indiantopbligs.com

top hindi blogs

Sunday, December 26, 2021

भोजन माता की बात के बहाने पुरानी बातें

 केवल तिवारी

मित्र राजेश डोबरियाल की बीबीसी हिंदी पर खबर छपी थी जिसमें उत्तराखंड के चंपावत में एक स्कूल में भोजन माता के हाथ का बना खाना बच्चों ने छोड़ दिया। दरअसल वह महिला अनुसूचित जाति से थी। इस खबर को पढ़ने के बाद और उससे पहले भी इस तरह के मुद्दों पर मेरी चर्चा होती रहती थी। प्रसंगवश बता दूं कि मैंने एक बार एक ब्लॉग नवरात्रों पर लिखा था जिसमें गाजियाबाद के वसुंधरा में हम बच्चियों को भोजन कराते थे और उन्हें बुलाने का अंदाज मुझे भा गया था। मेरे घर में या शायद औरों के घर में भी बात यही होती थी कि एक बच्ची 2190 से आएगी एक 3110 से एक बच्ची 1111 में भी है वगैरह... वगैरह। यानी वहां यह बात नहीं होती थी कि शर्मा जी की बेटी, पांडेय जी की बेटी या फलां जी की बेटी... फ्लैट नंबर से कन्याएं आती थीं और पूजन होता था। खैर... यह तो प्रसंग था।
कक्षा पांच पास करके जब मैं लखनऊ गया था तो शुरू-शुरू में मुझे कुछ खबरें अंदर तक परेशान करती थी। जातिवाद के नाम पर कत्ल की खबरें अक्सर सुनाई देती थीं। कुछ बड़ा हुआ तो इस विषय पर उत्तराखंड के मसले पर बात होने लगी। मैं बड़े गर्व से कहता, जात-पात का ऐसा विकराल रूप हमारे यहां नहीं है। हमारे यहां एक ही झरने से सभी जातियों के लोग पानी भरते हैं। यही नहीं अपनी-अपनी बारी से भरते हैं। हमारे नीचे ठाकुरों का गांव है, वहां भी हम लोग रिश्तों से बात करते हैं यानी कोई हमारा चाचा है तो कोई भैया। जैसे बिशन दा, मोहन का। का मतलब चाचा। उन्हीं दिनों हर वर्ष गर्मियों की छुट्टियों में मैं घर जाता था। एक बार हमारे खेतों को जोतने के लिए हलिया (बता दूं कि हल जोतने वाले को हलिया कहते हैं और ज्यादातर वह अनुसूचित जाति से होता है) आया हुआ था। मां ने मुझे बाद में चाय देकर खेत में भेज दिया और बोलीं कि एक घंटे में दोपहर का भोजन लेकर वह आएंगी। मैं वहां पहुंचा तो हलिया खेत की जुताई के बाद पट्टा (हमारे यहां इसे मय कहते हैं, इसमें बैलों के सींग में हल की जगह एक लंबा जोत रखकर उसके सहारे पटरा चलाया जाता है जो जमीन को समतल सा कर देता है) चला रहा था। मुझे बड़ा लालच आया। मैंने कहा मैं भी पटरे पर खड़ा होऊंगा। हलिया ने पहले मना किया, फिर मुझे ऐसा करने दिया। थोड़ी देर में गांव के कुछ लोग उधर से गुजरे तो मुझे देखकर हंसने लगे। हलिया के एक-दो दोस्त भी आये और मेरी ओर देखकर 'नंग बामण' कहकर चल दिए। मांता जी को भी बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने डराया कि कहीं पलटकर गिर जाऊंगा तो। उन्होंने गिरने का डर दिखाकर मुझे वह करने से रोक दिया।
इसके अगले दिन मैं अपने घर से कुछ ही दूरी पर रहने वाले अपने मित्र दिनेश (अनुसूचित जाति) के घर गया। वे लोग लोहे के औजार बनाते हैं जैसे कि कुल्हाड़ी, हंसिया, कुदाल वगैरह-वगैरह। जिस भट्टी में वे लोहा गरम करते थे उसमें लगातार धौंकनी चलाने के लिए साइकिल के एक रिम को लगातार घुमाना होता था। मुझे वह नजारा देखकर अच्छा लगा और मैं वहीं बैठकर उस रिम को चलाने लगा। मुझे ऐसा करते देख मेरे गांव वालों ने आपत्ति जताई। हालांकि मेरे विरोध में कोई पंचायत-वंचायत नहीं हुई। बाद में मैंने देखा कि अनुसूचित जाति के कई लोग अच्छी नौकरी पाने के बाद समृद्ध हो गए तो शहरों में हमारे ही गांव के कई लोगों का उनके साथ उठना-बैठना चालू हो गया। यही नहीं यह भी सुनने में आया कि कई लोगों ने प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए उनके साथ जाम टकरा लिए तो सारे वोट संबंधित नेता को मिल गए। असल में बात है आर्थिक स्थिति की। आर्थिक तौर पर मजबूत हैं तो जाति-पाति बहुत कुछ आपका बिगाड़ नहीं सकती। आर्थिक रूप से कमजोर हैं तो सब गड्डमड्ड। आर्थिक रूप से कमजोर होने का दंश मैंने कदम-कदम पर झेला है।
दिल्ली के अफसर टमटा जी का किस्सा
जात-पात की जड़ें गहरे होने का कारण कहें या सदियों से चली आ रही परंपरा का नतीजा। मैंने सुना है कि दिल्ली में कोई बड़े अफसर रहे हैं टमटा। शायद कमिश्नर या हो सकता है कोई बड़े राजनीतिज्ञ। मैंने यह सुना है कि उन्होंने अपनी कोठी पर एक ब्राह्मण रसोइया अलग से रखा हुआ था। जब उनके गांव के ब्राह्मण लोग उनसे मिलने आते तो उनके लिए चाय या फिर खाने-पीने की चीजें वह विशेष रसोइया ही बनाता। उन्होंने ऐसा क्यों किया यह तो नहीं मालूम, लेकिन कई खांटी पंडित आज भी उनकी इस बात को याद कर उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं।
आरक्षण और नयी पीढ़ी
जिम्मेदारी तो नयी पीढ़ी की ही बनती है कि इस जात-पात की दुर्गंध को दूर करें। हालांकि आरक्षण की व्यवस्था के चलते भेदभाव मिट नहीं पाता। पिछले दिनों कई बच्चों से बात हुई। कोई कहता मेरी जितनी रैंकिंग आई है, उससे मुझे कोई अच्छा कॉलेज नहीं मिल पा रहा है और रैंकिंग में मुझसे बहुत ज्यादा पीछे रहने वाले को आरक्षण के चलते अच्छा कॉलेज मिल गया। जब मैंने कहा कि इससे परेशान होने की जरूरत नहीं तो एक दूसरा बच्चा बोला, 'अंकल मेरा एक दोस्त है जो रोज पांच-सौ रुपये खाने-पीने पर उड़ा देता है, अब हम लोग एक ही कैंपस में गए हैं। हमने सवा लाख रुपये जमा करना है और उसने महज 600 रुपये।' मैंने समझाया कि ईडब्ल्यूएस कोटे का फायदा उठाना चाहिए। खैर तर्कों-कुतर्कों का अंतहीन सिलसिला कहां खत्म होने वाला। इसी दौरान खबर आई कि पिछले पांच-सात सालों में आईआईटी, आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में करीब 150 बच्चों ने आत्महत्याएं की हैं। इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के थे। शायद उन्हें बात-बात पर कोसा जाता होगा। नयी पीढ़ी को जात-पात के बंधन तोड़ने होंगे। आरक्षण का मुद्दा आर्थिक हो या जाति आधारित यह दूसरी तरह के बहस का विषय है।

Monday, December 20, 2021

इस निर्ममता से कौन से भगवान प्रसन्न होते होंगे

 केवल तिवारी

पंजाब में पिछले दिनों कथित तौर बेअदबी के दो मामले सामने आए जिनमें दो लोगों की हत्या कर दी गयी। ऐसा ही एक वाकया कुछ समय पहले गाजियाबाद में हुआ था जब एक बच्चे ने मंदिर में पानी पीया तो उसे एक व्यक्ति ने बहुत निर्ममता से पीटा। किसान आंदोलन के दौरान एक शख्स के हाथ-पांव काटकर लटकाने का मामला कौन भूल सकता है। गैर मुस्लिमों पर कश्मीर में अत्याचार की बात तो कितना बड़ा मुद्दा बना है, सभी जानते हैं। आखिर ये कौन लोग हैं जो धर्म के नाम पर दावा करते हैं कि उन्होंने अधर्मी को मार दिया। कौन से भगवान हैं जो हिंसा से खुश होते हैं। क्या भगवान, अल्लाह, यीशू, वाहेगुरु आदि-आदि, हम जिस भी धर्म को मानते हों, कभी कोई ऐसा संदेश देता है। क्या हिंदुओं के किसी भी धर्म ग्रंथ में हिंसा को उचित ठहराया गया है। बल्कि वहां तो सार-संक्षेप में कहा गया है-
अष्टादश पुराणेसु व्यासस्य वचनद्वयम
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम।
अर्थात अठारह पुराणों में व्यास जी के दो ही वचन हैं-परोपकार के समान के कोई पुण्य नहीं और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं।
ऐसे ही इस्लाम में क्या हिंसा को जायज ठहराया गया है। इस्लाम का तो अर्थ ही है शांति की स्थापना। पता नहीं धीरे-धीरे कैसे धर्म के ठेकेदार बनते गये और हत्या को जायज ठहराते चले गये। इसी तरह सिख धर्म में तो सभी महापुरुषों की वाणियों को संजोया गया है। चाहे गुरु नानकदेव हों, रैदास हों, कबीरदास हों, दादू हों या कोई और उसमें तो मानव से प्रेम की सीख दी गयी है। फिर सिख धर्म के अनुयायी तो परोपकार के कितने की काम करते हैं। इस धर्म के अनुयायी जो चैरिटी करते हैं वह कभी भी जाति-पाति या पंथ, संप्रदाय नहीं देखते। जैन धर्म और बौद्ध धर्म में तो अहिंसा परमोधर्म: सिखाया ही जाता है।
जब सभी धर्मों का मूल मंत्र अहिंसा है, प्रेम है तो फिर यह हत्या, पिटाई जैसी बातें कैसे आ जाती हैं। धर्म के नाम पर सियासती लोग भी चुप्पी साध लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है। अहिंसा, प्रेम का बिल्कुल यह अर्थ नहीं है कि कोई किसी दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुंचाए। ऐसा कदापि नहीं किया जाना चाहिए और यह अधर्म है, लेकिन अगर कोई ऐसा व्यक्ति सामने आता है तो क्या उसे कानून के हवाले नहीं किया जाना चाहिए। कानून अपने हाथ में लेने का मतलब है आप सबकुछ हो गये। आप न्याय के देवता हो गये। आप अनुयायी हैं। अनुयायी धर्म की बातों को प्रचारित या प्रसारित करते हैं, अधर्म का काम नहीं करते। हिंसक होते समाज के कुछ लोगों को सोचना होगा कि जो भी लोग पर्दे के पीछे हिंसा को जायज ठहराते हैं, वे असल में अधर्मी हैं। इसलिए जागिए। धार्मिक बनिये। हिंसक या पशुवत नहीं।

