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Thursday, January 24, 2019

इस प्यार के सामने गुस्सा उड़न-छूं

क्लासिक किरदार कॉलम में भीष्म साहनी की कहानी दो गौरैया पर दैनिक ट्रिब्यून में छपा मेरा लेख

केवल तिवारी
प्यार के सामने गुस्सा उड़नछूं हो जाता है। प्यार जब वात्सल्य वाला हो तो फिर तो गुस्सा कहीं नहीं टिकता। यही तो हुआ भीष्म साहनी की कहानी ‘दो गौरैया’ में। अजब इत्तेफाक है कि हाल ही में अपनी 10 साल पुरानी कहानी ‘गौरैया का पंख’ यूं ही पढ़ रहा था तो मन किया कि इसे गूगल सर्च कर देखें। शायद कहीं दिखे। इस सर्च में मुझे भीष्म साहनी साहब की ‘दौ गौरैया’ नजर आ गयी। सबकुछ छोड़कर इसे पढ़ने बैठ गया। बिना विराम के कहानी पूरी पढ़ डाली। सचमुच कितने सरल अंदाज में एक व्यक्ति के गुस्से को दिखाया गया है, उस पर कसे जा रहे तंज को दिखाया गया है और अंतत: वात्सल्य प्रेम के आगे उस व्यक्ति के नतमस्तक होने पर कहानी का बेहतरीन समापन किया गया है। घर में तीन लोग हैं। एक उसका मुखिया, दूसरा उनकी पत्नी और एक उनका बेटा। घर में पंछी कहीं भी अपना डेरा डाल देते हैं। इसे लेकर ही घर का बच्चा कहता है, ‘जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुंचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुंच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहां कभी तोते पहुंच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैया। ऐसा शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएं, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!’ घर की अस्त-व्यस्तता का विवरण भी कहानी में बड़े ही रोचक और हास्य अंदाज में किया गया है। देखिये किस खूबसूरती से लेखक ने लिखा है, ‘घर के अंदर भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात-भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते फिरते हैं। वह धमा-चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अंगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गर्मी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झांक जाती है। मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही ‘फिर आऊंगी’ कहकर चली जाती है।’ इन सब दिक्कतों के बीच बड़ी समस्या पंछियों की है। कहीं कबूतरों की गुटरगूं और कहीं दूसरे पक्षियों का शोर। एक दिन घर के मुखिया को दो गौरैया दिखीं। वह कभी इधर उड़तीं और कभी उधर। मानो घर का निरीक्षण कर रही हों। अगले दिन देखा मो ये गौरैया पंखा लटकाने वाले जगह पर ऊपर खोल में घोसला बना चुकी थीं। यहीं से शुरू होता है हंसी ठट्ठा। घर की महिला सदस्य दावा करती हैं कि अब ये नहीं जाने वाली। उनके पति यानी मुखिया का दावा है कि इन्हें हटाकर ही दम लेंगे। वह पूरे जी-जान से जुट जाते हैं, गौरैया को भगाने में। तभी महिला व्यंग्य करती हैं, ‘छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!’ तभी गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर चींची की। मानो घर के मुखिया को चिढ़ा रही हों। इसके बाद लेखक ने गौरैया को भगाने का जो दृश्य पेश किया है सचमुच वह रोचक है। कभी गौरैयों को भगाने के क्रम में अपने बेटे को डांटना और कभी महिला का हंसना। एक दिन चला गया, दो दिन बीत गये...गौरैया नहीं हट पाईं। अंतत: उनके घर को ही उजाड़ने का फैसला होता है। वह घोंसला तोड़ने के लिए हाथ उठाते हैं और कुछ तिनकों को बाहर खींच लेते हैं। तभी घोंसले से चींचीं की आवाज आती है। मुखिया तो धक्का लगा। वह तो गौरैयों को भगा चुके थे। तभी बाहर देखते हैं गौरैया का वह जोड़ा तो चुपचाप बाहर बैठा था। मुखिया अभी पूरी तरह घोंसला तोड़ भी नहीं पाये थे कि नन्हीं-नन्हीं दो गौरैया झांक रही थीं। मानो कह रही हों, ‘हम आ गई हैं। हमारे मां-बाप कहां हैं?’ यहीं कहानी का समापन शुरू होता है। मुखिया लाठी फेंक देता है। दरवाजा खोलने का हुक्म होता है। दोनों गौरैया चींचीं करतीं अंदर आ जाती हैं और बच्चों के मुंह में कुछ डालती हैं। पूरा परिवार यह मंजर चुपचाप देखता है। इस बार ‘गुस्सैल’ मुखिया भी हंस पड़ते हैं।

