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Monday, June 25, 2018

गांव की संक्षिप्त यात्रा और ‘फीलिंग’ टटोलता मैं

कुछ दिन पहले रानीखेत गया था। लिखने का ‘रोग’ है मुझे। इसलिए इस यात्रा के संबंध में भी कुछ लिखा है। उससे पहले आप चंद शायरियां पढ़ लीजिये। ये शायरियां मेरे लिखे हुए मैटर के बीच-बीच में फिट हो सकती थीं, लेकिन चूंकि शायरियों में से एक भी मेरी नहीं है। इधर-उधर से टीपी हैं। इसलिए इनको अपने हिसाब से मैटर में फिट समझ सकते हैं। तो पहले पढ़िये शायरियां फिर यात्रा और घर का मसला।

वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।

घर में क्या आया कि मुझ को दीवारों ने घेर लिया है

कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख-सुख, एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था



पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है, अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

उन दिनों घर से अजब रिश्ता था, सारे दरवाज़े गले लगते थे

वर्षों बाद लौटा मैं अपने घर की गलियों में, अजनबी से पता पूछना पड़ा

हाल ही में अपने ‘घर’ रानीखेत गया। सीधे रानीखेत शब्द लिखने का मतलब उस इलाके को ‘क्लीयर’ करना है। अव्वल तो हमारा ‘घर’ रानीखेत से अच्छी-खासी दूरी पर है। पैदल भी और मोटर मार्ग से भी। रानीखेत के आगे ताड़ीखेत। उसके बाद कई गांव फिर हमारा गांव खत्याड़ी (डढूली)। यहां घर शब्द को मैंने इनवर्टेड कोमा (‘’) में लिखा है। घर को अगर अंग्रेजी के शब्द Home और House के जरिये समझें तो अब वहां स्थित हमारा घर House ही रह गया है। असल में पलायन कर चुके हम लोगों का कहीं एक जगह घर यानी Home बन भी कहां पाता है। मैं पैदा उत्तराखंड में हुआ। वह मेरी जन्मभूमि। मैंने शिक्षा लखनऊ (दो साल शाहजहांपुर में भी) ली तो उसे मैं शिक्षण स्थली कह सकता हूं। फिर दिल्ली आ गया यानी कर्मभूमि। इन दिनों चंडीगढ़ में हूं। नयी कर्मभूमि। बात फिर वहीं से शुरू करते हैं कि हाल ही में रानीखेत गया। भतीजे विपिन का एक दिन फोन आया कि भागवत कथा है। पूजा-पाठ में शामिल होने चलिये। मैंने कहा, ‘छुट्टी मिल गयी तो जरूर चलूंगा।’ शाम को ऑफिस में अपने समाचार संपादक जी से तीन दिन की छुट्टी की गुजारिश की। इत्तेफाक से उस दौरान कम लोग छुट्टी पर थे, लिहाजा मिल गयी। सात तारीख को सुबह आनंद विहार बस अड्डे पर मिलना तय हुआ। आठ जून को गांव में रहने और 9 को वापसी का कार्यक्रम बना। सफर के बारे में ज्यादा लिखने का कोई मतलब नहीं। सिर्फ इतनी सी बात कि मेरी दीदी भी चलना चाहती थी, लेकिन मेरे मन में दुविधा थी कि ‘रहेंगे कहां?’  खैर...।
पहली बार भावनाओं (इमोशंस) को जैसे खींचकर अपने मन में भरना पड़ा। यानी स्वत: नहीं आये। ‘घर’ को फील नहीं कर पाया। हालांकि जाते ही भतीजे विपिन से कहा कि मेरी एक फोटो खींचो। अपने घर की उस देहली पर बैठकर फोटो खिंचवाई जहां कभी गर्मियों की छुट्टियों में जाने पर परिवार के संग देर शाम तक बातें करते थे। कोई दिल्ली से आया होता था और कोई कहीं और से। यह बात हालांकि बहुत पुरानी है। उसके बाद तो अनगिनत बार यूं भी गये। पर इस बार भावनाओं का उमड़ना-घुमड़ना वैसा नहीं हो पाया, जैसा होता रहा है। मैंने देहली को प्रणाम किया फिर विपिन के साथ ही सामने आंगन में लोगों से मिलने चला गया। सबसे पहले पनदा मिले। प्रणाम कर कुछ सेकेंड मुलाकात फिर वसंत दाज्यू मिल गये। पास में ही भाभी खड़ी थीं। अचानक पता नहीं कहां से भावनाओं का ज्वारभाटा फूट पड़ा। भाभी गले लगकर रोने लगीं। हाल ही में उनका जवान बेटा असमय ही काल का ग्रास बन गया था। विजू कहते थे हम लोग उसे। शैतान था। उतना ही हेल्पफुल। एक जीप चलाकर अच्छे से घर का खर्च चला रहा था, औरों की मदद भी खूब करता था। अचानक चल बसा था। करीब 8 माह पहले। भाभी को सांत्वना दी। वसंत दाज्यू भी इमोशनल हो गये, लेकिन किसी तरह उन्होंने खुद को संयत रखा। तभी उनकी बेटी बबली मिल गयी। इन दिनों मायके आयी हुई थी। उसके बच्चे मिले। वसंत दाज्यू का बड़ा बेटा सनू भी मिला। कुछ पल वहां रुककर आगे बढ़ा तो कैलाश की पत्नी ने पैर छुए। कैलाश घर पर नहीं था। उसके बाद हम प्रयाग दा के यहां चले गये। प्रयाग दा (70 साल पार के व्यक्ति। रिश्ते में भतीजे लगते हैं। उम्र ऐसी कि उनके लिए भतीजे जैसी फीलिंग कैसे आये।) कुछ देर इधर-उधर की बात के बाद मैं चुपचाप फिर अपने आंगन में आ गया। मन में यही टीस कि फीलिंग में वह जोर क्यों नहीं है। क्या हम इतने भौतिकवादी हो गये हैं या वाकई गांव ही वैसा हो गया है। अचानक नजर कैलाश और प्रयागदा के घर के बीच एक खाली प्लॉट पर नजर पड़ी। यहां तो कोई खाली जगह थी ही नहीं। ओह...