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Tuesday, September 29, 2020

वैज्ञानिक सोच, मानवीय संवेदनाओं का व्यक्तित्व : ये हैं तरुण जैन

ये तरुण जैन हैं जिनकी सोच वैज्ञानिक है और व्यक्तित्व मानवीय संवेदनाओं से युक्त। ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ नामक अखबार के संपादक हैं। वैज्ञानिक शोध, नयी जानकारी आदि के संबंध में यह अखबार हिंदी भाषा का पहला ऐसा अखबार है जो पूरी तरह विज्ञान को समर्पित है। तरुण जी के नाम से परिचित था। नेशनल यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट के जरिये और कुछ मित्रों के जरिये। पहली मुलाकात हुई वर्ष 2016 में जब गोवा में ‘ओस्नोग्राफी’ यानी समुद्री विज्ञान के एक कार्यक्रम में देशभर के अनेक पत्रकार आये थे। बेहद सरल व्यक्तित्व। एक-दो मुलाकातों के बाद पता नहीं क्यों मुझे लगा कि इनसे मेरी पटरी मेल खाएगी। मैं एक तो संकोची स्वभाव का हूं, दूसरा मैं विज्ञान का छात्र नहीं रहा हूं। साहित्य के प्रति मेरा रुझान रहा। यह अलग बात है कि पिछले 20 वर्षों से विज्ञान एवं शोध को लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हजार से अधिक लेख लिखे। विज्ञान का छात्र न होने के कारण किसी चीज की पूरी ताकीद करने के बाद ही उस पर लिखता हूं। खैर गोवा का वह कार्यक्रम समुद्री विज्ञान पर आधारित था। पूरे दिन वैज्ञानिकों को अलग-अलग विषयों पर सुना। जहां कभी कोई दिक्कत होती, तरुण जी से ही पूछ लेता। कभी लगता कि ये झल्ला न जायें। अभी दो दिन तो हुए मिले हुए, लेकिन ये तो चाटू निकले। मैं खुद पर ये चाटू का लेबल कभी भी चस्पां नहीं होने देता। ऐसा कुछ नहीं हुआ, जैसा मैंने सोचा। एक बात बहुत अच्छी लगी तरुण जी की जब मैंने उनसे कुछ जानना चाहा तो सबसे पहले उन्होंने मुझसे पूछा, आप विज्ञान बैकग्राउंड से हैं या आर्ट्स। उसके बाद उन्होंने शुरू से बताना शुरू किया। कोटा में प्लाज्मा तकनीक के बारे में हो या फिर विज्ञान के अन्य पहलुओं की बात, उनसे काफी चर्चा हुई।
चूंकि उस कार्यक्रम में देशभर से अनेक पत्रकार आये थे। पत्रकार बिरादरी को अच्छी तरह जानता हूं। कहीं स्वाभिमान, कहीं घमंड और कहीं संस्थान का पैमाना। तरुण जी कई बातों के गवाह हैं। वैज्ञानिक बातों के बीच उनका लब्बोलुआब को एक पंक्ति में कहूंगा-
चांद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख, देखना ये है कि इन्सान कहां तक पहुंचे।

 

