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Friday, April 26, 2024

पृथ्वी दिवस पर सार्थक बात, सार्थक प्रयास और सार्थक उम्मीद

केवल तिवारी

चमक है इन आंखों में, हौसला है मन में।
बड़े होने की दहलीज पर, हिम्मत है तन में।
वक्त आने दे बता देंगे ये सब ज़माने को
अभी तो राह पर चले हैं, मंजिल तो आने दो।
इनके लिए हो रहा हर प्रयास होगा सार्थक।
मंजिल मिलेगी और लक्ष्य होगा परमार्थक।
पिछले दिनों अपने पुराने कर्मभूमि परिसर वसुंधरा, गाजियाबाद जाना हुआ। अक्सर जैसा होता है उमेश पंत जी से मिला। कुछ सार्थक बातचीत हुई। साथ ही उन्होंने कहा कि सार्थक प्रयास स्कूल के बच्चों से मिल लीजिए। ऐसे आयोजन के लिए मैं झट से राजी हो जाता हूं। संयोग से उस दिन पृथ्वी दिवस था और इस दिवस की पूर्व संध्या पर उमेश पंत जी ने मुझे अपनी छत की बागवानी दिखाई। बेहद आकर्षक और हरियाली मानो संदेश दे रही कि इरादे नेक हों तो सपने भी साकार होते हैं। आपको मन में ठानना पड़ता है। उस बागवानी की कुछ तस्वीरें साझा करूंगा जो खुद ही सबकुछ बयां करेंगे। बात हो रही थी, सार्थक प्रयास स्कूल के बच्चों से रूबरू की, उसके विवरण से पहले आइए पहले कुछ सार्थक राह के अथक पथिक यानी उमेश पंत जी की बात करें।



