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Sunday, December 26, 2021

भोजन माता की बात के बहाने पुरानी बातें

 केवल तिवारी

मित्र राजेश डोबरियाल की बीबीसी हिंदी पर खबर छपी थी जिसमें उत्तराखंड के चंपावत में एक स्कूल में भोजन माता के हाथ का बना खाना बच्चों ने छोड़ दिया। दरअसल वह महिला अनुसूचित जाति से थी। इस खबर को पढ़ने के बाद और उससे पहले भी इस तरह के मुद्दों पर मेरी चर्चा होती रहती थी। प्रसंगवश बता दूं कि मैंने एक बार एक ब्लॉग नवरात्रों पर लिखा था जिसमें गाजियाबाद के वसुंधरा में हम बच्चियों को भोजन कराते थे और उन्हें बुलाने का अंदाज मुझे भा गया था। मेरे घर में या शायद औरों के घर में भी बात यही होती थी कि एक बच्ची 2190 से आएगी एक 3110 से एक बच्ची 1111 में भी है वगैरह... वगैरह। यानी वहां यह बात नहीं होती थी कि शर्मा जी की बेटी, पांडेय जी की बेटी या फलां जी की बेटी... फ्लैट नंबर से कन्याएं आती थीं और पूजन होता था। खैर... यह तो प्रसंग था।
कक्षा पांच पास करके जब मैं लखनऊ गया था तो शुरू-शुरू में मुझे कुछ खबरें अंदर तक परेशान करती थी। जातिवाद के नाम पर कत्ल की खबरें अक्सर सुनाई देती थीं। कुछ बड़ा हुआ तो इस विषय पर उत्तराखंड के मसले पर बात होने लगी। मैं बड़े गर्व से कहता, जात-पात का ऐसा विकराल रूप हमारे यहां नहीं है। हमारे यहां एक ही झरने से सभी जातियों के लोग पानी भरते हैं। यही नहीं अपनी-अपनी बारी से भरते हैं। हमारे नीचे ठाकुरों का गांव है, वहां भी हम लोग रिश्तों से बात करते हैं यानी कोई हमारा चाचा है तो कोई भैया। जैसे बिशन दा, मोहन का। का मतलब चाचा। उन्हीं दिनों हर वर्ष गर्मियों की छुट्टियों में मैं घर जाता था। एक बार हमारे खेतों को जोतने के लिए हलिया (बता दूं कि हल जोतने वाले को हलिया कहते हैं और ज्यादातर वह अनुसूचित जाति से होता है) आया हुआ था। मां ने मुझे बाद में चाय देकर खेत में भेज दिया और बोलीं कि एक घंटे में दोपहर का भोजन लेकर वह आएंगी। मैं वहां पहुंचा तो हलिया खेत की जुताई के बाद पट्टा (हमारे यहां इसे मय कहते हैं, इसमें बैलों के सींग में हल की जगह एक लंबा जोत रखकर उसके सहारे पटरा चलाया जाता है जो जमीन को समतल सा कर देता है) चला रहा था। मुझे बड़ा लालच आया। मैंने कहा मैं भी पटरे पर खड़ा होऊंगा। हलिया ने पहले मना किया, फिर मुझे ऐसा करने दिया। थोड़ी देर में गांव के कुछ लोग उधर से गुजरे तो मुझे देखकर हंसने लगे। हलिया के एक-दो दोस्त भी आये और मेरी ओर देखकर 'नंग बामण' कहकर चल दिए। मांता जी को भी बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने डराया कि कहीं पलटकर गिर जाऊंगा तो। उन्होंने गिरने का डर दिखाकर मुझे वह करने से रोक दिया।
इसके अगले दिन मैं अपने घर से कुछ ही दूरी पर रहने वाले अपने मित्र दिनेश (अनुसूचित जाति) के घर गया। वे लोग लोहे के औजार बनाते हैं जैसे कि कुल्हाड़ी, हंसिया, कुदाल वगैरह-वगैरह। जिस भट्टी में वे लोहा गरम करते थे उसमें लगातार धौंकनी चलाने के लिए साइकिल के एक रिम को लगातार घुमाना होता था। मुझे वह नजारा देखकर अच्छा लगा और मैं वहीं बैठकर उस रिम को चलाने लगा। मुझे ऐसा करते देख मेरे गांव वालों ने आपत्ति जताई। हालांकि मेरे विरोध में कोई पंचायत-वंचायत नहीं हुई। बाद में मैंने देखा कि अनुसूचित जाति के कई लोग अच्छी नौकरी पाने के बाद समृद्ध हो गए तो शहरों में हमारे ही गांव के कई लोगों का उनके साथ उठना-बैठना चालू हो गया। यही नहीं यह भी सुनने में आया कि कई लोगों ने प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए उनके साथ जाम टकरा लिए तो सारे वोट संबंधित नेता को मिल गए। असल में बात है आर्थिक स्थिति की। आर्थिक तौर पर मजबूत हैं तो जाति-पाति बहुत कुछ आपका बिगाड़ नहीं सकती। आर्थिक रूप से कमजोर हैं तो सब गड्डमड्ड। आर्थिक रूप से कमजोर होने का दंश मैंने कदम-कदम पर झेला है।
दिल्ली के अफसर टमटा जी का किस्सा
जात-पात की जड़ें गहरे होने का कारण कहें या सदियों से चली आ रही परंपरा का नतीजा। मैंने सुना है कि दिल्ली में कोई बड़े अफसर रहे हैं टमटा। शायद कमिश्नर या हो सकता है कोई बड़े राजनीतिज्ञ। मैंने यह सुना है कि उन्होंने अपनी कोठी पर एक ब्राह्मण रसोइया अलग से रखा हुआ था। जब उनके गांव के ब्राह्मण लोग उनसे मिलने आते तो उनके लिए चाय या फिर खाने-पीने की चीजें वह विशेष रसोइया ही बनाता। उन्होंने ऐसा क्यों किया यह तो नहीं मालूम, लेकिन कई खांटी पंडित आज भी उनकी इस बात को याद कर उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं।
आरक्षण और नयी पीढ़ी
जिम्मेदारी तो नयी पीढ़ी की ही बनती है कि इस जात-पात की दुर्गंध को दूर करें। हालांकि आरक्षण की व्यवस्था के चलते भेदभाव मिट नहीं पाता। पिछले दिनों कई बच्चों से बात हुई। कोई कहता मेरी जितनी रैंकिंग आई है, उससे मुझे कोई अच्छा कॉलेज नहीं मिल पा रहा है और रैंकिंग में मुझसे बहुत ज्यादा पीछे रहने वाले को आरक्षण के चलते अच्छा कॉलेज मिल गया। जब मैंने कहा कि इससे परेशान होने की जरूरत नहीं तो एक दूसरा बच्चा बोला, 'अंकल मेरा एक दोस्त है जो रोज पांच-सौ रुपये खाने-पीने पर उड़ा देता है, अब हम लोग एक ही कैंपस में गए हैं। हमने सवा लाख रुपये जमा करना है और उसने महज 600 रुपये।' मैंने समझाया कि ईडब्ल्यूएस कोटे का फायदा उठाना चाहिए। खैर तर्कों-कुतर्कों का अंतहीन सिलसिला कहां खत्म होने वाला। इसी दौरान खबर आई कि पिछले पांच-सात सालों में आईआईटी, आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में करीब 150 बच्चों ने आत्महत्याएं की हैं। इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के थे। शायद उन्हें बात-बात पर कोसा जाता होगा। नयी पीढ़ी को जात-पात के बंधन तोड़ने होंगे। आरक्षण का मुद्दा आर्थिक हो या जाति आधारित यह दूसरी तरह के बहस का विषय है।

