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Friday, August 28, 2020

कादम्बिनी और नंदन का बंद हो जाना


केवल तिवारी
शुक्रवार शाम सूचना मिली कि हिन्दुस्तान टाइम्स प्रकाशन की पत्रिकाएं-कादम्बिनी और नंदन को बंद कर दिया गया है। संभवत: संस्थान से कुछ लोगों का इस्तीफा भी लिया गया है। कादम्बिनी और नंदन का यूं अचानक बंद हो जाना वाकई बेहद दुखद है। मैंने हिन्दुस्तान अखबार में आठ वर्षों तक काम किया है। बेशक उक्त दोनों मैग्जीनों से सीधे नहीं जुड़ा रहा, लेकिन दोनों में लेख छपे। लेख लिखने से भी ज्यादा यादगार रहे कुछ पल। जैसे नंदन पत्रिका में जाने-माने लेखक प्रकाश मनु से मुलाकात। कादम्बिनी में क्षमा शर्मा जी से मुलाकात। क्षमा जी आजकल हमारे अखबार दैनिक ट्रिब्यून में लिखती हैं। पिछले साल बाल दिवस पर प्रकाश मनु का इंटरव्यू छापा था। मनु जी की किताब ‘ये जो दिल्ली है’ कई बार पढ़ चुका हूं।

इन यादों के अलावा इन पत्रिकाओं से बहुत पुरानी यादें भी जुड़ी हैं। हमारे गांव में पंडित जी थे। पांडे जी। प्रकाश पांडे जी के पिता। मैं जब छठी-सातवीं में पढ़ता था और गर्मियों की छुट्टियों में घर जाता था तो पांडे जी को नंदन और कादंबिनी पढ़ते हुए पाता था। यही नहीं वह इन पत्रिकाओं में छपी कहानियों और चुटकुलों को भी सुनाते। उनका सेंस ऑफ ह्यूमर पहले से ही बहुत उम्दा था, उस पर दोनों पत्रिकाओं के वह नियमित पाठक थे। दूर रानीखेत से उन्हें मंगवाते थे। दिल्ली से छपकर रानीखेत आने तक ही पत्रिकाओं को कई दिन लगते थे।

इससे पहले एक मशहूर पत्रिका पराग छपा करती थी। करीब 15-20 साल पहले मेरे बारे में किसी ने जिक्र किया होगा तो मुझे एक ऑफर मिला था। कहा जा रहा था कि पराग, चंदामामा आदि पत्रिकाएं फिर शुरू हो रही हैं। मैं वहां मिलने तो गया, लेकिन ज्वाइन नहीं कर पाया। अंतत: इन मशहूर पत्रिकाओं के फिर से शुरू होने की योजना पाइपलाइन में ही रह गयी।

बेशक आज जमाना बदल रहा है, डिजिटल युग आ गया है, लेकिन ऐसी मील का पत्थर के मानिंद इन पत्रिकाओं को यकायक बंद नहीं किया जाना चाहिए था। उनको डिजिटल फार्मेट या अखबार के साथ जोड़कर भी तो जारी रखा जा सकता था। यदि माहौल अच्छा बनता तो उसे फिर शुरू कर सकते थे। लेकिन प्रबंधन कहां घाटे की बात सहता है। दोनों पत्रिकाओं के बंद होने का वाकई दुख है। 

Friday, August 21, 2020

गणपति बप्पा... अपनों की दूरी... पर दिल की नहीं मजबूरी

केवल तिवारी

फिर आये गणपति। फिर क्यों। वे तो हमेशा हैं। हमारे साथ। लेकिन यह पर्व भी तो है। गणपति को घर लाने और फिर विसर्जित करने का। क्या फर्क पड़ता है कि महाराष्ट्र से शुरू हुआ यह उत्सव आज विश्वभर में मनाया जाता है। गणेश तो हैं ही जीवन सार। उनकी एक-एक बात में जीवन का मतलब। उन्हें घर लाने, उन्हें विसर्जित करने, उनके बड़े कान, छोटी आंख, बड़ा पेट, उनके मोदक हर चीज में छिपा है जीवन संदेश। वह कहते हैं अपनों के साथ रहो। उत्सव मनाओ। आज कोरोना महामारी के कारण दूरी बेशक मजबूरी बन गयी है, लेकिन दिल की दूरी नहीं है। होनी भी नहीं चाहिए। मतभेद होना स्वाभाविक है। इंसानों के बीच में मतभेद होता है। मनभेद नहीं होना चाहिए। मनभेद है तो गणपति का संदेश हम नहीं समझ पाये। आपको लगता है कोई आपका अपना नाराज है। ऐसा नहीं है। आप मन में सिर्फ और सिर्फ यही मानिये कि सब मुझे अच्छा मानते हैं। अपना मानते हैं। मेरी गलतियों पर फटकारते हैं। जीवन के इन्हीं सार संदेशों को तो बताते हैं गणेश।