सार्थक राह का अविचल राही
ये हैं उमेश पंत। दो दशक से अधिक समय से मेरे परिचित। नि: स्वार्थ मेल मिलाप के बाद एक समिति में साथ जुड़ गए। उन दिनों वसुंधरा का इलाका एक नया शेप ले रहा था। एक अच्छी खासी नौकरी कर रहे पंत जी निर्माण मजदूरों के बच्चों की स्थिति से द्रवित हो गये। और यह सिलसिला ऐसा चला कि लंबी कहानी है। उस पर चार पंक्तियां ऐसे ही आ गयीं, पढ़िए -
चलते रहे, हमें थकने का समय ही कहां मिला।
एक धुन में पकड़ ली राह, न शिकवा, न गिला।
मंशा हो नेक, चाहे राह हो कितनी कठिन।
पथिक तू चलता चल, छालों को न गिन।
इस सफर में अनेक लोग हमसफ़र बनेंगे।
कुछ साथ रहेंगे, कुछ अपनी राह चल पड़ेंगे।
ऐसा ही हुआ। अनेक झंझावातों से जूझते हुए इस वक्त पंत जी के सान्निध्य में अनेक पुस्तकालय, वाचनालय चल रहे हैं। वसुंधरा में सुविधाविहीन बच्चों के लिए दो स्कूल चल रहे हैं। पंत जी पर विस्तृत चर्चा फिर कभी। आइए अब उस कार्यक्रम की बात करें-
हम लोग सुबह पौने आठ बजे स्कूल पहुंच गए। पहले बच्चों ने प्रार्थना की। नयी जगह स्कूल शिफ्ट हुआ था। सार्थक प्रयास से ही निकला आनंद जो अब आनंद सर हो चुके हैं, मुस्तैद थे। टीचर्स की देखरेख में बच्चों ने पेंटिंग्स तैयार की थी। छोटे बच्चों से छोटी सी बात ही हुई। उम्मीद जगी कि ये बच्चे सही राह पर चलेंगे। फिर हुई बड़े बच्चों से मुलाकात। बहुत अच्छा लगा जब उन्होंने अपनी उत्तराखंड यात्रा के बारे में बताया। वह यात्रा जिसे पंत जी ने यह कहकर अयोजित की कि परीक्षा में अच्छा करने वाले बच्चे यात्रा पर चलेंगे। बहुत अच्छा लगा बच्चों की आंखों में चमक देखकर, तभी तो अनेक बच्चे तब भावुक हो गए जब मैंने कहा बच्चो कभी भी अपने इमोशंस को कम मत होने देना। पृथ्वी दिवस क्यों? सवाल पर बच्चों ने बहुत अच्छे जवाब दिए। एक ने कहा, 'पृथ्वी हमें इतना कुछ देती है, हमें भी उसे संवारना चाहिए।' एक अन्य ने कहा, 'जिस तरह मां होती है, वैसी ही हमारी पृथ्वी है।' एक बच्ची ने कहा, 'हमें पृथ्वी को रिटर्न गिफ्ट देना चाहिए।' बच्चों के जवाब को समझें तो ये सभी बातें आपस में मिली हुई हैं। मैंने कहा कि सचमुच पृथ्वी मां ही होती है। एक मां अपने बच्चे से सिर्फ यह उम्मीद करती है कि वह अच्छा इंसान बना रहे। इसी तरह अच्छे इंसान की तरह हम सबका फर्ज है कि पृथ्वी के प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझें। मैंने उदाहरण देते हुए कहा कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखें जैसे, कुछ देर पहले पंत जी ने स्कूल की ऊपरी मंजिलों की ओर जाते हुए बिना काम के जली हुई लाइट्स को बंद किया, पंखे बंद किए। इसी तरह यदि कहीं नल खुला हो, पानी बेकार बह रहा हो, उसे भी बंद कर दें। अपने हिस्से की जिम्मेदारी अगर हर व्यक्ति पूरा करे तो बहुत कुछ ठीक हो जाएगा। असल में हम लोग उपदेश देते हैं, या औरों की बुराई से जल्दी प्रभावित होते हैं। चिप्स या चॉकलेट के रैपर खुले में नहीं फेंकने हैं, हमें पता है, लेकिन जब देखते हैं कि जगह-जगह तो ऐसे रैपर फैले हुए हैं तो हम भी सोचते हैं, इतने लोगों ने तो फेंक रखे हैं, हम भी फेंक देते हैं। यहां हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी भूल जाते हैं। फिर उनसे कुछ घर-परिवार को लेकर बातें हुईं। मन में यकीन हुआ कि इन बच्चों को सार्थक मंच मिला हुआ है, अवश्य ही ये अपनी कल्पनाओं को पंख देंगे और बड़े फलक को छुएंगे। बातों-बातों में बच्चों से कुछ और भी चर्चाएं हुईं। धीरे-धीरे करिअर की दहलीज पर पैर रखने जा रहे इन बच्चों को तमाम चीजों में सामंजस्य बिठाकर आगे बढ़ना होगा। संभवत: ये लोग इन चीजों को समझते भी हैं। इस ब्लॉग के माध्यम से भी कहना चाहता हूं बच्चो, कभी भी तड़क-भड़क को देखकर डिगना मत। राह में परेशान करने वाली चीजें या बिगाड़ने वाली चीजें ज्यादा आएंगी और आकर्षित करेंगी, उनसे बचकर चलना। इस कार्यक्रम में एक टीचर ने सुंदर कविता सुनाई, उन्हें साधुवाद। एक टीचर और पंत जी ने एक स्मृति चिन्ह दिया, उसके लिए भी धन्यवाद। एक बच्ची सार्थक प्रयास के जरिये बीकॉम कर रही है, उसे ढेर सारा आशीर्वाद।








कुछ चर्चा पंत जी की बागवानी की
बात अर्थ डे की थी तो पहली शाम को पंत जी ने अपनी छत की बागवानी दिखाई। मैं असमंजस में था कि तमाम परेशानियों के बावजूद हरियाली से ऐसा लगाव एक जुनूनी व्यक्ति ही रख सकता है। जमीन नहीं होने का बहाना नहीं चलेगा। कबाड़ को भी सोना बना दिया। टूटी टंकियां हों या फिर सीमेंट से बनायी क्यारियां। छत पर आड़ू, अंगूर, भिंडी, पुदीना और मिर्च देखकर मन गदगद हो गया। इसके अलावा अपराजिता के फूल और अन्य पौधे भी। इस चर्चा में उमेश जी की अर्धांगिनी सुषमा जी का जिक्र कैसे भूल सकता हूं। उन्होंने छत में उग रही चीजों से ही चटनी बनायी जो आलू के गुटकों के साथ बेहद स्वादिष्ट बनी। उनकी बिटिया तानी से भी कुछ बातें हुई जो इन दिनों पुणे गए भाई को बार-बार याद कर रही है। भाई यानी तन्मय भी अपनी राह पकड़ चुका है, उसे खूब सफलता मिले यही कामना है। अब यहां बागवानी के कुछ चित्र-