Tuesday, December 14, 2021

वह चार एक्सीडेंट और करता, फिर भी कुछ नहीं होता

 केवल तिवारी



कभी-कभी फिल्मों या सीरियल्स में दिखाते हैं कि कोई व्यक्ति एक्सीडेंट के बाद भाग जाता है तो थोड़ी देर में ही 'अलर्ट पुलिसिंग व्यवस्था' उसे पकड़ लेती है और फिर कानून के दायरे में जो होता है, सही होता है। लेकिन फिल्मी सीन तो फिल्मी ही होते हैं, असल जिंदगी में ऐसा कहां होता है? आपकी शिकायत ही पुलिस सुन ले, यही बहुत है। वह भी तब जब आपने तमाम प्रयास किए हों। बात रविवार 12 दिसंबर, 2021 के शाम की है। मैं दिल्ली गया था। बेटा कार्तिक अपने मामा भास्कर जोशी के पास था। मेट्रो से लौट रहा था तो भास्कर का फोन आया कि जब मोहन एस्टेट स्टेशन पर पहुंच जाएंगे तो फोन कर देना और सराय स्टेशन पर उतरना, मैं लेने आ जाऊंगा। एक बारगी मैंने कहा कि परेशान मत होओ मैं ऑटो से आ जाऊंगा, लेकिन वह नहीं माने। मानना भी कैसा? कोई भी होता तो ऐसा ही करता अगर समय है तो। हमारे यहां कोई आए और मैं बहुत व्यस्त नहीं हूं तो शायद ऐसा ही करूं। शाम करीब सवा सात बजे भास्कर फरीदाबाद में ग्रीन फील्ड कालोनी से अपनी वैगनआर कार (नंबर HR51AU10312) से मुझे लेने सराय स्टेशन पर आ गए। गाड़ी की पार्किंग लाइट ऑन कर उन्होंने हैंड ब्रेक उठाया ही था कि पीछे से एक मारुति स्विफ्ट डिजायर गाड़ी (नंबर DL3CAU4759 - यह नंबर वहां आसपास लोगों ने बताया क्योंकि भास्कर कुछ पल के लिए तो समझ ही नहीं पाए कि हुआ क्या?) तेज रफ्तार में आई और भास्कर की कार पर इतनी जोरदार टक्कर मारी कि पीछे का बंपर, लाइट सभी फूट गए और हैंड ब्रेक में खड़ी गाड़ी तेजी से आगे बढ़ी और वहीं किसी रिश्तेदार को लेने आए एक अन्य सज्जन की गाड़ी से टकराई। इस क्रम में भास्कर की गाड़ी का बोनट आदि भी क्षतिग्रस्त हो गया। जिस गाड़ी ने टक्कर मारी उसने तुरंत गाड़ी बैक की और वह भाग गया। लोगों ने बताया कि वह नशे में धुत लग रहा था। उसी वक्त मैं वहां पहुंच गया। सारा माजरा समझने के बाद हमने कोशिश की कि पहले पुलिस को सूचना दे दें ताकि वह आगे कोई एक्सीडेंट न कर पाए। चूंकि भास्कर ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे, जोर का झटका लगने से पैर और पीठ में चंक पड़ गया था। 100 नंबर पर बहुत देर तक ट्राई करते रहे, फोन नहीं लगा। तभी मैंने अपने अखबार के रिपोर्टर राजेश शर्मा जी को फोन लगाया। उन्होंने बताया कि उन्होंने सराय थाने के एसएचओ साहब से कह दिया है। इस बीच किसी तरह पुलिस से संपर्क हुआ। एक पीसीआर वैन आई और उसमें मौजूद पुलिसवाले बोले-गाड़ी लेकर थाने आ जाओ। मैंने कहा कि भाई ये नंबर लोगों ने बताया है कोई ऐसी प्रणाली नहीं है कि आप दिल्ली पुलिस को सूचित कर दो ताकि वह कहीं ट्रेश हो जाए। पुलिसवाले ने कहा आप बच गए, भगवान का शुक्र है। आप थाने आ जाओ। पुलिसवाले तो चले गए, लेकिन हमारी गाड़ी चल ही नहीं पा रही थी। किसी तरह दस किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से हम ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थाने पहुंचे। वहां हमसे इंतजार करने को कहा गया। मैंने एसएचओ साहब के बारे में पूछा तो पता लगा कि वह छुट्टी पर हैं। आधे घंटे के इंतजार के बाद भी जब कुछ नही हुआ तो मैंने दिल्ली स्थित अपने छोटे भाई सरीखे और वरिष्ठ पत्रकार अवनीश चौधरी को फोन किया। अवनीश ने कहा कि यह तो हिट एंड रन का मामला बनता है। पुलिसवालों से इस संबंध में बात की तो वह हमेशा की तरह समझाने लग गए। बहुत देर हो गई तो मैंने पुलिस वाले को थोड़ा गुस्से में नमस्ते किया और हम आने लगे तभी पुलिसवाला अपना रोना रोने लगा। उनकी बात सुनकर लगा कि वास्तव में काम का बहुत प्रेशर है इनके पास। उन्होंने एक शिकायती पत्र लिखवाया और घर जाने को कहा। अगले दिन मैं तो चंडीगढ़ आ गया, लेकिन भास्कर की समस्या अभी बरकरार थी। संबंधित पुलिसवाले को फोन किया तो वह नहीं उठा पाए। फिर वह सीआईएसएफ अधिकारियों के पास पहुंचे कि शायद सीसीटीवी फुटेज मिल जाएं, लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी। बताया गया कि मेट्रो स्टेशन के बाहर का एरिया सीसीटीवी की रेंज में नहीं है। फाइनली भास्कर कार को लेकर वर्कशॉप लेकर गए। वहां बताया कि करीब 50 हजार खर्च आएगा और 10 दिन लगेंगे। कुछ पैसा शायर इंश्योरेंस कंपनी का मिल जाएगा। दुर्घटना के बाद हम सब लोगों ने पहले तो भगवान का यही शुक्रिया अदा किया कि भास्कर सुरक्षित है। फिर भास्कर के मन में भी वह बात आई कि अक्सर वह किसी को लेने जाते हैं तो बच्चे को साथ ले लेते हैं। अगर मेरा बेटा या उनका बेटा गाड़ी में पीछे बैठे होते तो क्या होता? भगवान का बहुत-बहुत आशीर्वाद रहा कि ऐसा भी नहीं हुआ। भगवान का आशीर्वाद इस रूप में भी कि हमारी गलती से यह सब नहीं हुआ। भगवान की कृपा आगे भी बनी रहे, यही प्रार्थना है।
इसी दौरान मुझे वह हादसा याद आया जो हमारे साथ की पत्रकार कविता ने हमें बताया था। उनके कुछ रिश्तेदार चंडीगढ़ आए थे। चंडीगढ़ से वापसी के दौरान परवाणु नामक जगह पर उनकी कार खराब हो गयी। वे लोग बाहर उतरकर फोन करने लग गए, तभी पीछे से तेज रफ्तार कार ने टक्कर मार दी। पांच लोग घायल हो गए। उनमें से अब तो एक की जान ही चली गयी। वह कार वाला भी उपरोक्त केस की तरह भाग गया था, लेकिन हादसे के दौरान उसकी कार की तेल की टंकी फट गयी थी, जिससे वह पकड़ा गया, लेकिन क्या होगा? अब वह जमानत पर है। एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है, कुछ लोग गंभीर रूप से घायल हैं। उस व्यक्ति की कार की फ्यूल टंकी अगर नहीं फटती तो वह भी सराय मेट्रो स्टेशन वाले वाकये की तरह भाग जाता, शायद एक-दो एक्सीडेंट और करता। खैर... क्या कहूं, लिखने का ही रोग है मुझे। इसलिए भगवान को धन्यवाद देते हुए परोक्त के अलावा कुछ पंक्तियां लिख रहा हूं-
अपनी लड़ाई खुद लड़िए, बहुत भरोसा मत रखिए
राह चलते रईसजादों से खुद बचकर चल दीजिए
इस शहर में मददगार भी मिलेंगे, पर अधूरे-अधूरे से
दो शब्द सांत्वना के बोल दिए उसी से सुकून लीजिए।
असल में, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि एक्सीडेंट क्यों हुआ। यूं तो वह ओवरस्पीड में ही रहा होगा, हो सकता है ड्रिंक भी की हो। ये सब तो गंभीर अपराध हैं। लेकिन साथ ही यह भी कि सड़क पर चल रहे हैं तो कभी-कभी कुछ गलतियां भी हो जाती हैं। मेरा सवाल है उसके भागने पर। मेरे कितने जानकार हैं, जिनसे कुछ एक्सीडेंट हो गए हैं, लेकिन पीड़ित की पूरी मदद की गयी। यहां तो पीड़ित ही दोषी की तरह इधर-उधर घूमता रहा और....