Saturday, January 5, 2019

भाई साहब का रिटायरमेंट : फूल मालाएं बयां कर रही हैं इस व्यक्ति की शख्सियत



रिटायरमेंट स्पीच के बाद अपनी सीट पर वरिष्ठ सहयोगी संग भाई साहब।
माना की ये दौर बदलते जायेंगे। आप जायेंगे तो कोई और आयेंगे।

आपकी कमी इस दिल में हमेशा रहेगी। सच कहते हैं हम आपको इक पल न भूल पाएंगे।

मुश्किलों में जो साथ दिया याद रहेगा। गिरते हुए को जो हाथ दिया याद रहेगा।

आपकी जगह जो भी आये वो आप जैसा ही हो।

हम बस ये ही चाहेंगे। सच कहते हैं हम आपको इक पल न भूल पाएंगे।



जादा जादा छोड़ जाओ अपनी यादों के नुक़ूश, आने वाले कारवां के रहनुमा बन कर चलो

अल्फाज बदले हुए थे, लेकिन बातों का लब्बोलुआब यही था। मौका था भाई साहब के रिटायरमेंट का। मैं अपने भतीजे विपिन, जीजा जी रमेश चंद्र और भाभी के भाई विनोद जोशी जी संग भाई साहब के ऑफिस गया था, उन्हें रिसीव करने। उस वक्त भाषणों का दौर चल रहा था। तारीख थी 31 दिसंबर 2018, समय अपराह्न करीब 4 बजे। हर व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहा था। भाई साहब के दफ्तर में एक सीनियर साथी बोले, ‘भुवन चंद्र तिवारी के गले में पड़ी मालाएं इनकी शख्सियत के बारे में बता रही हैं।’ (असल में भाई साहब के चाहने वाले तमाम लोगों ने उन्हें फूल मालाओं से लाद दिया था। बाद में जब घर में कार से भाई साहब को लेकर आ गयी तो पूरी कार उन्हीं फूलों से भर गयी।) चतुर्थ श्रेणी का एक कर्मी बेहद भावुक था। वह लोगों को चाय पिला रहा था और आतुर था कि उसे दो मिनट के लिए माइक मिल जाये। उसके बाद उसने स्वरचित चंद लाइनें सुनाईं जिनका लब्बोलुआब यह था कि रिटायरमेंट गम का नहीं, खुशी का मौका है क्योंकि बेहतरीन तरीके से आपने नौकरी की पारी खेली। उसकी कविताएं खत्म होते ही मैं कुछ लोगों से बात करने लगा कि वास्तव में अगर बेदाग आप नौकरी कर निकल जाएं, इससे अच्छा कुछ नहीं। चतुर्थ
सेवानिवृत्ति के बाद तृप्ति के भाव में घर पहुंचे भाई साहब।
श्रेणी कर्मचारी यूनियन के एक पदाधिकारी बोले, ‘तिवारी जी छुट्टियों के दिन भी हमारे काम के लिए आते थे। कई बार कुछ काम अटकते थे तो तिवारी जी उसे निपटाने में देरी नहीं करते।’ एक महिला सहकर्मी ने भावुक कविता सुनाई। हर कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहा था। इसी दौरान वहां खाने के लिए मिठाई, समोसे आदि बंटने लगे। मेरा गला रुंधा हुआ सा था, मैंने नहीं लिया। फिर कॉपी का प्याला आया, मैंने उसके लिए भी इनकार कर दिया। तभी भतीजे विपिन ने कहा कि कॉफी पी लो चाचाजी। मैंने कॉफी का प्याला ले लिया। अब बारी आयी भाई साहब की। बेहद भावुक दिख रहे भाई साहब ने बहुत संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा, ‘अभी दो दिन पहले तक मुझे एक-एक दिन भारी लग रहा था। मन में यही हो रहा था कि रिटायरमेंट की घड़ी कब आएगी, लेकिन आज जब वह घड़ी आ गयी है तो मुझे बहुत अजीब लग रहा है। कितने अच्छे लोगों से बिछोह हो रहा है।’ विदाई कार्यक्रम पूरा होने के बाद मैं ऑफिस के लोगों से मिला।