संक्षिप्त परिचय
ऊपर तो एक संक्षिप्त विवरण था तरुण कुमार जैन से मेरी मुलाकात का। आइये उनके बारे में थोड़ा सा आपको बता दूं। पिंकसिटी जयपुर निवासी तरुण कुमार जैन अपने पाक्षिक अखबार ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ में नित नये मुद्दों को उठाते हैं। वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सार्वजनिक संचार पर 11 वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के पोस्ट कॉन्फ्रेंस सत्र के संयोजक रहे, जिसमें 60 से अधिक देशों के विशेषज्ञों ने भाग लिया था। उन्होंने कई मेगा वैज्ञानिक कार्यक्रमों के दौरान दैनिक विज्ञान समाचार पत्र प्रकाशित किए हैं। तरुण कुमार जैन विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय विज्ञान दिवस 2018 पर प्रिंट मीडिया के माध्यम से विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं। उन्हें चौधरी चरणसिंह कृषि अनुसंधान पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए कृषि मंत्रालय भारत सरकार से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और हिंदी विज्ञान पत्रकारिता के लिए 70 वें स्वतंत्रता दिवस समारोह पर राज्य पुरस्कार, राजस्थान के मुख्यमंत्री द्वारा। डॉ बीसी देब मेमोरियल पुरस्कार मैसूर विश्वविद्यालय में 103 वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दौरान प्रदान किया जा चुका है। इनके अलावा भारतीय विज्ञान लेखक संघ द्वारा दिलीप एम सलवी इस्वा राष्ट्रीय विज्ञान संचार पुरस्कार, तथा विज्ञान संचार और विज्ञान लोकप्रियकरण के क्षेत्र में सराहनीय कार्य के लिए दीपक राठौर मेमोरियल अवार्ड से भी पुरस्कृत किया जा चुका है। वह भारत के अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव, वैज्ञानिक दृष्टिकोण सोसाइटी, भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन, भारतीय विज्ञान लेखक संघ जैसे कई संगठनों से जुड़े हैं। वह माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान की पत्रिका के संपादकीय बोर्ड के पूर्व सदस्य रहे और पिंकसिटी प्रेस क्लब जयपुर की पत्रिका का भी संपादन किया। वह वर्ष 2012 में भारतीय विज्ञान लेखक संघ के संयुक्त सचिव, पिंकसिटी प्रेस क्लब जयपुर के निदेशक मंडल के चार बार सदस्य, जर्नलिस्ट एसोसिएशन ऑफ़ राजस्थान (जार) के राज्य प्रचार सचिव चुने गए।
परिचय अभी जारी है
तरुण जी से मेरी दूसरी मुलाकात करीब सवा साल पहले कोटा में हुई। यहां परमाणु ऊर्जा संयंत्र के तहत पत्रकारों का एक सम्मेलन था। बेशक एक लंबे समय के बाद उनसे मुलाकात हो रही थी, लेकिन बीच-बीच में कभी-कभी बात हो जाती थी। हमारी मुलाकात को लंबा वक्त हो चुका था, लेकिन अब तक हम लोग घर-परिवार की बातें नहीं कर पाये। फिर उनके अखबार को लेकर चर्चा हुई। मेरे कुछेक सवाल पर उनका अंदाज इस तरह था जैसे एक कवि ने लिखा है-
खुशबू बनकर गुलों से उड़ा करते हैं, धुआं बनकर पर्वतों से उड़ा करते हैं। ये कैंचियां खाक हमें उड़ने से रोकेगी, हम परों से नहीं हौसलों से उड़ा करते हैं|
कोटा में भी अनेक जगहों से आये पत्रकार बंधु मिले। इसी दौरान ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के विस्तार की भी चर्चा उन्होंने की। उनसे जब कुछ सवालात किए तो उनका अंदाज ऐसे था मानो कह रहे हों-
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ, कीजै मुझे क़ुबूल मेरी हर कमी के साथ।
इसको भी अपनाता चल, उसको भी अपनाता चल, राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल।
कोटा में मेरी दोस्ती कुछ अन्य पत्रकारों से भी हुई। तरुण जी से वे लोग अच्छी तरह परिचित थे, मेरी मुलाकात नयी थी। फिर तो मैंने देखा कि अनेक वैज्ञानिक से लेकर विज्ञान के क्षेत्र में लिखने वाले धुरंधर पत्रकार भी ‘जैन साहब’ को जानते हैं। मुझे लगा-
मिलेगी परिंदों को मंजिल ये उनके पर बोलते हैं, रहते हैं कुछ लोग खामोश लेकिन उनके हुनर बोलते हैं। 
कोटा में मुलाकात को करीब सवा साल हो गया। इस बीच तरुण जी के अखबार को पीडीएफ फॉर्मेट में देखता रहा। इसी बीच, पत्रकार संगठनों में कुछ तनातनी के मसले पर तरुण जी से फोन पर बात हुई। उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘हमें मिलजुलकर एक होकर रहना होगा, तभी भलाई है।’ वाकई बिना किसी की बुराई किए, किसी की तारीफ किए उन्होंने मेलजोल की बात कही जो मन को भा गयी। उसी दिन सोचा कि तरुण जी को लेकर अपने ब्लॉग पर कुछ लिखूंगा। आज उन पर कुछ लिखते-लिखते चंद पंक्तियां देखने को मिलीं जिनका यहां जिक्र करना प्रासंगिक लग रहा है-