Tuesday, December 7, 2021

... जरा फासला बरकरार रखिए

केवल तिवारी

मशहूर शायद बशीर बद्र साहब ने बहुत पहले लिखा था-
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।

शहर तो वही है, मिजाज नया है। कोरोना के बाद का मिजाज। अभी बाद भी कहां आया। तरस गए हैं पोस्ट कोविड पीरियड सुनने के लिए। लग रहा था कि भारी तबाही मचाने के बाद अब तो सब यही कहेंगे चलो मुक्ति मिली कोरोना चला गया। लेकिन कोरोना गया नहीं, नित नये रूप धरकर मानव सभ्यता या असभ्यता को डरा रहा है।

आदत ऐसी बनी कि सेल्फी भी मास्क पहनकर ली

अब बात यानी फासला पर। फासला यानी डिस्टेंसिंग। डिस्टेंसिंग शब्द सुनते-सुनते अब तो कान पक गए। जब से कोरोना आया है दूरी बनाये रखिए, हाथ न मिलाइये, नजदीकी ठीक नहीं जैसे कई शब्द या वाक्यांश हम आएदिन सुनते चले आ रहे हैं। जितना शारीरिक रूप से दूरी बनाए जाने पर बल दिया जा रहा था, उतना ही अनेक लोग तो दिली दूरी भी बनाए बैठे हैं। संवादहीनता है। साथ ही इस रौद्ररूप में संवेदनशून्यता भी दिखी। ऐसा नहीं कि तस्वीर एकतरफा थी, इसका दूसरा पहलू भी था। मदद को बढ़े हाथों ने मानवीय संवेदनाओं को जिलाए रखा।
थोड़ी सी उम्मीद जगी है
कोरोना महामारी के रौद्र रूप के बाद अब कुछ नया और ऊर्जावान होता दिख रहा है। बॉलीवुड उत्साहित है। टीवी शोज में क्रिएटिविटी दिख रही है। स्कूल लगभग खुल गए हैं। सरकारी और निजी दफ्तरों में आवाजाही सामान्य हो गयी है। ट्रेनें भी फुल चलने लगी हैं। बेशक अच्छा-अच्छा सा दिख रहा है, लेकिन यह नये दौर का जमाना है, इसलिए फासला जरूरी है। विशेषज्ञों कहते हैं कि भीड़ से अब भी बचना है। इसी बचना है की ताकीद का ही परिणाम था कि पिछले दिनों एक जरूरी कार्यक्रम में दिल्ली जाना था, लेकिन तमाम किंतु-परंतु के बीच आखिरकार नहीं जाना ही तय किया। ओमिक्रोन के रूप में नए वेरिएंट से डर लग रही है। अब अगर वही रौद्र रूप रहा तो स्थिति से पहले से ज्यादा बिगड़ेगी क्योंकि भूकंप का एक झटका तो सह लिया जाता है, लेकिन वैसे ही या उससे भी भयावह झटके लगने लग जाएं तो संभलना मुश्किल हो जाता है।

स्कूलों का आलम देख खुश तो हुए, लेकिन...



चित्र साभार कार्तिक


पिछले दिनों छोटे बेटे के स्कूल से नोटिस आया कि बच्चे को स्कूल भेजें। बसवाले से बात की तो वह भी राजी हुआ। राजी होना ही था क्योंकि दो साल से उसकी बसें बंद थीं। शुरू के कुछ दिनों में तो बच्चे को ले जाना और लाना खुद ही करना पड़ा, लेकिन 29 नवंबर से बस नियमित रूप से आने लगी। जब बच्चे को खुद ले जाना हो रहा था तो लगभग दो साल बाद ऐसा खुशनुमा माहौल देखकर मन प्रसन्न हो रहा था। बच्चे आपस में मिल रहे थे। हंसबोल रहे थे। किसी ने मास्क लगाया था किसी ने कान में टांग तो रखा था, लेकिन बस औपचारिकता निभाने की तरह। जो भी ऐसी ही तस्वीर बनी रहे। नए साल से हालात सामान्य हो जाएं, यही दुआ है।

एक सवाल अनुत्तरित
सब पूछते हैं कि बच्चों में आखिर इतनी मजबूती का क्या सबूत है। बड़ों को तो टीक लग गए फिर भी कई कॉलेज अब भी नहीं खुले। आईआईटी, आईआईएम एवं नीट जैसी पढ़ाई अभी बच्चे घर से ही कर रहे हैं। बच्चों को न तो वक्सीन लगी और न ही बच्चे कोविड प्रोटोकाल का वैसा पालन कर सकते हैं जैसा बड़े, ऐसे में उन्हें स्कूल बुला लेना क्या समझदारी भरा कदम है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दिनों दिल्ली में प्रदूषण मसले पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की थी जब बड़ों के लिए वर्क फ्रॉम होम है तो बच्चों को स्कूल क्यों बुलाया जा रहा है।

जरा फासले से ही मिलिए जनाब
सारी बातों का निचोड़ यही है कि फिलहाल फासले से मिलने की व्यवस्था को बरकरार रखिए। हाथ मिलाने की जरूरत नहीं। नमस्ते या सलाम ही कर लीजिए। मास्क पहनना बहुत जरूरी है। और अगर वैक्सीन नहीं लगवाई है तो इसमें देरी न करें। एक-एक व्यक्ति जब सुरक्षा कवच से घिरेगा तभी कोराना भागेगा।

Thursday, December 2, 2021

और मुच्चू लौट आया...

धवल की फरमाइश पर विशेष ब्लॉग


बोल और अबोल प्राणियों में एक अनजाना सा रिश्ता बन जाता है। भावनाओं का रिश्ता। रिश्ता कुछ-कुछ ऐसा... कुछ-कुछ वैसा...अनकहा...। अनजाना। पता नहीं कैसा। इसी रिश्ते की एक बानगी है मुच्चू, जिसे कुछ दिन पहले हम लोग, कम से कम मैं तो था की श्रेणी में ले आया था। लेकिन वह है और स्वस्थ हो रहा है। मुच्चू डॉगी है। काठगोदाम में। नेहा उसे करीब आठ साल पहले लेकर आई थी। तब से वह इस घर का सदस्य सरीखा बन गया। बेहद सीधा। ऐसे कुत्ते मैंने कहीं नहीं देखे। मेरा बेटा धवल और फरीदाबाद राजू का बेटा भव्य तो उसे बहुत प्यार करते हैं। वीडियो कॉल के दौरान दोनों मुच्चू को दिखाने की बात करते हैं और जब काठगोदाम जाते हैं तो उसको इतना छेड़ते हैं कि मजाल वह कोई नुकसान पहुंचा दे। बहुत हुआ तो हल्का सा गुर्राएगा... बस। इस बीच, मुच्चू पर जानलेवा हमला हो गया। हमलावार इस प्रजाति का चिर-परिचित जानवर तेंदुआ था। गजब साहस दिखाया नेहा ने, मौत के मुंह से उसे खींच लिया। डॉक्टर को दिखाया। कुछ दिन उदासी रही कि बेचारे पर हमला हो गया। खैर वह ठीक होने लगा। अचानक एक रात उसने अजीब सी बेचैनी होने पर अपना विकराल रूप दिखाया और घरवालों को मजबूरन दरवाजा खोलना पड़ा और वह भाग गया। ऐसा भागा कि घरवालों की पहुंच से दूर हो गया। रोना-धोना हो गया। घरवाले परेशान। तमाम तरह की उदासियों के बीच मुच्चू ही था जो मन लगाए रहता था। नेहा के पापा के साथ तो पूरी दोस्ती निभाता था। नंदू भाई साहब भी पूरा ध्यान रखते। मुच्चू कहां गया? जितने लोग उतनी बातें। मुझ तक भी बात पहुंची। मैंने भी अंदाजा लगाया कि उसे तेंदुआ या बाग ले गया होगा। फिर मैंने एक दो एक्सपर्ट से बात की। उन्होंने कई तरह की बातें बताईं। एक तो यह कि वही तेंदुआ इलाके में फिर आया होगा और उसकी गंध से इसमें बेचैनी हो गयी होगी और यह पागल सा हो गया होगा। इसके अलावा और भी कई तरह की बातें। आखिरकार मान लिया गया कि मुच्चू चला गया। मैंने भी सांत्वना के कुछ मैसेज नेहा को किए। इस बीच, हमारे विवाह की वर्षगांठ पर सुबह-सुबह फोन आया। हमें लगा कि बधाई देने के लिए फोन कर रहे होंगे। पत्नी ने फोन उठाया। पहला वाक्य था, 'मुच्चू आ गया।' इतना सुनते ही सारे घर में खुशी की लहर दौड़ गयी। धवल तो अंदर-बाहर दौड़कर उसे वीडियो कॉल के जरिये देखने लगा। उसने तुरंत अपनी मौसी और पता नहीं कहां-कहां फोन कर इस खबर को फैलाया। मैं यह नजारा देख रहा था। मेरे मन में भी खुशी थी, लेकिन मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा था। उस दिन अच्छा बीता। ऑफिस से आने के बाद शाम की पार्टी में एक खुशी और बढ़ गयी। मुच्चू अब स्वस्थ हो रहा है। यहां पर चंद लाइने पेश हैं-
गुफ़्तगू अब जानवरों से किया करते हैं,
क्योंकि ये कभी दिल नहीं दुखाया करते हैं।
जानवर तो बेवजह ही बदनाम है,
इंसान से ज्यादा कोई खूंखार नहीं होता है।

एक भावुक सीन चंडीगढ़ में भी...
चंडीगढ़ आने के बाद से मैं एक ही मकान में रह रहा हूं। इस कालोनी में भी कुछ कुत्ते हैं। कुछ लोगों के घरों में पले हैं और कुछ स्ट्रीट डॉग हैं, लेकिन उनका हमारे घर से भी वास्ता हो गया। कभी-कभी आते और एक कटोरी दूध पीकर चल देते। इस बीच कुछ लोग भावुक होकर कहते कि इनमें से कुछ कुत्ते दुबले हो गए हैं। इनकी एज ही क्या होती है। देखना अब ये मरने लगेंगे। सच में कुछ दिन पहले एक कुत्ता कहीं चला गया और पता चला कि वह मर गया। इसी बीच, एक कुत्ता जिसे मोहल्ले वालों ने 'साफ्टी' नाम दे रखा था मर गया। उसे वहीं एक खाली प्लॉट में दफना दिया गया। उसके बाद का भावुक सीन मुझे दिल से रुला गया। शाम को टलहलते वक्त देखा कि साफ्टी के साथ का एक भूरे रंग का कुत्ता थोड़ी-थोड़ी देर में भौंक रहा है, फिर गोल गोल घूमकर बैठ जाता है। फिर भावना ने बताया कि आज तो इसे देखकर हर कोई भावुक हो गया। यह अपने मुंह में रोटी लेकर जाता और जहां साफ्टी को दफना रखा है, वहीं पर मिट्टी खोदकर डाल देता। उसे लगा कि उसका दोस्त कहीं अंदर जाकर छिप गया है। सचमुच यह सीन भावुक था। मुझे याद है एक बार किसी शो में अमिताभ बच्चन ने कहा था, 'मुझे कुत्ते पालना बहुत अच्छा लगता है, लेकिन कुछ सालों बाद उनकी मौत हो जाने पर बहुत दुख भी होता है, इसलिए अब कुत्ते नहीं पालता।'

