केवल तिवारी
तू उदास क्यों है? भाई मैं हूं ना। खुद को तुर्रम खां न समझ। मुझसे बात मत करना। जल्दी तैयार हो जाना, समय पर निकल लेंगे। तीखे-मीठे इस तरह के संवाद दो भाइयों में अक्सर होते हैं। भाइयों के बीच में उम्र का ज्यादा गैप न हो तो वार्तालाप और तीखी हो सकती है। उम्र का बहुत अंतर हो तो कभी अभिभावक जैसी भूमिका में रहने के बावजूद बड़ा छोटे का और छोटा बड़े का अपने अंदाज में खयाल रखता है। असल में भाई-भाई का यह रिश्ता खयाल रखने से लेकर मां-बाप की बातों से सहमत-असहमत होने तक पहुंचता है। घर में कभी नोकझोंक, कभी उत्सव सा माहौल और कभी सामान्य जीवन, हर मौके पर दो भाइयों का रिश्ता एकदम जुदा होता है। तभी तो कभी-कभी इकलौता भाई अपने बहन से कह उठता है, ‘तू बहन नहीं, मेरा भाई है।’ खास दोस्त भी कहते हैं बेशक मनमुटाव हो। बेशक कभी रिश्ते में खटास आ जाये, लेकिन भाई-भाई का साथ देता है। भाई के साथ भाई के गहरे रिश्ते की एक बानगी देखिये-
मदन और दीपक भाई हैं। दोनों में महज दो साल का अंतर। बचपन में माता-पिता से डांट पड़ती तो दोनों एक हो जाते। पिताजी सख्त मिजाज आदमी। बड़े होकर मदन की एक छोटी-मोटी नौकरी लगी तो वह अलग रहने लगा। दीपक बोला, ‘भाई तूने तो अपना बढ़िया कर लिया, मुझे भी तो यहां (घर) से निकाल।’ कुछ दिनों बाद दीपक भी चला गया मदन के पास। इधर, दीपक के चाचा ने कुछ दिन साथ रहकर पुरानी बातों को सोचने की ताकीद दी। दीपक के चाचा को अपने भाई (दीपक के पिता) के दर्द नहीं देखा गया। उन्होंने भाई को समझाया, बच्चे हैं। भाई-भाई हैं। जल्दी सब समझ जाएंगे। इस बीच मदन और दीपक साथ रहते-रहते बचपन की बातें करते। अचानक उन्हें लगा कि घर छोड़कर अलग रहने का फैसला उनका गलत था। दोनों वापस गये। मां ने गले लगाया, पिता ने पहले गुस्सा दिखाया फिर दोनों की नादानी पर प्यार भरी थप्पी दी। कुछ समय बाद नौकरीगत व्यस्तता के चलते दोनों भाइयों को अलग-अलग शहर रहना पड़ा। दोनों की शादी भी हो गयी। पिताजी अब नहीं रहे। माताजी को तब बहुत खुशी होती है, जब दोनों भाई त्योहार पर मिलते जरूर हैं। पहले से ही तय हो जाता है होली पर तू आयेगा, दिवाली पर मैं आऊंगा। भाई से अधिक दोनों दोस्त हैं और शायद इसी दोस्ती की वजह से वह कहते हैं-
भाई-भाई के रिश्तें तब ख़ास होते हैं, जब दोनों हमेशा साथ होते हैं।
वाकई यह रिश्ता बहुत मधुर है। कभी-कभी तो बड़े भाई को छोटे के लिए अभिभावक तक बनना पड़ता है। घर में लड़ने वाला भाई अगर बाहर भाई को अकेले पाता है तो तुरंत उसके साथ आ खड़ा होता है। बड़े के बच्चों का चाचू हो या छोटे के बच्चों के ताऊजी। भाइयों का यह प्यार उम्र के साथ-साथ और गाढ़ा होता चला जाता है। कभी पुरानी एलबम में छिपी यादें और कभी पुराने किस्सागोई। दोनों दुआ से करते दिखते हैं-
ऐ रब मेरी दुआओं का इतना तो असर रहे, मेरे भाई के चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट रहे।