हो मायूस न यूं शाम से ढलते रहिये, ज़िन्दगी भोर है सूरज सा निकलते रहिये, एक ही पांव पे ठहरोगे तो थक जाओगे, धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये 
हदे शहर से निकली तो गांव गांव चली, कुछ यादें मेरे संग पांव-पांव चली, सफ़र जो धूप का हुआ तो तजुर्बा हुआ, वो जिंदगी ही क्या जो छांव छांव चली।
कोटा सेमिनार के अंतिम दिन मित्र मंडली।



Tuesday, September 15, 2020

बेखौफ समेटिये ताजगी और सेहत... क्योंकि ये फल सब्जियां ‘सेनेटाइज्ड’ हैं

मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर, मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था।

उम्र से छोटा दिखने का यह सिलसिला चल सकता है लगातार। जरा उन बुजुर्गों के बारे में भी तो सोचिये जो अकेले रहते हैं। कोरोना के इस दौर में जब चारों ओर खतरा, डर और अविश्वास सा फैला हो तो कोई क्या करे। ऐसे समय में एक छोटी सी शुरुआत की गयी है चंडीगढ़ के सेक्टर 24 में। यह शुरुआत ताजे फलों और सब्जियों के संबंध में। शुरुआत है ‘सेनेटाइज्ड’ सब्जियों और फलों के बारे में। पूरा दावा है कि सेनेटाइज्ड हैं, लेकिन केमिकल से नहीं। यानी फल और सब्जियां ऐसी हैं कि आप ऑनलाइन मंगाइये या आउटलेट पर जाकर खुद लेकर आइये और सीधे खाइये या पकाइये।

असल में फ्रेश चॉप (freshchop) खोलने का पहले पहल आइडिया एकाकी बुजुर्गों को देखकर ही आया। उस शेर की मानिंद जिसके बोल हैं-

उसे भी खिड़कियां खोले ज़माना बीत गया... मुझे भी शाम-ओ-सहर का पता नहीं चलता।

जब इस महामारी के दौर में अनेक बुजुर्ग ऐसे हैं जो खुद जाकर सब्जी या फल नहीं ला सकते। किसी से मंगायें तो डर कि साफ है या नहीं या फिर जो व्यक्ति ला रहा है, वह कैसा है। ऐसे में फ्रेश चॉप (freshchop) का दावा है कि ऑनलाइन मंगाइये या फिर आउटलेट पर खुद जाकर लाइये, सब्जी या फल ताजे होने के साथ साफ तरीके से धुले होंगे। कटे नहीं होंगे। हाथ नहीं लगाया होगा। इसलिए इसमें कीटाणु या विषाणु होने जैसी कोई बात ही नहीं।

इस सबंध में एक खबर के तौर पर कहा गया कि कोरोना काल में बाहर से कुछ भी लाने में लोग घबराते हैं, लेकिन खाने-पीने की जरूरी चीजें तो लानी ही पड़ती हैं। हालांकि डर उसमें भी लगा रहता है। ऐसे में 'फ्रेश चॉप' के नाम से 'ऑनलाइन वेजिटेबल सर्विस' के जरिये इस डर को काफी हद तक डर को दूर करने का दावा किया गया है। एफएसएसएआई से लाइसेंस लेकर शुरू किए गए फ्रेश चॉप के प्रमुख का कहना है कि बिना रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल किए फलों और सब्जियों को साफ किया जाया जाता है। बैक्टीरिया एवं वायरस को खत्म करने के लिए ओजोन क्लीनिंग पद्धति का इस्तेमाल करते हुए वैक्यूम पैक किया जाता है। बताया जा रहा है कि बिना कटे इन फल एवं सब्जियों को पूरी तरह से साफ किया जा सकता है ताकि इसे मंगाने वाले सीधे इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। दावा किया जा रहा है कि यह सेवा घर में अकेले रह रहे बुजुर्ग दंपति एवं वर्किंग कपल के लिए बेहद फायदेमंद है। ऑर्डर 7986059017 पर व्हाट्सएप या फोन कर दिया जा सकता है। फ्रेशचॉप का आउटलेट एससीओ 140, सेक्टर 24 डी, चंडीगढ़ में है। फ्रेश चॉप  की ओर से कहा गया कि ऑनलाइन ऑर्डर न करने वाले आउटलेट पर आकर भी सब्जियों एवं फलों को ले सकते हैं।