Monday, December 20, 2021

इस निर्ममता से कौन से भगवान प्रसन्न होते होंगे

 केवल तिवारी

पंजाब में पिछले दिनों कथित तौर बेअदबी के दो मामले सामने आए जिनमें दो लोगों की हत्या कर दी गयी। ऐसा ही एक वाकया कुछ समय पहले गाजियाबाद में हुआ था जब एक बच्चे ने मंदिर में पानी पीया तो उसे एक व्यक्ति ने बहुत निर्ममता से पीटा। किसान आंदोलन के दौरान एक शख्स के हाथ-पांव काटकर लटकाने का मामला कौन भूल सकता है। गैर मुस्लिमों पर कश्मीर में अत्याचार की बात तो कितना बड़ा मुद्दा बना है, सभी जानते हैं। आखिर ये कौन लोग हैं जो धर्म के नाम पर दावा करते हैं कि उन्होंने अधर्मी को मार दिया। कौन से भगवान हैं जो हिंसा से खुश होते हैं। क्या भगवान, अल्लाह, यीशू, वाहेगुरु आदि-आदि, हम जिस भी धर्म को मानते हों, कभी कोई ऐसा संदेश देता है। क्या हिंदुओं के किसी भी धर्म ग्रंथ में हिंसा को उचित ठहराया गया है। बल्कि वहां तो सार-संक्षेप में कहा गया है-
अष्टादश पुराणेसु व्यासस्य वचनद्वयम
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम।
अर्थात अठारह पुराणों में व्यास जी के दो ही वचन हैं-परोपकार के समान के कोई पुण्य नहीं और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं।
ऐसे ही इस्लाम में क्या हिंसा को जायज ठहराया गया है। इस्लाम का तो अर्थ ही है शांति की स्थापना। पता नहीं धीरे-धीरे कैसे धर्म के ठेकेदार बनते गये और हत्या को जायज ठहराते चले गये। इसी तरह सिख धर्म में तो सभी महापुरुषों की वाणियों को संजोया गया है। चाहे गुरु नानकदेव हों, रैदास हों, कबीरदास हों, दादू हों या कोई और उसमें तो मानव से प्रेम की सीख दी गयी है। फिर सिख धर्म के अनुयायी तो परोपकार के कितने की काम करते हैं। इस धर्म के अनुयायी जो चैरिटी करते हैं वह कभी भी जाति-पाति या पंथ, संप्रदाय नहीं देखते। जैन धर्म और बौद्ध धर्म में तो अहिंसा परमोधर्म: सिखाया ही जाता है।
जब सभी धर्मों का मूल मंत्र अहिंसा है, प्रेम है तो फिर यह हत्या, पिटाई जैसी बातें कैसे आ जाती हैं। धर्म के नाम पर सियासती लोग भी चुप्पी साध लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है। अहिंसा, प्रेम का बिल्कुल यह अर्थ नहीं है कि कोई किसी दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुंचाए। ऐसा कदापि नहीं किया जाना चाहिए और यह अधर्म है, लेकिन अगर कोई ऐसा व्यक्ति सामने आता है तो क्या उसे कानून के हवाले नहीं किया जाना चाहिए। कानून अपने हाथ में लेने का मतलब है आप सबकुछ हो गये। आप न्याय के देवता हो गये। आप अनुयायी हैं। अनुयायी धर्म की बातों को प्रचारित या प्रसारित करते हैं, अधर्म का काम नहीं करते। हिंसक होते समाज के कुछ लोगों को सोचना होगा कि जो भी लोग पर्दे के पीछे हिंसा को जायज ठहराते हैं, वे असल में अधर्मी हैं। इसलिए जागिए। धार्मिक बनिये। हिंसक या पशुवत नहीं।

