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Sunday, September 29, 2013

पंछियों और हरियाली के जानी दुश्मन बंदर

शाम के वक्त खबरों को पढऩे के दौरान एक खबर की अंतिम पंक्ति पर मेरी नजर पड़ी। उसमें लिखा था बंदरों के उत्पात की वजह से पंछियों की संख्या कम हो रही है। बंदर घौसलों को तोड़ देते हैं। इसी में अगली लाइन यह भी थी कि गमले और पेड़-पौधों को भी बंदर तोड़ रहे हैं। मैं देख रहा हूं कि बंदरों के आतंक की खबरें पिछले 10-15 सालों से आ रही हैं। इधर पांच-सात सालों से स्थिति ज्यादा भयावह हो गयी है। एक बार खबर आई कि मध्य प्रदेश के बंदरों को उत्तराखंड के जंगलों में छोड़ा जायेगा। ऐसी ही खबर कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान भी आयी कि कोई राज्य तैयार नहीं है दिल्ली के बंदरों को लेने के लिए।
खैर खबर की यह अंतिम पंक्ति मैंने पढ़ी तो मुझे लगा खबर तो यहीं है। खबर संबंधी जो औपचारिकताएं, बातें हो सकती थीं, हुईं। अगले दिन छपी भी। लेकिन मुझे एक पुरानी कहानी याद आ गयी। कहानी कुछ इस तरह थी-
एक बंदर जाड़े में ठिठुर रहा था। उसे ठिठुरते देख पास में ही अपने घौंसले में बैठी एक चिडिय़ा ने कहा, तुम हमारे घौंसले की ही तरह अपने लिए कहीं घर क्यों नहीं बना लेते हो। बंदर को चिडिय़ा का यह सुझाव नहीं सुहाया। उसने तुरंत उस चिडिय़ा के घौंसले को भी तोड़ दिया। कहानी तो यह सीख देने के लिए थी कि मूर्खों को उपदेश देने से कोई फायदा नहीं।
लेकिन कहानी को इससे आगे जोड़ा जाये तो दूसरी बात सामने आयेगी। बंदरों के उत्पात को देखकर चिडिय़ा इंसानों की बस्ती में चली आयी। यहां उसने घरों की छतों पर, पेड़ों पर घौंसले बनाये। पर अफसोस बंदर भी इनसानों की बस्ती में चले आये। यहां फिर उसने घौंसलों पर हमला बोला। अब इस तरह की खबरें आने लगीं कि चिडिय़ों की संख्या कम होने लगी। गौरैया नामक चिडिय़ा की कम होती संख्या के बारे में हम अक्सर सुनते पढ़ते रहते हैं। यहीं पर मेरे जेहन में एक बात और आती है कि ये बंदर कबूतरों के घौंसलों पर धावा क्यों नहीं बोलते। आज तमाम कालोनियों में कबूतरों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। अब बात चाहे जो हो इस खबर में अगली लाइन थी हरियाली के भी दुश्मन बन रहे हैं बंदर। घरों के बाहर रखे गमलों को तोड़ रहे हैं। फलदार पेड़ों के भी जानी दुश्मन बन रहे हैं। बात एक खबर छपने भर की नहीं है। बात वाकई गंभीर है। उस खबर में अन्य बातें भी थीं, मसलन छोटे बच्चों को उठाकर ले जाते हैं। कई लोगों की जान तक जा चुकी है वगैरह-वगैरह। बंदरों के इस आतंक पर गंभीर रूप से सोचने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो रासायनिक हमलों की तरह कोई किसी इलाके में या देश पर बंदर हमला न करवा दे या फिर बंदर दंगा...।

Tuesday, September 10, 2013

हंसाने के बाद संदेश देती रचनाएं

दैनिक ट्रिब्यून में पुस्तक समीक्षा का काम यदा-कदा मिलता रहता है। हाल ही में व्यंग्यकार लाज ठाकुर की तीन पुस्तकें दे दी गयीं। तीनों की समीक्षा अब दो दिन पहले छप चुकी हैं। समीक्षा जो मैंने लिखी-