पूरे प्रकरण पर यही कह सकते हैं-

इरादे नेक हों तो सपने भी साकार होते हैं, अगर सच्ची लगन हो तो रास्ते आसां होते हैं।


Monday, September 7, 2020

एक नया नशा

 उमेश पंत

हमारे मित्र और बड़े भाई जी श्री चन्द्र कांत झा जी पिछले साल ही टाइम्स ऑफ इंडिया से रिटायर होने के बाद "सार्थक प्रयास" से जुड़े और अब अक्सर हमारे साथ चौखुटिया और केदारघाटी के बच्चों से मिलने जाते हैं। अनुभव आपसे शेयर कर रहा हूं। थोड़ा लंबा है पर कोरोना काल  में पढ़ा जा सकता है। जरूर पढें। सार्थक प्रयास को समझने मै आसानी होगी।

(नोट : उमेश पंत जी से पिछले दो दशकों की मित्रता है। सार्थक प्रयास से भी जुड़ा रहा हूं। उनकी यह पोस्ट पढ़ी तो अच्छा लगा उनकी अनुमति से इसे ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं। - केवल तिवारी) 

 


अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत - आँखों के आईने में  एक चित्र उभरता था, पहरों का, तालों का, सोतो का, हरियाली का,  फूलों की खुशबू का और कुछ खास जायकों का -- जब पिछले दिनों अल्मोड़ा से करीब 60 किलो मीटर दूर, अंदर चौखुटिया की यात्रा का मौका मिला तो ये चित्र ज़हन में ऐसे गहरे उतरे कि लगा जीवन की आपा धापी में बहुत कुछ पीछे रह गया !! लोगों से मिला और फिर यहाँ के बच्चों से -- तो जीवन का एक और फ़लसफ़ा सामने आया कि, 'भगवान' शाश्वत रूप में कहीं हैं तो इनकी सादगी और मासूमियत में है -- एक प्रश्न अकस्मात् मन में कौंधा, 'फिर मंदिर क्यों और भगवान की खोज वहां क्यों ??' यह खोज मनुष्य और प्रकृति में क्यों न हो भला ??  

बीतते प्रहर के साथ-साथ अनुभव गहराते रहे, उनके रंग और भाव भी बदलते रहे! बातें होने लगीं, परतें खुलने लगीं , ज्ञान चक्शु खुलने लगे, दिल और दिमाग के हालात बदलते चले गए  - जो सच सामने आया  -- लगा की ७० साल की स्वंतंत्रता, ७० साल का विकास या फिर पिछले 6 साल का 'हो हल्ला विकास ', समाज की एकजुटता, लोगों की एक दुसरे के प्रति संवेदना, सभी कुछ खोखला है। ऐसा लगा की यह शहर के आटालिका, रौशनी की जगमगाहट, हाईवे, मॉल, गुड़गाँव मॉडल, सभी कुछ एक मृग तृष्णा भर है। थोड़ी सी नज़र पैनी करें तो यह सब, एक कंकाल या वीरानी शुष्क हवा के अलावा कुछ भी नहीं है। कभी गुड़गाँव या दिल्ली के कुछ एक किलोमीटर अंदर जाएं, कस्बों में कुछ समय लोगों के साथ गुजारें तो यही अनुभव आपका भी होने वाला है। सबका साथ सबका विकास मॉडल फेल दिखाई देने वाला है!! कुल मिला कर स्थिति ह्रदय को द्रवित करने वाली है बशर्ते औहदे, पैसे, ऐशो आराम की ज़िन्दगी ने या फिर किसी की जीवन पार्जन की मजबूरी ने उसे एक 'आत्मकेंद्रित रोबोट' न बना दिआ हो -- वैसे ऐसा अक्सर ही देखने को मिलता है!