Tuesday, December 14, 2021

वह चार एक्सीडेंट और करता, फिर भी कुछ नहीं होता

 केवल तिवारी



कभी-कभी फिल्मों या सीरियल्स में दिखाते हैं कि कोई व्यक्ति एक्सीडेंट के बाद भाग जाता है तो थोड़ी देर में ही 'अलर्ट पुलिसिंग व्यवस्था' उसे पकड़ लेती है और फिर कानून के दायरे में जो होता है, सही होता है। लेकिन फिल्मी सीन तो फिल्मी ही होते हैं, असल जिंदगी में ऐसा कहां होता है? आपकी शिकायत ही पुलिस सुन ले, यही बहुत है। वह भी तब जब आपने तमाम प्रयास किए हों। बात रविवार 12 दिसंबर, 2021 के शाम की है। मैं दिल्ली गया था। बेटा कार्तिक अपने मामा भास्कर जोशी के पास था। मेट्रो से लौट रहा था तो भास्कर का फोन आया कि जब मोहन एस्टेट स्टेशन पर पहुंच जाएंगे तो फोन कर देना और सराय स्टेशन पर उतरना, मैं लेने आ जाऊंगा। एक बारगी मैंने कहा कि परेशान मत होओ मैं ऑटो से आ जाऊंगा, लेकिन वह नहीं माने। मानना भी कैसा? कोई भी होता तो ऐसा ही करता अगर समय है तो। हमारे यहां कोई आए और मैं बहुत व्यस्त नहीं हूं तो शायद ऐसा ही करूं। शाम करीब सवा सात बजे भास्कर फरीदाबाद में ग्रीन फील्ड कालोनी से अपनी वैगनआर कार (नंबर HR51AU10312) से मुझे लेने सराय स्टेशन पर आ गए। गाड़ी की पार्किंग लाइट ऑन कर उन्होंने हैंड ब्रेक उठाया ही था कि पीछे से एक मारुति स्विफ्ट डिजायर गाड़ी (नंबर DL3CAU4759 - यह नंबर वहां आसपास लोगों ने बताया क्योंकि भास्कर कुछ पल के लिए तो समझ ही नहीं पाए कि हुआ क्या?) तेज रफ्तार में आई और भास्कर की कार पर इतनी जोरदार टक्कर मारी कि पीछे का बंपर, लाइट सभी फूट गए और हैंड ब्रेक में खड़ी गाड़ी तेजी से आगे बढ़ी और वहीं किसी रिश्तेदार को लेने आए एक अन्य सज्जन की गाड़ी से टकराई। इस क्रम में भास्कर की गाड़ी का बोनट आदि भी क्षतिग्रस्त हो गया। जिस गाड़ी ने टक्कर मारी उसने तुरंत गाड़ी बैक की और वह भाग गया। लोगों ने बताया कि वह नशे में धुत लग रहा था। उसी वक्त मैं वहां पहुंच गया। सारा माजरा समझने के बाद हमने कोशिश की कि पहले पुलिस को सूचना दे दें ताकि वह आगे कोई एक्सीडेंट न कर पाए। चूंकि भास्कर ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे, जोर का झटका लगने से पैर और पीठ में चंक पड़ गया था। 100 नंबर पर बहुत देर तक ट्राई करते रहे, फोन नहीं लगा। तभी मैंने अपने अखबार के रिपोर्टर राजेश शर्मा जी को फोन लगाया। उन्होंने बताया कि उन्होंने सराय थाने के एसएचओ साहब से कह दिया है। इस बीच किसी तरह पुलिस से संपर्क हुआ। एक पीसीआर वैन आई और उसमें मौजूद पुलिसवाले बोले-गाड़ी लेकर थाने आ जाओ। मैंने कहा कि भाई ये नंबर लोगों ने बताया है कोई ऐसी प्रणाली नहीं है कि आप दिल्ली पुलिस को सूचित कर दो ताकि वह कहीं ट्रेश हो जाए। पुलिसवाले ने कहा आप बच गए, भगवान का शुक्र है। आप थाने आ जाओ। पुलिसवाले तो चले गए, लेकिन हमारी गाड़ी चल ही नहीं पा रही थी। किसी तरह दस किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से हम ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थाने पहुंचे। वहां हमसे इंतजार करने को कहा गया। मैंने एसएचओ साहब के बारे में पूछा तो पता लगा कि वह छुट्टी पर हैं। आधे घंटे के इंतजार के बाद भी जब कुछ नही हुआ तो मैंने दिल्ली स्थित