कुछ दिन पहले रानीखेत गया था। लिखने का ‘रोग’ है मुझे। इसलिए इस यात्रा
के संबंध में भी कुछ लिखा है। उससे पहले आप चंद शायरियां पढ़ लीजिये। ये शायरियां मेरे
लिखे हुए मैटर के बीच-बीच में फिट हो सकती थीं, लेकिन चूंकि शायरियों में से एक भी
मेरी नहीं है। इधर-उधर से टीपी हैं। इसलिए इनको अपने हिसाब से मैटर में फिट समझ सकते
हैं। तो पहले पढ़िये शायरियां फिर यात्रा और घर का मसला।
वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।
घर में क्या आया कि मुझ को दीवारों ने घेर लिया है
कोई भी घर
में समझता न था मिरे दुख-सुख, एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है, अपने ही घर में
किसी दूसरे घर के हम हैं
उन दिनों घर
से अजब रिश्ता था, सारे दरवाज़े गले लगते थे
वर्षों बाद लौटा मैं अपने घर की गलियों में,
अजनबी से पता पूछना पड़ा
हाल ही में अपने ‘घर’ रानीखेत गया। सीधे रानीखेत शब्द लिखने का मतलब
उस इलाके को ‘क्लीयर’ करना है। अव्वल तो हमारा ‘घर’ रानीखेत से अच्छी-खासी दूरी पर
है। पैदल भी और मोटर मार्ग से भी। रानीखेत के आगे ताड़ीखेत। उसके बाद कई गांव फिर हमारा
गांव खत्याड़ी (डढूली)। यहां घर शब्द को मैंने इनवर्टेड कोमा (‘’) में लिखा है। घर
को अगर अंग्रेजी के शब्द Home और House के जरिये समझें तो अब वहां स्थित हमारा घर
House ही रह गया है। असल में पलायन कर चुके हम लोगों का कहीं एक जगह घर यानी Home बन
भी कहां पाता है। मैं पैदा उत्तराखंड में हुआ। वह मेरी जन्मभूमि। मैंने शिक्षा लखनऊ
(दो साल शाहजहांपुर में भी) ली तो उसे मैं शिक्षण स्थली कह सकता हूं। फिर दिल्ली आ
गया यानी कर्मभूमि। इन दिनों चंडीगढ़ में हूं। नयी कर्मभूमि। बात फिर वहीं से शुरू
करते हैं कि हाल ही में रानीखेत गया। भतीजे विपिन का एक दिन फोन आया कि भागवत कथा है।
पूजा-पाठ में शामिल होने चलिये। मैंने कहा, ‘छुट्टी मिल गयी तो जरूर चलूंगा।’ शाम को
ऑफिस में अपने समाचार संपादक जी से तीन दिन की छुट्टी की गुजारिश की। इत्तेफाक से उस
दौरान कम लोग छुट्टी पर थे, लिहाजा मिल गयी। सात तारीख को सुबह आनंद विहार बस अड्डे
पर मिलना तय हुआ। आठ जून को गांव में रहने और 9 को वापसी का कार्यक्रम बना। सफर के
बारे में ज्यादा लिखने का कोई मतलब नहीं। सिर्फ इतनी सी बात कि मेरी दीदी भी चलना चाहती
थी, लेकिन मेरे मन में दुविधा थी कि ‘रहेंगे कहां?’ खैर...।
पहली बार भावनाओं (इमोशंस) को जैसे खींचकर अपने मन में भरना पड़ा।
यानी स्वत: नहीं आये। ‘घर’ को फील नहीं कर पाया। हालांकि जाते ही भतीजे विपिन से कहा
कि मेरी एक फोटो खींचो। अपने घर की उस देहली पर बैठकर फोटो खिंचवाई जहां कभी गर्मियों