हंसाने के बाद संदेश देती रचनाएं
केवल तिवारी
व्यंग्य रचना गुदगुदाने के अलावा अंत में भावुक भी कर दे तो उसे क्या कहेंगे। भावुक बातें ऐसी जैसे कोई संदेश सी छोड़ती प्रतीत हों। कभी-कभी ऐसा भी लगे कि जैसे फिल्मी गीत छोटी-छोटी बातों की है यादें बड़ी वाली पंक्ति वाकई बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती थी। हर रचना के बाद पाठक कुछ पल के लिये सोचे, कि सच में कभी-कभी कैसे जरा सी बात का बतंगड़ बन जाता है और सोच-सोचकर वह खुद ही हंसता भी जाये। जब रचना बहुत अच्छी हो और बीच-बीच में शब्दों का दोहराव या कुछ गलतियां आ जायें तो खलता है। लगता है जैसे बेहतरीन दाल में एकाध कंकड़ आ गया है। प्रूफ की कुछ गलतियां अनेक रचनाएं एक साथ लिखने के कारण आये या फिर ध्यान न जाने कारण वह रह गईं, लेकिन हर रचना में ऐसा नहीं है। व्यंग्य लेखक लाज ठाकुर की तीन किताबों क्रमश: ढाई लाख पति, मैं डैमफूल और अटके मटके झटके की ज्यादातर रचनाएं गुदगुदातीं, शब्दों के वाण छोड़तीं हुई अंत में एक संदेश देती सी प्रतीत होती हैं।
संदेश अंधविश्वास से दूर रहने के, संदेश जल्दी संदेह न करने के और संदेश सामाजिक ताने-बाने के। तीनों किताबों की इन व्यंग्य रचनाओं में कहीं आडंबर नहीं दिखता। सामान्य शैली में एकदम मध्यवर्गीय पाठक की समझ में आ जाने वाली और उसे गुदगुदाने वाली। बात जो भी कही गई हो लगता है जैसे आम लोगों की अपनी किसी बात से मेल खाती हुई हो। यानी हमारे-आपके जीवन में या हमसे जुड़े लोगों के जीवन में जो होता हुआ दिखता-महसूसा जाता है। जिस तरह रचनाओं की सामान्य शैली है उसी तरह किसी भी पुस्तक में न तो भूमिका लिखी गयी है और न ही लेखक की ओर से कहे जाने वाले दो शब्द। जैसे कि कई किताबों में दो शब्द शीर्षक से चार-पांच पन्ने तक भरे होते हैं। ढाई लाख पति शीर्षक से उनकी रचना में कुल 21 व्यंग्य रचनाएं हैं। हर किसी रचना में या तो संदेश छिपा है या फिर ऐसा कि पाठक भावुक हो जाये।
उनकी दूसरी पुस्तक मैं डैमफूल पारिवारिक ताने-बाने और घर में होने वाली छोटी-छोटी बात कैसे बड़ी बन जाती है, जैसे मुद्दों पर ज्यादातर में बहुत ही सहज भाव से लिखा गया है। इस पुस्तक में कुछ 20 रचनाएं हैं। व्यंग्यकार लाज ठाकुर की तीसरी पुस्तक अटके मटके झटके में 17 रचनाएं हैं। इस पुस्तक में कुछ रचनाओं में शब्दों का दोहराव दिखता है। तीनों ही पुस्तक में शुरू से ही ररचनाएं शुरू हो जाती हैं। यानी कहीं भी कोई भूमिका नहीं है। हर पुस्तक के अंत में उनकी चार किताबों तीन तो उपर्युक्त और एक अन्य होली के लटके के कवर पेज को छापा गया है। कुल मिलाकर लेखक लाज ठाकुर की इन तीनों किताबों में व्यंग्य के माध्यम से लोगों को कई मसलों पर समझाया गया है कि कैसे जरा सी बात बड़ी बन जाती है और कैसे अंधविश्वास के चक्कर में पडक़र हम लोग अपना ही नुकसान करा उठते हैं।
पुस्तक 1. ढाई लाख पति 2. मैं डैमफूल 3. अटके मटके झटके
प्रकाशक : यूनिस्टार बुक्स प्रा.लि., सेक्टर 34 ए, चंडीगढ़, मूल्य क्रमश: 200, 250 और 200 रुपये
पृष्ठ संख्या क्रमश: 155, 175 और 160