अपने छोटे भाई सरीखे और वरिष्ठ पत्रकार अवनीश चौधरी को फोन किया। अवनीश ने कहा कि यह तो हिट एंड रन का मामला बनता है। पुलिसवालों से इस संबंध में बात की तो वह हमेशा की तरह समझाने लग गए। बहुत देर हो गई तो मैंने पुलिस वाले को थोड़ा गुस्से में नमस्ते किया और हम आने लगे तभी पुलिसवाला अपना रोना रोने लगा। उनकी बात सुनकर लगा कि वास्तव में काम का बहुत प्रेशर है इनके पास। उन्होंने एक शिकायती पत्र लिखवाया और घर जाने को कहा। अगले दिन मैं तो चंडीगढ़ आ गया, लेकिन भास्कर की समस्या अभी बरकरार थी। संबंधित पुलिसवाले को फोन किया तो वह नहीं उठा पाए। फिर वह सीआईएसएफ अधिकारियों के पास पहुंचे कि शायद सीसीटीवी फुटेज मिल जाएं, लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। बताया गया कि मेट्रो स्टेशन के बाहर का एरिया सीसीटीवी की रेंज में नहीं है। फाइनली भास्कर कार को लेकर वर्कशॉप लेकर गए। वहां बताया कि करीब 50 हजार खर्च आएगा और 10 दिन लगेंगे। कुछ पैसा शायर इंश्योरेंस कंपनी का मिल जाएगा। दुर्घटना के बाद हम सब लोगों ने पहले तो भगवान का यही शुक्रिया अदा किया कि भास्कर सुरक्षित है। फिर भास्कर के मन में भी वह बात आई कि अक्सर वह किसी को लेने जाते हैं तो बच्चे को साथ ले लेते हैं। अगर मेरा बेटा या उनका बेटा गाड़ी में पीछे बैठे होते तो क्या होता? भगवान का बहुत-बहुत आशीर्वाद रहा कि ऐसा भी नहीं हुआ। भगवान का आशीर्वाद इस रूप में भी कि हमारी गलती से यह सब नहीं हुआ। भगवान की कृपा आगे भी बनी रहे, यही प्रार्थना है।
इसी दौरान मुझे वह हादसा याद आया जो हमारे साथ की पत्रकार कविता ने हमें बताया था। उनके कुछ रिश्तेदार चंडीगढ़ आए थे। चंडीगढ़ से वापसी के दौरान परवाणु नामक जगह पर उनकी कार खराब हो गयी। वे लोग बाहर उतरकर फोन करने लग गए, तभी पीछे से तेज रफ्तार कार ने टक्कर मार दी। पांच लोग घायल हो गए। उनमें से अब तो एक की जान ही चली गयी। वह कार वाला भी उपरोक्त केस की तरह भाग गया था, लेकिन हादसे के दौरान उसकी कार की तेल की टंकी फट गयी थी, जिससे वह पकड़ा गया, लेकिन क्या होगा? अब वह जमानत पर है। एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है, कुछ लोग गंभीर रूप से घायल हैं। उस व्यक्ति की कार की फ्यूल टंकी अगर नहीं फटती तो वह भी सराय मेट्रो स्टेशन वाले वाकये की तरह भाग जाता, शायद एक-दो एक्सीडेंट और करता। खैर... क्या कहूं, लिखने का ही रोग है मुझे। इसलिए भगवान को धन्यवाद देते हुए परोक्त के अलावा कुछ पंक्तियां लिख रहा हूं-
अपनी लड़ाई खुद लड़िए, बहुत भरोसा मत रखिए
राह चलते रईसजादों से खुद बचकर चल दीजिए
इस शहर में मददगार भी मिलेंगे, पर अधूरे-अधूरे से
दो शब्द सांत्वना के बोल दिए उसी से सुकून लीजिए।
असल में, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि एक्सीडेंट क्यों हुआ। यूं तो वह ओवरस्पीड में ही रहा होगा, हो सकता है ड्रिंक भी की हो। ये सब तो गंभीर अपराध हैं। लेकिन साथ ही यह भी कि सड़क पर चल रहे हैं तो कभी-कभी कुछ गलतियां भी हो जाती हैं। मेरा सवाल है उसके भागने पर। मेरे कितने जानकार हैं, जिनसे कुछ एक्सीडेंट हो गए हैं, लेकिन पीड़ित की पूरी मदद की गयी। यहां तो पीड़ित ही दोषी की तरह इधर-उधर घूमता रहा और....