की छुट्टियों में जाने पर परिवार के संग देर शाम तक बातें करते थे। कोई दिल्ली से आया
होता था और कोई कहीं और से। यह बात हालांकि बहुत पुरानी है। उसके बाद तो अनगिनत बार
यूं भी गये। पर इस बार भावनाओं का उमड़ना-घुमड़ना वैसा नहीं हो पाया, जैसा होता रहा
है। मैंने देहली को प्रणाम किया फिर विपिन के साथ ही सामने आंगन में लोगों से मिलने
चला गया। सबसे पहले पनदा मिले। प्रणाम कर कुछ सेकेंड मुलाकात फिर वसंत दाज्यू मिल गये।
पास में ही भाभी खड़ी थीं। अचानक पता नहीं कहां से भावनाओं का ज्वारभाटा फूट पड़ा।
भाभी गले लगकर रोने लगीं। हाल ही में उनका जवान बेटा असमय ही काल का ग्रास बन गया था।
विजू कहते थे हम लोग उसे। शैतान था। उतना ही हेल्पफुल। एक जीप चलाकर अच्छे से घर का
खर्च चला रहा था, औरों की मदद भी खूब करता था। अचानक चल बसा था। करीब 8 माह पहले। भाभी
को सांत्वना दी। वसंत दाज्यू भी इमोशनल हो गये, लेकिन किसी तरह उन्होंने खुद को संयत
रखा। तभी उनकी बेटी बबली मिल गयी। इन दिनों मायके आयी हुई थी। उसके बच्चे मिले। वसंत
दाज्यू का बड़ा बेटा सनू भी मिला। कुछ पल वहां रुककर आगे बढ़ा तो कैलाश की पत्नी ने
पैर छुए। कैलाश घर पर नहीं था। उसके बाद हम प्रयाग दा के यहां चले गये। प्रयाग दा
(70 साल पार के व्यक्ति। रिश्ते में भतीजे लगते हैं। उम्र ऐसी कि उनके लिए भतीजे जैसी
फीलिंग कैसे आये।) कुछ देर इधर-उधर की बात के बाद मैं चुपचाप फिर अपने आंगन में आ गया।
मन में यही टीस कि फीलिंग में वह जोर क्यों नहीं है। क्या हम इतने भौतिकवादी हो गये
हैं या वाकई गांव ही वैसा हो गया है। अचानक नजर कैलाश और प्रयागदा के घर के बीच एक
खाली प्लॉट पर नजर पड़ी। यहां तो कोई खाली जगह थी ही नहीं। ओह...रेबदा का घर था। पहले
घर खंडहर हुआ फिर खंडहर भी जमींदोज हो गया। उनकी एक बेटी थी, अपने घर चली गयी। दोनों
मियां-बीवी की मौत कुछ साल पहले हो गयी। इसके बाद ध्यान आया चनुली दीदी का। वह भी तो
नहीं रही। फिर तो उस तरफ गीता की ईजा और रेबुलदी। धीरे-धीरे सब याद आने लगे। भावनाओं
का समंदर मन में उमड़ने लगा। बिछोह की यह क्या विडंबना है। सब बिछड़ते चले जा रहे हैं।
कोई ठीकठाक उम्र जीकर, कोई उम्र से पहले। खैर...। कुछ देर बाद विपिन भी आ गया। हम लोग
पनदा के आंगन में बैठ गये। तभी भाभी चाय बनाकर ले आयी। लोग लाख कहें कि अब पहाड़ में
सब बदल गये हैं, लेकिन इतना अपनापन तो है। तभी वसंत दाज्यू आये, बोले-एक-एक गिलास दूध
बना लाऊं। मैंने और विपिन ने एक साथ कहा-‘नहीं।’ गांव जाकर इससे पहले एक दो जगह दूध
पीया था अगले ही दिन से जो पतनाला बहा, वह मंजर याद था। कुछ ही देर में प्रयागदा के
यहां से भोजन का बुलावा आ गया। जाते वक्त कैलाश मिला। उससे बात हुई। सुबह का नाश्ता