Wednesday, April 24, 2024

बिटिया के विवाहोत्सव पर रावत जी का मनोहर आयोजन

केवल तिवारी

ये अवसर, ये उत्सव... ये खुशबू माटी की। ये रस्मो-रिवाज और बातें परिपाटी की।

बिटिया का विवाह, कल्पनाओं पर पंख सपनों के। मिलना, खूब बातें करना अपनों से।

स्नेहिल अपनापन रावत जी का मनोहर अभिनंदन। सादगी में भव्यता का फैला नील गगन।  



करीब दो दशक से एमएस रावत जी को जानता हूं। जैसा कि कहते हैं कि पहली ही मुलाकात में किसी के बारे में कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए, ऐसा ही रावत जी के संबंध में मेरे अनुभव हैं। कुछ समझ-परख कर धारणा बनेगी तो स्थायी होगी और हकीकत के बिल्कुल करीब भी। शुरुआत में रावत जी को वैसा ही मानता था जैसा कई बार उत्तराखंड के लोगों के बारे में लोग बोल देते हैं। 'इंट्रोवर्ड।' धीरे-धीरे उन्हें जाना तो वह सरल, सहज और भावुकता से भरपूर सख्त व्यक्ति निकले। समाज, कौम, देश के प्रति जागरूक और ऐसे ही लोगों को पसंद करने वाले। मुलाकात के कुछ समय बाद एक दिन बोले, कल सुबह सात बजे तैयार रहना आपको आकाशवाणी ले चलना है। आकाशवाणी से मेरा बहुत पुराना नाता रहा है और आज भी है। बचपन में आकाशवाणी लखनऊ में भाई साहब ले जाया करते थे। हर रविवार बाल जगत कार्यक्रम में जाया करता था। दिल्ली आया तो यहां शुरुआत में जो हर संघर्षशील युवा करता है। कभी मनभावन कार्यक्रम कभी कुछ साक्षात्कार कार्यक्रम। धीरे धीरे प्रिंट पत्रकारिता में व्यस्त हुआ तो आकाशवाणी से सिलसिला हट गया। अब अचानक रावत जी ने फिर आकाशवाणी की याद दिलाई और चलने का आदेश दिया तो मैंने हां कर दी। सुबह रमा पांडे जी का फोन इन कार्यक्रम था। मुझे भी उनके साथ बिठा दिया और ताकीद की कि चुपचाप कार्यक्रम देखें और समझें। मैंने वैसा ही किया। कार्यक्रम के बाद रमा जी से काफी बातचीत हुई। एक हफ्ते बाद ही रावत जी ने बताया कि अगला फोन इन मैंने करना है। विषय और आगंतुक मेहमानों के बारे में बता दिया गया। फिर तो सिलसिला चल निकला। बता दूं कि उन दिनों मुफलिसी के दौर से गुज़र रहा थ। हिंदुस्तान अख़बार छोड़ने के एक दो साल बाद ही हालात खराब होने लगे थे। आकाशवाणी में कुछ कार्यक्रम मिले और कुछ काम बड़े भाई साहब हीराबल्लभ शर्मा जी के मार्फत स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया से मिलने लगा। सार्थक प्रयास के उमेश पंत जी के जरिए बनी एक कमेटी की बैठकों में रावत जी से अक्सर मुलाकात होती। कुछ मुद्दों पर चर्चा होती। रावत जी को खराब बात हमेशा खटकती और बिना कोई लाग लपेट के वह उसका विरोध करते। रावत जी की एक और खूबी जो मुझे भा गयी, वह ये कि उनके क्रोध या तारीफ करने के अंदाज में कोई गणित नहीं होता। धीरे धीरे उनके जरिए अनेक लोगों से मुलाकात का सिलसिला जारी है। मुझे याद है एक बार गणतंत्र दिवस के मौके पर रावत जी ने बताया कि राजपथ (अब कर्तव्य पथ) पर देशभक्ति के जो गीत बज रहे हैं, वो ओरिजनल नहीं हैं। खबर बननी चाहिए। मैं वहां गया, जानकारी जुटाई बात सही थी। फिर अपने तत्कालीन अखबार नयीदुनिया में वरिष्ठों से बात की। खबर बहुत अच्छे डिस्प्ले के साथ छपी। पहले जो अधिकारी वर्जन देने को तैयार नहीं थे, उन्हीं की सफाई आई और फिर एक खबर छापी गई कि अब बजने लगे ओरिजनल गीत। ऐसे ही विभिन्न सामाजिक सरोकारों वाले मसलों पर रावत जी से डिस्कशन होता रहता। उनके मुद्दे हमेशा हमाज से जुड़े होते, व्यक्तिगत कतई नहीं। अपनी कमेटी की बैठक के लिए उनके घर जाना भी हुआ, जहां भाभी जी के हाथों बनी हाफ पूड़ी और अन्य व्यंजन याद हैं। 

