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Saturday, September 15, 2018

इतने हुए करीब कि दूर हो गये


केवल तिवारी
मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।
सीधा-साधा डाकिया जादू करे महान
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान।
मशहूर शायर निदा फाजली साहब की ये चार पंक्तियां बेशक बेहद आसान शब्दों में लिखी हुई गंभीर बातें हैं, लेकिन आज की पीढ़ी को शायद ही इतनी आसानी से समझ में आयें। सवाल उठ सकता है, तार क्या होता है? डाकिये का थैला जादू भरा कैसे हो सकता है। आज समय बदल गया है। तार व्यवस्था बंद हो चुकी है। चिट्ठियां सिमट चुकी हैं। बदलाव तो सृष्टि का नियम है और वह होकर रहेगा, लेकिन बदलाव के साथ भावनाओं का मरना, अपनेपन का खत्म होना, बेहद घातक है। आज व्हाट्सएप पर भावुक संदेशों की भरमार है। एक से बढ़कर एक वीडियो शेयर हो रहे हैं। अपनों से लाइव वीडियो चैटिंग हो रही है। लेकिन जिस स्पीड से चीजें बदली हैं, उसी स्पीड से अपनेपन में भी कमी आ रही है। दो मिनट पहले कूल रहने का मैसेज भेजने वाला ही मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। इसका असली कारण ही यही है कि उपभोक्तावाद और बाजारवाद के हावी होने के कारण ‘इमोशन’ तेजी से खत्म हो रहे हैं। एक से बढ़कर एक महान मैसेज सर्कुलेट होने के बावजूद उसका दस प्रतिशत भी सही दिशा में नहीं जा रहा है।
या उस पर अमल नहीं हो रहा है। असल में जो संदेश इधर से उधर तैर रहे हैं, वे मौलिक नहीं हैं। उनकी सहज रचनात्मकता नहीं है। जो सहज नहीं, वह सरल कैसे हो सकता है। सब ‘कट पेस्ट’ है। इसी ‘कट-पेस्ट’ ने सब गड़बड़ कर दिया है। गौर से देखें तो भावुक मैसेज का अपना बड़ा बाजार है।
मैसेज बनाये जाते हैं, सर्कुलेट किये जाते हैं। क्षणिक तौर पर ‘दिल को छूने वाले संदेशों’ को अन्य लोगों को जारी कर दिया जाता है, लेकिन जल्दी ही भुला भी दिया जाता है।
पहुंचते ही चिट्ठी भेज देना
आप-हम कई लोग उस दौर के गवाह हैं जब घर से बाहर निकलते थे तो माता-पिता या घर के अन्य बड़े-बुजुर्ग कहते थे, ‘पहुंचते ही चिट्ठी भेज देना।’ कहीं पहुंचना, वहां जाकर अंतर्देशीय पत्र, पोस्टकार्ड या लिफाफे के जरिये चिट्ठी भेजना और घरवालों तक एक हफ्ते में पहुंचने की सूचना मिलना। क्या आज के दौर में कोई इसकी कल्पना कर सकता है कि कहीं पहुंचने की सूचना हफ्ते भर बाद मिलेगी। यही नहीं, उस वक्त पत्र की शैली भी खास होती थी। पहले बड़ों को प्रणाम, छोटों को आशीर्वाद फिर कुशल क्षेम, वगैरह-वगैरह। आज के एसएमएस या व्हाट्सएप संदेशों से एकदम अलग। आज समय बदला है। अब घर से निकलते ही बात शुरू हो जाती है। बस, ट्रेन में बैठ गये। सीट ठीक से मिल गयी। खाना खा लिया। कहां पहुंचे। क्या कर रहे हो, वीडियो कॉल करो। आदि…आदि।
तार और घबराहट
एक समय तार आने का मतलब होता था कोई बुरी खबर। कई बार तो ऐसे भी किस्से सुनने को मिलते थे कि अंग्रेजी में लिखे तार का मजमून डाकिया भी नहीं समझ पाया और गांव के तमाम लोगों से पूछने के बाद ही संबंधित व्यक्ति तक तार पहुंचाने की हिम्मत जुटा पाया। बेशक आज तार या टेलीग्राम बंद हो चुका है, लेकिन तार आने के पुराने किस्से लोग अब भी सुनाते हैं।
फिल्मों में खूब छाया डाकिया