मंदिर कक्ष में भाई साहब के साथ भाभी जी।
मैंने कहा, ‘भाई साहब सेवा से तो निवृत्त हो गये हैं, लेकिन संबंधों से आप लोग कभी निवृत्त मत होना।’ कई लोगों ने बताया कि भाई साहब मेरा भी जिक्र ऑफिस में करते रहते थे। इसके बाद भाई साहब के साथ सुबह से ही आये राजेंद्र अधिकारी ने कहा कि जिस सीट पर तिवारी जी बैठते थे, वहां चलो। वहां भाई साहब की फोटो खिंचवाई। इसके बाद हुई घर चलने की तैयारी। भाई साहब कार में बैठ चुके थे, मैं उनके सहकर्मियों से बातचीत कर रहा था। कुछ ने कहा, ‘हम शाम को घर आ रहे हैं।’ पता नहीं क्यों मैं भी उस पल बहुत भावुक हुआ जा रहा था। भावनाओं को नियंत्रण में रख हम
घर पर स्वागत करते वक्त भावुक होकर भाई साहब से लिपटकर रोतीं भाभीजी।
लोग कार में बैठे और घर की ओर आ गये। खुद को संयत कर घर में फोन किया। वहां कन्नू यानी भावना यानी भाई साहब की बेटी और दीपू-भाई साहब का बेटा और भाभी जी तमाम सगे-संबंधियों के साथ स्वागत को तैयार थीं। हम लोग घर पहुंचे तो बुजुर्ग दिनेश चाचा एक शॉल और फूल माला लेकर खड़े थे। उनके चेहरे पर बेहद स्नेह झलक रहा था। उन्होंने शॉल ओढ़ाया, माला पहनाई। फिर आईं भाभी जी। पूजा की थाल लेकर। उन्होंने आरती उतारी और माला पहनाई। तभी शीला दीदी ने एक माला भाई साहब को दी और कहा, आप भी पहनाओ। इसी दौरान भाभी बेहद भावुक हो गयीं। वह भाई साहब से लिपटकर रोने लगीं। बेटी कन्नू मेरी तरफ देखने लगीं। मैंने कहा, ये भावुक आसूं हैं। इन्हें निकलने दो। थोड़ी देर को माहौल भावुक हो गया। तभी मैंने कहा कि भैया और भाभी को मंदिर में भेजो। ऊपर की मंजिल में मंदिर बना है। उसी वक्त ढोल वाला आ गया। ढोल की थाप शुरू हुई, फिर केक कटने लगा और हम सब लोग थिरकने लगे। सभी को हाथ पकड़-पकड़कर थिरकाया। पूरा समां भावनाओं, खुशियों के माहौल से सुगंधित हो उठा। हम लोग रात के 12 बजे तक जगे रहे। खूब बातें हुईं। नये साल की मुबारकबाद
केक काटते भाई साहब और भाभीजी
भी दी गयी। भतीजे विपिन और उनकी पत्नी बीना का व्रत था, लेकिन उन्होंने पूरी तरह इस जश्न में साथ दिया। दिल्ली से आये अन्य भतीजे हरीश, दीप, प्रकाश ने खूब काम निभाया। विनोद जोशी जी, दिनेश जी, हेम जी सहित हमारे सभी संबंधियों ने बेहद साथ दिया। भांजे पंकज और नवीन ने भी खूब साथ दिया। इस जश्न का मुझे जो सबसे ज्यादा फायदा हुआ, वह यह कि कितने पुराने-पुराने वरिष्ठ जनों, अपने शिष्यों और साथियों से मुलाकात हुई। इस दौरान कई बार मुझे अपने अति उत्साह का अहसास भी हुआ। भैया के लिए एक वीडियो बनायी थी वह उस अंदाज में नहीं चला पाया, जैसा चाहता था, लेकिन उसके कारण उत्साह में कोई कमी नहीं लगी। रिटायरमेंट की यह पार्टी बेहद यादगार रही। ईश्वर भाई साहब और भाभीजी को
भाभीजी को केक खिलाते भाई साहब
स्वस्थ रखें। खुश रखें। घर में ऐसा ही खुशी का माहौल बना रहे, यही दुआ करता हूं।

