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Saturday, May 27, 2023

दो ऐतिहासिक स्थल, अलग अनुभूति : यादें... बातें और मुलाकातें

केवल तिवारी 

नौकरी पेशा जीवन के दौरान और चलने फिरने वाली उम्र रहते ही जितना संभव हो यात्राएं वात्राएं कर लेनी चाहिए। ये चाहे धार्मिक हों या पर्यटन संबंधी। वैसे धार्मिक यात्रा भी एक तरह का पर्यटन ही तो है। पर्यटन की बात अगर की जाये तो पिछले दिनों मैं एक रिसर्च पढ़ रहा था। उसमें लिखा था कि अगर कहीं जाकर हम फोटो या सेल्फी लेने में ही व्यस्त हो जायें तो उस स्थान विशेष की यादें हमारे मन मस्तिष्क में टिक नहीं पाती। इसके उलट हम अगर एक-दो स्पॉट पर फोटो खींचकर मोबाइल एवं कैमरा को बंद कर लें तो यादें ज्यादा दिनों तक बनी रहती हैं और हम उसकी चर्चा भी अक्सर करते हैं। मुझे इस रिसर्च में दम भी नजर आया। अक्सर देखने में आता है कि घूमने के लिए कहीं जाने पर लोग ज्यादातर समय फोटो खींचने या सेल्फी लेने में बिता देते हैं। ऐसे में हम उस स्थान विशेष के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं जुटा पाते और इसी वजह से वहां की यादों को अपने मन-मस्तिष्क में नहीं बिठा पाते। खैर यह तो हो गयी यादों-वादों की बातें। मैं बात कर रहा हूं कुछ समय पूर्व की अमृतसर यात्रा एवं दिल्ली की संक्षिप्त यात्रा की। 







यूं तो इन यात्राओं को संपन्न हुए दो से तीन महीने हो गए, लेकिन इनके बारे में लिखना अब हो रहा है। चूंकि पहले अमृतसर गया था इसलिए वहां की बातें पहले। फिर दिल्ली की। वैसे दिल्ली-एनसीआर में इससे पहले मैं 1996 से 2013 तक रहा। लेकिन उस दौर में ज्यादा घूमना नहीं हुआ, जबकि अब दिल्ली से दूर आ गया हूं तो लगता है दिल्ली दूर नहीं।  

अब चलते हैं अमृतसर। अचानक घूमने का यह कार्यक्रम बना मार्च अंत में। उस वक्त खालिस्ताान समर्थक अमृतपाल का मुद्दा छाया हुआ था। कुछ पारिवारिक लोग भी जाने को तैयार हुए, लेकिन ऐन मौके पर उनका आना रद्द हो गया। चूंकि रिजर्वेशन साथ ही कर रखा था, मेरा मन भी थोड़ा डिगा। फिर परिवार में चर्चा के बाद तय हुआ कि हम लोग तो चलते ही हैं। क्योंकि बेटे धवल की सालाना परीक्षा हो चुकी थीं और कुछ दिन की छुट्टियां चल रही थीं। मुझे भी ऑफिस से आसानी से छुट्टी मिल गयी। हालांकि बड़ा बेटा कार्तिक फ्री नहीं था। खैर फाइनली हम तीन निकल पड़े। चंडीगढ़ से सुबह 6 बजे की ट्रेन थी। वहां पत्नी को कोई जानकार मिले और उन्होंने हमारे कदम पर सवालिया निशान उठाये और कहा कि इस वक्त क्यों जा रहे हैं। अमृतपाल का केस चरम पर है। मैंने इस मुद्दे को इग्नोर करने के लिए कहा। मित्र नरेंद्र कुमार के जरिये विक्रम जी से बातचीत हुई। उन्होंने स्वर्ण मंदिर परिसर में ही रहने का इंतजाम करवा दिया।  