फोटो : भावना
हर साल गणेश उत्सव का मनाने का यही अर्थ तो है। सब काम से पहले करो जय-जय गणेश की.... जय-जय गणेश की सब काम से पहले का मतलब उनके शरीर से समझिये। उनका सिर बहुत बड़ा है अर्थात वह शुभ काम की शुरुआत कर रहे हो तो सोचने का दायरा बड़ा रखना चाहिए। गणेश जी केे सिर की तरह। जब सोच बड़ी होगी तो विचार भी बड़ा होगा। ऊंचे और मजबूत विचार से ही व्यक्ति का उद्धार संभव है।

उनके बड़े-बड़े कान हैं। सूप जैसे। अर्थात ‘सार-सार को गाहि रहे थोथा देहि उड़ाय।’ इसका मतलब सूप अनाज को रखता है और बाकी अवेशष को उड़ा देता है। यही बात गणेश जी मनुष्य को समझाते हैं कि विभिन्न चीजों का सार पकड़ो और निरर्थक बातों को छोड़ो।

गणेश जी की आंखें छोटी हैं : छोटी आंखों का यही मतलब है कि इंसान को दुनियादारी बहुत सूक्ष्म तरीके से समझनी चाहिए। गहराई से चीजों को नहीं समझेंगे तो बुद्धि कभी भी गहराई के तल को छू नहीं पाएगी। बड़ी सोच, चीजों को गहराई से समझना और अच्छी बातों को ही याद रखना जीवन संदेश। यानी वही बात फिर कि जीवन का संदेश दे रहे हैं भगवान गणेश।

गणेश जी का पेट  लंबा है। यानी लंबोदर। उदर लंबा है, लेकिन भोग लगता है सिर्फ मोदक। पेट बड़ा, लेकिन भोजन थोड़ा सा। इसे समझिये। वह भूख को नियंत्रित करने की सीख देते हैं। इस नियंत्रण से जहां मनुष्य का संयम गुण विकसित होता है, वहीं विचार शक्ति भी मजबूत होती है। नियंत्रण का मतलब सिर्फ भोजन कम खाने से नहीं है। व्यसनों पर नियंत्रण, वाणी पर नियंत्रण।

अब आते हैं उनके वाहन पर : उनका वाहन है चूहा। यानी मूषक। मूषक जैसा छोटा वाहन रखने वाले गणपति बताते हैं कि इंसान को अपनी इच्छाओं और भावनाओं को काबू में रखना चाहिए। दिखावे की संस्कृति के जाल में न फंसकर जिंदगी सहज और सरल ढंग से बितानी चाहिए। आज के समय में अधिकतर लोग तनाव और अवसाद का शिकार केवल इसलिए हैं कि वे इस दिखावे के जाल में उलझ गए हैं। जबकि मन के भार को कम करने के लिए जरूरी है कि हम इच्छाओं की सीमा को समझें। अपने जीवन में बनावटी भाव को कभी ना आने दें। दिखावे की सोच इंसान को जरूरी-गैर जरूरी चीजें जुटाने के फेर में उलझा देती है। तन से नहीं ही नहीं, मन से भी बीमार बना देती है। इसीलिए सादगीपूर्ण जीवन जीने की बप्पा की सीख आज के समय में वाकई हमारे जीवन में संतुलन लाने का काम कर सकती है।