Saturday, September 7, 2013

पुस्तक परम विद्रोही

चंडीगढ़ मैं दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन करने के कुछ दिनों बाद काम के सिलसिले में मेरी मुलाकात कुलदीप धीमान जी से हुई। बाद में पता चला कि वह डॉ. कुलदीप धीमान हैं। इससे भी बड़ी बात कि उन्होंने ओशो पर शोध किया है। शोधग्रंथ किताब के रूप में हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में है। उन्होंने एक प्रति मुझे भी दी। हिन्दी की। नाम है परम विद्रोही। कुछ दिनों में पूरी पुस्तक पढ़ डाली और प्रतिक्रिया शब्द चंद शब्द उनको लिखकर दिये। यह मेरा वादा था कि मैं जुबानी ज्यादा चर्चा नहीं करूंगा। पुस्तक परम विद्रोही के बारे में मैंने जो समझा, महसूस किया और जो डॉ. धीमान को लिखकर दिया उसकी हू-ब-हू प्रति यहां पोस्ट कर रहा हूं। साथ में पुस्तक का कवर पेज भी है।
-केवल तिवारी




आदरणीय डॉक्टर कुलदीप कुमार धीमान जी,
बिना किसी पत्रीय औपचारिकता के अपनी बात शुरू कर रहा हूं।
आपके द्वारा लिखी गयी शोधपरक पुस्तक परम विद्रोही पूरी पढ़ डाली। आपसे वादा था कि लिखकर अपनी बात रखूंगा। वही कर रहा हूं। लेकिन थोड़ी सी देरी से। लेकिन इससे बहुत ज्यादा फर्क पडऩा नहीं चाहिए। ध्येय पूरा होना चाहिए।
असल में ओशो के जीवन को अमूमन हम लोग एक ही पक्ष में देख पाते हैं। एक संत या फिर एक खतरनाक आदमी। उनके विचारों को हम उसी तरह पढ़ या समझ पाते हैं जैसे हमने एक लेखक का नाम सुन लिया कहीं समाज में बैठे चर्चा चली तो हम भी बिना ज्ञान के बोल पड़े और हमारी खिल्ली उड़ गयी। यह बात इसलिए लिख रहा हूं कि वाकई लगभग पौने तीन सौ पृष्ठों में ओशो के विचार, उनके मायने, ओशो का दृष्टिकोण और समाज से उठती-गिरती चर्चाओं और परिचर्चाओं को आपने बहुत ही सहज ढंग से पुस्तक में खिला है। सबसे पहले ऐसी सुंदर रचना और इतनी सहज भाषा के लिए आपको साधुवाद। अब बात करता हूं पुस्तक के कुछ अंशों के लिए जो मुझे बेहद अच्छे लगे। यूं तो पूरी पुस्तक ही पठनीय है और भाषा में कहीं भी भटकाव नहीं है। गांधी जी और ओशो : इन मुद्दों पर अलग-अलग खंडों में आपने बहुत ही जानकारी दी है। इसमें कम्युनिस्टों का असमंजस ओशो की मूल बात आदि पर बातें रोचक हैं। ओशो को समझने के लिए एक कदम और आगे की तरफ भी। मृत्यु और जिज्ञासा के संबंध में आपने जो शोधपरक बातें लिखी हैं उसे अगर सही से मंथन कर लें तो शायद निराशा घर न करे। नैतिक कर्म या मौलिक कर्म में आडंबर, हकीकत के बीच तानेबाने को अलग करके जिस तरह ओशो के विचारों से उसमें बातों को अलग-अलग किया है, वह रोचक है। फिर महिला-पुरुष संबंधों में मिथक और हकीकत के बारे में बहुत स्पष्ट और वैज्ञानिक तथ्यों के साथ पुस्तक में लिखा गया है। यूं तो बातें बहुत सारी हैं जिन पर मैं चर्चा कर सकता हूं। लिख सकता हूं। लेकिन एक अदने से पाठक के नाते अंत में यही कहूंगा कि पुस्तक बहुत अच्छी है और बीच में जो जगह-जगह बॉक्स दिये गये हैं, उनमें से बहुत कुछ पुस्तक का निचोड़ निकलकर आता है।
आपकी पुस्तक का पाठक
केवल तिवारी