इन मासूमों के जीवन के अन्दर झाँका तो पता चला कि इस समाज, इस देश का हर विकास का मॉडल इनके या इनके परिवारों या फिर इस समाज और इस इलाके के जीवन को छूने में अब तक असमर्थ रहा है। आज तक अगर कोई रोज़ी रोटी की लड़ाई लड़ रहा हो, दो जून की रोटी जुटाने में दिन और रात काट जाता हो, या फिर कैसे जुटेगी इसकी चिंता या जुगाड़ में सर ओखली में देता हो और उसकी आत्मा पिसती हो -- साली वो भी तो नहीं पिसती क्योंकि वो पत्थर हो चुकी -- जहाँ बीमारी के इलाज को लोग तरसते हों और जहाँ चूल्हे जलने के लिए भटकना हो। पढ़ाई लिखाई, करीयर, एक दिवा स्व्प्न हो -- वह ज़िन्दगी जिए तो क्या जिए। अल्मोड़ा, नैनीताल के तमाम रंगीन चित्र अचानक से मठमैले होने लगे। यथार्थ सामने मूँह चिढ़ाने लगा -- सैलानी की तरह आये थे कुछ समय बिताने, मज़े करने, खुश होने, और बस इतने में ही 'हिल' गए।

कुछ और पल तो बिताओ चौखुटिया में!! 

इन बच्चों को और इन परिवारों को जानने की उत्सुकता अब बढ़ती गयी थी! कॉरपोरेट नौकरी ने और रोज़ी रोटी के जुगाड़ ने अलग थलग एक मशीन तो बना ही दिया था शरीर को, लेकिन संस्कार और स्वयं के 'मूल' ने आत्मा की संवेदनाओं को अब तक ज़िंदा रखा हुआ था भले ही वो एक कवछ के पीछे से अब तक मजबूरन ही देखा था :: हर बच्चे के पीछे एक कहानी छिपी थी जो मन को हिला देने के लिए अपने में काफी था। अनुभव ऐसा ही था की जैसे पेग के बाद पेग से खुमार चढ़ता जाता है उसी तरह यहाँ हर एक कहानी के बाद दूसरी कहानी ज़हन के खुमार को सुलगा रही थी! सुलगने का पीक (पराकाष्ठा) एक बच्चे का वो दर्द था जो इन शब्दों में सामने आया, "काश मेरा बाप नहीं होता तो शायद मैं कुछ बन गया होता पढ़ लिख कर"। यह मजबूर बच्चा एक शराबी पिता का पुत्र है जिसकी लत ने घर तबाह कर डाला। रोज़ी रोटी से महरूम किया और खान पान की जगह घरवालों को हिंसा दी"। बच्चा इतनी उम्र में ही जवान हो गया है और हक़ीक़त से परिचित, पढ़ने लिखने की जगह रोज़ी रोटी जुटाता है।

ऐसे ही १२वीं पास एक लड़की जिसकी मेधा उसे और पढ़ा सकती थी, कुछ बना सकती थी। लेकिन मजबूर है अपने भाई बहनों के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी से। छोटी सी ज़मीन पर खेती और एक दो गाय बैल, यही तो है पूँजी और साधन उसकी कमाई के। कैसे छोड़े इनको? कैसे दफना दे इनके जीवन को? दफ़नाने को मजबूर है वो अपने अरमानो को नियति के आगे। आखिर उसकी ताई ने भी अपने अरमानों को दफ़ना कर उसे पाला था जब इसके माँ बाप नहीं रहे थे।

हमारी सरकार, हमारा समज, हमारी व्यवस्था इतना भी जुगाड़ न कर पाई है की वहाँ ऐसों के लिए कुछ रोज़गार के साधन ही हो पाएं!!  स्थिति तब और भी विकृत हो जाती है जब ऐसे में कोई बीमारी से ग्रसित हो जाये। और वो भी जिसका इलाज वहां नहीं हो सकता या इलाज लम्बा खिंचता हो। मसलन एक लड़की जिसको टी बी हुआ है, उसकी लड़ाई अब शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, सभी कुछ एक साथ है। क्या करे ऐसे में कहाँ जाये? व्यवस्था के लिए वो एक पेशेंट मात्र है, एक बोझ! उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं!!  यकीन मानिए दिल बैठने लगा था इस हक़ीक़त के आगे -- जो सोच कर आया था, हरियाली, रूमानी वादियाँ -- सभी तेल लेने जा चुके थे।