Tuesday, December 7, 2021

... जरा फासला बरकरार रखिए

केवल तिवारी

मशहूर शायद बशीर बद्र साहब ने बहुत पहले लिखा था-
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।

शहर तो वही है, मिजाज नया है। कोरोना के बाद का मिजाज। अभी बाद भी कहां आया। तरस गए हैं पोस्ट कोविड पीरियड सुनने के लिए। लग रहा था कि भारी तबाही मचाने के बाद अब तो सब यही कहेंगे चलो मुक्ति मिली कोरोना चला गया। लेकिन कोरोना गया नहीं, नित नये रूप धरकर मानव सभ्यता या असभ्यता को डरा रहा है।

आदत ऐसी बनी कि सेल्फी भी मास्क पहनकर ली

अब बात यानी फासला पर। फासला यानी डिस्टेंसिंग। डिस्टेंसिंग शब्द सुनते-सुनते अब तो कान पक गए। जब से कोरोना आया है दूरी बनाये रखिए, हाथ न मिलाइये, नजदीकी ठीक नहीं जैसे कई शब्द या वाक्यांश हम आएदिन सुनते चले आ रहे हैं। जितना शारीरिक रूप से दूरी बनाए जाने पर बल दिया जा रहा था, उतना ही अनेक लोग तो दिली दूरी भी बनाए बैठे हैं। संवादहीनता है। साथ ही इस रौद्ररूप में संवेदनशून्यता भी दिखी। ऐसा नहीं कि तस्वीर एकतरफा थी, इसका दूसरा पहलू भी था। मदद को बढ़े हाथों ने मानवीय संवेदनाओं को जिलाए रखा।
थोड़ी सी उम्मीद जगी है
कोरोना महामारी के रौद्र रूप के बाद अब कुछ नया और ऊर्जावान होता दिख रहा है। बॉलीवुड उत्साहित है। टीवी शोज में क्रिएटिविटी दिख रही है। स्कूल लगभग खुल गए हैं। सरकारी और निजी दफ्तरों में आवाजाही सामान्य हो गयी है। ट्रेनें भी फुल चलने लगी हैं। बेशक अच्छा-अच्छा सा दिख रहा है, लेकिन यह नये दौर का जमाना है, इसलिए फासला जरूरी है। विशेषज्ञों कहते हैं कि भीड़ से अब भी बचना है। इसी बचना है की ताकीद का ही परिणाम था कि पिछले दिनों एक जरूरी कार्यक्रम में दिल्ली जाना था, लेकिन तमाम किंतु-परंतु के बीच आखिरकार नहीं जाना ही तय किया। ओमिक्रोन के रूप में नए वेरिएंट से डर लग रही है। अब अगर वही रौद्र रूप रहा तो स्थिति से पहले से ज्यादा बिगड़ेगी क्योंकि भूकंप का एक झटका तो सह लिया जाता है, लेकिन वैसे ही या उससे भी भयावह झटके लगने लग जाएं तो संभलना मुश्किल हो जाता है।

स्कूलों का आलम देख खुश तो हुए, लेकिन...



चित्र साभार कार्तिक


पिछले दिनों छोटे बेटे के स्कूल से नोटिस आया कि बच्चे को स्कूल भेजें। बसवाले से बात की तो वह भी राजी हुआ। राजी होना ही था क्योंकि दो साल से उसकी बसें बंद थीं। शुरू के कुछ दिनों में तो बच्चे को ले जाना और लाना खुद ही करना पड़ा, लेकिन 29 नवंबर से बस नियमित रूप से आने लगी। जब बच्चे को खुद ले जाना हो रहा था तो लगभग दो साल बाद ऐसा खुशनुमा माहौल देखकर मन प्रसन्न हो रहा था। बच्चे आपस में मिल रहे थे। हंसबोल रहे थे। किसी ने मास्क लगाया था किसी ने कान में टांग तो रखा था, लेकिन बस औपचारिकता निभाने की तरह। जो भी ऐसी ही तस्वीर बनी रहे। नए साल से हालात सामान्य हो जाएं, यही दुआ है।

एक सवाल अनुत्तरित
सब पूछते हैं कि बच्चों में आखिर इतनी मजबूती का क्या सबूत है। बड़ों को तो टीक लग गए फिर भी कई कॉलेज अब भी नहीं खुले। आईआईटी, आईआईएम एवं नीट जैसी पढ़ाई अभी बच्चे घर से ही कर रहे हैं। बच्चों को न तो वक्सीन लगी और न ही बच्चे कोविड प्रोटोकाल का वैसा पालन कर सकते हैं जैसा बड़े, ऐसे में उन्हें स्कूल बुला लेना क्या समझदारी भरा कदम है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दिनों दिल्ली में प्रदूषण मसले पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की थी जब बड़ों के लिए वर्क फ्रॉम होम है तो बच्चों को स्कूल क्यों बुलाया जा रहा है।

जरा फासले से ही मिलिए जनाब
सारी बातों का निचोड़ यही है कि फिलहाल फासले से मिलने की व्यवस्था को बरकरार रखिए। हाथ मिलाने की जरूरत नहीं। नमस्ते या सलाम ही कर लीजिए। मास्क पहनना बहुत जरूरी है। और अगर वैक्सीन नहीं लगवाई है तो इसमें देरी न करें। एक-एक व्यक्ति जब सुरक्षा कवच से घिरेगा तभी कोराना भागेगा।

Thursday, December 2, 2021

और मुच्चू लौट आया...

