तैयारी में जुट गए। जितना काठगोदाम जाने में दिक्कत हुई, उतना ही आनंद वापसी में आया। शेखरदा ने रूट सही समझा दिया। 





इसका फायदा यह हुआ कि हम हरिद्वार भी हो आए। गंगा मां के दर्शन हुए। गंगाजल भी ले आए। आकर ड्यूटी भी ज्वाइन कर ली। शानदार सफर के संबंध में कुछ और पंक्तियां कुछ नए अंदाज में पढ़िए-

रास्ते कहां खत्म होते हैं जिंदगी के सफर में, मंजिल तो वही है जहां ख्वाहिशें थम जाएं।

 

मुझे तो पता था तू कहीं और का मुसाफिर था,

हमारा शहर तो बस यूं ही तेरे रास्ते में आ गया।

 

थोड़ी सी मुस्कुराहट बरकरार रखना, 

सफर में अभी और भी किरदार निभाने हैं।

 

कुछ सपने पूरे करने हैं, कुछ मंजिलों से मिलना है

अभी सफर शुरू हुआ है, मुझे बहुत दूर तक चलना है!

 

घूमना है मुझे ये सारा जहां तुम्हे अपने साथ लेके

बनानी हैं बहुत सी यादें हाथों में तुम्हारा हाथ लेके!

पूरा पढ़ लिया हो तो धन्यवाद। न भी पढ़ा हो तो भी धन्यवाद। सबसे ज्यादा धन्यवाद उन सभी रिश्तेदारों, नातेदारों का जिनकी वजह से सफर यादगार रहा।

इम्युनिटी बढ़ाने के लिए व्यापक अभियान की जरूरत'


कोरोना का खौफ कुछ कम हुआ तो अब जगह-जगह से डेंगू एवं तेज बुखार से लोगों के बीमार होने एवं कई लोगों की मौत की दुखद खबरें सुनने को मिल रही हैं। ऐसे में डॉक्टरों, विशेषज्ञों का कहना है कि हमें किसी खास सीजन में ही नहीं, बल्कि सालभर इम्युनिटी बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। इसके साथ ही जागरूकता अभियान भी चलाए जाने की जरूरत है। यह बात माउंटेन पीपुल फाउंडेशन (एमपीएफ) की अध्यक्ष सरोज पंत ने उस वक्त कही जब उन्होंने इस संबंध में यूपी के मुख्य सचिव एवं प्रधान सचिव (आयुष मंत्रालय) से मुलाकात की। उनके साथ ही संस्था से जुड़े एवं इम्युनिटी बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान चला रहे उमेश पंत भी थे। जानकारों ने कहा कि एलोपैथी दवाओं से तात्कालिक फायदे के साथ ही होमियोपैथी एवं आयुर्वेदिक दवाओं या इम्युनिटी बूस्टर से भी हम अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा कर सकते हैं। संस्था ने होमियोपैथी और योग विज्ञान के द्वारा रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के विभिन्न प्रयोगों पर भी बल दिया। इस संबंध में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये बताया गया कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव राजीव कुमार तिवारी तथा प्रिंसीपल सेक्रेटरी (आयुष विभाग) प्रशांत त्रिवेदी जी के साथ माउंटेन पीपुल फाउंडेशन की अध्यक्ष सरोज पंत तथा डॉ. उमेश चंद्र पंत ने होमियोपैथी के द्वारा रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने पर तथा होमियोपैथिक पद्धति के द्वारा  कोविड-19 एवं डेंगू के लिए प्रीवेंटिव व इम्यूनिटी बूस्टर दवा जिले और प्रदेश स्तर पर मुहैया कराने की मुहिम के बारे में चर्चा की।

जनसेवा में लगे हैं डॉ पंत
डॉ उमेश पंत एवं सरोज पंत लंबे समय से जनसेवा में लगे हैं। गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित सेक्टर पांच में वह लंबे समय से रह रहे हैं। शिक्षा पूरी करने के बाद उमेश ने यहीं होमियोपैथी पद्धति से इलाज करना सीखा और बाकायदा डिग्री ली। उधर, संस्था एमपीएफ को पिछले दिनों उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत के उपराष्ट्रपति ने सम्मानित किया। डॉ पंत का कहना है, 'आज के दौर में हमें एक दूसरे की मदद के लिए आगे आना चाहिए। इसके साथ ही हर किसी को यह समझना होगा कि जान है तो जहान है। इसलिए स्वस्थ रहें। होमियोपैथी पद्धति से यदि किसी रोग का समय पर उपचार शुरू हो जाए तो उसके बहुत फायदे हैं।' उनके इस कार्य को काफी सराहना मिल रही है।