रेबदा का घर था। पहले घर खंडहर हुआ फिर खंडहर भी जमींदोज हो गया। उनकी एक बेटी थी, अपने घर चली गयी। दोनों मियां-बीवी की मौत कुछ साल पहले हो गयी। इसके बाद ध्यान आया चनुली दीदी का। वह भी तो नहीं रही। फिर तो उस तरफ गीता की ईजा और रेबुलदी। धीरे-धीरे सब याद आने लगे। भावनाओं का समंदर मन में उमड़ने लगा। बिछोह की यह क्या विडंबना है। सब बिछड़ते चले जा रहे हैं। कोई ठीकठाक उम्र जीकर, कोई उम्र से पहले। खैर...। कुछ देर बाद विपिन भी आ गया। हम लोग पनदा के आंगन में बैठ गये। तभी भाभी चाय बनाकर ले आयी। लोग लाख कहें कि अब पहाड़ में सब बदल गये हैं, लेकिन इतना अपनापन तो है। तभी वसंत दाज्यू आये, बोले-एक-एक गिलास दूध बना लाऊं। मैंने और विपिन ने एक साथ कहा-‘नहीं।’ गांव जाकर इससे पहले एक दो जगह दूध पीया था अगले ही दिन से जो पतनाला बहा, वह मंजर याद था। कुछ ही देर में प्रयागदा के यहां से भोजन का बुलावा आ गया। जाते वक्त कैलाश मिला। उससे बात हुई। सुबह का नाश्ता उसके यहां तय हो गया। सुबह जल्दी उठकर स्नान किया। विपिन के नये घर में पूजा-अर्चना की। उसके बाद में धूप-बत्ती लेकर अपने घर आ गया। अंदर धूप-बत्ती जलायी। थोड़ी सी चालीसाएं पढ़ीं और फिर बैठ गया डायरी लिखने। बस यहां भावनाओं का इंतजार नहीं करना पड़ा। वहां इलमारी खोली तो धुंधली सी याद आयी कि दाज्यू यहां अपनी किताबें रखते थे, उसके बाद शीला दीदी रखने लगीं। फिर एक जाब (दीवार को खोदकर सामान रखने के लिए बनाया गया खास क्षेत्र) इसे मैं अपना कहता था। एक जाब प्रेमा दीदी का होता था। पुरानी बातें याद नहीं हैं क्योंकि मेरा जन्म होना ही अजीबोगरीब है। पिता जी 60 पार के थे जब मैं हुआ। कुछ साल बाद ही चल बसे। उनकी कोई याद अवचेतन मन में भी नहीं है। बचपन में कभी-कभी याद आता था कि किसी बुजुर्ग को सब्जी काटते हुए मन में एक तसवीर उभरती थी। अब वह भी नहीं आती। हां सपने में पिता जैसा कुछ दिखता है। जहां तक मांता जी का सवाल है, उनकी तो हर बात। हर संघर्ष याद है। सबसे अहम याद तो वह है जो हर साल मैं अपने बच्चों के लिए नयी किताब लाते वक्त दोहराता हूं। और भी कई बातें। खैर अब भावनाओं का उमड़ना शुरू हो चुका था। घर की पूजा संपन्न कर हम लोग पहले गोलूथान फिर धूनी गये। रास्ते में बारिश हो गयी। हिमतपूर चाची के यहां कुछ देर रुक गये। हेम भाई घर पर नहीं थे। भाभी ने चाय पिलायी। फिर चाची से कुछ पुरानी बातें साझा कीं। चाची संभवत: मेरी मांताजी की उम्र की होंगी या बड़ी भी हो सकती हैं। दिखना कम हो गया। कान बहुत कम सुनती हैं। मेरे साथ 10 मिनट वार्तालाप ठीकठाक हुई। बता दूं कि इस दौरान हमारे साथ कैलाश भी था। पहले उसने गोलूथान में धूनी जलायी फिर धूनी में भी। रास्ते पर भी बहुत सहयोग किया। विपिन की पत्नी विमला (उम्र में मेरे से सब बड़े हैं, रिश्ते में भतीजा-बहू। सामने आप कर बोलता हूं, लेकिन यहां नाम यहां लिख ले रहा हूं।) को थोड़ी सी दिक्कत हो रही थी चलने में। एक तो ऊबड़-खाबड़ रास्ते, उस पर बारिश। पूजा-अर्चना संपन्न कर हम लोग घर लौटे। यहां के संस्कार के मुताबिक बड़ों को प्रणाम किया, प्रसाद वितरित किया। फिर कैलाश के बेहतरीन नाश्ता किया। उसी दौरान कैलाश को ताकीद कर दी कि कल सुबह जाना है मुझे किलमोड़ी की जड़ और गंज्याड़ू चाहिए। ये दोनों चीजें शुगर में बड़ी कारगर हैं। बता दूं कि आजकल दोनों का सेवन कर रहा हूं। शुगर भी चेक कराया, वास्तव में फर्क है। अगले दिन उसने इन चीजों को उपलब्ध भी करा दिया।
पुश्तैनी मकान की देहली पर।
धूनी के बाहर पूजा अर्चना के बाद 
नाश्ते के बाद हम लोग जिस पूजा में शामिल होने आये थे, वहां चल दिये। खिलगजार भाभी के यहां। बुजुर्ग भाभी। मदन मेरा बचपन का दोस्त (पर हाय रे ये रिश्ते-वह भी भतीजा ही लगता है) जजमान बना हुआ था। वहां कई लोग मिले। चाची भी। पनदा की ईजा। कुछ देर बात हुई। घर चलने की जिद करने लगीं। बेहद बुजुर्ग हो गयीं हैं। भागवत का आयोजन कर रहीं भाभी की बेटी चंपा भी मिलीं। कुछ ही देर में प्रयागदा की बेटी मीरा भी पहुंच गयी। मैं मीरा को इसलिए पहचान गया कि पांच साल पहले वह गाजियाबाद मेरे घर पर आयी थी। वहां के अजीब-अजीब हालात के दौर में कई लोगों से बातचीत हुई। अनेक लोग मुझे सीधे नहीं पहचान पाये। किसी से कहा खत्याड़ी भुवन का भाई हूं। किसी से कहा शीला का भाई हूं। ज्यादातर महिलाओं ने शीला का भाई सुनते ही कंसीडर कर लिया। कुछ ने पहेलियों से सवाल भी दागे कि हमें पहचानो। पर असमर्थ रहा। सबकुछ तो बदला-बदला सा था। हमउम्र कई लोग बुजुर्ग से लगने लगे थे। कोई गंजेपन का शिकार था, किसी के बाल सफेद हो चुके थे। किसी ने तरक्की की कहानी सुनाई किसी ने औपचारिक तरीके से हालचाल पूछे। भागवत में दूर-दूर से लोग आ रहे थे। पता चला कुछ दिन पहले ही नीचे के गांव में भी भागवत संपन्न हुआ था और कुछ दिन बाद ही एक और भागवत होने वाला था। बदले-बदले माहौल में अनेक बातों को जानने का मौका मिला। पहाड़ की अपनी जन्मभूमि में भावनाओं को खत्म होता हुआ सा अहसास किया, लेकिन उम्मीद बनी हुई है कि भावनाएं दबेंगी, उछलेंगी पर मिटेंगी नहीं।