... लखनऊ का टॉमी
जब मैं कक्षा 7 में पढ़ता था, लखनऊ में हमारा एक पालतू कुत्ता था। नाम था टॉमी। वह मेरे भाई साहब की साइकिल की आवाज पहचान लेता था। दूर से ही आवाज सुनकर उछलने लगता था। भाई साहब की जेब में उसके लिए कुछ न कुछ होता था। जब सुबह वह ऑफिस जाते तो वह एक किलोमीटर तक छोड़ने जाता फिर लौट आता। ऐसे ही दीदी-जीजाजी के साथ उसका व्यवहार था। एक दिन वह अचानक गायब हो गया और फिर कभी नहीं लौटा।

कई फिल्में बनी हैं जानवरों पर
जानवरों की वफादारी का यह आलम है कि उन पर हिंदी और अंग्रेजी में कई फिल्में बनीं हैं। लिटिल स्टुअर्ट, नीमो, लैस्सी कम होम, लेडी एंड द ट्रैंप, ओल्ड येलेर, द फॉक्स एंड द हाउंड, डॉक्टर डू लिटिल जैसी तमाम हॉलीवुड फिल्मों के अलावा हिंदी में तेरी मेहरबानियां, मर्द, हाथी मेरे साथी जैसी कई फिल्मों में जानवरों की वफादारी की कहानियां हैं।

नुकसान भी पहुंचाया है
जानवरों खासतौर पर कुत्तों ने कई बार नुकसान भी पहुंचाया है। कई बार बच्चे को नोचने और बुजुर्ग को काटने की खबरों से हम-आप दो-चार होते रहते हैं। एक बार तो एक कुत्ते ने घर के दामाद को जान से मार डाला था। हालांकि इन सबमें गलती इंसानों की भी होती है। वैसे स्ट्रीट डॉग से सावधान रहना चाहिए और जो लोग कुत्ता पालते हैं उन्हें चाहिए कि जानवरों की वैक्सीन समय पर लगवाकर उसे नियंत्रण में रखें। जैसे मुच्चू को रखा जाता है।

Wednesday, December 1, 2021

यादगार सफरनामा मानो कि सपना देखा हो कोई...

 केवल तिवारी

इस छोटे से सफरनामे की दास्तां की शुरुआत इसके अंतिम छोर से करता हूं। बृहस्पतिवार 18 नवंबर की शाम करीब 8 बजे जैसे ही घर पहुंचा, शीला दीदी-जीजाजी और भानजा कुणाल तैयार थे। उन्हें चंडीगढ़ स्टेशन छोड़कर आना था। मैंने पानी पिया, कुछ मिनट बातें हुईं। पूरन जीजाजी ने कुछ पैसे मेरे जेब में डालते हुए कहा कि ये जो बाकी रह गया था, वह भी मेरे तरफ से। मैंने कहा भी कि सब कुछ तो आपने ही किया है, वे बोले-बस रख लो। मैं मुस्कुरा दिया। अब चलना चाहिए, मैंने ही यह बात कही क्योंकि करीब सवा नौ बजे की ट्रेन थी। चलते-चलते छोटा बेटा धवल मेरे भानजे कुणाल से बोलने लगा, भैया कितना खराब लग रहा है, आप जा रहे हो। भानजे ने उसे दिलासा दिया कि फिर आएंगे और एक वाक्य बहुत शानदार कहा। कुणाल ने कहा, जब जाएंगे तभी तो आएंगे।’ एकदम सही बात। यही आना-जाना तो सफर है। हम लोग कुछ दिन साथ रहकर प्रसन्न थे। साथ ही अभी प्रेमा दीदी और जीजाजी एक-दो दिन और यहां रुकने वाले थे, इसलिए एक टीम के जाने के बाद दूसरी टीम से बातचीत का पूरा मौका था। लेकिन यह क्या? पता नहीं कब 22 नवंबर आ गयी। सुबह 6 बजे अंबाला से ट्रेन थी। चार बजे उठ गये और दीदी-जीजा जी को लेकर अंबाला की ओर चल दिया। अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन से पहले गूगल की मेहरबानी से अंबाला शहर रेलवे स्टेशन की तरफ मुड़ गया। एक सज्जन सुबह की सैर कर रहे थे। उनसे रास्ता पूछा तो उन्होंने कहा कैंट तो अभी सात किलोमीटर दूर है। यू टर्न लेकर दो फ्लाईओवर पार कर तीसरे के नीचे से राइट हो जाना। लगभग पौने छह बज चुके थे, 6 बजकर पांच मिनट की ट्रेन थी, लेकिन गनीमत है, सबकुछ सामान्य रहा। दीदी जीजाजी को ट्रेन में बिठाकर लौट आया। उस पूरे दिन भागदौड़ बनी रही, इसलिए दोनों दीदीयों की गैरमौजूदगी नहीं खली। लेकिन रात करीब साढ़े आठ बजे जब ऑफिस से घर पहुंचा तो सुनसान सा लगा। घर में भी सभी ने कहा, कल तक चहल-पहल थी, आज फिर वही सन्नाटा। खैर कुणाल की कही बात के अनुसार, ‘जाएंगे तो आएंगे।’ खैर अब थोड़ा आगे चलते हैं। नवंबर की 17 तारीख को कुरुक्षेत्र गए थे। वहां ब्रह्मसरोवर में पूजा अर्चना की। लखनऊ वाले जीजा जी ने अपने पूर्वजों के नाम पिंडदान किया। मैंने और मिश्राजी जीजाजी ने तर्पण किया। कुछ पलों के लिए माहौल तब भावुक हो गया जब पंडित जी ने सभी पितरों का नाम लेने को कहा। फिर ज्ञात और अज्ञात...। वहां से निकले तो कुरुक्षेत्र में बने पेनोरमा व साइंस सेंटर में घूमने चल दिए। इस बीच कुछ खाना हुआ। बहुत खराब खाना। खैर खाया किसी तरह। उसमें जिक्र लायक कुछ नहीं। उससे एक दिन पहले हम लोग गए हिमाचल की यात्रा पर। देवी दर्शन यात्रा। उससे पहले एक शेर जिसे इधर-उधर से लेकर मोडिफाई किया है-

आओ संग में एक कहानी बनाते हैं। चलो कहीं घूम के आते हैं!









असल में हमारी हिमाचल यात्रा से पहले जैसा कि ऊपर वर्णन कर चुका हूं। दो दीदीयां-जीजाजी और भानजा कुणाल पहुंचे थे। लखनऊ से दीदी-जीजा जी और भानजे कुणाल और गौरव श्रीनगर, खीर भवानी देवी और माता वैष्णोदेवी की यात्रा कर लौटे थे। कार्यक्रम तो प्रेमा दीदी का भी बन रहा था, लेकिन शायद उन्हें बुलावा नहीं आया था। वे लोग सीधे चंडीगढ़ पहुंचे। इस बीच हम लोगों की यात्रा का कुछ विवरण बनता रहा। सबके चल पाने और न चल पाने की कशमकश थी। बातों से कुछ बातें निकलीं, उसी कवि की चंद पंक्तियों की मानिंद जिन्होंने लिखा-

बहुत कर लिया मलाल ज़िन्दगी में, चलो आज अपनी ज़िन्दगी जी लेते हैं।

रह चुके बहुत हम घर में सिमट कर, चलो आज घर से कहीं दूर चलते हैं!

सब लोगों के आने वाले दिन सभी से आराम करने के लिए कहा गया। इस बीच एक एटरेगा गाड़ी की व्यवस्था की गयी। हम लोगों ने सबसे पहले ज्वाला जी मंदिर जाने का मन बनाया। गाड़ी वाले से सुबह पांच बजे चलने के लिए कहा था। हालांकि हमें तैयार होते-होते 6 बज गये। लेकिन ऐसा कुछ इत्तेफाक बना कि गाड़ी वाले के साथ कुछ समस्या हुई और हम लोग लगभग 9 बजे घर से चल पाये। शायद इस देरी में भी कुछ अच्छाई छिपी थी कि देरी के बावजूद मंदिर में बहुत शांति से और श्रद्धापूर्वक दर्शन हुए। मुझे करीब 17 साल पहले का वह सफर याद आ गया जब मैं माताजी को लेकर ज्वाला जी गया था। उस वक्त बड़ा बेटा करीब एक साल का था। हम चार लोग थे और साथ में दो परिवार और थे। उस वक्त हमारा रूट दूसरा था। हम लोग दिल्ली से पठानकोट ट्रेन से पहुंचे। वहां से टॉय ट्रेन से हिमाचल, फिर एक गाड़ी बुक कर ज्वालाजी, चिंतपूर्णी आदि मंदिर गये। फिर वैष्णोदेवी मंदिर। बेहद यादगार सफर था वह। बुजुर्ग महिला होने के बावजूद जगह-जगह जिस तरह मां ने हम सबको संभाला, वाकई वह कोई शक्ति थी। अधकुवारी में तो गजब का साहस दिखाया मां ने। हमारे ओढ़े गर्म शॉल और एक साल के अपने पोते को लेकर वह गुफा से निकल आई। हमसे अकेले ही न निकला गया। खैर... वक्त कहां थमता है और आज वह मां, दैवीय माओं के साथ ही कहीं बैठी होगी।