Friday, October 22, 2021

शिव कुमार जी का आहूं गांव, मेरे-आपके आसपास की रोचक चर्चा

केवल तिवारी

दाबड़ा पट्टी में पल्लेवाले जोहड़ के दक्षिण पश्चिम में स्थित यह मंदिर 1880 के आसपास बना था। यह भी संभव है कि मंदिर इससे पहले से गांव में हो और उस समय इसका जीर्णोद्धार हुआ हो...।

... उस समय नए गुरुद्वारे की जगह को चण्डीगढ़ और पुराने गुरुद्वारे को पुरानी दिल्ली कहा जाने लगा। जल्द ही सहमति हो गई कि गांव में एक ही गुरुद्वारा रहेगा। इसलिए नए गुरुद्वारे की बात आगे नहीं चली। तब से उस इलाके को चण्डीगढ़ कहा जाता है। ...

इस परिवार को बाद के पूर्वज 'अल्लाह दिया' के नाम पर 'लदिये के' कहा जाने लगा। मान्ना अल्लाह दिया से चार पीढ़ी पहले हुए थे। इस परिवार में 1885 में जैबा और सफिया की कोई संतान नहीं थी...।

1951 से पहले की जनगणना की रिपोर्टों से अकाल और महामारी इत्यादि के उन कारणों का पता चलता है जिनसे प्रभावित होकर लोग या तो गांव छोड़कर दूसरी जगह चले जाते थे या बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो जाने के कारण आबादी घट जाती थी। ... 1951 से पहले की जनगणनाओं में अलग-अलग गांवों की आबादी और शिक्षा की सूचना उपलब्ध नहीं थी। पूरे पंजाब और करनाल जिले के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि सन 1881 से 1921 तक महिलाओं में सेशायद ही कोई पढ़ी-लिखी होती थी।

आजादी से पहले गांव में पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। गांव में मंदिर और मस्जिद दोनों थे, लेकिन उनमें भी पढ़ाई की कोई व्यवस्था रही हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं है।

सन 1897 से 1918 तक के सालों में पंजाब में प्लेग फैला रहा। यह बीमारी जालंधर जिले से शुरू हुई और धीरे-धीरे पूरे पंजाब में फैल गई। आहूं और आसपास के इलाके में यह बीमारी संवत 1975 (सन 1918 ईस्वी) के कार्तिक महीने में पहुंची इसीलिए इसे कात्त्ग (कार्तिक) वाली बीमारी कहा जाता रहा है।

संवत 1840 (सन 1783) में भयंकर अकाल पड़ा था जिसे संवत के चालीसवे साल में होने के कारण चालीसा का अकाल कहा जाता था।

आहूं गांव का नाम अह्न (यह शब्द क्रमश: अ, ह् और न वर्णों से बना है, इसमें 'ह' हलंत और न पूर्ण अक्षर है) तीर्थ के नाम पर ही पड़ा है। अह्न के अशुद्ध उच्चारण (ह और न को आपस में बदलकर बोलने से) के कारण इसे अन्ह आन्ह और फिर आन्ध कहा जाने लगा...।’


उक्त कुछ पंक्तियां पुस्तक ‘आहूं गांव का इतिहास’ में से ली गई हैं। एक छोटी सी बानगी कि पुस्तक को कितने शोधपरक तरीके से लिखा गया है। असल में इस पुस्तक के लेखक शिव कुमार जी से इस पर चर्चा पहले हुई। फिर उन्होंने मुझे पीडीएफ फार्मेट में कुछ पढ़वाया। सच कहूं तो कभी-कभी मन में आता था कि हरियाणा के एक छोटे से गांव के बारे में कुछ लिखने या फिर पढ़ने की क्या रुचि हो सकती है? फिर खुद ही जवाब ढूंढ़ा कि लिखने की रुचि तो वहां का वाशिंदा होने के कारण शिव जी को हो गयी। फिर पढ़ने की? पढ़ने का मैं शौकीन हूं। इसी संबंध में अपने पूर्व के ब्लॉग में ऐसे ही एक गांव से संबंधित किताब का जिक्र कर चुका हूं।