घर-बाहर के कई मसलों पर दो भाइयों में बातों-बातों अनेक बार बहस होती है। बचपन के दिनों में स्कूली शिकायतों से लेकर बड़े होने तक दोनों के पास एक-दूसरे के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा होता है। एक-दूसरे की मदद की कहानियां होती हैं। एक-दूसरे की खूबियों का भंडार होता है और एक-दूसरे की कमियों का चिट्ठा होता है। पर भाई तो भाई है। सबसे प्यारा बिरादर। सबसे करीबी दोस्त। सबसे अच्छा समझ सकने वाला। ऐसे जैसे कि इन पंक्तियों में लिखा है-
भाई से ज्यादा न कोई उलझता है, न भाई से ज्यादा कोई समझता है। (नोट : यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के रिश्ते कॉलम में छपा है)
मदन और दीपक भाई हैं। दोनों में महज दो साल का अंतर। बचपन में माता-पिता से डांट पड़ती तो दोनों एक हो जाते। पिताजी सख्त मिजाज आदमी। बड़े होकर मदन की एक छोटी-मोटी नौकरी लगी तो वह अलग रहने लगा। दीपक बोला, ‘भाई तूने तो अपना बढ़िया कर लिया, मुझे भी तो यहां (घर) से निकाल।’ कुछ दिनों बाद दीपक भी चला गया मदन के पास। इधर, दीपक के चाचा ने कुछ दिन साथ रहकर पुरानी बातों को सोचने की ताकीद दी। दीपक के चाचा को अपने भाई (दीपक के पिता) के दर्द नहीं देखा गया। उन्होंने भाई को समझाया, बच्चे हैं। भाई-भाई हैं। जल्दी सब समझ जाएंगे। इस बीच मदन और दीपक साथ रहते-रहते बचपन की बातें करते। अचानक उन्हें लगा कि घर छोड़कर अलग रहने का फैसला उनका गलत था। दोनों वापस गये। मां ने गले लगाया, पिता ने पहले गुस्सा दिखाया फिर दोनों की नादानी पर प्यार भरी थप्पी दी। कुछ समय बाद नौकरीगत व्यस्तता के चलते दोनों भाइयों को अलग-अलग शहर रहना पड़ा। दोनों की शादी भी हो गयी। पिताजी अब नहीं रहे। माताजी को तब बहुत खुशी होती है, जब दोनों भाई त्योहार पर मिलते जरूर हैं। पहले से ही तय हो जाता है होली पर तू आयेगा, दिवाली पर मैं आऊंगा। भाई से अधिक दोनों दोस्त हैं और शायद इसी दोस्ती की वजह से वह कहते हैं-
भाई-भाई के रिश्तें तब ख़ास होते हैं, जब दोनों हमेशा साथ होते हैं।
वाकई यह रिश्ता बहुत मधुर है। कभी-कभी तो बड़े भाई को छोटे के लिए अभिभावक तक बनना पड़ता है। घर में लड़ने वाला भाई अगर बाहर भाई को अकेले पाता है तो तुरंत उसके साथ आ खड़ा होता है। बड़े के बच्चों का चाचू हो या छोटे के बच्चों के ताऊजी। भाइयों का यह प्यार उम्र के साथ-साथ और गाढ़ा होता चला जाता है। कभी पुरानी एलबम में छिपी यादें और कभी पुराने किस्सागोई। दोनों दुआ से करते दिखते हैं-
ऐ रब मेरी दुआओं का इतना तो असर रहे, मेरे भाई के चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट रहे।
घर-बाहर के कई मसलों पर दो भाइयों में बातों-बातों अनेक बार बहस होती है। बचपन के दिनों में स्कूली शिकायतों से लेकर बड़े होने तक दोनों के पास एक-दूसरे के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा होता है। एक-दूसरे की मदद की कहानियां होती हैं। एक-दूसरे की खूबियों का भंडार होता है और एक-दूसरे की कमियों का चिट्ठा होता है। पर भाई तो भाई है। सबसे प्यारा बिरादर। सबसे करीबी दोस्त। सबसे अच्छा समझ सकने वाला। ऐसे जैसे कि इन पंक्तियों में लिखा है-
भाई से ज्यादा न कोई उलझता है, न भाई से ज्यादा कोई समझता है। (नोट : यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के रिश्ते कॉलम में छपा है)

No comments:
Post a Comment