चलिए थोड़ा सा भटक गया। चलते हैं आगे। हम पहले ज्वालाजी मंदिर पहुंचे। दर्शन किए और फिर दोपहर का भोजन किया। उसके बाद हम पहुंचे कांगड़ा देवी फिर चामुंडा देवी। इस तरह रास्ते की कुछ दिक्कतें और थोड़ी बहुत परेशानी के साथ शाम हो गयी। एक जगह चाय पी। तय हुआ कि चिंतपूर्णी माता के दर्शन कल करेंगे। वहीं आसपास कहीं धर्मशाला या होटल में रुक जाएंगे। फिर जिस व्यक्ति की गाड़ी (आशीष-मित्र नरेंद्र के मार्फत मुलाकात हुई और अच्छा अनुभव रहा। मृदुभाषी, मिलनसार व्यक्ति) में सब थे उन्होंने कहा कि चलते हैं अगर दर्शन हो गए तो सीधे चंडीगढ़ ही चल पड़ेंगे नहीं तो रुक भी जाएंगे। हम वहां पहुंचे तो पता चला कि दर्शन हो सकते हैं। हमने तुरंत प्रसाद लिया और रात 9 बजते-बजते दर्शन कर लिए। फिर हमारी योजना वापसी की बनी और रात करीब एक बजे हम घर पहुंच गए। बाद में हम लोग पंचकूला स्थित मनसा माता मंदिर और चंडी माता मंदिर भी सबके साथ गए। सेक्टर 19 की मार्केट गए। प्रेस क्लब गए। बहुत सी बातें कीं, हंसी-मजाक हुआ और कहना चाहूंगा कि मजाक मजाक में लखनऊ से आए जीजाजी ने कुछ ज्यादा ही खर्च कर दिया। खैर कोई नहीं, उनका वह वाक्य याद आत है कि है तो कर दिया, नहीं होता तो कहां से करते। कुल मिलाकर सबकुछ इतना जल्दी-जल्दी होता चला गया कि दो-तीन दिनों में ही लगने लगा कि अरे यह तो सपना सरीखा था। सचमुच सपना सरीखा ही होती हैं, ऐसी मुलाकातें।  बातें तो और भी बहुत कुछ हैं, लेकिन अभी वैष्णोदेवी मांता, खीर भवानी माता, चिंतपूर्णी माता, ज्वालाजी माता, चामुंडा माता, मनसा देवी, चंडीमाता को याद करते हुए ईश्वर से सबकी सलामती की प्रार्थना करता हूं। जय माता की।

Wednesday, November 3, 2021

साहित्यकार सत्यवीर नाहड़िया की पांच किताबों के इर्द-गिर्द

  केवल तिवारी

हिंदी की सतत साधना में लगे और कभी कटाक्षों से गुदगुदाते और कभी हकीकत का आईना दिखाते सत्यवीर नाहड़िया जी को मैं तो कम से कम एक दशक से जानता हूं। दैनिक ट्रिब्यून में आने से पहले से उनको पढ़ा है। इनकी चलती चाकी हमेशा पढ़ता रहता था। इस बीच, थोड़ी बातचीत हुई। इसी दौरान इनकी किताबें भी आती रहीं। किताबें देखीं तो पाया कि सत्यवरी नाहड़िया जी उम्र में मुझसे करीब डेढ़ साल बड़े हैं। लेखन में तो बहुत बड़े हैं, उसे मापा नहीं जा सकता। खैर... नाहड़िया जी पर चर्चा के बजाय आज उनकी कुछ किताबों पर बातचीत करने के लिए कीबोर्ड उठाया है। अब कलम उठाई है, कहां चलता है। पिछले दिनों साहित्य साधना और पुराने साहित्यकारों को याद रखने के क्रम में एक लेख में हरियाणा साहित्य अकादमी एवं उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ चंद्र त्रिखा जी ने सत्यवीर नाहड़िया जी का जिक्र किया था। उसे पढ़ा और सत्यवीर जी से बातचीत भी हुई। इसी बीच उन्होंने मुझे कुछ पुस्तकें भेजीं। यूं तो हर पुस्तक के बारे में लंबा-चौड़ा आख्यान लिखा जा सकता है, लेकिन मैंने तय किया कि इस बार किताब चर्चा का यह लेखन थोड़ा जुदा हो। मैंने पांचों किताबें एक-एक कर पढ़ीं। हर किताब में सबसे अच्छी लगी पंक्तियों को अंडरलाइन कर दिया। क्योंकि नाहड़िया जी की ये किताबें अब मेरी धरोहर हो चुकी हैं। किताबें पढ़ने में थोड़ा समय लगा, इसलिए किताब चर्चा भी थोड़ा विलंब से। लेकिन ये किताबें कोई ऐसी नहीं हैं कि आज पढ़ीं और खत्म...। इनमें लिखीं बातें तो शाश्वत हैं। बल्कि हर बात को मनन करते रहने की जरूरत है। उन्हें कोट करने की भी जरूरत है। मैं तो भविष्य के अपने लेखों में जरूर इन्हें कहीं न कहीं कोट करूंगा। 

तो चलिए हैं किताब चर्चा पर। एक-एक कर। सबसे पहले कर रहा हूं सत्यवीर नाहड़िया जी की किताब ‘दिवस खास त्योहार’ को। यह है तो बाल कविता संग्रह, लेकिन संदेश इसमें सबके लिए छिपा है। फिर कहते भी तो हैं ना कि बच्चों के लिए लिखना सबसे ज्यादा कठिन होता है। मैंने भी कभी-कभी इस कठिन कार्य को करने की कोशिश की है। इन दिनों में दैनिक ट्रिब्यून के फीचर विभाग में हूं। मेरे पास बच्चों के लिए ढेरों सामग्री आती है। उन्हें देखकर और कभी-कभी खुद लिखकर महसूस करता हूं कि बाल साहित्य सृजन जितनी जिम्मेदारी का काम है, उतना ही कठिन भी है। बहुत कठिनाई से गुजरते हुए आपको सरल, सहज और प्रवाहमयी शैली में बह जाना होता है। तो इस बात को समझते हुए कह सकता हूं कि नाहड़िया जी की शैली बहुत तरल है। यहां मैंने सरल नहीं, तरल ही लिखा है। पानी की मानिंद। जिसमें मिला दो लगे उस जैसा....। सबसे बड़ी खूबी तो यह है कि इस किताब में उन्होंने पूरे वर्ष को कविताओं में समेट दिया है। बिना भेदभाव के। नव वर्ष की खुशियां हैं, ईद का जश्न है। दिवाली की चमक है। क्रिसमस की धूम है। राष्ट्रीय पर्वों का गौरव है। कुछ पंक्तियों पर गौर कीजिए-



नये साल में नया करेंगे।

विपदाओं से नहीं डरेंगे।

दीन-दुखी की सेवा कर हम

मानवता के घाव भरेंगे।।


रखती सबका ध्यान बेटियां

लोकलाज की आन बेटियां

घर के आंगन की हैं कोयल

बड़ी सुरीली तान बेटियां।।


लहर-लहर झंडा लहराएं।

गीत शहादत के मिल गाएं।

आया है गणतंत्र दिवस रे 

आओ मिलकर इसे मनाएं।।


मां-वाणी का दिन है आया।

कुदरत ने भी रास रचाया

सरसों झूम रही खेतों में

वासंती यह न्यारी माया।। 


मानवता के मान डॉक्टर।

रोज बचाते जान डॉक्टर।

खूब मिला है दर्जा उनको

धरती के भगवान डॉक्टर।।


हरियाणा वीरों की माटी।

सैनिक बनना है परिपाटी।

दौर गुलामी में जेलें भी

इसके वीरों ने थी काटी।।


इस कविता में 62 पर्वों, त्योहारों और दिवसों पर कविताएं हैं। हर कविता में कम से कम तीन छंद हैं। बच्चे पढ़ें या बड़े, बहुत सहज भाव से इसे पढ़ेंगे। बाल साहित्य से स्नेह होने के नाते सबसे पहले मैंने इस किताब पर चर्चा की। 



अब चर्चा करता हूं ‘पंच तत्व की पीर’ पर। एकदम सामयिक। कोरोना काल में अपने पंचतत्वों की अनदेखी और कुदरत का जरूरत से ज्यादा दोहन के खिलाफ कवि सत्यवीर नाहड़िया ने चेताया है। शाकाहार पर जोर देते हुए नाहड़िया जी ने योग पर जोर रहने की जरूरत पर बल दिया है साथ ही ताकीद की है कि संभल जाओ नहीं तो जिस तरह से मौसम चक्र बदल रहा है, ग्लोबल वार्मिंग के खतरे बढ़ रहे हैं, वह भयावह रूप धर सकता है। जिस तरह भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए कहा था कि कण कण में मैं हूं... यानी कण-कण में ताकत है। जरूरत है इस ताकत को सहेजे रखने की। समेटने की और कुदरत के साथ तालमेल बनाए रखने की। इस किताब की हर पंक्ति की अच्छी खासी व्याख्या हो सकती है। कबीर-रहीम के दोहों की तरह। तो आइये इस किताब की भी चंद पंक्तियों पर गौर कीजिए-

मैं थोड़ा ही जानता, बस इतना है ज्ञान।

घट-घट में भगवान हैं, कण-कण में विज्ञान।।


जब से बोतलबंद का, रूप लिया है धार।

गया फैलता विश्व में, पानी का व्यापार।।


नीर धरोहर आप में, कुदरत की है आब।

जोहड़ फिर जिंदा करें, जिंदा फिर तालाब।।


जैसे अपनी देह का, सदा रखें सब ख्याल।

जांच कराओ खेत की, मिट्टी की हर साल।।


सूख गए झरने सभी, सूख गए हैं ताल।

पानी आंखों का मरा, कुदरत है बदहाल।।


नये दौर में हो रहा, न्यारा आज विकास।

अपना-अपना फायदा, कुदरत का उपहास।


कोरोना से वायरस, आएंगे अब और।

कुदरत से खिलवाड़ का, अगर रहा यह दौर।।

इस किताब में कवि सत्यवीर नाहड़िया ने बहुत कुछ संदेश देने की कोशिश की है। हर पंक्ति में एक सीख है, एक चेतावनी है और हकीकत है। इसे उन्होंने पर्यावरण बाल दोहावली कहा है, लेकिन यह सबके लिए सीखपकर पुस्तक है। चूंकि मैं किताबों की कोई समीक्षा नहीं कर रहा, इसलिए प्रकाशक, पुस्तक संख्या वगैरह-वगैरह का जिक्र करने का कोई मतलब नहीं। यह तो मेरी निजी राय है। सत्यवीर नाहड़िया जी ने किताबें भेजीं। पूरी पढ़ीं और जब पढ़ लीं तो फोन पर सारी बातें कहां संभव है। इसलिए लिखकर ही अपनी बात कह सकता हूं।