संस्मरण तो बहुत हैं, आज कुछ लिखने का मुख्य कारण पिछले दिनों उनकी बिटिया की शादी में शामिल होना है। चूंकि करीब 12 सालों से चंडीगढ़ में हूं, अब अक्सर मुलाकात नहीं होती, ऐसे ही मौके होते हैं। बिटिया की शादी में जहां अनेक अग्रज, साथीगण मिले, वहीं पत्रकारिता जगत के भी अनेक लोग मिले। विवाह के इस समारोह में रावत जी अपने जड़ों को नहीं भूले। हर व्यक्ति को टीका यानी जिसे उत्तराखंड में पिट्ठ्या कहते हैं, लगाया गया। उत्तराखंड के व्यंजनों की एक पूरी श्रृंखला। उत्तराखंड से आये लोक कलाकार। अद्भुत नजारा। वहां पहुंचा हर व्यक्ति मुरीद हो गया। सादगी के साथ भव्य आयोजन। हम सबको अपनी जड़ों से जुड़ा रहना चाहिए। एक साल पहले राजस्थान निवासी एक सज्जन के यहां विवाह समारोह में गया था। वहां राजस्थानी खान-पान और गीत-संगीत से मन प्रसन्न हो गया। इस बार उत्तराखंड की संस्कृति, भोजन ने तो जैसे मुझे मेरे घर पहुंचा दिया। कुछ शेर इसी से जुड़े टीपे हैं -


अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो 

संग-ए-मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे।


मिट्टी से कुछ ख़्वाब उगाने आया हूँ 

मैं धरती का गीत सुनाने आया हूँ।


कोई ख़ुशबू मिट्टी से आने लगी है

ज़मीं पर वो बूँदें गिराने लगी है।

पलट आई है फिर से सावन की बारिश

कड़ी धूप घर से हटाने लगी है ।

दरांती, मुनस्यारी निवासी लोक कलाकार लवराज जी से बातचीत 

उत्तराखंड में छोलिया, जागर, झोड़ा, चांचरी आदि अनेक लोक गीत और नृत्य होते हैं। आज की पीढ़ी कुछ कम जानकारी रखती हो, लेकिन परिदृश्य बहुत स्याह नहीं है। लोक कलाकार लवराज जी को फोन किया। कुछ व्यस्तता के बीच उन्होंने अपनी संस्था के बारे में बताया, साथ ही कहा कि नयी पीढ़ी को जागरूक करना हमारी जिम्मेदारी है। साथ ही महानगरों में लोककला के प्रति स्नेह उत्साहजनक है। लवराज आर्य जी से बाद में विस्तार से बात हुई जिसका जिक्र अलग ब्लॉग में करूंगा।

 एम एस रावत जी एवं पूरे परिवार को एक बार फिर हार्दिक शुभकामनाएं। बिटिया और दामाद जी को शुभाशीष। विवाहोत्सव संबंधी कुछ वीडियो साझा कर रहा हूं।






Sunday, April 14, 2024

समरसता के नेक विचार को दें मूर्त रूप .... फिल्मों के अनूठे मेले की भी सुखद चर्चा

केवल तिवारी

समरसता। भाईचारा। जाति प्रथा। समाज में द्वंद्व से जुड़ी ऐसी अनेक शब्दावलियों से हम-आप अक्सर दो-चार होते हैं। जब बातें, बहस-मुबाहिशें होती हैं तो सवाल उठता है कि जिस वर्ण व्यवस्था को किन्हीं कारणों से बनाया गया था, आज बदलते युग में उसका विकृत स्वरूप जाति प्रथा के तौर पर क्यों उभरा। न केवल उभरा, बल्कि विकृत हुआ। अब सदियों से ऐसा हुआ या इसे सप्रयास किया गया तो सवाल है कि इसकी क्या काट है। क्या जतन करें कि इसमें कमी आए। समरसता की दिशा में हम दो कदम बढ़ें, अपने साथ कुछ और लोगों को भी ले चलें। आखिरकार सफलता तो मिलेगी ही। माहौल बिल्कुल स्याह नहीं है। पूरी तरह श्वेत भी नहीं है। पिछले दिनों होली मिलन कार्यक्रम में एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान पता चला कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) में एक विचार दिया गया कि समरसता के लिए क्या ऐसा नहीं हो सकता है कहीं भी श्रीराम का मंदिर बने और वहीं पर महर्षि वाल्मीकि का भी मंदिर हो। इसी तरह कहीं वाल्मीकि मंदिर की स्थापना हो और श्रीराम की मूर्ति भी स्थापित की जाये। इसके अलावा भी समरसता को लेकर कई उपायों, किए जा रहे कार्यों पर बातचीत हुई। ये विचार नेक हैं। इस पर आए दिन चर्चा होती भी हैं, लेकिन इस विचार को ज्यादा प्रचारित नहीं किया गया। यह अलग बात है कि संघ से जुड़े लोग समरसता के लिए समाज में अपने हिस्से के प्रयास को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। शायद इसी विचारधारा का ही प्रतिरूप है कि वहां जाति के बजाय नाम को तवज्जो दी जाती है। फलां जी या फलां जी...। इस मिलन कार्यक्रम के बारे में बता दें कि कुछ इसी संबंधित रिपोर्ट भी सौंपी गयी। इसी दौरान कुछ समय पहले ही पंचकूला में संपन्न हुए फिल्म फेस्टिवल की भी चर्चा हुई। इस फेस्टिवल में अलग-अलग भाषाओं की फिल्में चित्र भारती कार्यक्रम के तहत दिखाई गयीं। यह एक वृहद और सराहनीय कार्यक्रम है। इस फेस्टिवल की विस्तृत जानकारी तो विभिन्न माध्यमों से लोगों को मिल चुकी है, संबंधित कुछ तस्वीरों को जो बुकलेट में छपी हैं, ब्लॉग के अंत में साझा करूंगा 


