क्लासिक किरदार
बालगोबिन भगत/ कहानी
राम वृक्ष बेनीपुरी
बालगोबिन भगत/ कहानी
राम वृक्ष बेनीपुरी
केवल तिवारी
व्यक्ति की परख कोई कैसे करे। फलां कैसा है? फिर कैसा है का मानक क्या हो? वह किसी का खास है। या अपने में मगन है। सवाल कई हो सकते हैं। मानक बनने के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन जो जैसा होता है, वैसा ही तो होता है। बिरले ही होते हैं जो खुद को बदल लेते हैं। क्या हुआ गर वह अकेला है? लंबी भूमिका छोड़ हमें बात करनी है किरदार की। हाल ही में एक ऐसी कहानी पढ़ी जिसमें किरदार ही मात्र एक है। जब एक ही है तो लिखना उन्हीं के बारे में है। अच्छे हैं या बुरे। अच्छा या बुरा तो कई बार परिस्थितियां भी बना देती हैं। यहां जिस किरदार की बात मैं कर रहा हूं। वह अच्छे-बुरे से परे है। अद्भुत है। असल में मैंने इस बीच राम वृक्ष बेनीपुरी साहब को पढ़ा। वही बेनीपुरी जी जिन्होंने बेहतरीन रचना ‘गेहूं बनाम गुलाब’ लिखी थी। इस बार उनकी कहानी पढी “बालगोबिन भगत”। कहानी का शीर्षक ही कहानी का किरदार है। अजीब करैक्टर। कोई पागल भी कह सकता है। पागल इसलिए कि मस्त मलंग है। क्या कोई बेटे के मरने पर गीत गा सकता है? अगर वह पागल ही है तो धान रोपाई में लोगों का उत्साह अपने गीतों से कैसे बढ़ाता है? फसल काटने के बाद अपने अराध्य के मंदिर में सबसे पहले क्यों जाता है? हां भगत जी के जो आराध्य है, उन्हें देखकर कोई उन्हें पागल कह भी सकता है। कबीर। कबीर हैं उनके आराध्य। वही कबीर, जिन्होंने जब लिखा- ‘पाहन पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूं पहाड़, ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार’, तो उनसे हिंदू नाराज हो जाते हैं। वह जब लिखते हैं, ‘कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लई चिनाय, तां चढ़ मुल्ला बांघ दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ तब मुस्लिम नाराज होते हैं। किस अंधविश्वास या ढकोसले पर चोट नहीं की कबीर ने। खैर कबीर तो कबीर हैं। भगत जी के आराध्य।
राम वृक्ष बेनीपुरी साहब की इस कहानी ‘बालगोबिन भगत’ में एक खास बात और कि आजकल के शहरी लोग क्या उस मंजर को समझ सकते हैं, जब लेखक लिखते हैं, ‘आसाढ की रिमझिम’, ‘कहीं हल चल रहे हैं’, ‘कहीं रोपनी हो रही है’, ‘ठंडी पुरवाई चल रही थी’, ‘दांत किटकिटाने वाली भोर।’ ऐसे वाक्य तो अब कहां लिखे जाते हैं। खैर फिर आते हैं बालगोविन भगत पर। रामवृक्ष बेनीपुरी जी की कहानी के किरदार पर। वह कबीर के भक्त हैं। कबीर के ही गायन गाते हैं। लेखक ने शुरू से ही उनका जिक्र किया है। खुद सफाई भी दी है कि वह साधु नहीं हैं। साधु वाकई नहीं है। उनका बेटा है, बहू है। घर-परिवार का ध्यान रखते हैं। बस कबीर के गायन से लोगों का और अपना मन बहलाते हैं। मन बहलाना कहें या फिर उसमें डूबे रहते हैं। एक जगह लेखक लिखते हैं, ‘गर्मियों में उनकी सांझ कितनी उमस भरी शाम को न शीतल करती। अपने घर के आंगन में आसन जमा बैठते। गांव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खंजड़ियों और करताले की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी मंडली उसे दोहराती-तिहराती। धीरे-धीरे स्वर उंचा होने लगता— उनके साथ ही सबके मन और तन नृत्यशील हो उठते हैं। सारा आंगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है।’ क्या इस कहानी को पढ़ा है आपने। शायद हां। शायद ना। हां तो फिर क्या लिखना, ना तो फिर लगता है कि मस्तमौला हैं भगत साहब। होने दो जो हो रहा है। पर बता दें, वह ऐसे नहीं हैं। एक अनहोनी हो जाती है। उनके बेटे की मौत हो जाती है। वह फिर भी गाते हैं कबीर के पद। कैसा आदमी है। शायद पगला गया। पगलाएगा तो है ही, बेटा जो चला गया। लेकिन जानता था ऐसा होना है। बेटा कुछ अलग था। शायद जाना ही उसकी नियति थी। हालांकि ऐसा नहीं कि बेटे की ऐसी स्थिति जानते हुए भी उन्होंने उसे कभी इग्नोर किया हो। वह तो उसे ज्यादा प्यार करते थे। जैसा कि बेनीपुरी जी अपनी इस कहानी में लिखते हैं, ‘इकलौता बेटा था वह। कुछ सुस्त और बोदा सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए क्योंकि ये निगरानी और मुहब्ब्त के ज्यादा हकतदा होते हैं।’