अब बात करते हैं उनके प्रिय भोजन मोदक की। मोदक के आकार पर गौर कीजिए। उसका ऊपरी भाग खाएंगे तो हल्का सा स्वाद आएगा। धीरे-धीरे उसमें मेवों का स्वाद आने लगेगा। इसका अर्थ है ऊपर से हमें ज्ञान बहुत छोटे आकार का मालूम पड़ता है, सत्य यह है कि इसे प्राप्त किया जा सकता है गहराई में जाने से। अभ्यास करने पर पता चलता है कि ज्ञान तो अथाह है। और मोदक का निचले भाग का स्वाद  इस बात का प्रतीक है कि गहराई में जाकर पाए ज्ञान का स्वाद बहुत मीठा होता है।

उनके शुभ चिन्ह स्वास्तिक पर ध्यान दीजिए। मनुष्य का कल्याण इस स्वास्तिक चिन्ह को समझने में निहति है। जीवन में आनंद धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के बराबर स्थान से आएगा। अगर किसी एक-दो को ही पकोड़ोगे, तो जीवन का आनंद मिट जाएगा। उनके चार हाथों में अलग-अलग चीजें जो हम देखते हैं, उनका संदेश है कि किसी नये काम को करने पर मंगल तभी होगा जब हमारा प्रबंधन उचित होगा।

 ऊं गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधपति। यह मंत्र हम अपनी पूजा अर्चना के समय करते हैं। इसका मतलब है गणों के पति आप लोगों का जो प्रिय करने वाले स्वामी हो। आप लोगों को धन रूपी भौतिक और प्रेम, सत्कार रूपी अभौतिक संपत्तियां उपलब्ध कराये। शास्त्र कहता है कि जो किसी समूह का स्वामी बनता है, उसमें यह विशेषता होनी चाहिए। गणपति करोड़ों सूरज की तरह दैदिप्यमान हैं।

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।

निर्विघ्नं कुरु में देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

 

गणपति का आना और जाना

गणेश भगवान को अपने घर स्थापित करने और कुछ समय बाद उनके विसर्जन की कहानी ज्यादा पुरानी नहीं है। यूं तो ज्यादातर घरों में गणपति और लक्ष्मी को पूजागृह में स्थायी तौर पर विराजमान करने का रिवाज है। गणपति कहां जाते हैं हमारे घर से। हमारा मन ही तो हमारा घर है। लेकिन उन्हें विराजमान करने की शृंखला में अनेक लोग जुड़े हैं। मूर्तिकार, फूलवाला, पूजन सामग्री वाला... आदि-आदि। फिर गणपति बप्पा मोरया का जयघोश। बप्पा का अर्थ है अपना सा। इस संकट में भी इसी अपनेपन को पोषित करने वाले प्रथम पूज्य गणेश घर-घर विराजे हैं। उनका संदेश है सब परिजन मिलकर उत्सव मनायें। इस महामारी में परिजन दूर-दूर हैं तो क्या हुआ। मन में उत्सव मनाइये। कुछ सीख लीजिए। कुछ दिन पूजन के बाद उनके विसर्जन में भी तो संदेश है। पुरानी बातें जाएंगी तभी तो नयी आएंगी। फिर कुदरत का संदेश है बिना नव्यता के सुख कहां। यानी अगर आपके विचारों में नवीनता नहीं होगी, आपको कार्यों में नवीनता नहीं होगी तो सुख कहां मिलेगा। पुरानी रट को ही लगाये रहेंगे तो सुख तो मिलने से रहा। गणेश जी का विसर्जन यही संदेश देता है। अब नये की तैयारी कीजिए। बप्पा का अपना हमेशा साथ रहेगा। तो क्यों ना परिवारजनों के साथ हंसते-मुस्कुराते हुए इस पर्व पर अपनेपन को सहेजा जाये। पुरानी बातों की अच्छाईयों को याद कर नये विचारों को जगह दी जाये। गणपति की ओर आशाभरी निगाहों से देखने का मतलब उलझनें भूल जाने जैसा है। यही वजह है कि बच्चे हों या बड़े, सबके लिए वे अपने से हैं।

 

