केवल तिवारी
इस छोटे से सफरनामे की दास्तां की शुरुआत इसके अंतिम छोर से करता हूं। बृहस्पतिवार 18 नवंबर की शाम करीब 8 बजे जैसे ही घर पहुंचा, शीला दीदी-जीजाजी और भानजा कुणाल तैयार थे। उन्हें चंडीगढ़ स्टेशन छोड़कर आना था। मैंने पानी पिया, कुछ मिनट बातें हुईं। पूरन जीजाजी ने कुछ पैसे मेरे जेब में डालते हुए कहा कि ये जो बाकी रह गया था, वह भी मेरे तरफ से। मैंने कहा भी कि सब कुछ तो आपने ही किया है, वे बोले-बस रख लो। मैं मुस्कुरा दिया। अब चलना चाहिए, मैंने ही यह बात कही क्योंकि करीब सवा नौ बजे की ट्रेन थी। चलते-चलते छोटा बेटा धवल मेरे भानजे कुणाल से बोलने लगा, भैया कितना खराब लग रहा है, आप जा रहे हो। भानजे ने उसे दिलासा दिया कि फिर आएंगे और एक वाक्य बहुत शानदार कहा। कुणाल ने कहा, जब जाएंगे तभी तो आएंगे।’ एकदम सही बात। यही आना-जाना तो सफर है। हम लोग कुछ दिन साथ रहकर प्रसन्न थे। साथ ही अभी प्रेमा दीदी और जीजाजी एक-दो दिन और यहां रुकने वाले थे, इसलिए एक टीम के जाने के बाद दूसरी टीम से बातचीत का पूरा मौका था। लेकिन यह क्या? पता नहीं कब 22 नवंबर आ गयी। सुबह 6 बजे अंबाला से ट्रेन थी। चार बजे उठ गये और दीदी-जीजा जी को लेकर अंबाला की ओर चल दिया। अंबाला कैंट रेलवे स्टेशन से पहले गूगल की मेहरबानी से अंबाला शहर रेलवे स्टेशन की तरफ मुड़ गया। एक सज्जन सुबह की सैर कर रहे थे। उनसे रास्ता पूछा तो उन्होंने कहा कैंट तो अभी सात किलोमीटर दूर है। यू टर्न लेकर दो फ्लाईओवर पार कर तीसरे के नीचे से राइट हो जाना। लगभग पौने छह बज चुके थे, 6 बजकर पांच मिनट की ट्रेन थी, लेकिन गनीमत है, सबकुछ सामान्य रहा। दीदी जीजाजी को ट्रेन में बिठाकर लौट आया। उस पूरे दिन भागदौड़ बनी रही, इसलिए दोनों दीदीयों की गैरमौजूदगी नहीं खली। लेकिन रात करीब साढ़े आठ बजे जब ऑफिस से घर पहुंचा तो सुनसान सा लगा। घर में भी सभी ने कहा, कल तक चहल-पहल थी, आज फिर वही सन्नाटा। खैर कुणाल की कही बात के अनुसार, ‘जाएंगे तो आएंगे।’ खैर अब थोड़ा आगे चलते हैं। नवंबर की 17 तारीख को कुरुक्षेत्र गए थे। वहां ब्रह्मसरोवर में पूजा अर्चना की। लखनऊ वाले जीजा जी ने अपने पूर्वजों के नाम पिंडदान किया। मैंने और मिश्राजी जीजाजी ने तर्पण किया। कुछ पलों के लिए माहौल तब भावुक हो गया जब पंडित जी ने सभी पितरों का नाम लेने को कहा। फिर ज्ञात और अज्ञात...। वहां से निकले तो कुरुक्षेत्र में बने पेनोरमा व साइंस सेंटर में घूमने चल दिए। इस बीच कुछ खाना हुआ। बहुत खराब खाना। खैर खाया किसी तरह। उसमें जिक्र लायक कुछ नहीं। उससे एक दिन पहले हम लोग गए हिमाचल की यात्रा पर। देवी दर्शन यात्रा। उससे पहले एक शेर जिसे इधर-उधर से लेकर मोडिफाई किया है-
आओ संग में एक कहानी बनाते हैं। चलो कहीं घूम के आते हैं!
असल में हमारी हिमाचल यात्रा से पहले जैसा कि ऊपर वर्णन कर चुका हूं। दो दीदीयां-जीजाजी और भानजा कुणाल पहुंचे थे। लखनऊ से दीदी-जीजा जी और भानजे कुणाल और गौरव श्रीनगर, खीर भवानी देवी और माता वैष्णोदेवी की यात्रा कर लौटे थे। कार्यक्रम तो प्रेमा दीदी का भी बन रहा था, लेकिन शायद उन्हें बुलावा नहीं आया था। वे लोग सीधे चंडीगढ़ पहुंचे। इस बीच हम लोगों की यात्रा का कुछ विवरण बनता रहा। सबके चल पाने और न चल पाने की कशमकश थी। बातों से कुछ बातें निकलीं, उसी कवि की चंद पंक्तियों की मानिंद जिन्होंने लिखा-
बहुत कर लिया मलाल ज़िन्दगी में, चलो आज अपनी ज़िन्दगी जी लेते हैं।
रह चुके बहुत हम घर में सिमट कर, चलो आज घर से कहीं दूर चलते हैं!