धवल की फरमाइश पर विशेष ब्लॉग


बोल और अबोल प्राणियों में एक अनजाना सा रिश्ता बन जाता है। भावनाओं का रिश्ता। रिश्ता कुछ-कुछ ऐसा... कुछ-कुछ वैसा...अनकहा...। अनजाना। पता नहीं कैसा। इसी रिश्ते की एक बानगी है मुच्चू, जिसे कुछ दिन पहले हम लोग, कम से कम मैं तो था की श्रेणी में ले आया था। लेकिन वह है और स्वस्थ हो रहा है। मुच्चू डॉगी है। काठगोदाम में। नेहा उसे करीब आठ साल पहले लेकर आई थी। तब से वह इस घर का सदस्य सरीखा बन गया। बेहद सीधा। ऐसे कुत्ते मैंने कहीं नहीं देखे। मेरा बेटा धवल और फरीदाबाद राजू का बेटा भव्य तो उसे बहुत प्यार करते हैं। वीडियो कॉल के दौरान दोनों मुच्चू को दिखाने की बात करते हैं और जब काठगोदाम जाते हैं तो उसको इतना छेड़ते हैं कि मजाल वह कोई नुकसान पहुंचा दे। बहुत हुआ तो हल्का सा गुर्राएगा... बस। इस बीच, मुच्चू पर जानलेवा हमला हो गया। हमलावार इस प्रजाति का चिर-परिचित जानवर तेंदुआ था। गजब साहस दिखाया नेहा ने, मौत के मुंह से उसे खींच लिया। डॉक्टर को दिखाया। कुछ दिन उदासी रही कि बेचारे पर हमला हो गया। खैर वह ठीक होने लगा। अचानक एक रात उसने अजीब सी बेचैनी होने पर अपना विकराल रूप दिखाया और घरवालों को मजबूरन दरवाजा खोलना पड़ा और वह भाग गया। ऐसा भागा कि घरवालों की पहुंच से दूर हो गया। रोना-धोना हो गया। घरवाले परेशान। तमाम तरह की उदासियों के बीच मुच्चू ही था जो मन लगाए रहता था। नेहा के पापा के साथ तो पूरी दोस्ती निभाता था। नंदू भाई साहब भी पूरा ध्यान रखते। मुच्चू कहां गया? जितने लोग उतनी बातें। मुझ तक भी बात पहुंची। मैंने भी अंदाजा लगाया कि उसे तेंदुआ या बाग ले गया होगा। फिर मैंने एक दो एक्सपर्ट से बात की। उन्होंने कई तरह की बातें बताईं। एक तो यह कि वही तेंदुआ इलाके में फिर आया होगा और उसकी गंध से इसमें बेचैनी हो गयी होगी और यह पागल सा हो गया होगा। इसके अलावा और भी कई तरह की बातें। आखिरकार मान लिया गया कि मुच्चू चला गया। मैंने भी सांत्वना के कुछ मैसेज नेहा को किए। इस बीच, हमारे विवाह की वर्षगांठ पर सुबह-सुबह फोन आया। हमें लगा कि बधाई देने के लिए फोन कर रहे होंगे। पत्नी ने फोन उठाया। पहला वाक्य था, 'मुच्चू आ गया।' इतना सुनते ही सारे घर में खुशी की लहर दौड़ गयी। धवल तो अंदर-बाहर दौड़कर उसे वीडियो कॉल के जरिये देखने लगा। उसने तुरंत अपनी मौसी और पता नहीं कहां-कहां फोन कर इस खबर को फैलाया। मैं यह नजारा देख रहा था। मेरे मन में भी खुशी थी, लेकिन मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा था। उस दिन अच्छा बीता। ऑफिस से आने के बाद शाम की पार्टी में एक खुशी और बढ़ गयी। मुच्चू अब स्वस्थ हो रहा है। यहां पर चंद लाइने पेश हैं-
गुफ़्तगू अब जानवरों से किया करते हैं,
क्योंकि ये कभी दिल नहीं दुखाया करते हैं।
जानवर तो बेवजह ही बदनाम है,
इंसान से ज्यादा कोई खूंखार नहीं होता है।

एक भावुक सीन चंडीगढ़ में भी...
चंडीगढ़ आने के बाद से मैं एक ही मकान में रह रहा हूं। इस कालोनी में भी कुछ कुत्ते हैं। कुछ लोगों के घरों में पले हैं और कुछ स्ट्रीट डॉग हैं, लेकिन उनका हमारे घर से भी वास्ता हो गया। कभी-कभी आते और एक कटोरी दूध पीकर चल देते। इस बीच कुछ लोग भावुक होकर कहते कि इनमें से कुछ कुत्ते दुबले हो गए हैं। इनकी एज ही क्या होती है। देखना अब ये मरने लगेंगे। सच में कुछ दिन पहले एक कुत्ता कहीं चला गया और पता चला कि वह मर गया। इसी बीच, एक कुत्ता जिसे मोहल्ले वालों ने 'साफ्टी' नाम दे रखा था मर गया। उसे वहीं एक खाली प्लॉट में दफना दिया गया। उसके बाद का भावुक सीन मुझे दिल से रुला गया। शाम को टलहलते वक्त देखा कि साफ्टी के साथ का एक भूरे रंग का कुत्ता थोड़ी-थोड़ी देर में भौंक रहा है, फिर गोल गोल घूमकर बैठ जाता है। फिर भावना ने बताया कि आज तो इसे देखकर हर कोई भावुक हो गया। यह अपने मुंह में रोटी लेकर जाता और जहां साफ्टी को दफना रखा है, वहीं पर मिट्टी खोदकर डाल देता। उसे लगा कि उसका दोस्त कहीं अंदर जाकर छिप गया है। सचमुच यह सीन भावुक था। मुझे याद है एक बार किसी शो में अमिताभ बच्चन ने कहा था, 'मुझे कुत्ते पालना बहुत अच्छा लगता है, लेकिन कुछ सालों बाद उनकी मौत हो जाने पर बहुत दुख भी होता है, इसलिए अब कुत्ते नहीं पालता।'

... लखनऊ का टॉमी
जब मैं कक्षा 7 में पढ़ता था, लखनऊ में हमारा एक पालतू कुत्ता था। नाम था टॉमी। वह मेरे भाई साहब की साइकिल की आवाज पहचान लेता था। दूर से ही आवाज सुनकर उछलने लगता था। भाई साहब की जेब में उसके लिए कुछ न कुछ होता था। जब सुबह वह ऑफिस जाते तो वह एक किलोमीटर तक छोड़ने जाता फिर लौट आता। ऐसे ही दीदी-जीजाजी के साथ उसका व्यवहार था। एक दिन वह अचानक गायब हो गया और फिर कभी नहीं लौटा।