उसके यहां तय हो गया। सुबह जल्दी उठकर स्नान किया। विपिन के नये घर में पूजा-अर्चना
की। उसके बाद में धूप-बत्ती लेकर अपने घर आ गया। अंदर धूप-बत्ती जलायी। थोड़ी सी चालीसाएं
पढ़ीं और फिर बैठ गया डायरी लिखने। बस यहां भावनाओं का इंतजार नहीं करना पड़ा। वहां
इलमारी खोली तो धुंधली सी याद आयी कि दाज्यू यहां अपनी किताबें रखते थे, उसके बाद शीला
दीदी रखने लगीं। फिर एक जाब (दीवार को खोदकर सामान रखने के लिए बनाया गया खास क्षेत्र)
इसे मैं अपना कहता था। एक जाब प्रेमा दीदी का होता था। पुरानी बातें याद नहीं हैं क्योंकि
मेरा जन्म होना ही अजीबोगरीब है। पिता जी 60 पार के थे जब मैं हुआ। कुछ साल बाद ही
चल बसे। उनकी कोई याद अवचेतन मन में भी नहीं है। बचपन में कभी-कभी याद आता था कि किसी
बुजुर्ग को सब्जी काटते हुए मन में एक तसवीर उभरती थी। अब वह भी नहीं आती। हां सपने
में पिता जैसा कुछ दिखता है। जहां तक मांता जी का सवाल है, उनकी तो हर बात। हर संघर्ष
याद है। सबसे अहम याद तो वह है जो हर साल मैं अपने बच्चों के लिए नयी किताब लाते वक्त
दोहराता हूं। और भी कई बातें। खैर अब भावनाओं का उमड़ना शुरू हो चुका था। घर की पूजा
संपन्न कर हम लोग पहले गोलूथान फिर धूनी गये। रास्ते में बारिश हो गयी। हिमतपूर चाची
के यहां कुछ देर रुक गये। हेम भाई घर पर नहीं थे। भाभी ने चाय पिलायी। फिर चाची से
कुछ पुरानी बातें साझा कीं। चाची संभवत: मेरी मांताजी की उम्र की होंगी या बड़ी भी
हो सकती हैं। दिखना कम हो गया। कान बहुत कम सुनती हैं। मेरे साथ 10 मिनट वार्तालाप
ठीकठाक हुई। बता दूं कि इस दौरान हमारे साथ कैलाश भी था। पहले उसने गोलूथान में धूनी
जलायी फिर धूनी में भी। रास्ते पर भी बहुत सहयोग किया। विपिन की पत्नी विमला (उम्र
में मेरे से सब बड़े हैं, रिश्ते में भतीजा-बहू। सामने आप कर बोलता हूं, लेकिन यहां
नाम यहां लिख ले रहा हूं।) को थोड़ी सी दिक्कत हो रही थी चलने में। एक तो ऊबड़-खाबड़
रास्ते, उस पर बारिश। पूजा-अर्चना संपन्न कर हम लोग घर लौटे। यहां के संस्कार के मुताबिक
बड़ों को प्रणाम किया, प्रसाद वितरित किया। फिर कैलाश के बेहतरीन नाश्ता किया। उसी
दौरान कैलाश को ताकीद कर दी कि कल सुबह जाना है मुझे किलमोड़ी की जड़ और गंज्याड़ू
चाहिए। ये दोनों चीजें शुगर में बड़ी कारगर हैं। बता दूं कि आजकल दोनों का सेवन कर
रहा हूं। शुगर भी चेक कराया, वास्तव में फर्क है। अगले दिन उसने इन चीजों को उपलब्ध
भी करा दिया।
पुश्तैनी मकान की देहली पर। |
धूनी के बाहर पूजा अर्चना के बाद |
विपिन के दोस्त पांडेजी और अडगाड़ का पानी
दो उम्र में बड़े भतीजों के बीच में। |
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