खैर... इस बार शिव कुमार जी ने किताब भिजवा दी। लंबा समय हो गया। शायद दो माह से अधिक। पिछले दिनों उत्तराखंड की यात्रा के दौरान भी किताब साथ में रही। जब मौका मिला पढ़ता गया। उसी दौरान मुझे पता चला कि वहां सुदूर देभाल के रहने वाले मिश्रा लोगों ने भी अपनी एक वंशावली बनाई है। तभी एक सज्जन से बात हुई। उन्होंने मेरे सामने ही पुस्तक के कुछ जरूरी हिस्से पढ़ डाले। पढ़ते ही बोले, ‘काफी शोधपरक लगती है, आपने पढ़ ली क्या?’ मैं उनकी मंशा समझ गया। मैंने कहा, बस खत्म होने वाली है, आपको फिर भेजता हूं। वह मुस्कुरा दिए। असल में यह किताब वाकई शोधपरक है। आहूं गांव का नाम कैसे पड़ा। हरिद्वार में इस गांव के कौन पंडित हैं। जैसी जानकारी मुझे बड़ी रोचक लगी। मुझे याद आया कि करीब 25 साल पहले जब मैं जनेऊ कराने हरिद्वार गया था तो माताजी ने मुझसे कहा कि वहां काशीनाथ मुरलीधर के ठिकाने पर चले जाना। वह पूरी मदद करेंगे। सच में ऐसा ही हुआ। उन्होंने न केवल मदद की, बल्कि हमारे परिवार के कई पीढ़ियों के बारे में भी बता दिया। आहूं गांव के इतिहास को पढ़ते-पढ़ते वहां के वैद्यों का जिक्र (यहां बता दूं कि लेखक शिव कुमार के पिताजी स्वयं एक वैद्य रहे हैं उनका नाम है वैद्य धनीराम), पूजा स्थलों का जिक्र। इतिहास ही नहीं, इस किताब में वर्तमान भी है जो भविष्य के बारे में आईना सा दिखाता है। जगह-जगह वंशावली, आबादी, जमींदारी, शादी-व्याह जैसे शुभअवसरों पर गाये जाने वाले गीत, शिक्षा, खेती-बाड़ी जैसे तमाम पहलुओं की खूब पड़ताल की है लेखक शिव कुमार जी ने। ज्यादा विस्तार से नहीं लिखूंगा। यह जरूर कहूंगा कि यदि आप आहूं के गांव के आसपास के या हरियाणा के या पंजाब के हैं तो यह किताब तो आपको भाएगी ही, यदि आपका दूर-दूर तक इस गांव से किसी तरह का कोई नाता नहीं है तो भी यह किताब बेहद उपयोगी है। गांव के इतिहास लेखन की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है किताब। बेहद सरल और सहज अंदाज में। पुराने दस्तेवेजों और विभिन्न चित्रों से पुस्तक की रोचकता और भी बढ़ गयी है। मौका लगे तो पढ़ डालिए। शिव कुमार जी को पुन: साधुवाद। ऐसा लेखन और भी वह करेंगे, ऐसी उम्मीद है। मेरी शुभकामनाएं।


Tuesday, October 19, 2021

पंडित दीनदयाल पर चर्चा, डॉ कुलदीप अग्निहोत्री और मोक्ष का अर्थ

 केवल तिवारी

काल करे सो आज कर...। कबीरदास जी सच में बहुत बड़ी बात कर गये थे। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाओं के बीच अनेक काम हम टाल जाते हैं, उनका प्रतिफल कितना हमें प्रभावित करता है, इसे कभी समझ पाया और कभी नहीं, लेकिन लेखन के संबंध में यह समझ आया कि देर की तो सब गड्डमड्ड। वैसे जहां तक डायरी लेखन का सवाल है, मैंने अब उसे धीरे-धीरे न्यूनतम करने की शुरुआत कर दी है। उसके कई कारण हैं, सबसे पहला कारण कि डायरियों का बहुत बड़ा ढेर लग चुका है। यहां-वहां अटे पड़े हैं। बाद में उसे रद्दी ही होना है। हां ऑनलाइन लेखन यानी ब्लॉग लेखन और पत्र-पत्रिकाओं में लेखन जारी रखूंगा। डायरी लेखन वैसे मेरे लिए ईश्वर से सीधा संवाद जैसा है, इसलिए उसे बंद नहीं कर सकता, हां संवाद नियमित डायरी के माध्यम के बजाय दिल ही दिल में होता रहेगा। खैर... एक तो मैंने ऐसे ही देर कर दी, उस पर ज्यादा भूमिका के चक्कर में पड़ गया तो और देर हो जाएगी। देरी लेखन में इसलिए नहीं करनी चाहिए कि आपके दिमाग में जो तत्काल खयाल आते हैं, वह धीरे-धीरे बदल जाते हैं या फिर दिमाग उनको उस अंदाज में याद नहीं कर पाता। ऐसा ही हुआ इस लेखन के संबंध में। कार्यक्रम का मर्म, उद्देश्य और बातें तो कभी नहीं भूल सकता, लेकिन तत्काल लिखा होता तो शायद ज्यादा अच्छा होता। खैर... देर आयद दुरुस्त आयद।

