साभार: दैनिक ट्रिब्यून
21वीं सदी को 22वां साल लग गया है। एक और नया वर्ष शुरू। नयापन। प्रकृति का नियम नव्यता। बिना नव्यता के सुख कहां। नव्यता के ही तो द्योतक हैं ऋतुएं। नया साल। त्योहार। विवाह। गृह प्रवेश। अस्वस्थता के बाद स्वास्थ्यलाभ। ये सब परिवर्तन चक्र हैं नव्यता के लिए। इस नव्यता यानी नयेपन को मन में पैदा करना होगा। इसीलिए तो कुछ-कुछ दिनों के अंतराल में हमारे यहां कुछ नयापन होता है। कहीं नव संवत्सर, कहीं हिजरी सन। कहीं लोहड़ी और कहीं पोंगल। कहीं बीहू, कहीं कोई अन्य नाम। सभी त्योहार, पर्व नव्यता के लिए। नव्यता रहे और इस नवीनता में बारंबारता रहे। खौफनाक रहे पिछले दो साल। सब जानते हैं। हर कोई प्रभावित रहा। अब नये साल की शुरुआत भी खौफ के साये में। लेकिन खौफ पर विजय भी हमें ही पानी है। और यह विजय हमें तभी मिलेगी जब हम मन से तैयार होंगे। नव संकल्प हम-आप में से अनेक लोग लेते होंगे, लेकिन उन संकल्पों की नवीनता को बहुत जल्दी पुरातन बना देते हैं यानी खत्म कर देते हैं। असल में जानकार कहते हैं कि सबसे पहले तो यह जानना होगा कि हमने संकल्प क्यों लिया और क्या लिया। संकल्प या तो कुछ छोड़ने के लिए या फिर कुछ पकड़ने के लिए। ऐसा करेंगे और वैसा नहीं करेंगे। जो हम नहीं करेंगे, वह क्या है? कहां से आया यह ज्ञान कि हम ऐसा नहीं करेंगे। हमारे भीतर से आया। यानी हमारे भीतर ही तो सबकुछ छिपा है। हम ऐसा करेंगे, यह ज्ञान भी हमारे भीतर से ही आया। अपने भीतर की आवाज को सप्रयास क्यों दबाया जाये। सप्रयास क्यों उठाया जाये। उसे आने दीजिए और उसी पर चल पड़िये। जानकार कहते हैं कि नवीनता का मतलब है प्रसन्नता से और प्रसन्नता आएगी अहंकार की समाप्ति से। तभी तो कबीरदास जी कह गये-
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय। मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय।
मरने से पहले मरने का भाव क्या है। यह भाव है अहंकार को समाप्त करना। मरना तो सबने है, लेकिन इस मरणत्व से पहले जो मर लेता है यानी अपने अहंकार, बुरी आदतों से मुक्त हो जाता है वह अमर है। वह अमरत्व को प्राप्त हो जाता है और यही अमरत्व सुख का आंगन है।
अहंकार का यह त्याग होगा मन की पवित्रता से। आपका मन साफ है तो आपका कोई दुश्मन नहीं होगा। इसका मतलब यह नहीं कि आपसे कोई बैर भाव ही नहीं पालेगा। करने दीजिए बैर। फिर बैर को स्थायी क्यों रहने दिया जाये। आप मन से सही हैं। आप के मन में द्वेष नहीं तो बैर भाव पालने वाले भी एक दिन उसे भूल जाएंगे। असल जरूरत है मन से शीतल बने रहने की।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय। यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।
तात्पर्य है कि यदि आपका मन साफ और शीतल है तो इस संसार में कोई भी मनुष्य आपका दुश्मन नहीं हो सकता। लेकिन यह भी ध्यान रहे कि अगर आपने अहंकार को नहीं छोड़ा तो आपके बहुत से लोग दुश्मन बन जाएंगे। ऐसे में यदि आप समाज में खुश रहना चाहते हैं तो किसी को भी अपना दुश्मन न बनाएं। सभी से प्रेमपूर्वक व्यवहार करें। सभी आपके दोस्त बनकर रहेंगे। अब सवाल इस पर भी उठाया जा सकता है कि सबसे दोस्ती एकतरफा कैसे हो सकती है। फिर समाज में हैं तो ऊंच-नीच भी होती है। तभी तो एक गीत के भी बोल हैं कि 'उसके दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा।' अगर ऐसी बात है तो मन के भ्रम को अपनी ओर से दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। तभी तो एक शायर ने कहा है-
दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे। जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों।
संयम सर्वथा उचित
असल में जानकार कहते हैं कि आप सम बने रहिये। सम बने रहने का मतलब है शांत स्वभाव वाला। बेशक क्रोध, हंसी, निराशा, उदासी मानवीय गुण-अवगुण हैं, लेकिन सारी कवायद इन पर विजय पाने की है। जो चीज परेशान करे, उसे कुछ पल के लिए दूरी बनाइये, ठीक उसी तरह जैसे कहा जाता है कि जब मन में कोई अवगुण वाले विचार आएं तो कुछ देर उसकी तरफ ध्यान ही मत दीजिए। 'अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप' की मानिंद चलते रहिए अपने पथ पर। रहीम दास जी ने शायद तभी कहा है-
रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि। सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि।
अर्थात कभी भी किसी कार्य और व्यवहार में अति न कीजिये। अपनी मर्यादा और सीमा में रहें। अति करने से हानि की आशंका ज्यादा रहती है। और सबसे जरूरी है अपनेपन को बनाये रखने की क्योंकि
बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय। रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।
प्रस्तुति : फीचर डेस्क
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