कई फिल्में बनी हैं जानवरों पर
जानवरों की वफादारी का यह आलम है कि उन पर हिंदी और अंग्रेजी में कई फिल्में बनीं हैं। लिटिल स्टुअर्ट, नीमो, लैस्सी कम होम, लेडी एंड द ट्रैंप, ओल्ड येलेर, द फॉक्स एंड द हाउंड, डॉक्टर डू लिटिल जैसी तमाम हॉलीवुड फिल्मों के अलावा हिंदी में तेरी मेहरबानियां, मर्द, हाथी मेरे साथी जैसी कई फिल्मों में जानवरों की वफादारी की कहानियां हैं।

नुकसान भी पहुंचाया है
जानवरों खासतौर पर कुत्तों ने कई बार नुकसान भी पहुंचाया है। कई बार बच्चे को नोचने और बुजुर्ग को काटने की खबरों से हम-आप दो-चार होते रहते हैं। एक बार तो एक कुत्ते ने घर के दामाद को जान से मार डाला था। हालांकि इन सबमें गलती इंसानों की भी होती है। वैसे स्ट्रीट डॉग से सावधान रहना चाहिए और जो लोग कुत्ता पालते हैं उन्हें चाहिए कि जानवरों की वैक्सीन समय पर लगवाकर उसे नियंत्रण में रखें। जैसे मुच्चू को रखा जाता है।

Wednesday, December 1, 2021

यादगार सफरनामा मानो कि सपना देखा हो कोई...

 केवल तिवारी

इस छोटे से सफरनामे की दास्तां की शुरुआत इसके अंतिम छोर से करता हूं। बृहस्पतिवार 18 नवंबर की शाम करीब 8 बजे जैसे ही घर पहुंचा, शीला दीदी-जीजाजी और भानजा कुणाल तैयार थे। उन्हें चंडीगढ़ स्टेशन छोड़कर आना था। मैंने पानी पिया, कुछ मिनट बातें हुईं। पूरन जीजाजी ने कुछ पैसे मेरे जेब में डालते हुए कहा कि ये जो बाकी रह गया था, वह भी मेरे तरफ से। मैंने कहा भी कि सब कुछ तो आपने ही किया है, वे बोले-बस रख लो। मैं मुस्कुरा दिया। अब चलना चाहिए, मैंने ही यह बात कही क्योंकि करीब सवा नौ बजे की ट्रेन थी। चलते-चलते छोटा बेटा धवल मेरे भानजे कुणाल से बोलने लगा, भैया कितना खराब लग रहा है, आप जा रहे हो। भानजे ने उसे दिलासा दिया कि फिर आएंगे और एक वाक्य बहुत शानदार कहा। कुणाल ने कहा, जब जाएंगे तभी तो आएंगे।’ एकदम सही बात। यही आना-जाना तो सफर है। हम लोग कुछ दिन साथ रहकर प्रसन्न थे। साथ ही अभी प्रेमा दीदी और जीजाजी एक-दो दिन और यहां रुकने वाले थे, इसलिए एक टीम के जाने के बाद दूसरी टीम से बातचीत का पूरा मौका था। लेकिन यह क्या? पता नहीं कब 22 नवंबर आ गयी। सुबह 6 बजे अंबाला से ट्रेन थी। चार बजे उठ गये और दीदी-जीजा जी को लेकर अंबाला की ओर चल दिया। अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन से पहले गूगल की मेहरबानी से अंबाला शहर रेलवे स्टेशन की तरफ मुड़ गया। एक सज्जन सुबह की सैर कर रहे थे। उनसे रास्ता पूछा तो उन्होंने कहा कैंट तो अभी सात किलोमीटर दूर है। यू टर्न लेकर दो फ्लाईओवर पार कर तीसरे के नीचे से राइट हो जाना। लगभग पौने छह बज चुके थे, 6 बजकर पांच मिनट की ट्रेन थी, लेकिन गनीमत है, सबकुछ सामान्य रहा। दीदी जीजाजी को ट्रेन में बिठाकर लौट आया। उस पूरे दिन भागदौड़ बनी रही, इसलिए दोनों दीदीयों की गैरमौजूदगी नहीं खली। लेकिन रात करीब साढ़े आठ बजे जब ऑफिस से घर पहुंचा तो सुनसान सा लगा। घर में भी सभी ने कहा, कल तक चहल-पहल थी, आज फिर वही सन्नाटा। खैर कुणाल की कही बात के अनुसार, ‘जाएंगे तो आएंगे।’ खैर अब थोड़ा आगे चलते हैं। नवंबर की 17 तारीख को कुरुक्षेत्र गए थे। वहां ब्रह्मसरोवर में पूजा अर्चना की। लखनऊ वाले जीजा जी ने अपने पूर्वजों के नाम पिंडदान किया। मैंने और मिश्राजी जीजाजी ने तर्पण किया। कुछ पलों के लिए माहौल तब भावुक हो गया जब पंडित जी ने सभी पितरों का नाम लेने को कहा। फिर ज्ञात और अज्ञात...। वहां से निकले तो कुरुक्षेत्र में बने पेनोरमा व साइंस सेंटर में घूमने चल दिए। इस बीच कुछ खाना हुआ। बहुत खराब खाना। खैर खाया किसी तरह। उसमें जिक्र लायक कुछ नहीं। उससे एक दिन पहले हम लोग गए हिमाचल की यात्रा पर। देवी दर्शन यात्रा। उससे पहले एक शेर जिसे इधर-उधर से लेकर मोडिफाई किया है-

आओ संग में एक कहानी बनाते हैं। चलो कहीं घूम के आते हैं!









