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Saturday, September 15, 2018

‘कामयाब’ बेटे की बेबस मां


क्लासिक किरदार/चीफ की दावत/भीष्म साहनी
भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' में प्रत्यक्ष तौर पर गिने-चुने किरदार हैं। चीफ साहब हैं, जिनके लिए दावत की तैयारी हो रही है। वह हिंदी नहीं बोल पाते। मिस्टर शामनाथ हैं, उनकी पत्नी हैं। इन सबसे अलग शामनाथ साहब की मां हैं। ये मांजी का जो किरदार है, वह मुझे 'नापसंदगी के साथ' पसंद है। वह वैसी ही हैं जैसी एक मां होती हैं। बच्चे के लिए सबकुछ कुर्बान। लेकिन उनकी बेचारगी, उनकी दयनीय स्थिति मुझे नहीं भाती। मां कभी-कभी बच्चों को डांटती भी तो है। बच्चों में ऐसा खौफ भी तो बनाकर रखती है कि वह अपनी जिद थोपने से पहले कुछ देर सोचें। लेकिन भीष्म साहब की इस कहानी में अगर मां 'बच्चों को कंट्रोल' करने वाली होती तो कहानी कैसे बनती। फिर 'सख्त मां' बनने के लिए आर्थिक रूप से भी तो समृद्ध होना पड़ता है। 'चीफ की दावत' कहानी की मां के पास न जेवर हैं न कुछ और। शक्ल-सूरत भी नहीं। सिर के बाल तक उड़ गये। गंजेपन को छिपाकर रखती हैं। बेटा 'तरक्की' कर गया है। वह 'बड़ा आदमी' बन गया है। मां उससे डरी-डरी रहती है। जब बेटे ने दावत के वक्त जेवर पहनने के लिए कहा तो मां ने इतनी सी बात कही, 'जेवर तो तेरी पढ़ाई-लिखाई में बिक गये', तो बेटा खफा हो गया। मां का अपने बेटे से बार-बार डांट खाना, उसकी हर बात मान लेना, उनकी यही आदतें तो नापसंदगी के साथ उन्हें पसंदीदा किरदार बनाती हैं। क्या करे वह। पीछे रहने वाली अपनी सहेली के यहां भी नहीं जा सकती। पहले जाती थीं तो वह भी आ जातीं। बेटे-बहू को यह पसंद नहीं। दावत वाले दिन पहले सोचा गया कि मां को वहीं भेज दें, लेकिन फिर आशंका थी कि वह 'बुढ़िया' फिर आना-जाना न शुरू कर दे। साहनी साहब की इस कहानी की यह मां आज भी कई घरों पाई जाती है। घरों में नहीं तो शायद वृद्धाश्रमों में। कई घर ऐसे हैं जहां किसी खास मौके के लिए इसी कहानी की तरह सवाल खड़ा हो जाता है, 'मां का क्या करें।' ‘कहां छिपाएं।’ कहानी 'चीफ की दावत' में मिस्टर शामनाथ पहला हल अपनी पत्नी को सुझाते हैं, 'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो, रातभर बेशक वहीं रहें। कल आ जाए।' फिर खुद ही अपने आइडिया को खारिज करते हैं, 'नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढ़िया का आना-जाना यहां फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया था।' अपनी पत्नी से शामनाथ कहते हैं, 'मा से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाए। मेहमान आठ बजे आएगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।' यह सुझाव लग तो ठीक रहा था, लेकिन मिसेज शामनाथ भी कम 'समझदार' नहीं थी। उन्होंने तुरंत जवाब दिया, 'जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहा लोग खाना खाएंगे। नहीं उन्हें कोठरी में सोने के लिए नहीं कह सकते।'
मिस्टर शामनाथ और उनकी पत्नी को कई तरह की चिंताएं हैं। चीफ साहब जो आ रहे हैं। देर तक ड्रिंक चलेगा। मां किसी तरह से भी खलल डालेगी तो सब बेकार हो जाएगा। सबकुछ तो ठीक हो गया। घर सजा दिया। पर्दे बदल दिये, बस चिंता है तो मां को 'एडजस्ट' करने की। मां को लेकर ही कुछ देर के लिए मियां-बीवी में झगड़ा भी होता है। इसलिए नहीं कि मां के लिए कुछ 'अच्छा' सोचा जा रहा हो, इसलिए कि एक बार मां भाई के पास जा रही थी, तभी उसे रोक दिया गया। खैर आज तमाम कवायदों के बाद हल निकल ही जाता है। मां से कहा जाता है कि जल्दी खाना खा लेना। लेकिन मां कहती है कि जब घर में मांस-मछली बने तो वह खाना नहीं खाती। गनीमत है कि बेटा-बहू मां के भूखे रहने पर राजी हो जाते हैं। कहीं अगर बेटा 'हुक्म' सुनाता कि नहीं खाना ही है तो बेचारी पता नहीं क्या करती। लेकिन कहानी को इस मोड़ पर ले ही नहीं जाना था। मां के लिए हुक्म तो यह होता है, 'मा, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहा बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहा आ जाए, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना।' मां के चेहरे पर तो कई प्रश्न तैरते हैं, लेकिन उनका जवाब होता है, 'अच्छा बेटा।' अगला आदेश, 'आज जल्दी सो नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।' फिर एक कुर्सी उनके लिए तय की गयी, जिसमें वह बैठेंगी। फिर कपड़े भी तय हुए। मां ने तुरंत पहनकर भी दिखाये। दुपट्टे से सिर को ढके रहने का हुक्म जारी हुआ। बात-बात पर कमियां निकाली जाती हैं। फरमान जारी होता है। मां सकुचाते, डरते-डरते कुछ कहती हैं, बाकी कुछ सह जाती हैं। कपड़े पहनकर दिखाती है तो बेटा कहता है, 'कुछ जेवर हों तो पहन लो।' मां का सीधा सा जवाब, 'तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए।' शामनाथ को यह बात नागवार गुजरती है। गुस्से में बोलते हैं, ‘यह कौन-सा राग छेड़ दिया, मा! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या ताल्लुक! जो जेवर बिका, तो कुछ बन कर ही आया हू, जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना।' मां परेशान। बेटा नाराज हो गया। बोलीं, 'मेरी जीभ जल जाय, बेटा, तुमसे जेवर लूंगी? मेरे मुंह से यूं ही निकल गया।' मां को सख्त हिदायत दी गयी कि जब 'चीफ साहब आयें तो चुप रहें। अगर सामना हो ही जाये तो सवालों का ठीक से जवाब देना।'
आखिरकार मिस्टर शामनाथ के घर पर ‘बेहतरीन’ पार्टी होती है। हर तरफ खुशी का माहौल। लेकिन अंतत: वही हो जाता है, जिसका डर था। 'बॉस' का 'बुढ़िया' से सामना हो ही जाता है। मां को देखकर खुसर-पुसर होने लगती है। बेचारी बुजुर्ग को कुर्सी में ही आंख लग जाती है और दुपट्टा सिर से गिर जाता है। अचानक सामने लोगों को देखकर हड़बड़ा के उठ बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं। उनके पांव लड़खड़ाने लगे और हाथों की उंगलियां थर-थर कापने लगीं। खैर इधर शामनाथ साहब हैं, उन्होंने दुनिया को दिखाना भी तो है। इसी दिखावटीपन के वशीभूत शामनाथ कहते हैं, मा, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं?' लेकिन बॉस को मां से मिलना ठीक लगा। शामनाथ ने पैंतरा बदला और जैसे-जैसे बॉस डिमांड करते, मां से वैसा ही करने के लिए कहा जाता। मां ने हाथ मिलाया। मां ने एक गीत की लाइन सुनाई। मां हाथ से काढ़ी हुई एक पुरानी फटी सी फुलकारी लायी। साहब को खुश देखकर शामनाथ ने कह दिया कि मां उनके लिए फुलकारी बनाएंगी। रात में पहले शामनाथ ने मां को बहुत पुचकारा। गले से लगाया। मां को लगा कि शायद उनकी वजह से कुछ खलल पड़ा पार्टी में, रोते हुए बोलीं, ‘बेटा तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूं।’ फिर शामनाथ का गुस्सा भड़का। उसी अंदाज में, ‘यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया? तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा अपनी मां को साथ नहीं रख सकता।’ मां समझाती है, जितना खाना-पहनना था, सब कर लिया। बेटा आदेशात्मक लहजे में मां से कहता है, ‘तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।’ मां की विवशता देखिये, कहती हैं, ‘मेरी आंखें अब नहीं हैं, बेटा, कहीं से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।’ बेटे ने तमाम दलीलें दीं। धमकाया और बताया, ‘जानती नही, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!’ मां चुप। फिर बोलीं, ‘क्या तेरी तरक्की होगी?’ मिस्टर शामनाथ अपने हिसाब से मां को समझा लेते हैं। यहीं पर इस मां का किरदार फिर एक बार मां जैसा ही हो जाता है। भारतीय मां जैसा। खुश हो जाती है बेटे की तरक्की की बात सुनकर। यह भीष्म साहनी के समय की कहानी है। मां भी उसी समय की है। इसीलिए तो तुरंत कहती हैं, ‘तो मैं बना दूंगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूंगी।’ उसके बाद बेटे की तरक्की की दुआएं करने लगती है यह मां। 
यह मैटर दैनिक ट्रिब्यून के किरदार कॉलम में छप चुका है।

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