संचार का सशक्त माध्यम चिट्ठी होने से एक जमाने में डाकिया बेहद अहम भूमिका में होते थे। उनके साथ एक अलग रिश्ता होता था। कभी चिट्ठी लिखवाने और कभी पढ़वाने में उसकी मदद ली जाती। मनी ऑर्डर आने पर तो मिठाई भी खिलाई जाती। डाकिये के अहम रोल को देखते हुए ही शायद उस दौर में कई फिल्में बनीं जिनमें डाकिये की भूमिका को दर्शाया गया। कई गीत तो हिट हुए, मसलन-खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू, डाकिया डाक लाया, लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में, चिट्ठी आयी है, आयी है चिट्ठी आयी है। लाया डाक बाबू लाया रे संदेशवा मोरे पिया जी को भाये ना विदेशवा वगैरह-वगैरह।
चिट्ठी के इंतजार से वीडियो कॉल तक
एक दौर था जब चिट्ठी का इंतजार होता था। रोज डाकिये से पूछा जाता था। अब समय बदल गया और लाइव बात होती है, वीडियो कॉल के जरिये। अलग-अलग एप में अलग-अलग फीचर। आप कहीं भी हैं अपने करीबी के साथ लाइव वीडियो कॉलिंग या चैटिंग से बात कर सकते हैं।
तकनीकी तरक्की जबरदस्त है, लेकिन कभी इंटरनेट कनेक्शन हट जाने और कभी बीच-बीच में बातचीत के ब्रेक हो जाने से तनाव ही बढ़ता है। फिर इस चैटिंग को आप चिट्ठी की तरह लंबे समय तक संभालकर भी नहीं रख सकते।
क्या है संचार माध्यम और सूचना क्रांति
एक-दूसरे तक जानकारी पहुंचाना ही संचार माध्यम है। संचार माध्यम अंग्रेजी के ‘मीडिया’ (मीडियम का बहुवचन) है। इसका तात्पर्य होता है दो बिंदुओं को जोड़ने वाला। यानी संचार माध्यम के जरिये ही सूचना देने वाला और लेने वाला आपस में जुड़ता है। संचार को अंग्रेजी में कम्युनिकेशन कहा जाता है। कम्युनिकेशन लैटिन शब्द कम्युनिस से बना है। इसका अर्थ है सामान्य भागीदारी युक्त सूचना। जानकारों के मुताबिक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया ही संचार है। इसका रूप अलग-अलग रहा है। भारत में संचार सिद्धान्त काव्य परपंरा से जुड़ा है। अलग-अलग दौर में इसका रूप बदलता चला गया।
आधुनिक तकनीक में नहीं बनता कोई रिश्ता
एक समय था जब आप कहीं जाते थे, पता पूछते थे। धीरे-धीरे पता पूछने वाली यह स्थिति भी अब बदल रही है। अब या तो जीपीएस है या फिर गूगल मैप। आप पैदल जा रहे हों या फिर अपने वाहन से। जीपीएस आपको ले जा रहा है, सबसे छोटे रास्ते से। कभी-कभार आप लैंड मार्क पूछने के बजाय संबंधित व्यक्ति से ही लोकेशन का लिंक मंगा लेते हैं।
असल में आज अगर आप किसी से पता पूछते हैं तो पहली बात तो किसी को यह बताने की फुर्सत ही नहीं, रही-सही कसर नयी तकनीक ने पूरी कर दी। पूछना-बताना और दो अनजानों के बीच विश्वास कायम होना अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात होने लगी है।
बदलते गये गीत-संगीत और फिल्मी साधन
समय के साथ-साथ तकनीक बदली और बदले साधन। याद कीजिए ग्रामोफोन का वह दौर। उसके बाद रेडियो फिर टैप रिकॉर्डर। आज आप तमाम दुकानों में बैठे युवाओं से कैसेट के बारे में पूछकर देखिये, शायद ही कोई जानता होगा इनके बारे में, जबकि हकीकत है कि कैसेट का प्रचलन हाल ही में खत्म हुआ है। अनेक लोग होंगे जिनके पास तो अब भी कैसेट का भंडार होगा।
कैसेट की जगह पेन ड्राइव ने ले ली। अब तो व्हाट्सएप पर छोटे से क्लिप में हजारों गाने आपके पास मौजूद रहते हैं। रिकॉर्ड करने के लिए मोबाइल से लेकर विशेष रिकॉर्डर तक उपलब्ध हैं। जहां तक रेडियो की बात है वह फ्रीक्वेंसी मीटर्स (एफएम) के जरिये सजीव है। गीत-संगीत के अलावा आज भी रेडियो के कई कार्यक्रम हिट हो रहे हैं, हालांकि स्थिति तब जैसी नहीं है जब हम हवा महल का इंतजार करते थे, नाटकों को सुनते थे और संगीत माला के उस दौर को आज भी याद करते हैं। मनोरंजन के साधनों में एक दौर तब भी आया जब फिल्में देखने के लिए वीसीआर और कलर टेलीविजन किराये पर लिये जाते थे। आज हर घर में कलर टीवी है और सारा जहां आपके पास है। रिमोट लीजिये और अपनी पसंद के हिसाब से चैनल लगाइये। यही नहीं आपके मोबाइल में ही अब पूरी दुनिया है। बदलती तकनीक और बदलते समय में अभी संचार के माध्यम और कितने सशक्त बनेंगे यह देखने वाली बात है।
यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के लहरें सप्लीमेंट की कवर स्टोरी के तौर पर छप चुका है।

फोटो खींचने से धुंधला जाती हैं यादें

हम आप कहीं घूमने जाते हैं या कभी हमें कोई खास लोकेशन दिखती है तो वहां या तो सेल्फी लेने लगते हैं या फोटो खिंचवाने लगते हैं। फोटो खिंचवाने का यह कार्यक्रम किया तो इसलिए जाता है कि यादों को सहेज कर रखा जा सके, लेकिन इस संबंध में एक नयी रिपोर्ट चौंकाने वाली आयी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी पल को यादगार बनाने की खातिर तस्वीरें लेना नुकसानदेह हो सकता है। उनका कहना है कि तस्वीरें लेने से उस पल से जुड़ी लोगों की यादें क्षीण हो जाती हैं। अध्ययनकर्ताओं का कहना है, ‘लोगों का मानना है कि तस्वीरें लेने से उन्हें किसी चीज को बेहतर तरीके से याद रखने में मदद मिलती है, लेकिन होता ठीक इसके उलट है।’ कई प्रयोगों के तहत शोधकर्ताओं ने लोगों को एक आभासी संग्रहालय की सैर कराई जहां उन्होंने कंप्यूटर स्क्रीनों पर पेंटिंगें देखी। उस वक्त उन्हें पता था कि उन्होंने जो चीजें देखी हैं उस बारे में उनकी परीक्षा ली जाएगी। शोधकर्ताओं ने तीन स्थितियों के बाद तुलना की कि किन प्रतिभागियों को पेंटिंग से जुड़ी चीजें कितना याद है। तीन स्थितियों में एक तो यह थी जब उन्होंने सिर्फ तस्वीरें देखीं, दूसरी स्थिति थी कि जब उन्होंने पेंटिंग देखी और कैमरा फोन से उनकी तस्वीरें ली। तीसरी स्थिति यह थी कि जब उन्होंने स्नैपचैट का इस्तेमाल कर तस्वीरें ली। तस्वीरें लेने वालों का प्रदर्शन लगातार खराब होता गया। लेकिन जिन्होंने तस्वीरें नहीं ली थी उन्हें चीजें बेहतर याद रहीं। वैसे भी सेल्फी लेने के मामले में कई बार हम लोग हादसों की खबरें सुनते हैं। कई जगह तो ऐसे भी हैं जहां सेल्फी लेने पर रोक लगा दी है। इसलिए अगर कोई खास लोकेशन पर जा रहे हों तो भले फोटो खिंचवाइये, सेल्फी लीजिये, लेकिन उन नजारों को जी भरकर निहारिये भी क्योंकि निहारने से उनकी यादें आपके दिल में जितना रहेंगी, उतना फोटो खींचने से नहीं।
साभार : दैनिक ट्रिब्यून

‘कामयाब’ बेटे की बेबस मां


क्लासिक किरदार/चीफ की दावत/भीष्म साहनी
भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' में प्रत्यक्ष तौर पर गिने-चुने किरदार हैं। चीफ साहब हैं, जिनके लिए दावत की तैयारी हो रही है। वह हिंदी नहीं बोल पाते। मिस्टर शामनाथ हैं, उनकी पत्नी हैं। इन सबसे अलग शामनाथ साहब की मां हैं। ये मांजी का जो किरदार है, वह मुझे 'नापसंदगी के साथ' पसंद है। वह वैसी ही हैं जैसी एक मां होती हैं। बच्चे के लिए सबकुछ कुर्बान। लेकिन उनकी बेचारगी, उनकी दयनीय स्थिति मुझे नहीं भाती। मां कभी-कभी बच्चों को डांटती भी तो है। बच्चों में ऐसा खौफ भी तो बनाकर रखती है कि वह अपनी जिद थोपने से पहले कुछ देर सोचें। लेकिन भीष्म साहब की इस कहानी में अगर मां 'बच्चों को कंट्रोल' करने वाली होती तो कहानी कैसे बनती। फिर 'सख्त मां' बनने के लिए आर्थिक रूप से भी तो समृद्ध होना पड़ता है। 