गणपति तेरे कितने नाम

आदिदेव भगवान श्रीगणेश बुद्धिसागर भी हैं, विनायक भी हैं और प्रथम पूज्य भी। विघ्ननाशी श्रीगणेश का नाम वेदों में ‘ब्रहमणस्पति,  पुराणों में श्रीगणेश और उपनिषद में साक्षात ब्रहम बताया गया है। इन्हें विघ्नेश्वर, गजानन, एकदंत, लम्बोदर, परशुपाणि, द्धैमातुर और आरवुग आदि अनेक नामों से जाना जाता है। वैसे गणेश का अर्थ है गणों का स्वामी। महाराष्ट्र में है गणपति के आठ शक्तिकेंद्र- श्रीमयूरेश्वर, सिद्धिविनायक, श्रीबल्लालेश्वर, श्रीवरदविनायक, श्रीचिंतामणि, श्रीगिरिजात्मक विनायक, श्रीविघ्नेश्वर और त्रिपुरारिवरदे श्रीमहागणपति। ये अपनी अलग तरह की प्रतिमाओं के इतिहास से जुड़े गणपति के आठ विशेष रूप हैं। इन्हें अष्टविनायक भी कहा जाता है। तो घर में पधारो गजानन जी के संदेश के साथ अपने मन मंदिर में गणेश को विराजमान करें जो विघ्नहर्ता हैं। उनके साथ ही अपनों को याद करते हुए मनायें गणेशोत्सव। जय गणेश। 

Monday, August 10, 2020

तो क्या अब गांवों की प्रतिभाओं को नहीं रोकेगी अंग्रेजी की दीवार

केवल तिवारी

केंद्र सरकार ने नयी शिक्षा नीति की घोषणा कर दी है। अभी पूरा अध्ययन मैंने नहीं किया। तमाम बातों के अलावा जो बात समझने की मुझे सबसे जरूरी लगी वह है भाषा। यानी पढ़ाई का माध्यम क्या होगा? शुरुआत में कहा जा रहा था कि पहली से पांचवीं तक के बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाई ही नहीं जाएगी। फिर कहा गया कि अंग्रेजी एक विषय के तौर पर पढ़ाई जाएगी, न कि माध्यम के रूप में। संभवत: यही बात सत्य है। एक जानकार ने बताया कि अंग्रेजी पढ़ाई तो जाएगी, लेकिन एक सब्जेक्ट यानी विषय के रूप में। बाकी पढ़ाई का माध्यम होगा हिंदी या क्षेत्रीय भाषा। यानी पंजाब में है तो पंजाबी भाषा माध्यम, दक्षिण के किसी राज्य में है तो वहां की भाषा और पूर्वोत्तर या पश्चिम आदि में वहां की भाषा। अब इसका अभी खुलकर तो विरोध हुआ नहीं है, मुझे लगता है कोई बड़ा दल विरोध में उतरेगा भी नहीं, अलबत्ता एआईडीएमके की नेता कनिमोझी ने जरूरी इसे कार्पोरेट कल्चर थोपने वाला बताया है। शिक्षा नीति में ताजा बदलाव पर बहस-मुबाहिशें चल रही हैं। बेशक केंद्रीय कैबिनेट पर इस पर अपनी रजामंदी की मुहर लगा दी है, लेकिन अभी इसके अमल में आने में लंबा वक्त है।

इन सबके बीच, अगर भाषायी मसला ऐसा ही हो जाता है जैसा सरकार के प्रस्तावित मसौदे में है तो मुझे लगता है ग्रामीण इलाकों से प्रतिभाएं आएंगी। लेकिन एक शंका है कि क्या निजी स्कूलों की व्यवस्था भी ऐसी होगी। अंग्रेजी के कारण ही निजी स्कूलों की दुकानें चमकीं। धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों से बच्चे नदारद हो गये। केवल आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे ही सरकारी स्कूल का रुख करते हैं। असल में भारत के गांवों में प्रतिभाओं का भंडार है। पढ़ाई, लिखाई से लेकर गीत-संगीत के क्षेत्र में भी। अनेक बार ऐसा होता है कि अंग्रेजी की गिटिर-पिटिर के कारण वे सकुचाते हैं और चुपचाप दूसरी डगर भर लेते हैं। या तो कुंठा में जीते हैं या फिर नियति मानकर अपने दूसरे कामधंधे में लगते हुए जीवन यापन करते हैं। ऐसा नहीं कि अंग्रेजी के कारण हमेशा उनके आगे दीवार ही खड़ी हो। ऐसे भी उदाहरण है जब मेहनती और कर्मठ युवाओं ने इस भाषा पर भी पूरी कमांड पा लेने के बाद शिखर को छुआ है, लेकिन ऐसे उदाहरण कम ही हैं। इसलिए अंग्रेजी भाषा की दीवार फौलादी नहीं होगी तो आने वाले समय में गांवों की प्रतिभाएं भाषायी कुंठा से पीछे नहीं रहेंगी, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए। मुझे याद है जब 25 साल पहले हिंदी आंदोलनों का मैं भी हिस्सा बना था। सिविल सेवा परीक्षाओं में हिंदी एक विषय के तौर पर ही नहीं, बल्कि माध्यम के तौर पर भी अनिवार्य बनाये जाने की मांग की गयी थी। अब देखना यह होगा कि पांचवीं तक अंग्रेजी एक विषय और छठी से माध्यम वाली यह योजना कैसे सिरे चढ़ती है और निजी स्कूल कैसे इसका पालन करते हैं। इससे पहले तो नीति के सिरे चढ़ने का मामला है। 