विपिन के दोस्त पांडेजी और अडगाड़ का पानी
दो उम्र में बड़े भतीजों के बीच में।
इस प्रसंग को साझा नहीं करता तो पूरे दौर की कहानी शायद अधूरी रह जाती। गाजियाबाद में विपन के एक पड़ोसी हैं पांडेजी। वे मूलत: ताड़ीखेत के रहने वाले हैं। विपिन की उनसे बात चल रही थी। इस बीच ताड़ीखेत हम लोग पहुंच चुके थे। रास्ते में पांडेजी अपनी पत्नी के साथ दिखे। उन्होंने विपिन की ओर हाथ हिलाया। कुछ देर बाद हम लोग ताड़ीखेत पहुंचकर बीरू रौतेला की जीप में बैठ चुके थे। तभी पांडेजी अपनी कार लेकर पहुंच गये, बोले- मैं छोड़कर आऊंगा। हमने बीरू से कहा कि सामान तुम ले आना, हम जा रहे हैं। रास्तेभर उनसे कई बातें हुईं। जैसे पानी की भयानक किल्लत। उनके छोटे बेटे को भट की चुलकाणी और डुबके पसंद हैं, वगैरह-वगैरह। बातों-बातों ने हमने कहा कि ईश्वर की कृपा से हमारे यहां पानी की किल्लत नहीं है। चलिये आपको अपना अडगाड़ दिखाते हैं। पांडे जी ने साइड में गाड़ी लगायी फिर दोनों लोग हमारे साथ चल दिये। हम लोग पहले सीधे अडगाड़ गये। वहां पानी पीया। दोनों पति-पत्नी ने ठंडे पानी के इस झरने को बहुत सराहा। फिर उनको अपना घर भी दिखाया, उसके बाद उन्होंने रुकने से इनकार कर दिया। मैं और विपिन उन्हें छोड़ने सड़क तक गये। तब तक बीरू भी आ चुका था। सामान लेकर हम लोग घर पहुंच गये। 


Friday, June 22, 2018

किरदार : ‘बड़ेपन के बोझ’ में दबे बड़े भाई साहब

केवल तिवारी
आम बोलचाल में हम कई बार कह देते हैं, ‘फलां बड़ा आदर्शवादी बनता है।’ कभी-कभी हम यह भी करते हैं या महसूस करते हैं कि कोई व्यक्ति सप्रयास अपनी हंसी छिपा रहा है या उसे दबा रहा है। हम अपने मन के ‘बच्चे’ को मार देते हैं। कोई लाख ऐसे व्यक्ति को बुरा कहे, लेकिन मैं तो इसके पीछे कई कारण देखता हूं। कभी असमानता, कभी घरेलू परिस्थितियां और कभी ‘बड़े होने का दंश।’ जी हां! बड़े होने का दंश। मुंशी प्रेमचंद की कहानी के किरदार ‘बड़े भाई साहब की जैसी स्थिति।’
प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ में भाई साहब बहुत बड़े नहीं हैं। लेकिन उनके अंदर ‘बड़ेपन का बोझ’ बहुत है। बड़ेपन के बोझ तले दबे न जाने कितने लोगों को मैंने देखा है। उनके अंदर कभी-कभी ‘जगते बच्चे’ को देखा है। छोटों के सामने आदर्श प्रस्तुत करने की उनकी ‘क्रांतिकारी गतिविधियों’ को भी देखा है।
प्रेमचंद की इस कहानी में छोटा भाई तो वैसा ही है, जैसे बच्चे होते हैं। वह डांट खाता तो घर चले जाने का मन होता। पढ़ने के लिए हर बार नयी तैयारी करता। कहानी में असली किरदार तो ‘बड़े भाई साहब’ हैं। यह अलग बात है कि शायद वह यह नहीं समझते कि चुप रहकर या खुद सही काम कर दूसरों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना ज्यादा कारगर होता है, उपदेश तो सब दे लेते हैं। इस कहानी में भी बडे भाई साहब उपदेश बहुत देते हैं, लेकिन ‘सटीक’ तर्कों के साथ। कहानी में एक ही हॉस्टल में दो भाई रहते हैं। छोटा, मस्तमौला है। खेलकूद में रमा रहता है। खिलखिलाकर हंसता है। डांट खाता है, लेकिन उस डांट का बहुत लंबे समय तक उस पर असर नहीं रहता। यानी वह सचमुच बच्चा है। बड़े भाई साहब भी साथ हैं। यूं तो वह बहुत बड़े नहीं हैं। छोटे भाई से महज तीन क्लास आगे। लेकिन वह गंभीर हैं। हंसी-मजाक नहीं करते। छोटे को अधिकारपूर्वक डांटते हैं। कर्त्तव्य की याद दिलाते हैं। बड़े भाई साहब भी बच्चे ही हैं, लेकिन वह ‘बड़े’ हैं। क्या करें अगर उनकी गंभीरता ओढ़ी हुई है? क्या करें अगर जबरदस्त मेहनत के बावजूद वह फेल हो रहे हैं? उन्हें अहसास तो है ना कि घरवाले उन पर कितना खर्च कर रहे हैं। वह अपने छोटे भाई को उसके कर्त्तव्य तो सही से बताते हैं ना। उसका ख्याल तो रखते हैं ना। एक जिम्मेदार व्यक्ति तो हैं ना। वह अपने छोटे भाई से कहते हैं, ‘इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखा जाते हुए?’ बड़े भाई साहब के पास अनुभवों की खान है। बेशक छोटे भाई तमाम मस्ती के बावजूद पास हो जाते हैं और बड़े भाई फेल। लेकिन बड़े साहब इसका तर्क देते हुए कहते हैं, ‘महज इम्तहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज है बुद्धि का विकास।’ तमाम मेहनत के बावजूद बड़े भाई साहब फेल हो जाते हैं और खेलकूद में व्यस्त रहने वाला छोटा भाई पास हो जाता है। छोटे के मन में तो आता है कि अब भाई साहब को आईना दिखा दूं कि ‘कहां गयी आपकी घोर तपस्या। मुझे देखिये, मजे से खेलता रहा और दर्जे में अव्वल भी हूं।’ पर ऐसा हो नहीं पाता। छोटा असल में छोटा ही है। बड़ों के सामने ऐसा बोल पाने की हिम्मत कहां? लेकिन बड़े भाई साहब न सिर्फ देखते या समझते हैं, बल्कि मन को भी ताड़ लेते हैं, तभी तो कहते हैं, ‘देख रहा हूं इस साल दरजे में अव्वल क्या आ गये, तुम्हारा दिमाग ही खराब हो गया। भाईजान! घमंड तो बड़े-बड़ों का नहीं रहा। इतिहास में रावण का हाल तो तुमने पढ़ा ही होगा। उनके चरित्र से तुमने कौन सा उपदेश लिया? या यूं ही पढ़ गये?’ बड़े भाई साहब के पास अपने फेल हो जाने पर अध्यापकों की ‘गलतियों का चिट्ठा’ है तो छोटे के पास होने और आने वाले समय की ‘कठिनाइयों का अनुभव’ भी। भाई साहब बेचारे फेल होते चले जाते हैं और छोटा है कि ‘आवारागर्दी’ (बड़े भाई साहब की नजरों में) के बावजूद पास होता चला गया। दूसरी बार भी छोटे के पास होने और खुद के फेल होने पर भाई साहब थोड़ा नरम पड़ गये। डांट में वह धार नहीं रही। लेकिन छोटा न बिगड़े, इसका पूरा खयाल था। एक दिन छोटे भाई का बड़े भाई साहब से उस समय सीधे आमना-सामना हो गया जब एक कटी पतंग लूटने छोटा बेतहाशा दौड़ रहा था। बड़े साहब संभवत: बाजार से लौट रहे थे। वहीं छोटे का हाथ पकड़ लिया। गुस्सा होते हुए बोले, ‘उन बाजारी लड़कों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती?’ तुम्हें इसका लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दर्जा नीचे हो।’ बड़े भाई साहब छोटे को उसकी बढ़ती कक्षा और उसकी जिम्मेदारियों को तो समझा रहे हैं, साथ ही उन्हें यह भी अहसास है कि वह खुद मात्र एक क्लास आगे हैं। इसका भी तर्क है उनके पास। तभी तो कहते हैं, ‘निस्संदेह तुम अगले साल मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओगे। लेकिन मुझमें और तुममें पांच साल का अंतर है उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और रहूंगा। समझ किताब पढ़ने से नहीं आती अनुभव से आती है।’ यहीं पर बड़े भाई साहब और भी दुनियादारी की कई बातें छोटे को बताते हैं। कहते-कहते थप्पड़ दिखाते हैं और बोलते हैं, ‘मैं चाहूं तो इसका भी इस्तेमाल कर सकता हूं।’ छोटा भाई भी जैसे यहां कुछ ‘बड़ा’ हो गया। कहता है, ‘आप सही कह रहे हैं, आपका पूरा अधिकार है।’ यही तो बड़े भाई साहब का कमाल है। यहीं पर तो वह बात दिखती है जिसके लिए यह चरित्र मुझे बहुत अच्छा लगता है। भाई साहब छोटे को गले लगा लेते हैं और कहते हैं, ‘मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन करूं क्या? खुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूं? यह कर्त्तव्य भी तो मेरे सिर है।’ दोनों भाइयों के बीच यह संवाद चल ही रहा था कि तभी एक कटी पतंग आती है। बाकी बच्चे छोटे पड़ जाते हैं। बड़े भाई साहब थोड़े लंबे हैं और लपककर डोर पकड़ लेते हैं और हॉस्टल की तरफ दौड़ पड़ते हैं। छोटा भी पीछे-पीछे भागता है। शायद बड़े भाई साहब के अंदर का ‘बच्चा’ यहां जग गया। शायद उन्होंने सोचा हो, छोटे को बहुत उपदेश दे दिया। बहुत हो गया छोटे-बड़े का खेल। अब तो दोनों भाइयों को दोस्त बनकर रहना होगा। सचमुच इस कहानी में जिम्मेदारियों का बोझ महसूस करते हुए सारा काम करने वाले ‘बड़े भाई साहब’ कमाल के हैं। (यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के किरदार कॉलम में छपा है)