अब करते हैं तीसरी किताब की चर्चा। यह भी बाल दोहावली है। किताब का नाम है रचा नया इतिहास। योगेश्वर श्रीकृष्ण से लेकर मदर टेरेसा तक इसमें सभी पर एक-एक कविता है। 

एक जगह वह लिखते हैं-

उनके रूप अनूप हैं, उनके नाम हजार।

अर्जुन के बन सारथी, भव से करते पार।।

एक अन्य कविता में वह लिखते हैं-

जनता में ऐसे किए, अलग अनूठे काज

मुहावरा है बन गया, ‘रामराज’ यह आज।। 

ऐसी ही अनेक पंक्तियां जिसको पढ़कर आनंद तो आएगा ही, साथ ही खुद ही पता चलेगा कि लिखा किस पर है। हर कविता के शीर्ष पर संबंधित चित्र भी कविता के साथ-साथ किताब की गरिमा बढ़ाता है। इसके अलावा संबंधित तिथि जानकारी बढ़ाती है। कुछ पंक्तियों का आनंद लीजिए-

नानक दुखिया कह दिया, सारा ये संसार।

उनके वचनों में छिपा, जीव जगत का सार।।


क्षमा कहें मन से सदा, क्षमा करे इंसान।

वर्धमान के ज्ञान से, मिला क्षमा को मान।।


संन्यासी फिर देख के, ऐसे हुए निहाल।

यशोधरा के साथ ही, छोड़ दिया वो लाल।।


गिरधर नागर से जुड़ा, मन का जब विश्वास।

‘दरद न जाणै कोय’ से, दर्द बताया खास।।


खिचड़ी भाषा में कहीं, बातें सब अनमोल।

साधक थे वे शब्द के, कर्म-मर्म के तोल।।


याद करे मां भारती, रचे नये आयाम।

‘युवा दिवस’ पर आपको, कोटि-कोटि प्रणाम।।


इंकलाब के चाव से, नारे बोले खास।

हंसकर फांसी पर चढ़े, याद करे इतिहास।।

‘गरम’ धर्म अपना लिया, कर जीवन कुर्बान।

‘लोकमान्य’ के नाम से, मिला खूब सम्मान।।

इस किताब की रचनाओं की खूबी है कि कुछ ही पंक्तियों में महापुरुष के बारे में बता दिया। सार संक्षेप। लेखनी में सारगर्भित। सत्यवीर जी को साधुवाद।

... और चौथी किताब है चलती चाक्की। हरियाणवी कुंडलिया संग्रह। यह चाक्की लगातार चल रही है। दैनिक ट्रिब्यून में प्रतिदिन पाठक इन्हें पढ़कर आनंद लेते ही हैं। इनमें वह गुदगुदाते हैं। कटाक्ष करते हैं और आईना दिखाते हैं। कभी इनमें इतिहास की झलक होती है और कभी भविष्य के प्रति एक दर्शन। ठेठ हरियाणवी अंदाज में। जिस तरह का मौसम अब आ रहा है और किसानों को लेकर जो बातें हो रही हैं, उसी पर एक चाक्की देखिए और समझिए-



जाड्डा इब ठाड्डा हुया, काढण लाग्या ज्यान।

पाणी लावैं खेत म्हं, सारी रात किसान।

सारी रात किसान, ताण कै कोन्या सोता।

महंगाड़े की मार, गुजारा लग ना होत्ता।

छह रुत-बारा मास, कदे न चाल्ले आड्डा।

थर-थर काम्पै गात, कदै उतरैगा जाड्डा।

और इस चर्चा की अंतिम किताब। नाम है हिंदी पत्रकारिता के मसीहा-गुप्त जी, गुड़ियानी और गुमानी की पीर। शुरू में मैंने जो चर्चा की थी कि सत्यवीर नाहड़िया जी का डॉ त्रिखा जी के लेख में जिक्र था, वह इसी पर था। नाहड़िया जी जैसे लोगों ने उन लोगों को याद करने और उनकी राहों पर चलने के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाया है, जिन्होंने पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में मिसाल कायम की, लेकिन काल के क्रूर चक्र में उनके योगदान को भुलाया जाने लगा। जैसा कि किताब की भूमिका में दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राजकुमार सिंह जी ने इसे भगीरथ प्रयास बताया है, सचमुच यह भगीरथ प्रयास ही है। इसी के साथ हरियाणा साहित्य अकादमी एवं उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ. चंद्र त्रिखा ने इसे शोधपरक विशिष्ट कृति बताया है। बड़ी-बड़ी विभूतियों के कथन से नाहड़िया जी के इस प्रयास और इस किताब की गंभीरता और महत्ता को समझा जा सकता है। सचमुच यह शोधपकर किताब है। बाबू बालमुकुंद गुप्त के जीवनवृत्त से लेकर उनके लेखन, पत्रकारिता और इनसे जुड़े विविध आयामों को समझाते हुए बीच-बीच में उनकी रचनाओं का जिक्र कर किताब को ‘संपूर्ण’ बनाया गया है। साहित्य या पत्रकारिता में रुचि रखने वाले लोगों को एक बार इसे पढ़ना जरूर चाहिए।



और अंत में यही कहूंगा कि बेशक संवाद कम हो पाता है, लेकिन सत्यवीर नाहड़िया की रचना को पढ़ता रहता हूं। कई नये विचार भी मन में आते हैं। जब भी उनसे मिलना होगा, निश्चित रूप से विस्तार से चर्चा होगी। आज पांच किताबों को पढ़ने के बाद इनके बारे में मैंने तो महज एक लेख में सबकुछ समेट दिया है, लेकिन ये इस लेख से कहीं बड़ा स्पेस रखते हैं। सत्यवीर नाहड़िया जी का लेखन जारी रहे। इसी अंदाज में, यही मेरी शुभकामनाएं हैं।

Friday, October 29, 2021

वह सफर और सफर के कितने हमसफ़र : काठगोदाम यात्रा

 केवल तिवारी

मैं लिखता जरूर हूं, तुम मत ढूंढ़ना किंतु-परंतु

आपका जिक्र न भी हो तो मानिए 'सर्वे संतु।'



जी हां, लिखता जरूर हूं, सो लिख रहा हूं। डायरी लेखन थोड़ा कम कर दिया है। एक तो डायरियों का ढेर लग गया है। दूसरे, बाद में उन्हें रद्दी ही तो होना है। मैं हर मंच पर कहता हूं कि डायरी लेखन मेरा ईश्वर से सीधा संवाद है, अब यह संवाद दिल ही दिल में ज्यादा होता है। डायरी लेखन बिल्कुल बंद नहीं हुआ। डायरी लेखन यानी ईश्वर संवाद 'positive' 'All type' जारी है, थोड़ा हौले-हौले। खैर छोड़िये अभी डायरी की बात। अभी आपको ले चलता हूं अपनी काठगोदाम तक की यात्रा पर। पहली बार इतनी लंबी ड्राइव। चंडीगढ़ से सीधे काठगोदाम। चूंकि किसी शायर ने ठीक ही कहा है-

हर मंजिल की एक पहचान होती है। और हर सफ़र की एक कहानी!

इस सफर की भी कहानियां हैं। जाते वक्त की भी और आते वक्त की भी। 3 अक्तूबर को बड़े बेटे कुक्कू का JEE Advance का पेपर था, 4 अक्तूबर की सुबह हम लोग निकल पड़े ‘आदरणीय गूगल चाचा’ के इशारों पर। कहां-कहां नहीं ले गये गूगल चाचा। हमने जो परेशानियां झेलीं, वह तो हम ही जानते हैं, लेकिन जब समय पर मंजिल पर पहुंच गए तो सभी ने कहा, नहीं सही रूट दिखाया होगा तभी तो इतनी जल्दी पहुंच गए। खैर छोड़िये सफर है तो परेशानियां आएंगी ही। आनंद भी तो आया। आत्मविश्वास भी तो जगा। फिर सबसे बड़ी बात अपनों से मुलाकात। घूमने-फिरने का बहुत शौकीन हूं। जब मौका मिलता है कहीं जाने का तो चला जाता हूं। काठगोदाम में जब हम भावना के चाचा सुरेश जोशी जी से मिला तो उनकी एक बात बहुत अच्छी लगी कि जब तक शरीर फुर्तीला है तब तक खूब घूमना चाहिए। वो सब बेकार की बातें हैं कि आराम से बुढ़ापे में घूम लेंगे। उन्होंने बताया कि वह बहुत पहले ही चार धाम यात्रा के अलावा देश के विभिन्न तीर्थ स्थलों एवं पर्यटन स्थलों पर घूम चुके हैं। मैं उनकी बात से पूरी तरफ इत्तेफाक रखता हूं। शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर गालिब साहब कह गए-

सैर कर दुनिया की गालिब जिन्दगानी फिर कहां, 

जिन्दगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां!