और मेरी वह तैयारी
27 दिसंबर, 2018, दिन बृहस्पतिवार। लखनऊ जाने की जल्दबाजी। छोटा बेटा मुझसे ज्यादा उत्साहित। बार-बार बोले-‘पापा कितने बजे की ट्रेन है।’ लखनऊ जाने के लिए चार महीने पहले ही रिजर्वेशन करवा लिया था। मन पूरे परिवार सहित जाने का था, लेकिन पत्नी का ऑपरेशन होना था, बड़े बेटे के प्री बोर्ड की परीक्षाएं। इसलिए रिजर्वेशन अपना और धवल का ही
बेटे दीपू, दामाद पूरन चंद्र, बेटी कन्नू आदि के संग भाई-भाभी।
करवाया। हम लोग रात 10 बजे से पहले ट्रेन में बैठ गये। अगले दिन सुबह 11 बजे के करीब तेलीबाग भाई साहब के यहां पहुंच गये। 28 दिसंबर था वह दिन। भतीजी भावना का जन्मदिन। मैं पूरे

भाई, भतीजे और बहनों संग।
उत्साह में था। तैयारी की। कन्नू करीब 3 बजे पहुंची। बातें हुई। खाना खाया। भाई साहब भी ऑफिस से आ गये। शाम को पार्टी हुई। फिर तैयारी होने लगी आगामी फंक्शन की। संभवत: पहली बार छोटे बेटे को मां से अलग इतने दिनों के लिए लेकर गया। हम लोग लखनऊ में एक हफ्ते रहे। सब अच्छा रहा। कुछ बातें भी समझ आईं। इस बार के लखनऊ टूर पर जो अहसास हुआ उसे शायर दुष्यंत के शब्दों में बयां कर रहा हूं-
वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।


Friday, January 4, 2019

उमंग के साथ करें नये साल का स्वागत

केवल तिवारी
शुरुआत। नयापन। कुछ पाने का संकल्प। कुछ छोड़ देने की प्रतिज्ञा। कुछ छूटेगा। कुछ मिलेगा। यही तो है नया। बिना नव्यता के सुख कहां। ब्रह्मांड का, सृष्टि का नियम है, नवीनता होगी तभी तो सुखद अहसास होगा। इसीलिए एक बार और नयापन आ गया है। साल बीता। नया आया। कुछ लोग कहते हैं, खुशी क्या मनानी। एक साल चला गया। हम अगर मातम भी मनाएंगे तो पुराना साल जाएगा और नया आएगा। पुराने के गम में नया का स्वागत क्यों छोड़ें। उदास होने की जरूरत नहीं होती कि नव वर्ष का उत्साह मनाया...बस। उत्साह अल्पकालिक नहीं होता। भारतीय परंपरा में तो कदम दर कदम उत्साह है। कई नव वर्ष। जाने-माने कवि हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है- नव उमंग, नव तरंग, जीवन का नव प्रसंग। नवल चाह, नवल राह, जीवन का नव प्रवाह।
कई पर्व। कई उत्सव। असल में पर्व या उत्सव मनाने के पीछे तर्क भी यही है कि हम अंधेरों से उजालों की ओर जायें। पुराना बीत गया तो उसकी अच्छी बातों को याद रखें। उसी गीत की तरह जिसके बोल हैं, ‘यादों के चरागों को जलाये हुए रखना...लंबा है सफर।’ बीते साल की कई यादें होंगी जिन्हें हम सहेजे रखना चाहते हैं। जतन करते हैं उसके लिए। कभी अपने मन में उन्हें संजोये रखते हैं, कभी कुछ और तरीके से उसे बचाये रखते हैं। बचाना ही नयापन है। जब हम सहेजते हुए चल रहे हैं तो वह नयापन है। जिसे भुला रहे हैं, वह बीत गया। बीति ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले। गीता में भी तो कहा गया है जो बीत गया वह कल था, जो आने वाला है, उस पर किसी का जोर नहीं। वर्तमान में जीयें। वर्तमान आज है। आज ही नयापन है। नया जिसका इंतजार है। इंतजार उत्सवों का। नये मौसम का। हम सुबह का स्वागत करते हैं। सुबह नयी होती है। शाम को ढलने और फिर रात बनकर खत्म होने की तरह देखा-समझा जाता है।