अब मुझे डॉ. धीमान के अगले शोध ग्रंथ योग वशिष्ठ का इंतजार है

Wednesday, September 4, 2013

क्या चिट्ठी भी बंद होगी

बात ज्यादा पुरानी नहीं है। ब्लॉग पर लिखनी पहले चाहिए थी, लेकिन व्यस्तता के चलते अब लिख पा रहा हूं। रक्षा बंधन से कुछ दिन पहले दिल्ली गया था। पत्नी का आग्रह कि भाइयों के लिए राखी भेजनी है, साथ चलो और कूरियर करवाओ। मैंने कहा, खरीदकर ले आओ, घर में बैठकर चि_ी लिखना। लिफाफे में पैक करने के बाद कूरियर कर दूंगा। पत्नी बोली, एक या दो दिन के लिए आते हो, समय होता नहीं। साथ ही चलो, वहीं से कूरियर भी करवा आएंगे। मैंने पूछा, दुकान में ही चि_ी लिखोगी क्या। पत्नी बहुत सहज भाव से बोली, चि_ी की क्या जरूरत है। राखी कूरियर करते ही फोन कर देंगे। उनसे कह देंगे कि मिलते ही फोन कर देना। बात वाकई बहुत सामान्य थी, लेकिन मुझे लगी अजीब। मैंने मजाक किया अरे नहीं चि_ी जरूर लिखो। साथ ही यह भी लिख देना कि इनके चंडीगढ़ जाने के बाद घर के खर्च बढ़ गये हैं। यानी इशारा कर देना कि राखी का नेक इस बार थोड़ा बढ़ा दें। पत्नी भी हंसी और बोली, हां सारा खर्चा दे देंगे। तुरंत बोली चलो, बच्चों के स्कूल से आने से पहले कूरियर कर आते हैं। मैंने एक कागज निकाला और कहा, चार लाइन ही सही कुछ तो लिख लो। अजीब लगता है। मुझे याद आ गये कुछ पुराने दिन जब दीदी की, मां की या बड़े भाई की चि_ी आती थी। अगर चि_ी छोटी होती तो मुझे बहुत गुस्सा आता। दो या तीन पन्नों की चि_ी क्यों नहीं लिखी दीदी ने, मां ने या भैया ने। खैर पत्नी ने जैसे-तैसे चार लाइन लिखीं और हम लोग गए और कूरियर करके आ गये। इस दौरान मुझे याद आने लगे पुराने दिन। मैं बड़े भाई के साथ लखनऊ रहता था। मां और दीदी हमारे घर यानी रानीखेत के पास डढूली गांव में। मुझे चि_ी लिखने का शौक था। हमें परंपरागत तरीके से चि_ी लिखनी सिखायी जाती थी। जैसे शुरू करना है पूजनीय माताजी, दीदी को सादर चरण स्पर्श। या कहीं छोटे बच्चे हैं तो उन्हें सुभाशीष। कुछ सालों तक में इसी अंदाज में चि_ी लिखा करता था। शुरुआती औपचारिक नमस्कार के बाद कुशल क्षेम की लाइन होती थी, जैसे यहां आपके आशीर्वाद या ईश्वर की असीम अनुकंपा से सब ठीक चल रहा है, आपकी कुशलता की कामना करता हूं। बाद-बाद में भैया की चि_ी देखता था, वे अक्सर लिखते थे-
यहां कुशल सब भांति सुहाई, तहां कुशल राखे रघुराई
या फिर
अत्र कुशलं च तत्रास्तु
पुरानी यादों में खोया था कि मेरा बेटा स्कूल से आया। अभी पांचवी में पढ़ता है। मैंने उससे सबसे पहले पूछा बेटा आपके यहां पत्र लिखना सिखाया जाता है। बच्चे को यह सवाल अप्रत्याशित सा लगा। सामान्यत: मैं पूछता था, आज कोई टेस्ट हुआ, कितने माक्र्स आये, वगैरह-वगैरह। थोड़ा रुककर वो बोला हां पापा, अप्लीकेशन और लेटर राइटिंग। मैंने कहा हिन्दी में, उसका जवाब था हां हिन्दी में भी मित्र को पत्र, प्रधानाचार्य को प्रार्थनापत्र। मैंने कहा, तुम