एक रिपोर्ट का हवाला

इस बातचीतक के जरिये एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया। इसमें कहा गया, ‘सामाजिक समरसता यह संघ की रणनीति का हिस्सा नहीं है, वरन यह निष्ठा का विषय है। सामाजिक परिवर्तन समाज की सज्जन-शक्तियों के एकत्रीकरण और सामूहिक प्रयास से होगा। सम्पूर्ण समाज को जोड़कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ने का संघ का संकल्प है।’ रिपोर्ट में उल्लिखित यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुनर्निर्वाचित सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी के बयान के हवाले से कही गयी। दत्तात्रेय ने जोर देकर कहा कि रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा की ऐतिहासिक घटना से समाज की सक्रिय भागीदारी का व्यापक अनुभव सबने किया है। असाधारण शासनकर्ता तक की उनकी जीवनयात्रा आज भी प्रेरणा का महान स्रोत हैl वे कर्तृत्व, सादगी, धर्म के प्रति समर्पण, प्रशासनिक कुशलता, दूरदृष्टि एवं उज्ज्वल चारित्र्य का अद्वितीय आदर्श थींl

 उनका लोक कल्याणकारी शासन भूमिहीन किसानों, भीलों जैसे जनजाति समूहों तथा विधवाओं के हितों की रक्षा करनेवाला एक आदर्श शासन था l समाजसुधार, कृषिसुधार, जल प्रबंधन, पर्यावरण रक्षा, जनकल्याण और शिक्षा के प्रति समर्पित होने के साथ साथ उनका शासन न्यायप्रिय भी था। समाज के सभी वर्गों का सम्मान, सुरक्षा, प्रगति के अवसर देने वाली समरसता की दृष्टि उनके प्रशासन का आधार रही। केवल अपने राज्य में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण देश के मंदिरों की पूजन-व्यवस्था और उनके आर्थिक प्रबंधन पर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया। बद्रीनाथ से रामेश्वरम तक और द्वारिका से लेकर पुरी तक आक्रमणकारियों द्वारा क्षतिग्रस्त मंदिरों का उन्होंने पुनर्निर्माण करवाया। प्राचीन काल से चलती आयी और आक्रमण काल में खंडित हुई तीर्थयात्राओं में उनके कामों से नवीन चेतना आयी। इन बृहद कार्यों के कारण उन्हें ‘पुण्यश्लोक’ की उपाधि मिली। संपूर्ण भारतवर्ष में फैले हुए इन पवित्र स्थानों का विकास वास्तव में उनकी राष्ट्रीय दृष्टि का परिचायक है।


देवी अहिल्याबाई पर सुखद बात 


इस मौके पर देवी अहिल्याबाई पर भी सुखद बात हुई। बताया गया कि पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई की जयंती के 300वें वर्ष के पावन अवसर पर उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए समस्त स्वयंसेवक एवं समाज बंधु-भगिनी इस पर्व पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में मनोयोग से सहभाग करें। उनके दिखाये गए सादगी, चारित्र्य, धर्मनिष्ठा और राष्ट्रीय स्वाभिमान के मार्ग पर अग्रसर होना ही उन्हें सच्ची श्रध्दांजली होगी।