एक ही संतोष था -- कि आज, जीवन के इस मोड़ पर, जीवन से और भी सार्थक रूप से जुड़ने के प्रयास में तो हूँ -- वही प्रयास तो यहाँ तक ले कर आया है। और धन्यवाद " *सार्थक प्रयास* " संस्थान का जो मुझे ऐसा मौका और ऐसे अनुभवों से रुबरु करा रहा है। ये वही संस्थान है जो इन मजबूरों के जीवन में छोटे छोटे से परिवर्तन की कोशिश कर रहा है। और इन सुदूर, नज़रअंदाज़ किए गए इलाकों में, इन समाजों में, इन बच्चों में -- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्किल डेवलपमेंट, के माध्यम से उनको मज़बूत करने में लगा है।

गर्व है इनसे जुड़ कर ! धन्यवाद *सार्थक प्रयास 



Thursday, September 3, 2020

कुछ रिश्ते बनाना क्या tharakipana है

एक मित्र के साथ बात हो रही थी। दारू पार्टी के अगले दिन। लंबा पॉज और आज इस पोस्ट के कयी साल बाद देखा एक लाइन का ब्लॉग। बहुत नाइंसाफी है। लिखूंगा, इसे पूरा करूंगा।

Tuesday, September 1, 2020

पितृ पक्ष... यानी हमारे होने का अर्थ



(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के 30 अगस्त 2020 के अंक में छप चुका है।)
विनय ठाकुर
हम जैसों की पीढ़ी जो धर्म जनता की अफीम है पढ़कर बडी हुई है। वह अपने पहचान व होने के अर्थ की खोज मोबाइल के की पैड पर थिरकती उंगलियों के सहारे सैकड़ों व्हॉट्स ग्रुप व फैसबुक फ्रेंड लिस्ट में खोजती हैं। हमारी यह पीढ़ी धर्म विरोधी करार दिए गए लाल झंडे वाली विचारधारा की दुर्गतिकथा देख सुनकर भी धार्मिक विशेषण लगे हर चीज से ऐसे बिदकती है जैसे वह कोई बिजली का नंगा तार हो और तुरंत करंट मार देगी। कुछ हमारी समझ में इसका गैर जरूरी आऊट डेटेड होना और कुछ पंडित जी की बेदिली नतीजा कर्मकांडों के आवरण के नीचे दबे हमारे संस्कारों के मूल मर्म को हम नहीं समझ पाते हैं। मूल संदेश घंटी शंख और मंत्र के मिले जुले शोर में खो जाता है। इस कठिन कोरोना काल ने कुटुंब और कुटुंब भाव की महत्ता को बड़े गहरे तौर पर रेखांकित महसूस कराया है। कुटुंब से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार है पितृ यज्ञ या श्राद्ध जो हिंदु /सनातन धर्म के पंच महायज्ञों में प्रमुख माना गया है। यूं तो यह नित्य प्रति किया जाना चाहिए पर तेज रफ्तार जिंदगी में यह कुछ अवसरों तक सिमट गया है इसमें प्रमुख अवसर है पितृ पक्ष।
पितृ पक्ष एक ऐसा अवसर है जब हम सही मायने में पुरखों के जरिए प्रकृति में अपना विस्तार करते है व उसके प्रवाह को अपने भीतर महसूस करते हैं। यह ऐसा अवसर है जो हमारी लघुता के दायरे को तोड़कर हमारे होने की अर्थ परिधि का विस्तार करता है। मैं के घेरे को तोड़कर हमारी पहचान उस प्रवाह से कराता है जो बताता है कि मैं पिता पितामह प्रपितामह बृद्ध प्रपितामह के रूप में जारी एक धार का हिस्सा हू और यह धार यहां तक के अर्थ पड़ाव में अकेली नहीं है उसमें माता मातामही बृद्ध मातामही के रूप में आती दूसरी धार का भी संगम है।हम एक श्रृंखला की कड़ी हैं और हमारा दायित्व इस श्रृंखला को कायम रखने के साथ ही उसके विस्तार को भी सुनिश्चित करना है।