चोरगलिया, यादों का मन और मनमोहक जीवा

4 अक्तूबर को तो थकान थी सो कहीं अन्यत्र नहीं गए। अगले दिन हम लोग चले गए सितारगंज रोड स्थित चोरगलिया नामक स्थान पर। प्रेमा दीदी के यहां। साथ में भावना की बड़ी भाभी भी। वहां दीदी-जीजाजी से मिला। दीदी खेतों में गई थी। जब पता चला मैं आया हूं तो दौड़ी चली आई और उससे गले मिला तो जैसे बचपन की दीदी और अपनी माताजी याद आ गईं। एक खास तरह की घास की खुशबू से मन पुराने दिनों की ओर ले गया। फिर तुरंत संयत हुआ। दीदी से कुछ बातें हुईं। तब तक भानजे मनोज की पत्नी तनु (रेनु) ने भोजन बना दिया था। इस दौरान सबसे रोचक प्रकरण रहा मनोज की बेटी जीवा से बातचीत का। वह ऐसे बोलती है जैसे कोई सुंदर गुड़िया सी बच्ची किसी टीवी शो की डबिंग में अपनी आवाज दे रही हो। जैसे- क्या आपको मेरी याद आती थी। क्या आप नींबू पानी पीना पसंद करोगे। उससे कोई भी बात पूछो तो वह ऐसे जवाब देती मानो पूरा वाक्य याद किया हो साथ में फुल स्टाप भी। मैंने पूछा आप हमें याद करते थे, उसका जवाब था बिल्कुल। भावना ने पूछा चंडीगढ़ आओगे, उसका जवाब आना तो पड़ेगा। आपको गिफ्ट कैसा लगा के जवाब में बोली-बहुत अच्छा लगा। ऐसी ही कई बातों में कब तीन घंटे गुजर गए पता भी नहीं चला। वहां अन्य दीदीयों (दीदी की देवरानियां और जीजाजी की दीदी, उनकी पोती) आदि से मिला। शाम को लौट आए। हल्द्वानी आकर पहले भानजी रेनू से मिले फिर साढू भाई यानी भावना के दीदी-जीजाजी (गुड़िया जी एवं सुरेश पांडे जी) के यहां गए। वहां भावना के दूसरे नंबर के भाई-भाभी एवं भतीजा यानी शेखरदा, लवली भाभी और सिद्धांत जोशी पहुंचे थो। वहां डिनर के हल्का-फुल्का वॉक के दौरान बना अगले दिन रिसार्ट में जाने का।

कोटाबाग का रिसॉर्ट और आसमान के तारे












मशहूर संवाद लेखक एवं शायर राही मासूम राजा का एक शेर है-

इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई, 

हम न सोए रात थक कर सो गई।  

सचमुच ऐसा ही हुआ कोटाबाग के उस रिसॉर्ट में। असल में बुधवार की सुबह मैं, पांडे जी, उनका बेटा यीशू, मेरे बेटे कार्तिक और धवल एवं भावना के बड़े भाई नंदाबल्लभ जोशी (नंदू भाई जो उसी वक्त काठगोदाम से आए थे) निकल पड़े कोटाबाग के लिए। महिला मंडली नहीं आई, उन्हें कुछ खरीदारी करनी थी। हम लोग सबसे पहले वहां पांडे जी के मित्र के रिसॉर्ट ‘कॉर्बेट हिल्स रिसॉर्ट’ पहुंचे। बच्चे तो वहां का वातावरण और उस क्षेत्र की हरियाली में ही खो गए और फोटो सेशन में जुट गए। वहां चाय पीकर हम लोग दाबका नदी की ओर चल दिए। बेहतरीन लोकेशन और हमारे अलावा वहां कोई नहीं, फिर देर कहां लगनी थी और कपड़े उतारे और सभी घुस गए नदी में। एक घंटे पानी में पड़े रहे, फिर गीले-गीले में ही लंच किया (जो महिला मंडली घूमने नहीं आई थी, उन्होंने बेहतरीन लंच बनाकर पैक कर रख दिया था)। धीरे-धीरे ठंड सी लगने लगी। फिर वापसी का कार्यक्रम बना। शाम को उस इलाके में एकदम सन्नाटा। बच्चे बार-बार कहते ‘आसमान में देखिए क्या साफ तारे दिख रहे हैं।’ मुझे याद आया जब एक बार हिंदुस्तान में एक स्टोरी लाइट पर की थी। उस स्टोरी का लब्बोलुआब यही था कि बिजली की हैवी लाइट में तारे कहीं गुम हो गए हैं। वाकई आप शहरों में आसमान की तरफ देखिए आपको बहुत गौर करने से शायद तारे दिखेंगे। पर कोटाबाग के उस इलाके में तो मजा आ गया। अपने रूम से कुछ दूर आकर हमने रिसॉर्ट के ही कैफेटेरिया में डिनर किया। बच्चे रूम में चले गए और मैं, पांडेजी और नंदूभाई जी थोड़ा सैर करने निकल गए। वहां दूर-दूर इक्का-दुक्का घरों में जलती रोशनी एक अलग ही रुख दे रही थी। कुछ ही देर में आभास हुआ कि इतने बियाबान में ज्यादा दूर नहीं जाना चाहिए सो वापस लौट आए। बच्चे टीवी देख रहे थे, मोबाइल पर गेम भी खेल रहे थे। हम लोग बातें करते रहे। सोचा, ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं था, बल्कि चंडीगढ़ से तो यही सोचकर चले थे कि इस बार कोटाबाग कहां जाना होगा, लेकिन निदा फाजली साहब के शब्दों में कहूंगा-

अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं, 

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।

इस शानदार छोटे से ट्रिप के लिए पांडेजी का बहुत-बहुत धन्यवाद। साथ में उनके मित्र का भी जिनके रिसॉर्ट में रुके और जिनका बनता हुआ रिसॉर्ट देखा। आंवले भी तोड़े उस दौरान।

नवीन परिवार, लता का घर, दद्दू से बातचीत, रुचि-दीपेश और रिशू से मुलाकात




बृहस्पतिवार से नवरात्र शुरू थी। सो सुबह भावना, नेहा एवं भाभीजी के साथ गांव के मंदिर गए। वहां भी देवीस्वरूपा एक बच्ची मिली। शांत सी। भावना के आसपास मंडराती सी। मंदिर में हाथ जोड़े। दोपहर बाद हम लोग हल्द्वानी आए। कुछ मंदिर और गए और शाम होते-होते रिश्ते में भानजे लेकिन अनुभवी एवं उम्र में मेरे से खूब बड़े नवीन पांडे (राजस्थान वाले) के घर गए। उनसे बहुत सारी बातें हुईं। कोरोना काल में अपनों के खोने की चर्चाएं हुईं। फिर उनका घर देखा और उनकी छत से दिख रहे नजारे भी। अगले दिन हम पहले मेरी सबसे बड़ी भानजी लता के यहां गए। उसके पति हरीश पंत जी भीमताल में आजकल पोस्टेड हैं, लेकिन अच्छा इत्तेफाक रहा कि वह उसी दिन आ गए। उनसे बातचीत हुई। फिर पहुंचे दूसरी भानजी रुचि के घर। रुचि ने लंच तैयार किया था। दीपेश आये और लंच किया फिर दीपेश से गुजारिश की कि दद्दू के यहां ले चलो। दद्दू अब रुचि के ससुर हैं, लेकिन उनको जानता बचपन से हूं। खरी बात कहने वाले। दद्दू के यहां गए। दीपेश की माताजी इन दिनों बेहद अस्वस्थ हैं। वहां दीपेश की बहन भारती और उनकी बेटी भी आई हुई थी। कुछ देर बातें हुईं। चाय पी और लौट आए। इसी दौरान मनोज भी बहुत दूर से बाइक से आकर मिलने आ गया, बहुत अच्छा लगा। इससे पहले चोरगलिया में पप्पू भाई, गुड्डू नेताजी से भी बहुत बातें हो चुकी थीं। बेशक बहुत भागादौड़ी वाला सफर रहा, लेकिन फिर निदा फाजली का एक शेर ऐसे मौकों के लिए-

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो, 

सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो।

... और कालीचौड़ की भक्तिमय यात्रा




यूं तो शनिवार सुबह मेरा लौटने का कार्यक्रम था। मुझे हर हाल में रविवार को ऑफिस ज्वाइन करना था। क्योंकि-

जूते महंगे हैं अब, पर छोटा सा सफर है, 

एक तरफ ऑफिस, दूसरी तरफ घर है।

लेकिन तय हुआ कि रविवार अल्लसुबह निकल जाएंगे। शनिवार को काली चौड़ मंदिर चलते हैं। शेखरा को एक दिन पहले जरूरी काम से दिल्ली आना था। वे आए भी, लेकिन उनकी मीटिंग कैंसल हो गई इसलिए शुक्रवार देर रात वह आ चुके थे। बेशक वह दिल्ली गए और भागमभाग वापस आए और परेशान हुए, लेकिन हमारे लिए तो कालीचौड़ जाने का आनंद और बढ़ गया। सुबह पांडे जी अपनी माता जी, पत्नी एवं बेटी के साथ काठगोदाम पहुंच गए। यहां से शेखरदा का परिवार एवं नंदूभाई जी की बेटी नेहा तैयार हुई। हम चार तो थे ही। लंच का सामान यहां भी सुबह-सुबह तैयार हो गया। हम लोग गए। पहाड़ी मार्ग पर कार चलाने का थोड़ा सा अनुभव भी हुआ। यहां भी एक नदी मिली तो मैं, पांडेजी, सिद्धांत और धवल कूद गए। बाकी सब ने दूर से देखकर ही आनंद उठाया। दोपहर बाद आ गए और वापसी की तैयारी में जुट गए। जितना काठगोदाम जाने में दिक्कत हुई, उतना ही आनंद वापसी में आया। शेखरदा ने रूट सही समझा दिया। 





इसका फायदा यह हुआ कि हम हरिद्वार भी हो आए। गंगा मां के दर्शन हुए। गंगाजल भी ले आए। आकर ड्यूटी भी ज्वाइन कर ली। शानदार सफर के संबंध में कुछ और पंक्तियां कुछ नए अंदाज में पढ़िए-

रास्ते कहां खत्म होते हैं जिंदगी के सफर में, मंजिल तो वही है जहां ख्वाहिशें थम जाएं।

 

मुझे तो पता था तू कहीं और का मुसाफिर था,

हमारा शहर तो बस यूं ही तेरे रास्ते में आ गया।

 

थोड़ी सी मुस्कुराहट बरकरार रखना, 

सफर में अभी और भी किरदार निभाने हैं।

 

कुछ सपने पूरे करने हैं, कुछ मंजिलों से मिलना है

अभी सफर शुरू हुआ है, मुझे बहुत दूर तक चलना है!

 

घूमना है मुझे ये सारा जहां तुम्हे अपने साथ लेके

बनानी हैं बहुत सी यादें हाथों में तुम्हारा हाथ लेके!