अब चित्र भारती कार्यक्रम के भव्य कार्यक्रम की स्मारिका से कुछ चित्र। इसका भी रोचक संदर्भ है, जब प्रेस क्लब में कार्यक्रम हुआ था। उस वक्त मैंने लघु फिल्मों की सार्थकता पर बात की थी। कभी वह बात फिर, अभी स्मारिका से कुछ चित्र बेशक ये चित्र स्मारिका के हों, लेकिन स्मारिका के लेख और चित्र मंथन करने को विवश तो करते ही हैं -







जीवंतता के रस से सराबोर बनारस

 साभार : दैनिक ट्रिब्यून 


https://m.dainiktribuneonline.com/article/banaras-is-full-of-the-juice-of-liveliness/546948 जीवंतता के रस से सराबोर बनारस

केवल तिवारी

यहां गुफ्तगू का अलग अंदाज ए बयां है। खान-पान की एक शृंखला है। संकरी गलियों का विस्तृत इतिहास है। बदलते वक्त की गवाही है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की लंबी विरासत है। धर्म का जयघोष है। भाईचारे का संदेश है। शिक्षा की उच्च परंपरा है। लघु भारत की झलक है। यह बनारस है। यहां जीवन का हर रस है। बाबा विश्वनाथ की नगरी। काशी विश्वनाथ- प्रथम ज्योर्तिलिंग। अनूठे शहर बनारस के इतिहास की तरह यहां की कहानियां हैं, कुछ सुनी और कुछ अनसुनी। पौराणिक कथाओं का हवाला देते हुए यह भी कहा जाता है कि गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान शिव ने पृथ्वी पर अपना निवास बनाया था।

बनारस यानी वाराणसी अथवा काशी। इन दिनों बनारस में ज्यादातर 'नुक्कड़ बहस' राजनीति पर जारी है। चुनावी बयार है। पीएम का संसदीय क्षेत्र है। आप ई रिक्शे पर चलिए या लस्सी पीने के लिए किसी दुकान पर रुक जाइये। या कहीं कुछ खाने या खरीदने चले जाइये। कुछ देर की बातचीत के बाद राजनीति ही मुख्य विषय बन जाएगा। ऐसा क्या अक्सर होता है, पूछने पर ज्यादातर लोगों की राय, ‘जी हां, राजनीतिक बात के बिना तो जैसे भोजन पचता ही नहीं।’ पिछले दिनों काशी जाने का मौका मिला। कुछ दिन ठहरकर काशी यानी बनारस को समझा, जाना और आसपास के इलाकों में भी जाने का मौका मिला। यूं तो काशी को लेकर कुछ न कुछ हर कोई जानता है, लेकिन होली के तुरंत बाद बनारस गए, जहां होली की खुमारी तारी थी। उत्तराखंड में उस होली गीत की तरह जिसके बोल हैं, ‘शिव के मन माही बसे काशी…।’ असल में बनारस यानी वाराणासी का पुराना नाम काशी है। धार्मिक ग्रंथों में भी काशी नाम ही मिलता है। कहा जाता है कि कशिका से काशी बना। इस शब्द का अर्थ चमकना बताया जाता है। कहा जाता है कि काशी हमेशा चमकती रहती है। यहां आध्यात्मिक चमक, धार्मिक चमक, भाईचारे की चमक है। ऋगवेद में भी काशी का उल्लेख मिलता है। शिव की काशी कही जाने वाली इस नगरी के नामकरण को लेकर और भी कई कहानियां हैं। इन्हीं कहानियों में छिपी है इसकी रंगत। पाली भाषा में बनारसी से इसका नाम बनारस हुआ। बताया जाता है कि बनार नाम के राजा से यहां का नाम बनारस पड़ा। मुगलकालीन समय में भी यही नाम प्रचलित रहा। बौद्ध जातक कथाओं और हिंदू पुराणों में वाराणसी इसका नाम था। दो नदियों वरुण या वरुणा और असी से यह नाम पड़ा। मुख्य रूप से गंगा किनारे बसे इस शहर के आसपास से कई सहायक नदियां होकर गुजरती हैं। इन प्रमुख प्रचलित नामों के अलावा भी इस धार्मिक शहर के कई अन्य नाम हैं, जिसकी चर्चा वहां पुराने लोगों से आप करेंगे तो उनके बारे में दंतकथाएं भी सुनेंगे। प्राचीन समय में संस्कृत पढ़ने लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी घराने की संगीत कला भी विश्व प्रसिद्ध है। इस शहर में शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां से लेकर संगीत की विविध विधाओं के लोगों ने विश्व प्रसिद्धि पाई। वैसे कला, संस्कृति में बनारस घराने का स्वरूप जयपुर घरानों के समकक्ष मिलता है। वाराणसी कला, हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी केंद्र है। यह शहर रेशम, सोने व चांदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, कांच की चूड़ियों, पीतल के काम के लिए भी प्रसिद्ध है। बनारसी साड़ियां तो विश्वप्रसिद्ध हैं हीं। आइये इस सफर की चर्चा के साथ-साथ बनारस को देखें ऐतिहासिक, धार्मिक और पर्यटन नगरी के झरोखों से।