रिश्ते : दुख-सुख में साथ हम दो भाई

केवल तिवारी

तू उदास क्यों है? भाई मैं हूं ना। खुद को तुर्रम खां न समझ। मुझसे बात मत करना। जल्दी तैयार हो जाना, समय पर निकल लेंगे। तीखे-मीठे इस तरह के संवाद दो भाइयों में अक्सर होते हैं। भाइयों के बीच में उम्र का ज्यादा गैप न हो तो वार्तालाप और तीखी हो सकती है। उम्र का बहुत अंतर हो तो कभी अभिभावक जैसी भूमिका में रहने के बावजूद बड़ा छोटे का और छोटा बड़े का अपने अंदाज में खयाल रखता है। असल में भाई-भाई का यह रिश्ता खयाल रखने से लेकर मां-बाप की बातों से सहमत-असहमत होने तक पहुंचता है। घर में कभी नोकझोंक, कभी उत्सव सा माहौल और कभी सामान्य जीवन, हर मौके पर दो भाइयों का रिश्ता एकदम जुदा होता है। तभी तो कभी-कभी इकलौता भाई अपने बहन से कह उठता है, ‘तू बहन नहीं, मेरा भाई है।’ खास दोस्त भी कहते हैं बेशक मनमुटाव हो। बेशक कभी रिश्ते में खटास आ जाये, लेकिन भाई-भाई का साथ देता है। भाई के साथ भाई के गहरे रिश्ते की एक बानगी देखिये-
मदन और दीपक भाई हैं। दोनों में महज दो साल का अंतर। बचपन में माता-पिता से डांट पड़ती तो दोनों एक हो जाते। पिताजी सख्त मिजाज आदमी। बड़े होकर मदन की एक छोटी-मोटी नौकरी लगी तो वह अलग रहने लगा। दीपक बोला, ‘भाई तूने तो अपना बढ़िया कर लिया, मुझे भी तो यहां (घर) से निकाल।’ कुछ दिनों बाद दीपक भी चला गया मदन के पास। इधर, दीपक के चाचा ने कुछ दिन साथ रहकर पुरानी बातों को सोचने की ताकीद दी। दीपक के चाचा को अपने भाई (दीपक के पिता) के दर्द नहीं देखा गया। उन्होंने भाई को समझाया, बच्चे हैं। भाई-भाई हैं। जल्दी सब समझ जाएंगे। इस बीच मदन और दीपक साथ रहते-रहते बचपन की बातें करते। अचानक उन्हें लगा कि घर छोड़कर अलग रहने का फैसला उनका गलत था। दोनों वापस गये। मां ने गले लगाया, पिता ने पहले गुस्सा दिखाया फिर दोनों की नादानी पर प्यार भरी थप्पी दी। कुछ समय बाद नौकरीगत व्यस्तता के चलते दोनों भाइयों को अलग-अलग शहर रहना पड़ा। दोनों की शादी भी हो गयी। पिताजी अब नहीं रहे। माताजी को तब बहुत खुशी होती है, जब दोनों भाई त्योहार पर मिलते जरूर हैं। पहले से ही तय हो जाता है होली पर तू आयेगा, दिवाली पर मैं आऊंगा। भाई से अधिक दोनों दोस्त हैं और शायद इसी दोस्ती की वजह से वह कहते हैं-
भाई-भाई के रिश्तें तब ख़ास होते हैं, जब दोनों हमेशा साथ होते हैं।
वाकई यह रिश्ता बहुत मधुर है। कभी-कभी तो बड़े भाई को छोटे के लिए अभिभावक तक बनना पड़ता है। घर में लड़ने वाला भाई अगर बाहर भाई को अकेले पाता है तो तुरंत उसके साथ आ खड़ा होता है। बड़े के बच्चों का चाचू हो या छोटे के बच्चों के ताऊजी। भाइयों का यह प्यार उम्र के साथ-साथ और गाढ़ा होता चला जाता है। कभी पुरानी एलबम में छिपी यादें और कभी पुराने किस्सागोई। दोनों दुआ से करते दिखते हैं-
ऐ रब मेरी दुआओं का इतना तो असर रहे, मेरे भाई के चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट रहे।
घर-बाहर के कई मसलों पर दो भाइयों में बातों-बातों अनेक बार बहस होती है। बचपन के दिनों में स्कूली शिकायतों से लेकर बड़े होने तक दोनों के पास एक-दूसरे के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा होता है। एक-दूसरे की मदद की कहानियां होती हैं। एक-दूसरे की खूबियों का भंडार होता है और एक-दूसरे की कमियों का चिट्ठा होता है। पर भाई तो भाई है। सबसे प्यारा बिरादर। सबसे करीबी दोस्त। सबसे अच्छा समझ सकने वाला। ऐसे जैसे कि इन पंक्तियों में लिखा है-
भाई से ज्यादा न कोई उलझता है, न भाई से ज्यादा कोई समझता है। (नोट : यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के रिश्ते कॉलम में छपा है)