हमारी नियति महज हमारे कर्मों से ही निर्धारित नहीं होती बल्कि हमारे पुरखों के कर्मं से भी।हमारा दायित्व महज अपने दोषों का परिहार मात्र नहीं है बल्कि अपने पुरखों के दोषों का भी परिहार करना है।यह हमें एक गहरे दायित्व बोध के जरिये संस्कारित करता है। यह हमारी जवाबदेही महज पुरखों तक ही सीमित नहीं कर पंच भूतों व देवताओं के माध्यम से संपूर्ण प्रकृति तक ले जाता है।इसमें श्रद्धा और शुचिता के रूप में विभिन्न आयामों में अनुशासन का पाठ भी है।इसके मूल में करूणा व प्रेम है तो साथ ही है प्रकृति के साथ अंतरंगता भी ।श्राद्ध के श्रेष्ठ स्थानों में नदियों के संगम तालाब के रूप में वे तीर्थ स्थान है जो प्राकृतिक महत्व के है या फिर सार्वजनिक धर्मस्थल है। सामूहिकता श्राद्ध के सार तत्वों में से एक है । ग्रास निकालते वक्त गाय को पहले देना  फिर कौओं कुत्तों को।ये सभी सर्वजनिक स्वास्थ्य व समृद्धी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मेरे जैसों के लिए पितृपक्ष जैसे शब्द एक बला की तरह थे। कोशिश यह रहती थी कि जितनी जल्दी हो सके जान छुड़ाओ।हम तब तक किसी परेशानी में नहीं थे जब तक आप परिवार के मुखिया की भूमिका में नहीं थे।सबकुछ पिता या बड़े भाई के जिम्मे था। बात बदली जब अचानक माता जी का देहांत हुआ कर्ता की भूमिका मे आना पड़ा। सवाल शुरू हुए धोती धारण कीजिए, आसन लगाकर बैठिए यहां तक सब ठीक कठिनाई थी पर निभा लिया। सिलसिला आगे बढ़ा श्राद्ध के समय पंडित जी ने पूछा नाम गोत्र मदद के लिए परिवार  था बाधा पार कर ली गयी। पर जैसे ही बात पितामह होते हुए प्रपितामह के नाम की आयी एक सन्नाटा पसर गया। पंडित जी ने यथा नाम बोलने की सहूलियत देकर उबार लिया। न जानने का थोड़ा बुरा लगा पर कोई बात नहीं आगे बढ़ा पिता की तरफ तो पितामह तक जा पाया पर बात जब पितामही की आयी तो एक बार फिर निरुत्तर था अब मुझे अपने उपर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।जिनसे कोई रिश्ता नहीं उसकी तो सात पुश्तों के नाम कंठस्थ है यह तो जानना चाहिए। माता पिता के रहते याद नहीं किया अब कौन बताता पिता पहले गुजर चुके थे और माता जी का तो श्राद्धकर्म ही था। पढ़ाकू माने जाने वाला मै अपने आप से बुरी तरह नाराज था पूरी दुनिया के बारे में जिज्ञासा रखने वाले को अगर अपनी ही जड़ों के बारे में कोई जानकारी नही हो तो सारी सामाजिकता और उसके प्रति निष्ठा बेकार है।अचानक लगा कि कितनी छिछली है हमारी जिंदगी बिना जड़ मूल के। पिछले साल किसी ने श्रीमद भागवत पुराण उपहार में दे दिया एक बार को लगा दूसरे लोक के किस्सों और मिथकों को जानकर मैं करूंगा क्या? पर फिर सोचा चलो किसी मौके पर पंडित जी पर ही रौब गांठ लूंगा । पढ़ने लगा तो न समझ में आने वाले कहानियों के बीच से बहुत सी बातें सामने आने लगी जिसने हमारी क्षुद्रता की गांठों को खोलकर हमारी समझ को फैलाना शुरू कर दिया।धूप दीप गंध पुष्प नैवेद्य जल ये महज सज्जा या आचारवश नहीं है प्रकृति के साथ रिश्तों की पहचान व उसका आभार है। कुश पर देवताओं को यूं ही नहीं बिठाया गया है। काल निर्धारण भी प्रकृति के चक्र के हिसाब से किया गया है।