कैसा है यह भगत। अजीब किरदार। बेटे की शादी हुई। सुंदर सुशील बहू मिली। पर बेटा तो चल निकला। रुखसत हो गया दुनिया से। भगत ऐसे मौके पर भी गाना गा रहे हैं। बहू से कह रहे हैं उत्सव मनाओ। यह तो वाकई पागलपन है। नहीं जनाब! कहां है यह पागलपन। उन्होंने तो सारे समाज के रीत-रिवाज से अलग बेटे की चिता को मुखाग्नि बहू से दिलायी। सारे क्रिया कर्म पूरे कर। बहू के भाई को बुलाया। आदेश दिया कि इसकी दूसरी शादी करवा देना। बहू रो रही है। ऐसे बेहतरीन इंसान अपने ससुर को छोड़कर कैसे जा सकती है। बहू कहती है, ‘मैं चली जाऊंगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा। बीमार पड़े तो कौन चुल्लू भर पानी देगा। मैं पैर पड़ती हूं, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए।’ नैतिक रूप से बहुत ही मजबूत हैं भगत साहब। कहते हैं, ‘तू न गयी और दूसरी शादी न की तो मैं हमेशा के लिए चला जाऊंगा।‘ चली गयी बहू। उस जमाने में ऐसा वादा कर जो किसी को भी समाज से बाहर करने के लिए बहुत बड़ा कारण है। लेखक ने यह क्या किया। उनकी कहानी से भगत साहब भी चल दिये। गंगा स्नान करने गये और बस…इहलीला समाप्त। कहानी पढ़ने के बाद लगता है, शायद भगत साहब को कुछ और जीना चाहिए था। कुछ नये काम। कबीर के दोहों के माध्यम से ही। लेकिन कहानी का अंत भी तो करना था। वह हुआ। चले गये भगत। बेहतरीन कहानी का अंत। रामवृक्ष बेनीपुरी के अंदाज का ही अंत।
व्यक्ति की परख कोई कैसे करे। फलां कैसा है? फिर कैसा है का मानक क्या हो? वह किसी का खास है। या अपने में मगन है। सवाल कई हो सकते हैं। मानक बनने के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन जो जैसा होता है, वैसा ही तो होता है। बिरले ही होते हैं जो खुद को बदल लेते हैं। क्या हुआ गर वह अकेला है? लंबी भूमिका छोड़ हमें बात करनी है किरदार की। हाल ही में एक ऐसी कहानी पढ़ी जिसमें किरदार ही मात्र एक है। जब एक ही है तो लिखना उन्हीं के बारे में है। अच्छे हैं या बुरे। अच्छा या बुरा तो कई बार परिस्थितियां भी बना देती हैं। यहां जिस किरदार की बात मैं कर रहा हूं। वह अच्छे-बुरे से परे है। अद्भुत है। असल में मैंने इस बीच राम वृक्ष बेनीपुरी साहब को पढ़ा। वही बेनीपुरी जी जिन्होंने बेहतरीन रचना ‘गेहूं बनाम गुलाब’ लिखी थी। इस बार उनकी कहानी पढी “बालगोबिन भगत”। कहानी का शीर्षक ही कहानी का किरदार है। अजीब करैक्टर। कोई पागल भी कह सकता है। पागल इसलिए कि मस्त मलंग है। क्या कोई बेटे के मरने पर गीत गा सकता है? अगर वह पागल ही है तो धान रोपाई में लोगों का उत्साह अपने गीतों से कैसे बढ़ाता है? फसल काटने के बाद अपने अराध्य के मंदिर में सबसे पहले क्यों जाता है? हां भगत जी के जो आराध्य है, उन्हें देखकर कोई उन्हें पागल कह भी सकता है। कबीर। कबीर हैं उनके आराध्य। वही कबीर, जिन्होंने जब लिखा- ‘पाहन पूजे हरि मिलें तो मैं पूजूं पहाड़, ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार’, तो उनसे हिंदू नाराज हो जाते हैं। वह जब लिखते हैं, ‘कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लई चिनाय, तां चढ़ मुल्ला बांघ दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ तब मुस्लिम नाराज होते हैं। किस अंधविश्वास या ढकोसले पर चोट नहीं की कबीर ने। खैर कबीर तो कबीर हैं। भगत जी के आराध्य।
