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Wednesday, July 1, 2020

मुश्किल नहीं है कुछ भी गर ठान लीजिए...

मेहनतकश 
केवल तिवारी
एक पुरानी हिंदी फिल्म का गीत है, ‘हम मेहनत कर इस दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे, एक बाग नहीं, एक खेत नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।’ यहां हमने इस गीत से सिर्फ 'मेहनत' शब्द की बात उठाई है। मेहनत भी हंसते-खेलते। मेहनतकश भी 60 के पार वाले। असल में कुछ लोगों का एक समूह सुबह-सुबह पार्क में आता है। मेहनत करने। सिर्फ मेहनत। कुछ मांगने नहीं। कोई बाग नहीं। कोई खेत नहीं। मेहनत सबके लिए। सार्वजनिक पार्क है। पार्क में एक मंदिर है। मंदिर परिसर को साफ करने के लिए ‘कार सेवा’ यानी श्रमदान का अभियान चलाया गया। पार्क के लिए श्रमदान पूरा हुआ तो गलियों में सफाई का अभियान चल गया। इलाका है पंजाब सीमा से सटा चंडीगढ़ का प्रवेश द्वार रायपुर खुर्द। सोसायटी है ट्रिब्यून सोसायटी कांप्लेक्स। करीब आठ दिन पहले हरेश वशिष्ठ जी का फोन आया। श्रमदान के लिए आपकी सेवा भी अपेक्षित है। उसके बाद से मैं भी सुबह उठकर चला जाता हूं। जैसा कि मैंने पहले बताया पार्क में श्रमदान के लिए आने वाले ज्यादातर लोग 60 पार के हैं, लेकिन प्रत्येक का जज्बा एक नौजवान सरीखा है। चूंकि साफ-सफाई का काम है और सोसायटी के कुछ लोगों से पिछले सात सालों से आत्मीयता है तो मैं भी थोड़ा-बहुत काम कर लेता हूं। गणेश जी। जोगेंद्र लाल जी। राजीव जी। गर्ग साहब। केके सिंह साहब। चौधरी साहब। वालिया साहब। गुप्ता साहब। राजेंद्र मोहन शर्मा जी। अनेक लोग हैं जो रोज सुबह एक युवा की तरह वहां डट जाते हैं। नेक काम में जुटे ‘बुजुर्ग युवाओं’ को देखता हूं तो सहसा वह पंक्ति याद आती है जिसमें किसी ने लिखा था-
मंज़िल क्या है, रास्ता क्या है, हौसला हो तो फासला क्या है।
(यहां स्पष्ट कर दूं कि 60 पार शब्द को अन्यथा न लिया जाये। कुछ 60 से कम हैं और कुछ 70 के आसपास या इससे भी ऊपर, लेकिन जज्बा सबका समान)
वाकई कोई फासला नहीं। पूरे शिद्दत से 24 जून से जुटे लोगों ने पार्क को सुंदर बना दिया है। अब काम गलियों में शुरू हो चुका है। लोगों से अनुरोध भी किया जाता है कि यहां पर कचरा न फेंके। बेशक कुछ लोग नहीं मानते, लेकिन ज्यादातर मंदिर में पूजा-पाठ करने आते हैं और ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ की कामना करते हैं।

एक अकेला थक जाएगा तो मिलकर बोझ उठाना


एक से जुड़ा दूसरा
दिलीप कुमार साहब की फिल्म ‘नया दौर’ की मानिंद लोग एक-दूसरे का हाथ बंटाते हैं। कोई कस्सी चलाता है, कुछ देर मेहनत के बाद थकता है तो दूसरा उसे थाम लेता है। सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा खयाल, मन से आत्मीयता। बिना कहे कोई घास को एक जगह एकत्र करता है तो कोई अपील करता है कि कुत्तों को पॉटी कराने के लिए यहां न लाएं। इन ‘बुजुर्ग युवाओं’ में कोई फिट है तो किसी की हल्की तोंद निकली है, कोई दुबला-पतला है तो कोई हृष्ट-पुष्ट। इन सबकी मिली-जुली मेहनत देख एक शेर कहूंगा-

न मेरा एक होगा, न तेरा लाख होगा, तारीफ तेरी, न मेरा मजाक होगा। गुरूर न कर शाह-ए-शरीर का, मेरा भी खाक होगा, तेरा भी खाक होगा।


पूरी तल्लीनता
सावन से पहले श्रमदान का यह काम बेहतरीन कदम है। मुझे याद आया कि वसुंधरा-गाजियाबा में अपनी कॉलोनी में कैसे हम लोग हर छुट्टी के दिन घर-बार छोड़कर सोसायटी के काम में लगे रहते थे। ट्रिब्यून सोसायटी कांप्लेक्स, रायपुर खुर्द में, मैं बेशक किराएदार हूं, कुछ समय बाद यहां से चला भी जाऊंगा, लेकिन जिन लोगों से मन जुड़ा हूं, उनकी बातें तो प्रेरणा देती ही रहेंगी।

5 comments:

Bhawna said...

सराहनीय कार्य

kewal tiwari केवल तिवारी said...

सचमुच

kewal tiwari केवल तिवारी said...

दीपक जी का कमेंट : केवल जी कमाल का लिखा।

Unknown said...

Good work and keep it up

kewal tiwari केवल तिवारी said...

शीला दीदी का कमेंट : बहुत बढ़िया श्रमदान के जज्बे को सलाम है👍🏻👍🏻