बाल कहानी : फल का इनाम


केवल तिवारी
‘मम्मा आज आपने मेरे टिफिन में पपीता काटकर क्यों रखा था। पता है बच्चों ने कितना चिढ़ाया।‘ स्कूल से घर आते ही सुमित ने शिकायत की। ‘इसमें चिढ़ाने या चिढ़ने वाली क्या बात थी बेटा’, मां ने प्यार से पूछा। ‘सब बच्चे मुझसे कह रहे थे-पपीता तो बीमार या फिर बूढ़े लोग खाते हैं। तू क्यों लाया।‘ मां को सुमित की बात पर हंसी आई। थोड़ा सा गुस्सा भी। लेकिन उन्होंने जाहिर कुछ नहीं किया। बस ये पूछा, ‘बाकी बच्चे क्या लाते हैं।‘ सुमित बताने लगा कि फल तो कम ही लोग लाते हैं, लेकिन लाते भी हैं तो सेब या केला।’ ‘चलो मैं भी सेब या केला ही रख दिया करूंगी’, मां ने सुमित को समझाया। सुमित खुश हो गया और लगा खेलने। असल में सुमित दूसरी कक्षा में पढ़ता है। दोपहर को स्कूल से आते ही कभी कोई बात से खुश दिखता है तो कभी शिकायती लहजे में। उसकी मां यूं तो उसकी पसंद और नापंसद का खयाल रखती है, लेकिन कई बार उसकी जिद से खीझ भी जाती है। अच्छी बात यह है कि वह जल्दी ही खुद को संभालते हुए सुमित को वैसे ही समझाती हैं, जिससे एक बच्चे की समझ में बात आ जाये। आज भी सुमित की इस शिकायत पर कि पपीता क्यों रखा, बच्चे चिढ़ा रहे थे, पहले तो मां को गुस्सा आया, लेकिन बाद में उन्होंने सहज होकर सुमित का जवाब सुना तो हंसी आ ही गयी। आखिर ये बातें बच्चे कैसे करते हैं कि पपीता बीमार लोग खाते हैं। शायद कुछ बच्चे हों जिनके घर में कोई बीमार हो और बच्चा भी पपीता खाने की जिद करता हो और उससे कह दिया जाता हो कि नहीं इसे बीमार ही खाते हैं। या यह भी कि किसी के घर में बुजुर्गों के लिये पपीता आता हो और बच्चा उसे देखता हो। उसके मन में यह बात बैठ गयी हो कि पपीते को बूढ़े ही खाते हैं।
अगले दिन स्कूल जाते समय सुमित ने पूछा भी नहीं कि टिफिन में आज फ्रूट कौन सा रखा है। बच्चा ही है। शायद भूल गया होगा। उसे कोई ध्यान नहीं। लेकिन मां को सब ध्यान था। उन्होंने रोटी सब्जी के अलावा आज एक केला सुमित के टिफिन में रख दिया। दोपहर को सुमित आया तो फिर उसके चेहरे पर नाराजगी और वही शिकायत ‘केला क्यों रखा।‘ ‘बेटा आज तो पपीता नहीं था न, फिर आज क्या बात हो गयी।‘ मां ने पूछा तो इस बार सुमित ने जवाब ही अजीब सा दिया-‘मम्मा तुम फ्रूट रखती ही क्यों हो। और बच्चे नूडल्स, पिजा, सैंडविच क्या-क्या लाते हैं।‘ मां को अजीब सा लगा। उन्होंने कहा, ‘लेकिन बेटा आपके स्कूल में तो फ्रूट मंगाये जाते हैं। आपका टिफिन भी चेक होता है, कोई कुछ कहता नहीं।‘ सुमित ने सीधा जवाब देने के बजाय कहा, ‘मम्मा आप भी कभी अच्छा खाना रख दिया करो।‘ मां इस जवाब से सन्न रह गयी। अच्छा खाना। रोज सुबह तो उठकर कितनी मेहनत से इसका टिफिन वह तैयार करती हैं। शाम को या दोपहर को फल खरीदती हैं। पर बेटा है कि मानता नहीं। फिर संयत रहते हुए मां ने पूछा  ‘अच्छा केले के लिये भी किसी ने कुछ कहा क्या।‘  ‘हां कहा।‘  ‘क्या?’  ‘यही कि फल बच्चों के लिये नहीं होते।‘
‘अरे बेटा कल आप पपीते के लिये कह रहे थे आज केले के लिये। चलो कपड़े चेंज करो। फ्रूट खाने चाहिए। आपकी मैडम से बात करूंगी मैं।’
मां ने थोड़ा सख्त लहजे में कहा। बच्चा भले ही फ्रूट को लेकर रोज शिकायत करता रहता हो, लेकिन उसकी मां रोज कोई न कोई फल रखती। कभी चीकू, कभी सेब, कभी अंगूर तो कभी कुछ। स्कूल में टिफिन भी चेक होता था। पता नहीं कुछ बच्चे कैसे ऐसी चीज ले आते थे जिनको लाने की मनाही थी। मां के मन में आ रहा था कि एक दिन स्कूल जाऊं और इसकी टीचर से कुछ कहूं। लेकिन जरा-जरा सी बात पर टीचर के पास जाना और उनसे कुछ कहना उन्हें ठीक नहीं लगता। सोचा कि अगली पीटीएम (पैरेंट-टीचर मीटिंग) का इंतजार किया जाये। फिर सुमित से यह पूछना तो जरूरी है कि वह फल खाता भी है या नहीं। या जो बच्चे इससे फल न लाने के लिये कहते हैं, वे इसके साथ खाने-पीने की चीजें क्या शेयर करते हैं। वैसे स्कूल में तो यही बताया गया था कि बच्चों को हाथ धोकर कहा जाता है अपना-अपना टिफिन निकालो। फ्रूट टिफिन भी देखा जाता था। हो सकता है कुछ बच्चे नूडल्स वगैरह कभी-कभी ले आते हों। सुमित की मां हमेशा ताजा खाना बनाकर भेजती। फल भी जरूर भेजती। खुद चाहे बीमार हो, लेकिन सुमित के स्कूल का ध्यान रखती। सुमित घर में भी फल खाने में आनाकानी करता था, लेकिन थोड़ी मान-मनौवल के बाद खा ही लेता था। कई तरह के विचार सुमित की मां के मन में आने-जाने लगे। उन्हें पता था, आज भी दिन में सुमित आयेगा और शिकायत करेगा। आज उन्होंने एक छोटा सेब रखा था।
दोपहर को सुमित आया तो आते ही खुश होकर मां से लिपट गया। ‘मम्मा आप रोज फ्रूट रखा करो।‘ मां को विश्वास ही नहीं हुआ कि यह सुमित ही बोल रहा था। वह कुछ पूछती या सोचती तभी सुमित ने एक सर्टिफिकेट और किताब दिखायी जो उसे इनाम में मिली थी। मां ने पूछा, ‘यह क्या है?’ सुमित बोला-‘मम्मा हमारे यहां रोज टिफिन चेक होता था। जिसके टिफिन में रोज फल होते थे, उसे यह प्राइज मिला है। टीचर ने मेरी खूब तारीफ की और आपकी भी। आप रोज फ्रूट रख दिया करो।‘ हमेशा की तरह सुमित की मां इस बार ही सहज ही रही। सिर्फ मुस्कुराकर बोली, गुड बेटे, अब कपड़े चेंज कर हाथ-मुंह धो लो। (नोट : यह कहानी दैनिक ट्रिब्यून में छपी है)