सब लोगों के आने वाले दिन सभी से आराम करने के लिए कहा गया। इस बीच एक एटरेगा गाड़ी की व्यवस्था की गयी। हम लोगों ने सबसे पहले ज्वाला जी मंदिर जाने का मन बनाया। गाड़ी वाले से सुबह पांच बजे चलने के लिए कहा था। हालांकि हमें तैयार होते-होते 6 बज गये। लेकिन ऐसा कुछ इत्तेफाक बना कि गाड़ी वाले के साथ कुछ समस्या हुई और हम लोग लगभग 9 बजे घर से चल पाये। शायद इस देरी में भी कुछ अच्छाई छिपी थी कि देरी के बावजूद मंदिर में बहुत शांति से और श्रद्धापूर्वक दर्शन हुए। मुझे करीब 17 साल पहले का वह सफर याद आ गया जब मैं माताजी को लेकर ज्वाला जी गया था। उस वक्त बड़ा बेटा करीब एक साल का था। हम चार लोग थे और साथ में दो परिवार और थे। उस वक्त हमारा रूट दूसरा था। हम लोग दिल्ली से पठानकोट ट्रेन से पहुंचे। वहां से टॉय ट्रेन से हिमाचल, फिर एक गाड़ी बुक कर ज्वालाजी, चिंतपूर्णी आदि मंदिर गये। फिर वैष्णोदेवी मंदिर। बेहद यादगार सफर था वह। बुजुर्ग महिला होने के बावजूद जगह-जगह जिस तरह मां ने हम सबको संभाला, वाकई वह कोई शक्ति थी। अधकुवारी में तो गजब का साहस दिखाया मां ने। हमारे ओढ़े गर्म शॉल और एक साल के अपने पोते को लेकर वह गुफा से निकल आई। हमसे अकेले ही न निकला गया। खैर... वक्त कहां थमता है और आज वह मां, दैवीय माओं के साथ ही कहीं बैठी होगी।
चलिए थोड़ा सा भटक गया। चलते हैं आगे। हम पहले ज्वालाजी मंदिर पहुंचे। दर्शन किए और फिर दोपहर का भोजन किया। उसके बाद हम पहुंचे कांगड़ा देवी फिर चामुंडा देवी। इस तरह रास्ते की कुछ दिक्कतें और थोड़ी बहुत परेशानी के साथ शाम हो गयी। एक जगह चाय पी। तय हुआ कि चिंतपूर्णी माता के दर्शन कल करेंगे। वहीं आसपास कहीं धर्मशाला या होटल में रुक जाएंगे। फिर जिस व्यक्ति की गाड़ी (आशीष-मित्र नरेंद्र के मार्फत मुलाकात हुई और अच्छा अनुभव रहा। मृदुभाषी, मिलनसार व्यक्ति) में सब थे उन्होंने कहा कि चलते हैं अगर दर्शन हो गए तो सीधे चंडीगढ़ ही चल पड़ेंगे नहीं तो रुक भी जाएंगे। हम वहां पहुंचे तो पता चला कि दर्शन हो सकते हैं। हमने तुरंत प्रसाद लिया और रात 9 बजते-बजते दर्शन कर लिए। फिर हमारी योजना वापसी की बनी और रात करीब एक बजे हम घर पहुंच गए। बाद में हम लोग पंचकूला स्थित मनसा माता मंदिर और चंडी माता मंदिर भी सबके साथ गए। सेक्टर 19 की मार्केट गए। प्रेस क्लब गए। बहुत सी बातें कीं, हंसी-मजाक हुआ और कहना चाहूंगा कि मजाक मजाक में लखनऊ से आए जीजाजी ने कुछ ज्यादा ही खर्च कर दिया। खैर कोई नहीं, उनका वह वाक्य याद आत है कि है तो कर दिया, नहीं होता तो कहां से करते। कुल मिलाकर सबकुछ इतना जल्दी-जल्दी होता चला गया कि दो-तीन दिनों में ही लगने लगा कि अरे यह तो सपना सरीखा था। सचमुच सपना सरीखा ही होती हैं, ऐसी मुलाकातें। बातें तो और भी बहुत कुछ हैं, लेकिन अभी वैष्णोदेवी मांता, खीर भवानी माता, चिंतपूर्णी माता, ज्वालाजी माता, चामुंडा माता, मनसा देवी, चंडीमाता को याद करते हुए ईश्वर से सबकी सलामती की प्रार्थना करता हूं। जय माता की।
1 comment:
सच में बड़ा यादगार सपना और मेरा लेखक भाई इतना बढ़िया लिख देता है मजा आ गया🤚🤚🤗🤗
शीला दीदी का whatsapp पर कमेंट
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