पूरा पढ़ लिया हो तो धन्यवाद। न भी पढ़ा हो तो भी धन्यवाद। सबसे ज्यादा धन्यवाद उन सभी रिश्तेदारों, नातेदारों का जिनकी वजह से सफर यादगार रहा।

इम्युनिटी बढ़ाने के लिए व्यापक अभियान की जरूरत'


कोरोना का खौफ कुछ कम हुआ तो अब जगह-जगह से डेंगू एवं तेज बुखार से लोगों के बीमार होने एवं कई लोगों की मौत की दुखद खबरें सुनने को मिल रही हैं। ऐसे में डॉक्टरों, विशेषज्ञों का कहना है कि हमें किसी खास सीजन में ही नहीं, बल्कि सालभर इम्युनिटी बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। इसके साथ ही जागरूकता अभियान भी चलाए जाने की जरूरत है। यह बात माउंटेन पीपुल फाउंडेशन (एमपीएफ) की अध्यक्ष सरोज पंत ने उस वक्त कही जब उन्होंने इस संबंध में यूपी के मुख्य सचिव एवं प्रधान सचिव (आयुष मंत्रालय) से मुलाकात की। उनके साथ ही संस्था से जुड़े एवं इम्युनिटी बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान चला रहे उमेश पंत भी थे। जानकारों ने कहा कि एलोपैथी दवाओं से तात्कालिक फायदे के साथ ही होमियोपैथी एवं आयुर्वेदिक दवाओं या इम्युनिटी बूस्टर से भी हम अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा कर सकते हैं। संस्था ने होमियोपैथी और योग विज्ञान के द्वारा रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के विभिन्न प्रयोगों पर भी बल दिया। इस संबंध में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये बताया गया कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव राजीव कुमार तिवारी तथा प्रिंसीपल सेक्रेटरी (आयुष विभाग) प्रशांत त्रिवेदी जी के साथ माउंटेन पीपुल फाउंडेशन की अध्यक्ष सरोज पंत तथा डॉ. उमेश चंद्र पंत ने होमियोपैथी के द्वारा रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने पर तथा होमियोपैथिक पद्धति के द्वारा  कोविड-19 एवं डेंगू के लिए प्रीवेंटिव व इम्यूनिटी बूस्टर दवा जिले और प्रदेश स्तर पर मुहैया कराने की मुहिम के बारे में चर्चा की।

जनसेवा में लगे हैं डॉ पंत
डॉ उमेश पंत एवं सरोज पंत लंबे समय से जनसेवा में लगे हैं। गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित सेक्टर पांच में वह लंबे समय से रह रहे हैं। शिक्षा पूरी करने के बाद उमेश ने यहीं होमियोपैथी पद्धति से इलाज करना सीखा और बाकायदा डिग्री ली। उधर, संस्था एमपीएफ को पिछले दिनों उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत के उपराष्ट्रपति ने सम्मानित किया। डॉ पंत का कहना है, 'आज के दौर में हमें एक दूसरे की मदद के लिए आगे आना चाहिए। इसके साथ ही हर किसी को यह समझना होगा कि जान है तो जहान है। इसलिए स्वस्थ रहें। होमियोपैथी पद्धति से यदि किसी रोग का समय पर उपचार शुरू हो जाए तो उसके बहुत फायदे हैं।' उनके इस कार्य को काफी सराहना मिल रही है।

Friday, October 22, 2021

शिव कुमार जी का आहूं गांव, मेरे-आपके आसपास की रोचक चर्चा

केवल तिवारी

दाबड़ा पट्टी में पल्लेवाले जोहड़ के दक्षिण पश्चिम में स्थित यह मंदिर 1880 के आसपास बना था। यह भी संभव है कि मंदिर इससे पहले से गांव में हो और उस समय इसका जीर्णोद्धार हुआ हो...।

... उस समय नए गुरुद्वारे की जगह को चण्डीगढ़ और पुराने गुरुद्वारे को पुरानी दिल्ली कहा जाने लगा। जल्द ही सहमति हो गई कि गांव में एक ही गुरुद्वारा रहेगा। इसलिए नए गुरुद्वारे की बात आगे नहीं चली। तब से उस इलाके को चण्डीगढ़ कहा जाता है। ...

इस परिवार को बाद के पूर्वज 'अल्लाह दिया' के नाम पर 'लदिये के' कहा जाने लगा। मान्ना अल्लाह दिया से चार पीढ़ी पहले हुए थे। इस परिवार में 1885 में जैबा और सफिया की कोई संतान नहीं थी...।

1951 से पहले की जनगणना की रिपोर्टों से अकाल और महामारी इत्यादि के उन कारणों का पता चलता है जिनसे प्रभावित होकर लोग या तो गांव छोड़कर दूसरी जगह चले जाते थे या बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो जाने के कारण आबादी घट जाती थी। ... 1951 से पहले की जनगणनाओं में अलग-अलग गांवों की आबादी और शिक्षा की सूचना उपलब्ध नहीं थी। पूरे पंजाब और करनाल जिले के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि सन 1881 से 1921 तक महिलाओं में सेशायद ही कोई पढ़ी-लिखी होती थी।

आजादी से पहले गांव में पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। गांव में मंदिर और मस्जिद दोनों थे, लेकिन उनमें भी पढ़ाई की कोई व्यवस्था रही हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं है।

सन 1897 से 1918 तक के सालों में पंजाब में प्लेग फैला रहा। यह बीमारी जालंधर जिले से शुरू हुई और धीरे-धीरे पूरे पंजाब में फैल गई। आहूं और आसपास के इलाके में यह बीमारी संवत 1975 (सन 1918 ईस्वी) के कार्तिक महीने में पहुंची इसीलिए इसे कात्त्ग (कार्तिक) वाली बीमारी कहा जाता रहा है।

संवत 1840 (सन 1783) में भयंकर अकाल पड़ा था जिसे संवत के चालीसवे साल में होने के कारण चालीसा का अकाल कहा जाता था।

आहूं गांव का नाम अह्न (यह शब्द क्रमश: अ, ह् और न वर्णों से बना है, इसमें 'ह' हलंत और न पूर्ण अक्षर है) तीर्थ के नाम पर ही पड़ा है। अह्न के अशुद्ध उच्चारण (ह और न को आपस में बदलकर बोलने से) के कारण इसे अन्ह आन्ह और फिर आन्ध कहा जाने लगा...।’


उक्त कुछ पंक्तियां पुस्तक ‘आहूं गांव का इतिहास’ में से ली गई हैं। एक छोटी सी बानगी कि पुस्तक को कितने शोधपरक तरीके से लिखा गया है। असल में इस पुस्तक के लेखक शिव कुमार जी से इस पर चर्चा पहले हुई। फिर उन्होंने मुझे पीडीएफ फार्मेट में कुछ पढ़वाया। सच कहूं तो कभी-कभी मन में आता था कि हरियाणा के एक छोटे से गांव के बारे में कुछ लिखने या फिर पढ़ने की क्या रुचि हो सकती है? फिर खुद ही जवाब ढूंढ़ा कि लिखने की रुचि तो वहां का वाशिंदा होने के कारण शिव जी को हो गयी। फिर पढ़ने की? पढ़ने का मैं शौकीन हूं। इसी संबंध में अपने पूर्व के ब्लॉग में ऐसे ही एक गांव से संबंधित किताब का जिक्र कर चुका हूं।

खैर... इस बार शिव कुमार जी ने किताब भिजवा दी। लंबा समय हो गया। शायद दो माह से अधिक। पिछले दिनों उत्तराखंड की यात्रा के दौरान भी किताब साथ में रही। जब मौका मिला पढ़ता गया। उसी दौरान मुझे पता चला कि वहां सुदूर देभाल के रहने वाले मिश्रा लोगों ने भी अपनी एक वंशावली बनाई है। तभी एक सज्जन से बात हुई। उन्होंने मेरे सामने ही पुस्तक के कुछ जरूरी हिस्से पढ़ डाले। पढ़ते ही बोले, ‘काफी शोधपरक लगती है, आपने पढ़ ली क्या?’ मैं उनकी मंशा समझ गया। मैंने कहा, बस खत्म होने वाली है, आपको फिर भेजता हूं। वह मुस्कुरा दिए। असल में यह किताब वाकई शोधपरक है। आहूं गांव का नाम कैसे पड़ा। हरिद्वार में इस गांव के कौन पंडित हैं। जैसी जानकारी मुझे बड़ी रोचक लगी। मुझे याद आया कि करीब 25 साल पहले जब मैं जनेऊ कराने हरिद्वार गया था तो माताजी ने मुझसे कहा कि वहां काशीनाथ मुरलीधर के ठिकाने पर चले जाना। वह पूरी मदद करेंगे। सच में ऐसा ही हुआ। उन्होंने न केवल मदद की, बल्कि हमारे परिवार के कई पीढ़ियों के बारे में भी बता दिया। आहूं गांव के इतिहास को पढ़ते-पढ़ते वहां के वैद्यों का जिक्र (यहां बता दूं कि लेखक शिव कुमार के पिताजी स्वयं एक वैद्य रहे हैं उनका नाम है वैद्य धनीराम), पूजा स्थलों का जिक्र। इतिहास ही नहीं, इस किताब में वर्तमान भी है जो भविष्य के बारे में आईना सा दिखाता है। जगह-जगह वंशावली, आबादी, जमींदारी, शादी-व्याह जैसे शुभअवसरों पर गाये जाने वाले गीत, शिक्षा, खेती-बाड़ी जैसे तमाम पहलुओं की खूब पड़ताल की है लेखक शिव कुमार जी ने। ज्यादा विस्तार से नहीं लिखूंगा। यह जरूर कहूंगा कि यदि आप आहूं के गांव के आसपास के या हरियाणा के या पंजाब के हैं तो यह किताब तो आपको भाएगी ही, यदि आपका दूर-दूर तक इस गांव से किसी तरह का कोई नाता नहीं है तो भी यह किताब बेहद उपयोगी है। गांव के इतिहास लेखन की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है किताब। बेहद सरल और सहज अंदाज में। पुराने दस्तेवेजों और विभिन्न चित्रों से पुस्तक की रोचकता और भी बढ़ गयी है। मौका लगे तो पढ़ डालिए। शिव कुमार जी को पुन: साधुवाद। ऐसा लेखन और भी वह करेंगे, ऐसी उम्मीद है। मेरी शुभकामनाएं।