Thursday, August 6, 2020

ये सफर बहुत है कठिन मगर... मोनू पांडे की संवेदनाओं का जिक्र

अखबार में मिली कवरेज
अखबार में मिली कवरेज
केवल तिवारी

कहीं नहीं कोई सूरज धुआं धुआं है फ़ज़ा 
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो 

मशहूर शायर निदा फाजली का यह शेर मौजूं है उस शख्स के लिए जिसने कोरोना काल में इंसानियत दिखाई। हो सकता है किसी को यह बड़ी बात न लगे, हो सकता है इसे कोई यूं ही समझे, लेकिन जो दौर चल रहा है और जिस दौर में बेहद 'संवेदनशून्य' लोगों की खबरें भी आ रही हैं, उसी दौर में यह काम मुझे तो बेहद प्रभावित कर गया। बात कर रहा हूं काठगोदाम के ब्यूरा निवासी नवीन पांडे की। उन्हें उनके निक नेम मोनू पांडे के नाम से भी जाना जाता है। पहले इलाके के प्रधान भी रह चुके हैं। अभी उनकी पत्नी पार्षद हैं। मेरी भी उनसे आत्मीयता तब से है जब ब्यूरा में अपने ससुराल आना-जाना हुआ। कई मौकों पर बात करते हैं। मजाक करते हैं। फिलहाल उस बात का जिक्र कर रहा हूं, जिसका पता मुझे कल चला। उनके इलाके में एक व्यक्ति की हार्ट अटैक से मौत हो गयी। उम्र ज्यादा नहीं थी। यही कोई 45-50 के बीच। बाद में पता चला उन्हें कोरोना भी हुआ था। तीन बच्चियां हैं। बताया जाता है कि इस बीच उस व्यक्ति की पत्नी ने पति के चले जाने के गम में अपनी बच्चियों के साथ कुछ जहरीला निगल लिया। हालत बिगड़ गयी। अस्पताल कौन ले जाये। सामान्य समय में लोग आगे नहीं आते, इस वक्त तो पता चल चुका था कि पति को कोरोना हुआ था। मोनू पांडे यानी नवीन पांडेय को इसका पता चला तो तुरंत चल दिये। अपनों ने थोड़ा टोका। जाहिर हिचकिचाहट सभी को होती है, लेकिन अपने मिजाज से मिलनसार और लोगों के साथ खड़े रहने वाले मोनू ने अपनी जिम्मेदारी निभाई और इस पीड़ित परिवार को अस्पताल पहुंचाया। अब खबर है कि जहरीला पदार्थ निगलने वालों की हालत स्थिर है। मोनू ने सुरक्षा की दृष्टि से खुद को क्वारंटीन कर लिया। उनके इस कृत्य पर निदा फाजली साहब का ही एक शेर याद आ रहा है-
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
वाकई ऐसे काम ही तो हैं जिससे व्यक्ति थोड़ा डिफरेंट बनता है। मोनू पांडे जी शिवभक्त हैं। हर साल अमरनाथ यात्रा पर जाते हैं। इस बार कोरोना महामारी के कारण अमरनाथ यात्रा स्थगित हो गयी थी। उनके द्वारा किए जा रहे उक्त नेक काम भी अमरनाथ यात्रा सरीखे हैं। ऐसे शख्स को साधुवाद।