सुबह हो या शाम, स्वर्ण मंदिर की आभा में खो से गये हम सब 

जिस दिन अमूतसर पहुंचे उसी शाम को हम तीनों सबसे पहले गुरु घर में माथा टेकने पहुंचे। पहले शाम को परिक्रमा कर गुरु ग्रंथ साहिब के दर्शन किए। शीश नवाया। उसके बाद बाहर शनि मंदिर गये। फिर सराय में आकर थोड़ा विश्राम किया और तय किया कि लंगर छकने से पहले गुरुद्वारे की स्वर्णिम आभा को निहारा जाये। हम लोगों ने पीछे वाले दरवाजे से ही प्रवेश किया और जल तरंगों में इठलाती गुरुघर की स्वर्णिम आभा को बस देखते ही रह गये। फिर हम परिक्रमा करते हुए फ्रंट गेट की तरफ पहुंचे। लोगों का हुजूम मंदिर में मौजूद था। घूमकर हम लोग लंगर घर में आये और प्रसाद छका। साथ ही इस पर भी चर्चा की कि सचमुच धार्मिक उद्देश्य यही होना चाहिए कि हर किसी को भोजन मिले। इसके साथ ही कुछ लोगों के प्रति गुस्सा भी आया जब उनके जेब में गुटखा एवं पान मसाला मिला और उन्हें समझाना पड़ा। बुरी आदतों को छोड़ना चाहिए। कम से कम ऐसे पवित्र स्थलों पर तो तन, मन से शुद्ध होकर जाना चाहिए। कहा भी तो गया है कि मनसा, वाचा और कर्मणा हमें शुद्ध रहना चाहिए।  

अटारी-वाघा बॉर्डर और दिल्ली का कर्त्तव्य पथ 








चूंकि इस ब्लॉग को लिखने में बहुत विलंब हो गया है इसलिए अटारी-वाघा बॉर्डर एवं दिल्ली के कर्त्तव्य पथ की चर्चा साथ-साथ। असल में अमृतसर यात्रा के कुछ दिनों बाद ही हमारा दिल्ली जाना हुआ और वहां नव निर्मित कर्त्तव्य पथ एवं शहीद स्मारक को देखा। पहले बाद अटारी बॉर्डर की। हम लोगों ने सुबह ही एक ऑटो वाले से बात कर ली। उसने एडवांस में पैसे लिए और करीब दो बजे हम लोग अटारी बॉर्डर के लिए निकले। वहां जाने से पहले डिप्टी कमांडेंट विजय कुमार जी के सहयोग से रामजी लाल ने सीटों की व्यवस्था कर दी। देशभक्ति का ऐसा ओजस्वी नजारा पहले कभी नहीं देखा। मैं तो एक बार पहले भी यहां आ चुका था, लेकिन इस बार आनंद कुछ ज्यादा बढ़ गया। पाकिस्तानी पाले में महज 20-30 लोगों को देखकर तरस सा आया और हमारे बीच चर्चा होने लगी कि यहां का उत्साह देखकर तो उनका मन भी यही करता होगा कि वे भी इसी तरफ आ जायें। सचमुच अवाम तो सब समान ही होती है, सियासत सब गड्डमड्ड करती है। खैर जोश के उस वातावरण को हमने नये तरीके से जीया। इसके कुछ समय बाद हम लोग दिल्ली के कर्त्तव्य पथ पर गये। यहां वह परिवार भी साथ रहा जिनके साथ हमने अमृतसर जाना था और वे लोग किन्हीं कारणों से आ नहीं सके। लेकिन भास्कर को जरूरी काम आ गया, हां अपने साथी भव्य को साथ लेकर धवल प्रसन्न रहा और प्रीति को लेकर भावना। मैं उस वक्त अकेला था, लेकन रात में भास्कर का साथ पाकर मुझे भी आनंद आ ही गया। कर्त्तव्य का नया रंग-रूप सचमुच उत्साहजनक है। साफ-सफाई तो देखते ही बनती है। खाने-पीने के स्टॉल एक ही जगह पर नियत करने से खूबसूरती और बढ़ गयी है। स्मारक के पास जवानों के साथ बच्चों ने फोटो खिंचवाये। कुछ देर पैदल चलने में थकान की अनुभूति करायी। चिल्ड्रन पार्क में झूलों का आनंद लिया। इंडिया गेट परिसर में कुछ और समय निकालकर कभी दिन के वक्त भी जाना जरूरी है। मौसम गुलाबी होगा तो फिर एक बार यहां की यात्रा करने की कोशिश होगी। बातों की इन बातों पर बता दूं कि इसी बीच, गाजियाबाद में हमारे पड़ोसी और हमारे लोकल गार्जन कहलाने वाले शर्मा जी एवं भाभी जी पहुंचे। उनकी बिटिया सोनाली और दामाद एवं बिटिया की बिटिया से मुलाकात हुई। एक दिन की संक्षिप्त यात्रा पर आए इन लोगों से काफी विस्तार से चर्चा हुई। ऐसे मेल-मिलापों का दौर चलता रहना चाहिए।