असल में हमारी हिमाचल यात्रा से पहले जैसा कि ऊपर वर्णन कर चुका हूं। दो दीदीयां-जीजाजी और भानजा कुणाल पहुंचे थे। लखनऊ से दीदी-जीजा जी और भानजे कुणाल और गौरव श्रीनगर, खीर भवानी देवी और माता वैष्णोदेवी की यात्रा कर लौटे थे। कार्यक्रम तो प्रेमा दीदी का भी बन रहा था, लेकिन शायद उन्हें बुलावा नहीं आया था। वे लोग सीधे चंडीगढ़ पहुंचे। इस बीच हम लोगों की यात्रा का कुछ विवरण बनता रहा। सबके चल पाने और न चल पाने की कशमकश थी। बातों से कुछ बातें निकलीं, उसी कवि की चंद पंक्तियों की मानिंद जिन्होंने लिखा-

बहुत कर लिया मलाल ज़िन्दगी में, चलो आज अपनी ज़िन्दगी जी लेते हैं।

रह चुके बहुत हम घर में सिमट कर, चलो आज घर से कहीं दूर चलते हैं!

सब लोगों के आने वाले दिन सभी से आराम करने के लिए कहा गया। इस बीच एक एटरेगा गाड़ी की व्यवस्था की गयी। हम लोगों ने सबसे पहले ज्वाला जी मंदिर जाने का मन बनाया। गाड़ी वाले से सुबह पांच बजे चलने के लिए कहा था। हालांकि हमें तैयार होते-होते 6 बज गये। लेकिन ऐसा कुछ इत्तेफाक बना कि गाड़ी वाले के साथ कुछ समस्या हुई और हम लोग लगभग 9 बजे घर से चल पाये। शायद इस देरी में भी कुछ अच्छाई छिपी थी कि देरी के बावजूद मंदिर में बहुत शांति से और श्रद्धापूर्वक दर्शन हुए। मुझे करीब 17 साल पहले का वह सफर याद आ गया जब मैं माताजी को लेकर ज्वाला जी गया था। उस वक्त बड़ा बेटा करीब एक साल का था। हम चार लोग थे और साथ में दो परिवार और थे। उस वक्त हमारा रूट दूसरा था। हम लोग दिल्ली से पठानकोट ट्रेन से पहुंचे। वहां से टॉय ट्रेन से हिमाचल, फिर एक गाड़ी बुक कर ज्वालाजी, चिंतपूर्णी आदि मंदिर गये। फिर वैष्णोदेवी मंदिर। बेहद यादगार सफर था वह। बुजुर्ग महिला होने के बावजूद जगह-जगह जिस तरह मां ने हम सबको संभाला, वाकई वह कोई शक्ति थी। अधकुवारी में तो गजब का साहस दिखाया मां ने। हमारे ओढ़े गर्म शॉल और एक साल के अपने पोते को लेकर वह गुफा से निकल आई। हमसे अकेले ही न निकला गया। खैर... वक्त कहां थमता है और आज वह मां, दैवीय माओं के साथ ही कहीं बैठी होगी।

चलिए थोड़ा सा भटक गया। चलते हैं आगे। हम पहले ज्वालाजी मंदिर पहुंचे। दर्शन किए और फिर दोपहर का भोजन किया। उसके बाद हम पहुंचे कांगड़ा देवी फिर चामुंडा देवी। इस तरह रास्ते की कुछ दिक्कतें और थोड़ी बहुत परेशानी के साथ शाम हो गयी। एक जगह चाय पी। तय हुआ कि चिंतपूर्णी माता के दर्शन कल करेंगे। वहीं आसपास कहीं धर्मशाला या होटल में रुक जाएंगे। फिर जिस व्यक्ति की गाड़ी (आशीष-मित्र नरेंद्र के मार्फत मुलाकात हुई और अच्छा अनुभव रहा। मृदुभाषी, मिलनसार व्यक्ति) में सब थे उन्होंने कहा कि चलते हैं अगर दर्शन हो गए तो सीधे चंडीगढ़ ही चल पड़ेंगे नहीं तो रुक भी जाएंगे। हम वहां पहुंचे तो पता चला कि दर्शन हो सकते हैं। हमने तुरंत प्रसाद लिया और रात 9 बजते-बजते दर्शन कर लिए। फिर हमारी योजना वापसी की बनी और रात करीब एक बजे हम घर पहुंच गए। बाद में हम लोग पंचकूला स्थित मनसा माता मंदिर और चंडी माता मंदिर भी सबके साथ गए। सेक्टर 19 की मार्केट गए। प्रेस क्लब गए। बहुत सी बातें कीं, हंसी-मजाक हुआ और कहना चाहूंगा कि मजाक मजाक में लखनऊ से आए जीजाजी ने कुछ ज्यादा ही खर्च कर दिया। खैर कोई नहीं, उनका वह वाक्य याद आत है कि है तो कर दिया, नहीं होता तो कहां से करते। कुल मिलाकर सबकुछ इतना जल्दी-जल्दी होता चला गया कि दो-तीन दिनों में ही लगने लगा कि अरे यह तो सपना सरीखा था। सचमुच सपना सरीखा ही होती हैं, ऐसी मुलाकातें।  बातें तो और भी बहुत कुछ हैं, लेकिन अभी वैष्णोदेवी मांता, खीर भवानी माता, चिंतपूर्णी माता, ज्वालाजी माता, चामुंडा माता, मनसा देवी, चंडीमाता को याद करते हुए ईश्वर से सबकी सलामती की प्रार्थना करता हूं। जय माता की।