जो मां सी वह मौसी

केवल तिवारी
‘आपकी मम्मा मुझे बहुत डांटती थीं।’ ‘अच्छा फिर आप किससे शिकायत करती थीं।’
‘किसी से नहीं, मैं इतना चिल्लाती थी कि उन्हें खुद ही बड़ों की डांट पड़ जाती।’ हा, हा, हा (सब खिलखिलाकर हंस पड़े)।
‘एक बार तो मैंने दीदी यानी आपकी मम्मा की एक किताब छिपा दी। वह रोने लगीं। फिर मैंने कहा, मुझे आइसक्रीम खिलाने का प्रोमिस करो तो मैं ढूंढ़ दूंगी। उन्होंने प्रोमिस किया और मैंने किताब दे दी। लेकिन बाद में उन्हें मेरी शरारत का पता चल गया और बहुत डांटा।’
उक्त वार्तालाप है चौथी और छठी में पढ़ने वाले कोमल, हितेश की अपनी मौसी गीता के साथ। बच्चे जिद कर रहे हैं, ‘मौसी कुछ और बातें बताओ ना।’ ‘क्या बताऊं बच्चों, जब दीदी की शादी हुई, मैं इतना रोई कि पूछो मत।’ उसके बाद तो जब भी दीदी घर आती मैं रोने लगती।’ कहती, ‘कुछ दिन और रुक जाओ।’ बच्चों का मासूम सा सवाल, ‘जब आपको अपनी दीदी के जाने का इतना ही बुरा लगा तो फिर पहले लड़ते क्यों थे।’ मौसी हंस पड़ी। बोली, ‘बड़े होकर समझोगे, अभी जैसे तुम भाई-बहन भी खूब लड़ते हो ना, जब बड़े हो जाओगे तो एक-दूसरे को खूब याद करोगे।’ बच्चों ने फिर एक सवाल किया, ‘अच्छा बताओ आप दोनों में से नाना-नानी किसे ज्यादा प्यार करते थे?’
अजीब सवाल, पर बच्चे हैं, पूछेंगे ही।
सवाल पूछने और उनका जवाब सुनकर कभी हंसने और कभी भावुक होने का जो मजा मौसी के साथ है, वह और कहां। अपनी मां की बचपन की बातें सुनना। मां जैसा ही प्यार पाना। यही तो है वह प्यारा सा रिश्ता। मौसी यानी मां सी। मां जैसी। सचमुच कितना भावुक, खूबसूरत रिश्ता है मासी या मौसी का। धीरे-धीरे ‘आंटी’ शब्द में सिमट रही ‘मौसी’ की अहमियत शायद कभी कम न होगी। कभी शक्ल-सूरत में मां जैसी तो कभी प्यार-दुलार में मां जैसी। मां के बारे में मां जैसी से ही सुनने का अलग लुत्फ है। यहां अनुशासन की ‘गांठें’ नहीं होती, कहानियों में ‘बनावट’ नहीं होती। माहौल में ‘बोझिल गंभीरता’ नहीं होती। बच्चे तब और खुश होते हैं जब मौसी ‘पोल खोल’ अभियान में जुटी रहती है और उनकी (बच्चों की) मां इशारों-इशारों में चुप रहने का संकेत करती हैं। कभी-कभार तो बच्चे भी सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि मौसी और मम्मी जब बचपन में इतना लड़ते थे तो आज अकेले में घंटों क्या बातें करते हैं। कभी एक दूसरे की गोद में सिर रखकर और कभी कुछ खाते-खाते। कभी-कभी तो हद हो जाती है जब दोनों एक-दूसरे से कहते हैं कि ‘थोड़ा आराम कर लो।’ दोनों एक-दूसरे का इतना खयाल रख रहे हैं। बच्चों को चाहे गंभीरता से कोई बात समझ न आये, लेकिन उन्हें मजा बहुत आता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बच्चों को इस तरह के रिश्तों के बारे में बताना चाहिए और ऐसे परिवेश में रखना चाहिए कि उन्हें भी अपने भाई-बहन के प्रति प्रेम हो। बच्चे जब अपनी मौसी को मां की पोल खोलने वाली के तौर पर देखते हैं तो उन्हें मजा आता है। वही मौसी जब मां की केयर कर रही होती है तो उससे सीख मिलती है। रो रही होती हैं तो भावुकता का एहसास होता है। जिम्मेदारी का एहसास कराने वाली मौसी, बच्चों को पुरानी यादों से रू-ब-रू कराने वाली मौसी, मां को डांटने वाली मौसी, मां का खयाल रखने वाली मौसी… सचमुच यह रिश्ता है अद्भुत। छुट्टियों के दौरान मौसी के घर जाने का कार्यक्रम हो या फिर मौसी का अपने घर में स्वागत करने समय, बच्चों की उत्सुकता देखते ही बनती है। ऐसे में पापा की उनके साथ हंसी-ठिठोली एक अलग रौनक भरती है। आज भी कई जगह लोग खास अवसर पर पूरे कुनबे को जोड़ने की कोशिश करते हैं ताकि बच्चों को उनकी मौसी या मौसियां मिल सके। ऐसे अवसर मिल सकें जहां हो किस्सागोई। हंसी-ठिठोली। पुरानी बातें। सबके केंद्र में हो मौसी यानी मां के साथ मां जैसी।
(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के रिश्ते कॉलम में छपा है)