मुझे चि_ी लिखा करो। वह हंसते हुए बोला, पापा घरवाले कंप्यूटर में इंटरनेट लगवा दो, हम आपको ई-मेल किया करेंगे। उसकी बात सहज थी जिससे मैं असहज हुआ जा रहा था। क्या अब चि_ी भी तार की तरह गायब हो जायेगी। पता नहीं। तार से ही जुड़ा एक वाकया याद आया। दसवीं की परीक्षा के बाद मैं अपने गांव चला गया था। उसी दौरान बोर्ड परीक्षा का परिणाम आया। वहां शाम तक अखबार पहुंच पाता था। मैं एक सज्जन के यहां अखबार देखने गया, लेकिन उसमें लखनऊ क्षेत्र के सकूलों का परिणाम नहीं था। फोन उस जमाने में बहुत बड़ी बात थी। हम लोग घर से जाते थे तो चि_ी मिलने के बाद ही मां को यह पता चल पाता था कि हम सकुशल पहुंच गये हैं। घर से विदा लेते समय एक वाक्य मां और दीदी जरूर कहती थी, जाते ही चि_ी लिख देना। कई बार तो दीदी पोस्टकार्ड दे देती थी। आदेश होता था, लखनऊ पहुंचते ही इसमें लिखकर इसे उसी दिन पोस्ट कर देना। यानी घर से निकलने के कम से कम एक हफ्ते बाद पता चलता था कि हम सकुशल पहुंच गये हैं। खैर बोर्ड परीक्षा परिणाम वाली बात पूरी करता हूं। मैं परेशान था कि रिजल्ट का कैसे पता करूं। उधर, भैया ने मेरा परिणाम अखबार में देखते ही खुशी में तार कर दिया था। केवल दसवीं में अव्वल नंबर से पास हो गया है। गांव में हमारा तार आया तो पोस्टमैन असमंजस में। चूंकि तार की भाषा अंग्रेजी में थी, केवल सक्सीड इन टेंथ विद वेरी गुड माक्र्स। पोस्टमैन साहब समझ नहीं पाये। फिर उन दिनों तार का मतलब होता था कोई बुरी खबर का आना। पोस्टमैन पूरे गांव घूमते रहे कि आखिर कैसे बतायें। अचानक उन्हें हमारे गांव के नीचे ही एक सुबेदार मेजर साहब मिल गये। उन्होंने तार वाली बात उनको बतायी। सुबेदार साहब ने तार का मजमूंन पढ़ा और हंसते हुए बोले, तुरंत तार लेकर उनके घर जाओ, तुम्हें मिठाई मिलेगी। फिर बता भी दिया कि तार में क्या लिखा है। पोस्टमैन साहब हमारे घर आये। मां और दीदी आंगन में ही थे। मैं अपने हमउम्र बच्चों के साथ आम के बगीचे में गया था। दीदी दौड़ी-दौड़ी आयी मुझे बुलाकर ले गयी। पूरी बात सुनकर मैं बहुत खुश हुआ। मां की आंखों में आंसू थे। वह दौर आज भी याद आता है। तरक्की होनी चाहिए। आज इलेक्ट्रानिक जमाना हो गया। अच्छी बात है। अपनों से जब चाहें बात हो सकती है। हो सकता है चि_ी का दौर खत्म भी हो जाये, पर बस यही कामना है, भावुकता और प्रेम संबंध कभी खत्म न हों। आज मेरी भतीजी भी ब्लॉग लिखती है। मुझसे बात करती है। वह भी पत्रकार है। भतीजा भी बड़ा हो गया है। दोनों बच्चों को बड़े होता देखा है। समय की जरूरत या फिर बदले हालात कि आज हम सब लोग दूर-दूर हैं। चि_ी तो कभी-कभी ही लिखी जाती है। लेकिन फोन पर सबसे बात होती है। आजकल के बच्चे जब कुछ समय बाद उन गीतों को सुनेंगे तो समझ तो जायेंगे न- जैसे कि
खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू
डाकिया डाक लाया, डाक लाया
चि_ी आयी है, वतन से चि_ी आयी है