'चीफ की दावत' कहानी की मां के पास न जेवर हैं न कुछ और। शक्ल-सूरत भी नहीं। सिर के बाल तक उड़ गये। गंजेपन को छिपाकर रखती हैं। बेटा 'तरक्की' कर गया है। वह 'बड़ा आदमी' बन गया है। मां उससे डरी-डरी रहती है। जब बेटे ने दावत के वक्त जेवर पहनने के लिए कहा तो मां ने इतनी सी बात कही, 'जेवर तो तेरी पढ़ाई-लिखाई में बिक गये', तो बेटा खफा हो गया। मां का अपने बेटे से बार-बार डांट खाना, उसकी हर बात मान लेना, उनकी यही आदतें तो नापसंदगी के साथ उन्हें पसंदीदा किरदार बनाती हैं। क्या करे वह। पीछे रहने वाली अपनी सहेली के यहां भी नहीं जा सकती। पहले जाती थीं तो वह भी आ जातीं। बेटे-बहू को यह पसंद नहीं। दावत वाले दिन पहले सोचा गया कि मां को वहीं भेज दें, लेकिन फिर आशंका थी कि वह 'बुढ़िया' फिर आना-जाना न शुरू कर दे। साहनी साहब की इस कहानी की यह मां आज भी कई घरों पाई जाती है। घरों में नहीं तो शायद वृद्धाश्रमों में। कई घर ऐसे हैं जहां किसी खास मौके के लिए इसी कहानी की तरह सवाल खड़ा हो जाता है, 'मां का क्या करें।' ‘कहां छिपाएं।’ कहानी 'चीफ की दावत' में मिस्टर शामनाथ पहला हल अपनी पत्नी को सुझाते हैं, 'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रातभर बेशक वहीं रहें। कल आ जाए।' फिर खुद ही अपने आइडिया को खारिज करते हैं, 'नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहां फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था।' अपनी पत्नी से शामनाथ कहते हैं, 'मा से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाए। मेहमान आठ बजे आएगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।' यह सुझाव लग तो ठीक रहा था, लेकिन मिसेज शामनाथ भी कम 'समझदार' नहीं थी। उन्होंने तुरंत जवाब दिया, 'जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहा लोग खाना खाएंगे। नहीं उन्हें कोठरी में सोने के लिए नहीं कह सकते।'
मिस्टर शामनाथ और उनकी पत्नी को कई तरह की चिंताएं हैं। चीफ साहब जो आ रहे हैं। देर तक ड्रिंक चलेगा। मां किसी तरह से भी खलल डालेगी तो सब बेकार हो जाएगा। सबकुछ तो ठीक हो गया। घर सजा दिया। पर्दे बदल दिये, बस चिंता है तो मां को 'एडजस्ट' करने की। मां को लेकर ही कुछ देर के लिए मियां-बीवी में झगड़ा भी होता है। इसलिए नहीं कि मां के लिए कुछ 'अच्छा' सोचा जा रहा हो, इसलिए कि एक बार मां भाई के पास जा रही थी, तभी उसे रोक दिया गया। खैर आज तमाम कवायदों के बाद हल निकल ही जाता है। मां से कहा जाता है कि जल्दी खाना खा लेना। लेकिन मां कहती है कि जब घर में मांस-मछली बने तो वह खाना नहीं खाती। गनीमत है कि बेटा-बहू मां के भूखे रहने पर राजी हो जाते हैं। कहीं अगर बेटा 'हुक्म' सुनाता कि नहीं खाना ही है तो बेचारी पता नहीं क्या करती। लेकिन कहानी को इस मोड़ पर ले ही नहीं जाना था। मां के लिए हुक्म तो यह होता है, 'मा, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहा बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहा आ जाए, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।' मां के चेहरे पर तो कई प्रश्न तैरते हैं, लेकिन उनका जवाब होता है, 'अच्छा बेटा।' अगला आदेश, 'आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।' फिर एक कुर्सी उनके लिए तय की गयी, जिसमें वह बैठेंगी। फिर कपड़े भी तय हुए। मां ने तुरंत पहनकर भी दिखाये। दुपट्टे से सिर को ढके रहने का हुक्म जारी हुआ। बात-बात पर कमियां निकाली जाती हैं। फरमान जारी होता है। मां सकुचाते, डरते-डरते कुछ कहती हैं, बाकी कुछ सह जाती हैं। कपड़े पहनकर दिखाती है तो बेटा कहता है, 'कुछ जेवर हों तो पहन लो।' मां का सीधा सा जवाब, 'तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।' शामनाथ को यह बात नागवार गुजरती है। गुस्से में बोलते हैं, ‘यह कौन-सा राग छेड़ दिया, मा! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या ताल्लुक! जो जेवर बिका, तो कुछ बन कर ही आया हू, जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना।' मां परेशान। बेटा नाराज हो गया। बोलीं, 'मेरी जीभ जल जाय, बेटा, तुमसे जेवर लूंगी? मेरे मुंह से यूं ही निकल गया।' मां को सख्त हिदायत दी गयी कि जब 'चीफ साहब आयें तो चुप रहें। अगर सामना हो ही जाये तो सवालों का ठीक से जवाब देना।'
आखिरकार मिस्टर शामनाथ के घर पर ‘बेहतरीन’ पार्टी होती है। हर तरफ खुशी का माहौल। लेकिन अंतत: वही हो जाता है, जिसका डर था। 'बॉस' का 'बुढ़िया' से सामना हो ही जाता है। मां को देखकर खुसर-पुसर होने लगती है। बेचारी बुजुर्ग को कुर्सी में ही आंख लग जाती है और दुपट्टा सिर से गिर जाता है। अचानक सामने लोगों को देखकर हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं। उनके पांव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उंगलियां थर-थर कापने लगीं। खैर इधर शामनाथ साहब हैं, उन्होंने दुनिया को दिखाना भी तो है। इसी दिखावटीपन के वशीभूत शामनाथ कहते हैं, मा, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं?' लेकिन बॉस को मां से मिलना ठीक लगा। शामनाथ ने पैंतरा बदला और जैसे-जैसे बॉस डिमांड करते, मां से वैसा ही करने के लिए कहा जाता। मां ने हाथ मिलाया। मां ने एक गीत की लाइन सुनाई। मां हाथ से काढ़ी हुई एक पुरानी फटी सी फुलकारी लायी। साहब को खुश देखकर शामनाथ ने कह दिया कि मां उनके लिए फुलकारी बनाएंगी। रात में पहले शामनाथ ने मां को बहुत पुचकारा। गले से लगाया। मां को लगा कि शायद उनकी वजह से कुछ खलल पड़ा पार्टी में, रोते हुए बोलीं, ‘बेटा तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूं।’ फिर शामनाथ का गुस्सा भड़का। उसी अंदाज में, ‘यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया? तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा अपनी मां को साथ नहीं रख सकता।’ मां समझाती है, जितना खाना-पहनना था, सब कर लिया। बेटा आदेशात्मक लहजे में मां से कहता है, ‘तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।’ मां की विवशता देखिये, कहती हैं, ‘मेरी आंखें अब नहीं हैं, बेटा, कहीं से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।’ बेटे ने तमाम दलीलें दीं। धमकाया और बताया, ‘जानती नही, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!’ मां चुप। फिर बोलीं, ‘क्या तेरी तरक्की होगी?’ मिस्टर शामनाथ अपने हिसाब से मां को समझा लेते हैं। यहीं पर इस मां का किरदार फिर एक बार मां जैसा ही हो जाता है। भारतीय मां जैसा। खुश हो जाती है बेटे की तरक्की की बात सुनकर। यह भीष्म साहनी के समय की कहानी है। मां भी उसी समय की है। इसीलिए तो तुरंत कहती हैं, ‘तो मैं बना दूंगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूंगी।’ उसके बाद बेटे की तरक्की की दुआएं करने लगती है यह मां। 
यह मैटर दैनिक ट्रिब्यून के किरदार कॉलम में छप चुका है।