बनारस जाने के लिए देश के हर इलाके से अलग-अलग रूट हैं। हमारा रूट था चंडीगढ़ से लखनऊ फिर लखनऊ से बनारस। यहां के लिए इंटरसिटी के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य राज्यों, बिहार, बंगाल जाने वाली तमाम ट्रेनें हैं। रास्ते में अनेक ऐतिहासिक स्थल मसलन- जाने-माने कवि मलिक मुहम्मद जायदी का क्षेत्र जायस, रायबरेली, गौरीगंज, अमेठी, प्रतापगढ़ आदि पड़ते हैं। 

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नामों की विविधता के साथ रेलवे स्टेशन भी अलग-अलग

बनारस यदि ट्रेन से जाना हो तो ध्यान रखें कि इस शहर में नामों की विविधता की भांति रेलवे स्टेशन भी अलग हैं। यहां मुख्य तौर से चार प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं। इनमें वाराणसी जंक्शन कैंट, वाराणसी सिटी स्टेशन, काशी रेलवे स्टेशन और मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन है। मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन को बनारस जंक्शन भी कहा जाता है। यहां लोगों ने बातचीत में बताया कि रेलवे स्टेशनों को स्मार्ट बनाया गया है। स्टेशनों पर सफाई की समुचित व्यवस्था तो हम लोगों को भी महसूस हुई। 

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गंगा आरती का अद्भुत नजारा और काशी विश्वनाथ के दर्शन

बनारस में शाम को गंगा आरती होती है। दशाश्वमेध घाट पर प्रति शाम यह आरती होती है जिसमें भाग लेने के लिए देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु आते हैं। अगर यह कहा जाए कि बनारस आने वलों के लिए प्रमुख आकर्षण यह गंगा आरती ही है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां आरती दर्शन या तो घाट पर बैठकर होता है या फिर नावों में बैठकर भी इसका आनंद लिया जा सकता है। भक्ति में तल्लीन लोग इस आरती में अपनी भागीदारी इसी में महसूस करते हैं जब सामने आरती हो रही हो और वह नाव में बैठकर देख रहे हों। हालांकि लोगों के हाथों में मोबाइल आने से भक्तिरस में भी कुछ दिखावे की कड़ुआहट भरती सी लगी। लोग देखने या आरती सुनने में कम, वीडियो बनाने या अपने परिजनों को वीडियो कॉल से कनेक्ट करने में ज्यादा मशगूल दिखे। इसके साथ ही डीजल इंजन से चलने वाली नावों के कारण गंगा नदी परिसर में प्रदूषण भी बढ़ता देख थोड़ा दुख हुआ, साथ ही सुकून मिला कि अनेक नावों में अब सीएनजी मोटर लग चुकी हैं। इसके अलावा करीब एक दशक पहले के मुकाबले गंगा की सफाई भी आकर्षित करने वाली रही। गंगा आरती से पहले यानी सुबह या अगले दिन बाहर से आए श्रद्धालु काशी विश्वनाथ के दर्शन, पूजन करने जाते हैं। यहां काफी कुछ व्यवस्थागत कर दिया गया है। मसलन, एक तय राशि देकर अभिषेक कराया जा सकता है, सामान्य दर्शन के लिए अलग पंक्तिबद्ध लोग। अथाह भीड़ के बारे में पूछने पर लोगों का कहना था ऐसा हमेशा ही होता है, लेकिन अयोध्या में राम मंदिर दर्शन को आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु काशी भी आ रहे हैं, इसलिए भीड़ थोड़ा अधिक है। 

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त्योहार के अलग रंग

बनारस में हर त्योहार का अलग रंग नजर आता है, लेकिन होली पर तो माहौल ही अनूठा होता है। इस शहर में होली का पर्व एक सप्ताह पहले से एक सप्ताह बाद तक होता है। होली मिलन आगे भी जारी रहता है। यहां घाटों पर भस्म होली पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। वाराणसी के महाश्मशान हरिश्चन्द्र और मणिकर्णिका घाट पर रंग एकादशी के दिन से श्मशान में होली खेलने का रिवाज है। शायद इस परंपरा के पीछे यह मान्यता रही हो कि जीवन और मरण तो ईश्वर के बनाए दो अवश्यंभावी तत्व हैं, इनसे परेशान होने के बजाय इनका उत्सव मनाया जाना चाहिए। 

