केवल तिवारी
मित्र राजेश डोबरियाल की बीबीसी हिंदी पर खबर छपी थी जिसमें उत्तराखंड के चंपावत में एक स्कूल में भोजन माता के हाथ का बना खाना बच्चों ने छोड़ दिया। दरअसल वह महिला अनुसूचित जाति से थी। इस खबर को पढ़ने के बाद और उससे पहले भी इस तरह के मुद्दों पर मेरी चर्चा होती रहती थी। प्रसंगवश बता दूं कि मैंने एक बार एक ब्लॉग नवरात्रों पर लिखा था जिसमें गाजियाबाद के वसुंधरा में हम बच्चियों को भोजन कराते थे और उन्हें बुलाने का अंदाज मुझे भा गया था। मेरे घर में या शायद औरों के घर में भी बात यही होती थी कि एक बच्ची 2190 से आएगी एक 3110 से एक बच्ची 1111 में भी है वगैरह... वगैरह। यानी वहां यह बात नहीं होती थी कि शर्मा जी की बेटी, पांडेय जी की बेटी या फलां जी की बेटी... फ्लैट नंबर से कन्याएं आती थीं और पूजन होता था। खैर... यह तो प्रसंग था।कक्षा पांच पास करके जब मैं लखनऊ गया था तो शुरू-शुरू में मुझे कुछ खबरें अंदर तक परेशान करती थी। जातिवाद के नाम पर कत्ल की खबरें अक्सर सुनाई देती थीं। कुछ बड़ा हुआ तो इस विषय पर उत्तराखंड के मसले पर बात होने लगी। मैं बड़े गर्व से कहता, जात-पात का ऐसा विकराल रूप हमारे यहां नहीं है। हमारे यहां एक ही झरने से सभी जातियों के लोग पानी भरते हैं। यही नहीं अपनी-अपनी बारी से भरते हैं। हमारे नीचे ठाकुरों का गांव है, वहां भी हम लोग रिश्तों से बात करते हैं यानी कोई हमारा चाचा है तो कोई भैया। जैसे बिशन दा, मोहन का। का मतलब चाचा। उन्हीं दिनों हर वर्ष गर्मियों की छुट्टियों में मैं घर जाता था। एक बार हमारे खेतों को जोतने के लिए हलिया (बता दूं कि हल जोतने वाले को हलिया कहते हैं और ज्यादातर वह अनुसूचित जाति से होता है) आया हुआ था। मां ने मुझे बाद में चाय देकर खेत में भेज दिया और बोलीं कि एक घंटे में दोपहर का भोजन लेकर वह आएंगी। मैं वहां पहुंचा तो हलिया खेत की जुताई के बाद पट्टा (हमारे यहां इसे मय कहते हैं, इसमें बैलों के सींग में हल की जगह एक लंबा जोत रखकर उसके सहारे पटरा चलाया जाता है जो जमीन को समतल सा कर देता है) चला रहा था। मुझे बड़ा लालच आया। मैंने कहा मैं भी पटरे पर खड़ा होऊंगा। हलिया ने पहले मना किया, फिर मुझे ऐसा करने दिया। थोड़ी देर में गांव के कुछ लोग उधर से गुजरे तो मुझे देखकर हंसने लगे। हलिया के एक-दो दोस्त भी आये और मेरी ओर देखकर 'नंग बामण' कहकर चल दिए। मांता जी को भी बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने डराया कि कहीं पलटकर गिर जाऊंगा तो। उन्होंने गिरने का डर दिखाकर मुझे वह करने से रोक दिया।
इसके अगले दिन मैं अपने घर से कुछ ही दूरी पर रहने वाले अपने मित्र दिनेश (अनुसूचित जाति) के घर गया। वे लोग लोहे के औजार बनाते हैं जैसे कि कुल्हाड़ी, हंसिया, कुदाल वगैरह-वगैरह। जिस भट्टी में वे लोहा गरम करते थे उसमें लगातार धौंकनी चलाने के लिए साइकिल के एक रिम को लगातार घुमाना होता था। मुझे वह नजारा देखकर अच्छा लगा और मैं वहीं बैठकर उस रिम को चलाने लगा। मुझे ऐसा करते देख मेरे गांव वालों ने आपत्ति जताई। हालांकि मेरे विरोध में कोई पंचायत-वंचायत नहीं हुई। बाद में मैंने देखा कि अनुसूचित जाति के कई लोग अच्छी नौकरी पाने के बाद समृद्ध हो गए तो शहरों में हमारे ही गांव के कई लोगों का उनके साथ उठना-बैठना चालू हो गया। यही नहीं यह भी सुनने में आया कि कई लोगों ने प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए उनके साथ जाम टकरा लिए तो सारे वोट संबंधित नेता को मिल गए। असल में बात है आर्थिक स्थिति की। आर्थिक तौर पर मजबूत हैं तो जाति-पाति बहुत कुछ आपका बिगाड़ नहीं सकती। आर्थिक रूप से कमजोर हैं तो सब गड्डमड्ड। आर्थिक रूप से कमजोर होने का दंश मैंने कदम-कदम पर झेला है।
दिल्ली के अफसर टमटा जी का किस्सा
जात-पात की जड़ें गहरे होने का कारण कहें या सदियों से चली आ रही परंपरा का नतीजा। मैंने सुना है कि दिल्ली में कोई बड़े अफसर रहे हैं टमटा। शायद कमिश्नर या हो सकता है कोई बड़े राजनीतिज्ञ। मैंने यह सुना है कि उन्होंने अपनी कोठी पर एक ब्राह्मण रसोइया अलग से रखा हुआ था। जब उनके गांव के ब्राह्मण लोग उनसे मिलने आते तो उनके लिए चाय या फिर खाने-पीने की चीजें वह विशेष रसोइया ही बनाता। उन्होंने ऐसा क्यों किया यह तो नहीं मालूम, लेकिन कई खांटी पंडित आज भी उनकी इस बात को याद कर उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं।
आरक्षण और नयी पीढ़ी
जिम्मेदारी तो नयी पीढ़ी की ही बनती है कि इस जात-पात की दुर्गंध को दूर करें। हालांकि आरक्षण की व्यवस्था के चलते भेदभाव मिट नहीं पाता। पिछले दिनों कई बच्चों से बात हुई। कोई कहता मेरी जितनी रैंकिंग आई है, उससे मुझे कोई अच्छा कॉलेज नहीं मिल पा रहा है और रैंकिंग में मुझसे बहुत ज्यादा पीछे रहने वाले को आरक्षण के चलते अच्छा कॉलेज मिल गया। जब मैंने कहा कि इससे परेशान होने की जरूरत नहीं तो एक दूसरा बच्चा बोला, 'अंकल मेरा एक दोस्त है जो रोज पांच-सौ रुपये खाने-पीने पर उड़ा देता है, अब हम लोग एक ही कैंपस में गए हैं। हमने सवा लाख रुपये जमा करना है और उसने महज 600 रुपये।' मैंने समझाया कि ईडब्ल्यूएस कोटे का फायदा उठाना चाहिए। खैर तर्कों-कुतर्कों का अंतहीन सिलसिला कहां खत्म होने वाला। इसी दौरान खबर आई कि पिछले पांच-सात सालों में आईआईटी, आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में करीब 150 बच्चों ने आत्महत्याएं की हैं। इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के थे। शायद उन्हें बात-बात पर कोसा जाता होगा। नयी पीढ़ी को जात-पात के बंधन तोड़ने होंगे। आरक्षण का मुद्दा आर्थिक हो या जाति आधारित यह दूसरी तरह के बहस का विषय है।
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