 क्या रखना चाहते हैं याद
नये साल के स्वागत के तौर पर हमें यह ध्यान देने की जरूरत है कि हम याद क्या रखना चाहते हैं। जानकार कहते हैं कि कमियों को, गलतियों को जरूर याद रखना चाहिए। कुछ लोग सिर्फ अच्छी-अच्छी बातों को याद रखने का तर्क देते हैं, लेकिन कहा जाता है कि आपकी अच्छी बातें तो और याद रखें। वास्तव में हमें अपनी गलतियों को याद करते हुए उनमें सुधार की गुंजाइश आने वाले साल में रखनी चाहिए। अच्छी बातों का दोहराव होना चाहिए। कुछ जानकार बीते साल की यादगार चीजों को लिखकर रखने का भी सुझाव देते हैं। आजकल तो डिजिटल जमाना है। ऐसे में चित्रमयी यादों का कोलाज भी बनाया जाता है।

भारत में कई नव वर्ष
पहली जनवरी से तो नया साल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य है। इसे इस्वी सन कहते हैं। भारत हर धर्म, संप्रदाय के हिसाब से नव वर्ष मनाये जाने की परंपरा है। जिस तरह भारत कई मामलों में अनूठा है, उसी तरह नव वर्ष के मामले में भी यहां विविधता है। हर नव वर्ष पर उत्सव होता है। हिंदू नववर्ष का प्रारंभ हिन्दी पंचांग के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता है। इसी दिन से वासंतेय नवरात्र का भी प्रारंभ होता है। विक्रम संवत का अगला पड़ाव यहीं से शुरू होता है। इसी तरह मलयाली समाज में नया वर्ष ओणम से मनाया जाता है। यह अगस्त और सितंबर के मध्य मनाया जाता है। तमिल नववर्ष पोंगल से प्रारंभ होता है। पोंगल से ही तमिल माह की पहली तारीख मानी गई है। पोंगल प्रतिवर्ष 14-15 जनवरी को मनाया जाने वाला बड़ा त्योहार है। इस दौरान उत्तर भारत में उत्तरायणी पर्व भी मनाया जाता है। उत्तरायणी का मतलब सूर्य दक्षिणायन से उत्तर की तरफ आता है। महाराष्ट्र के लोग चैत्र माह की प्रतिपदा को ही नववर्ष की शुरुआत मानते हैं। इसे गुड़ीपर्व भी कहते हैं। पंजाब में नववर्ष बैसाखी में मनता है। नयी फसल आने की खुशी में मनाये जाने वाले इस पर्व पर खूब मस्ती की जाती है। पारसी समुदाय नये वर्ष का पर्व नवरोज के तौर पर मनाते हैं। यह 19 अगस्त को मनाया जाता है। जैन धर्म को मानने वाले लोग दीपावली के दिन नव वर्ष मनाते हैं। इसे वीर निर्वाण संवत भी कहते हैं। दीपावली के दूसरे दिन गुजराती लोग नववर्ष मनाते हैं। बंगाल के लोग नया वर्ष बैसाख की पहली तिथि को मनाते हैं। मुस्लिम समुदाय में नया वर्ष मोहर्रम की पहली तारीख से मनाया जाता है। मुस्लिम पंचांग की गणना चांद के अनुसार होती है इसे हिजरी सन कहते हैं। 
नोट : यह लेख दैनिक ट्रिब्यून में छप चुका है।