राम वृक्ष बेनीपुरी साहब की इस कहानी ‘बालगोबिन भगत’ में एक खास बात और कि आजकल के शहरी लोग क्या उस मंजर को समझ सकते हैं, जब लेखक लिखते हैं, ‘आसाढ की रिमझिम’, ‘कहीं हल चल रहे हैं’, ‘कहीं रोपनी हो रही है’, ‘ठंडी पुरवाई चल रही थी’, ‘दांत किटकिटाने वाली भोर।’ ऐसे वाक्य तो अब कहां लिखे जाते हैं। खैर फिर आते हैं बालगोविन भगत पर। रामवृक्ष बेनीपुरी जी की कहानी के किरदार पर। वह कबीर के भक्त हैं। कबीर के ही गायन गाते हैं। लेखक ने शुरू से ही उनका जिक्र किया है। खुद सफाई भी दी है कि वह साधु नहीं हैं। साधु वाकई नहीं है। उनका बेटा है, बहू है। घर-परिवार का ध्यान रखते हैं। बस कबीर के गायन से लोगों का और अपना मन बहलाते हैं। मन बहलाना कहें या फिर उसमें डूबे रहते हैं। एक जगह लेखक लिखते हैं, ‘गर्मियों में उनकी सांझ कितनी उमस भरी शाम को न शीतल करती। अपने घर के आंगन में आसन जमा बैठते। गांव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खंजड़ियों और करताले की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी मंडली उसे दोहराती-तिहराती। धीरे-धीरे स्वर उंचा होने लगता— उनके साथ ही सबके मन और तन नृत्यशील हो उठते हैं। सारा आंगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है।’ क्या इस कहानी को पढ़ा है आपने। शायद हां। शायद ना। हां तो फिर क्या लिखना, ना तो फिर लगता है कि मस्तमौला हैं भगत साहब। होने दो जो हो रहा है। पर बता दें, वह ऐसे नहीं हैं। एक अनहोनी हो जाती है। उनके बेटे की मौत हो जाती है। वह फिर भी गाते हैं कबीर के पद। कैसा आदमी है। शायद पगला गया। पगलाएगा तो है ही, बेटा जो चला गया। लेकिन जानता था ऐसा होना है। बेटा कुछ अलग था। शायद जाना ही उसकी नियति थी। हालांकि ऐसा नहीं कि बेटे की ऐसी स्थिति जानते हुए भी उन्होंने उसे कभी इग्नोर किया हो। वह तो उसे ज्यादा प्यार करते थे। जैसा कि बेनीपुरी जी अपनी इस कहानी में लिखते हैं, ‘इकलौता बेटा था वह। कुछ सुस्त और बोदा सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए क्योंकि ये निगरानी और मुहब्ब्त के ज्यादा हकतदा होते हैं।’
कैसा है यह भगत। अजीब किरदार। बेटे की शादी हुई। सुंदर सुशील बहू मिली। पर बेटा तो चल निकला। रुखसत हो गया दुनिया से। भगत ऐसे मौके पर भी गाना गा रहे हैं। बहू से कह रहे हैं उत्सव मनाओ। यह तो वाकई पागलपन है। नहीं जनाब! कहां है यह पागलपन। उन्होंने तो सारे समाज के रीत-रिवाज से अलग बेटे की चिता को मुखाग्नि बहू से दिलायी। सारे क्रिया कर्म पूरे कर। बहू के भाई को बुलाया। आदेश दिया कि इसकी दूसरी शादी करवा देना। बहू रो रही है। ऐसे बेहतरीन इंसान अपने ससुर को छोड़कर कैसे जा सकती है। बहू कहती है, ‘मैं चली जाऊंगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा। बीमार पड़े तो कौन चुल्लू भर पानी देगा। मैं पैर पड़ती हूं, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए।’ नैतिक रूप से बहुत ही मजबूत हैं भगत साहब। कहते हैं, ‘तू न गयी और दूसरी शादी न की तो मैं हमेशा के लिए चला जाऊंगा।‘ चली गयी बहू। उस जमाने में ऐसा वादा कर जो किसी को भी समाज से बाहर करने के लिए बहुत बड़ा कारण है। लेखक ने यह क्या किया। उनकी कहानी से भगत साहब भी चल दिये। गंगा स्नान करने गये और बस…इहलीला समाप्त। कहानी पढ़ने के बाद लगता है, शायद भगत साहब को कुछ और जीना चाहिए था। कुछ नये काम। कबीर के दोहों के माध्यम से ही। लेकिन कहानी का अंत भी तो करना था। वह हुआ। चले गये भगत। बेहतरीन कहानी का अंत। रामवृक्ष बेनीपुरी के अंदाज का ही अंत।
(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के क्लासिक किरदार कॉलम में छप चुका है )
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