जिम्मेदार मस्तमौला भगत

क्लासिक किरदार
बालगोबिन भगत/ कहानी
राम वृक्ष बेनीपुरी
केवल तिवारी
व्यक्ति की परख कोई कैसे करे। फलां कैसा है? फिर कैसा है का मानक क्या हो? वह किसी का खास है। या अपने में मगन है। सवाल कई हो सकते हैं। मानक बनने के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन जो जैसा होता है, वैसा ही तो होता है। बिरले ही होते हैं जो खुद को बदल लेते हैं। क्या हुआ गर वह अकेला है? लंबी भूमिका छोड़ हमें बात करनी है किरदार की। हाल ही में एक ऐसी कहानी पढ़ी जिसमें किरदार ही मात्र एक है। जब एक ही है तो लिखना उन्हीं के बारे में है। अच्छे हैं या बुरे। अच्छा या बुरा तो कई बार परिस्थितियां भी बना देती हैं। यहां जिस किरदार की बात मैं कर रहा हूं। वह अच्छे-बुरे से परे है। अद्भुत है। असल में मैंने इस बीच राम वृक्ष बेनीपुरी साहब को पढ़ा। वही बेनीपुरी जी जिन्होंने बेहतरीन रचना ‘गेहूं बनाम गुलाब’ लिखी थी। इस बार उनकी कहानी पढी “बालगोबिन भगत”। कहानी का शीर्षक ही कहानी का किरदार है। अजीब करैक्टर। कोई पागल भी कह सकता है। पागल इसलिए कि मस्त मलंग है। क्या कोई बेटे के मरने पर गीत गा सकता है? अगर वह पागल ही है तो धान रोपाई में लोगों का उत्साह अपने गीतों से कैसे बढ़ाता है? फसल काटने के बाद अपने अराध्य के मंदिर में सबसे पहले क्यों जाता है? हां भगत जी के जो आराध्य है, उन्हें देखकर कोई उन्हें पागल कह भी सकता है। कबीर। कबीर हैं उनके आराध्य। वही कबीर, जिन्होंने जब लिखा- ‘पाहन पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूं पहाड़, ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार’, तो उनसे हिंदू नाराज हो जाते हैं। वह जब लिखते हैं, ‘कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लई चिनाय, तां चढ़ मुल्ला बांघ दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ तब मुस्लिम नाराज होते हैं। किस अंधविश्वास या ढकोसले पर चोट नहीं की कबीर ने। खैर कबीर तो कबीर हैं। भगत जी के आराध्य।
राम वृक्ष बेनीपुरी साहब की इस कहानी ‘बालगोबिन भगत’ में एक खास बात और कि आजकल के शहरी लोग क्या उस मंजर को समझ सकते हैं, जब लेखक लिखते हैं, ‘आसाढ की रिमझिम’, ‘कहीं हल चल रहे हैं’, ‘कहीं रोपनी हो रही है’, ‘ठंडी पुरवाई चल रही थी’, ‘दांत किटकिटाने वाली भोर।’ ऐसे वाक्य तो अब कहां लिखे जाते हैं। खैर फिर आते हैं बालगोविन भगत पर। रामवृक्ष बेनीपुरी जी की कहानी के किरदार पर। वह कबीर के भक्त हैं। कबीर के ही गायन गाते हैं। लेखक ने शुरू से ही उनका जिक्र किया है। खुद सफाई भी दी है कि वह साधु नहीं हैं। साधु वाकई नहीं है। उनका बेटा है, बहू है। घर-परिवार का ध्यान रखते हैं। बस कबीर के गायन से लोगों का और अपना मन बहलाते हैं। मन बहलाना कहें या फिर उसमें डूबे रहते हैं। एक जगह लेखक लिखते हैं, ‘गर्मियों में उनकी सांझ कितनी उमस भरी शाम को न शीतल करती। अपने घर के आंगन में आसन जमा बैठते। गांव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खंजड़ियों और करताले की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी मंडली उसे दोहराती-तिहराती। धीरे-धीरे स्वर उंचा होने लगता— उनके साथ ही सबके मन और तन नृत्यशील हो उठते हैं। सारा आंगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है।’  क्या इस कहानी को पढ़ा है आपने। शायद हां। शायद ना। हां तो फिर क्या लिखना, ना तो फिर लगता है कि मस्तमौला हैं भगत साहब। होने दो जो हो रहा है। पर बता दें, वह ऐसे नहीं हैं। एक अनहोनी हो जाती है। उनके बेटे की मौत हो जाती है। वह फिर भी गाते हैं कबीर के पद। कैसा आदमी है। शायद पगला गया। पगलाएगा तो है ही, बेटा जो चला गया। लेकिन जानता था ऐसा होना है। बेटा कुछ अलग था। शायद जाना ही उसकी नियति थी। हालांकि ऐसा नहीं कि बेटे की ऐसी स्थिति जानते हुए भी उन्होंने उसे कभी इग्नोर किया हो। वह तो उसे ज्यादा प्यार करते थे। जैसा कि बेनीपुरी जी अपनी इस कहानी में लिखते हैं, ‘इकलौता बेटा था वह। कुछ सुस्त और बोदा सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए क्योंकि ये निगरानी और मुहब्ब्त के ज्यादा हकतदा होते हैं।’
कैसा है यह भगत। अजीब किरदार। बेटे की शादी हुई। सुंदर सुशील बहू मिली। पर बेटा तो चल निकला। रुखसत हो गया दुनिया से। भगत ऐसे मौके पर भी गाना गा रहे हैं। बहू से कह रहे हैं उत्सव मनाओ। यह तो वाकई पागलपन है। नहीं जनाब! कहां है यह पागलपन। उन्होंने तो सारे समाज के रीत-रिवाज से अलग बेटे की चिता को मुखाग्नि बहू से दिलायी। सारे क्रिया कर्म पूरे कर। बहू के भाई को बुलाया। आदेश दिया कि इसकी दूसरी शादी करवा देना। बहू रो रही है। ऐसे बेहतरीन इंसान अपने ससुर को छोड़कर कैसे जा सकती है। बहू कहती है, ‘मैं चली जाऊंगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा। बीमार पड़े तो कौन चुल्लू भर पानी देगा। मैं पैर पड़ती हूं, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए।’ नैतिक रूप से बहुत ही मजबूत हैं भगत साहब। कहते हैं, ‘तू न गयी और दूसरी शादी न की तो मैं हमेशा के लिए चला जाऊंगा।‘ चली गयी बहू। उस जमाने में ऐसा वादा कर जो किसी को भी समाज से बाहर करने के लिए बहुत बड़ा कारण है। लेखक ने यह क्या किया। उनकी कहानी से भगत साहब भी चल दिये। गंगा स्नान करने गये और बस…इहलीला समाप्त। कहानी पढ़ने के बाद लगता है, शायद भगत साहब को कुछ और जीना चाहिए था। कुछ नये काम। कबीर के दोहों के माध्यम से ही। लेकिन कहानी का अंत भी तो करना था। वह हुआ। चले गये भगत। बेहतरीन कहानी का अंत। रामवृक्ष बेनीपुरी के अंदाज का ही अंत।
(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के क्लासिक किरदार कॉलम में छप चुका है )