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इन दिनों चुनावी चर्चा

माहौल चुनाव का हो और बनारस में हर नुक्कड़ पर इसकी चर्चा न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। वाराणसी स्टेशन से एक ऑटो में बैठे तो राम सहाय नामक व्यक्ति उसके चालक थे। महज पांच मिनट की चुप्पी को उन्होंने ही तोड़ा, पहला सवाल पूछकर कहां से आए हैं? फिर तो राजनीति पर जो चर्चा हुई, मैं दंग रह गया। गंगा आरती के लिए जाते समय ई रिक्शा चालक मोहम्मद इस्लाम, अगले दिन विश्वनाथ मंदिर जाते समय जलालुद्दीन आदि से भी राजनीति की ही चर्चा हुई। मंदिर से आने के बाद लस्सी पीने, शाम को बनारसी पान का आनंद लेने, अगले दिन एक ठेले पर सत्तू पीने के दौरान हर जगह राजनीतिक चर्चा ही सुनने को मिली। यह चर्चा सिर्फ बनारस के लिए नहीं, देशभर की राजनीति का हिस्सा था। लोगों ने कहा, ‘चुनावी चर्चा तो यहां के लोगों की खुराक है।’

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खान-पान के अलग अंदाज

बनारस में बड़े कुल्हड़ की लस्सी सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। इसके अलवा कपड़ों की बनायी गयी छलनी से छानी गयी चाय भी यहां खूब पी जाती है। ज्यादातर दुकानों पर चाय कुल्हड़ में मिलती है। इसके अलावा कचौड़ी, बेड़मी पूड़ी, दही जलेबी, रबड़ी और पेड़ों को खरीदते लोग मिल जाएंगे। पानी के बतासे यानी गोल गप्पों से लेकर हरे चने में प्याज-टमाटर डालकर खाने का रिवाज भी खूब है। जगह-जगह अंकुरित चने, खीरे में काला नमक लगाकर भी लोग खूब खाते हैं। 

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शहर के आसपास भी है बहुत कुछ

अगर बनारस जाने का मौका मिले तो पहले पूरे शहर को देख लें, समझ लें। यहां अन्य चीजों के अलावा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं वहीं स्थित विश्वनाथ बाबा का अन्य मंदिर भी है। इसके बाद पास में ही, करीब आठ किलोमीटर दूर सारनाथ और करीब 95 किलोमीटर दूर मिर्जापुर में विंध्याचल देवी एवं अष्टभुजा देवी के दर्शन के लिए जा सकते हैं। इस पूरे सफर में आपको हाईवे निर्माण की एक रफ्तार के भी दर्शन होंगे। सारनाथ तक आप ई रिक्शा से भी जा सकते हैं। इससे आप पूरे इलाके को बहुत अच्छे से ‘एक्सपलोर’ कर सकते हैं। प्रमुख रूप से बौद्ध मतावलंबियों के इस क्षेत्र में आपको समृद्ध ऐतिहासिक परंपराओं के दर्शन होंगे। यहां स्थित संग्रहालय में सम्राट अशोक एवं उनसे भी पहले के समय की अनेक कलाकृतियां, बौद्ध स्तूप एवं बौद्ध धर्म मानने वालों के बारे में बहुत जानकारी हासिल हो जाएगी। एक दिन अगर सारनाथ घूमने के लिए निकालें तो प्राचीन ऐतिहासिक भव्यता के साथ-साथ आपको यहां की स्थानीय बोली भी आनंदित करेगी। इसके अलावा मिर्जापुर में गंगा में नौका विहार फिर विंध्यांचल देवी मंदिर, पास में अष्टभुजा देवी मंदिर एवं सीताकुंड के नाम से प्रसिद्ध जलस्रोत देखने को मिलेगा। पहाड़ी पगडंडियों पर चलने जैसा अनुभव करते हुए आप धार्मिक महत्व की जानकारी तो जुटा ही सकते हैं साथ ही गंगा नदी की उस विशालता को भी महसूस कर सकते हैं जिसके बहाव में भीमकाय पत्थर बहकर आए और इस मैदानी इलाके में भी पहाड़ होने का अनुभव इस नदी की वजह से हुआ।