असल में करीब एक महीना होने को आया, मेरा मन जिस विषय पर तत्काल लिखने को हो रहा था, वह नहीं लिख पाया। कारण गिनाना तो अपनी कमियों को छिपाना है। सीधे मुद्दे पर आता हूं। गत 25 सितंबर को वरिष्ठ पत्रकार एवं हमारे पूर्व समाचार संपादक हरेश जी के माध्यम से एक ऑनलाइन सेमिनार में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर उनके विचारों को लेकर परिचर्चा थी। इसमें मुख्य वक्ता थे डॉ कुलदीप अग्निहोत्री जी। संचालन संघ से जुड़े एवं अभी पांच राज्यों के प्रभारी अनिल जी कर रहे थे। इसमें मेरे मित्र एवं दिल्ली स्थित भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) में प्रोफेसर प्रमोद सैनी समेत अनेक लोग जुड़े। डॉ अग्निहोत्री हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला के कुलपति हैं। उनका परिचय इतनाभर ही नहीं है। उन्होंने कई शोध कार्य किए हैं। कई महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए हैं। कई महत्वपूर्ण संस्थानों को संभाला है। उनका विस्तृत विवरण फिर कभी। सेमिनार में दीनदयाल जी के विचारों की प्रासंगकिता पर बात करते हुए डॉ अग्निहोत्री ने मोक्ष का अर्थ समझाया। उन्होंने कहा कि निरंतर जिज्ञासु बने रहना ही मोक्ष है। प्रकृति को समझना और उसके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही मोक्ष है। मोक्ष मतलब मौत के बाद का मंजर नहीं है। असल में मोक्ष की जो परिकल्पना हमारे धर्मशास्त्रों में की गयी है, उसकी समुचति व्याख्या शायद अभी नहीं हुई है। या फिर उसे ठीक से समझा नहीं गया। दीनदयाल जी की चर्चा में ही उन्होंने कहा कि दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल संचारक और भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक थे। दीनदयाल जी ने सरलता, सहजता एवं सादगी द्वारा भारतीय जनता से संवाद स्थापित किया। डॉ अग्निहोत्री के अनुसार पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय दर्शन को आधार बनाकर आधुनिक भारत की नींव रखी और आज एकात्म मानववाद और अंत्योदय इसी नए भारत का महत्वपूर्ण अंग हैं। उनका मानना था कि गलत मार्ग से सही लक्ष्य की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। हमें भारत का विकास भारतीय दृष्टि से करना होगा। प्रो. अग्निहोत्री ने कहा कि दीनदयाल जी के विचारों द्वारा ही सबका विकास किया जा सकता है। एकात्म मानवदर्शन में संपूर्ण जीवन की एक रचनात्मक दृष्टि है। इसमें भारत का अपना जीवन दर्शन है, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को टुकड़ों में नहीं, समग्रता में देखता है। इस कार्यक्रम में अन्य वक्ताओं ने पंडित दीनदयाल जी और उनके विचारों के बारे में उपलब्ध सामग्री का अन्य भाषाओं में अनुवाद कराए जाने की जरूरत पर भी बल दिया। कुछ लोगों ने अन्य मुद्दे भी उठाये। परिचर्चा सार्थक रही। बस मुझे थोड़ा पहले सेमिनार को ‘लीव’ करना पड़ा क्योंकि मनुष्य तो कर्म के अधीन है और इसी कर्म के तहत ऑफिस से फोन आ गया कि पेज पर विज्ञापन आया है कुछ मैटर हटाना पड़ेगा और कुछ एडिट करना पड़ेगा। विस्तृत बातें फिर होती रहेंगी।