Tuesday, June 12, 2018

मोनी जी की नयी पारी, पुराने साथियों की बातें न्यारी

चंडीगढ़ प्रेस क्लब में 31 मई 2018 को मोदी जी (बाएं से तीसरे) की विदाई पार्टी का दृश्य। साथ में हैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राजकुमार सिंह, सीएनसी उपेंद्र पांडे, न्यूज एडिटर हरेश वशिष्ठ, डीएनई मीनाक्षी वशिष्ठ एवं मोनी जी की पत्नी(दायें से तीसरी) एवं बेटा (एकदम दायें)।


विदाई से कुछ समय पहले ऑफिस प्रांगण में एक ग्रूप फोटो।
31 मई की दोपहर को प्रेस क्लब का बेसमेंट हॉल कई बातों का गवाह बना। मौका था मोनी जी की विदाई का। लंबे समय तक ट्रिब्यून को अपनी सेवाएं देने के बाद मनमोहन गुप्ता ‘मोनी’ सेवानिवृत्त हुए। इस मौके की पूरी बात का जिक्र करने से पहले बात करते हैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राजकुमार सिंह जी की कही गयी बातों का। सबसे अंत में बोले सिंह साहब। यहां उनके द्वारा कही गयी बातों को ही सबसे पहले इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि उन्होंने बेहद कम शब्दों में प्रभावशाली बातें कहीं। सरल अंदाज में। एक तो यह कि भागमभाग भरे इस जीवन में अपने लिए भी वक्त रखें। मोनीजी के सरल स्वभाव का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी खुशी का राज यह है कि उन्होंने अपने अंदर एक बच्चे को जिंदा रखा। वह आगे भी जिंदा रहना चाहिए। सिंह साहब ने एक और बेहतरीन बात कही कि जो इंसान अच्छा होगा, उसके हर काम अच्छे होंगे। यानी पहली शर्त है कि आप एक बेहतरीन इंसान बनें। वास्तव में यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी और दिल की गहराइयों तक पहुंची। अपने करीब 25 साल के पत्रकारिता जीवन में अनेक लोगों को वक्त के हिसाब से बदलते-पलटते देखा है और देख रहा हूं। कभी एक बेहतर इंसान लगने वाला व्यक्ति अचानक मुंह फेरता हुआ नजर आता है। कभी परिस्थितियोंवश। कभी स्वार्थवश। खैर वापस लौटते हैं इस विदाई कार्यक्रम में। संपादकजी के संक्षिप्त संबोधन के बाद फोटो सेशन हुआ और भोजन भी। इससे पहले मोनीजी के साथ लंबे समय से काम करने वाले उनके पुराने साथियों ने अपने-अपने अनुभव साझा किये। समाचार संपादक हरेश वशिष्ठ जी ने बताया कि कैसे एक गरुड़ पुराण कार्यक्रम में एक कहानी का जिक्र कहीं हुआ। उन्होंने मोनी जी से कहा कि उन्हें यह कहानी बहुत अच्छी लगी। मोनीजी ने दस्तावेजों के साथ बताया कि वह कहानी उनकी ही है। डिप्टी न्यूज एडिटर मीनाक्षी जी ने कुछ शायरियों को सुनाकर अपनी भावनाओं को उड़ेला और बताया कि कैसे मोनीजी और उनका ऑफिस का लंबा साथ जैसे लगा कि कल की ही तो बात है। हमारे चीफ न्यूज को-ऑर्डिनेटर उपेंद्र पांडेय जी ने कई संदर्भों के साथ मोनीजी के उस गुण की व्यख्या की, जो उनके मददगार होने का सबूत है। इस मौके पर मोनीजी के बेटे-बहू और पत्नी ने भी अपने अनुभव साझा किये। पोते ने संस्कृत श्लोकों के साथ अपने ‘दादू’ की ‘ऑफिशियल’ विदाई पार्टी में अपने उद्गार व्यक्त किये। डेस्क के साथ सुनील कपूर ने गाना सुनाया। नरेश दत्त जी ने कविता पाठ। बाद में मोनीजी ऑफिस आये। कुछ देर बातचीत हुई। फिर कुछ फोटो सेशन के बाद वह अपनी नयी गाड़ी में चल दिये। राजीव शर्मा जी ने इस मौके पर बेहद भावुक वीडियो बना दी। अन्य समान कार्यक्रमों की तरह वह पल भी यादगार रहा।
मोनीजी के साथ काम करने की जहां तक बात है, वहां सर्वाधिक कम समय तक साथ रहने वालों में संभवत: मैं ही हूं। लेकिन इस कम समय में भी उनके कई गुणों से वाकिफ हुआ। मुझे याद आया एक वाकया जब ट्रिब्यून लाइब्रेरी से किताबें ले जाने की छूट दी गयी। असल में किताबों का अंबार बहुत लग चुका था। ऐसे में कहा गया कि आप छांटकर ले जा सकते हैं। कई अच्छी किताबों में से एक और किताब पर नजर पड़ी। शीर्षक था, ‘उस दिन मां कहां रहेगी।’ लेखक थे मनमोहन गुप्ता मोनी। किताब कुछ पुरानी पड़ चुकी थी। घर ले गया। कहानियों के इस किताब में शीर्षक वाली कहानी सचमुच भावुक करने वाली थी। उसके बाद मोनी जी की कई कहानियों को पढ़ने का मौका मिला। उसके बाद तो कई वाकये आये। एक फिल्म की रिपोर्टिंग के दौरान पता चला कि स्क्रिप्ट राइटिंग में भी मोनीजी का अच्छा अनुभव है। धीरे-धीरे ऑफिस कार्यों के अलावा मोनी जी से घर-परिवार की भी बातें होने लगीं। उस दिन विदाई कार्यक्रम (31 मई) को भी ज्यादातर वक्ताओं ने यही कहा कि परिवार को एकजुट कर रखना मोनी जी की अन्य उपलब्धियों में से एक विशिष्ट उपलब्धि है। वास्तव में आजकल एकल होते परिवारों के बीच जिस तरह से मोनी जी का हंसी-खुशी परिवार एक है, वह अनुकरणीय है। बेशक वह ट्रिब्यून संस्था से रिटायर हुए हैं, लेकिन उनका अगला पड़ाव भी जोरदार रहेगा। रिटायरमेंट पार्टी में भी सभी ने इस तरह की कामना की। मोनीजी को दिल से नयी पारी की शुभकामनाएं।