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Thursday, November 26, 2020

अब कटारा जी की सूचना... बिछड़े सभी बारी-बारी

 केवल तिवारी

यह क्या हो रहा है? हर कुछ दिन बाद ऐसी सूचना। अभी दिनेश तिवारी जी के जाने की चर्चाएं ही चल रही थीं कि आज दोपहर पता चला राजीव कटारा जी नहीं रहे। हिंदुस्तान में जब मैं था वह स्पोर्ट्स एडिटर थे। मैंने जब 2008 में हिंदुस्तान छोड़ा और उनसे मिलने गया तो खुद सीट से उठकर उन्होंने मुझे गले लगा लिया। कुछ बातें हुईं और मुस्कुराते हुए वह मेरे साथ लोकल रिपोर्टिंग केबिन तक आये। उसके दो साल बाद उनसे फिर मिलने गया तो उन्होंने गर्मजोशीर से गले लगाया और मेरे साथ चलकर कई नये लोगों से मुलाकात कराई। उसके बाद उनसे फेसबुक पर ही बात होती। कभी-कबार व्हाट्सएप पर वह कुछ भेजते। 


उनके लेखन का कायल रहा हूं। फेसबुक पर वह त्योहारों पर छोटे-छोटे पीस लिखते जो कम शब्दों में बहुत कुछ सिखा जाते। कादंबिनी सरीखी पत्रिका के संपादक रहे कटारा जी से पिछले कुछ समय से बात करने का मन कर रहा था। खासतौर पर तब कादंबिनी के बंद होने की खबर आयी, लेकिन हिम्मत नहीं कर पाया। फिर सोचा कुछ दिन बाद बाद करूंगा। अभी पिछले दिनों अपने संपादक जी से उनके बारे में चर्चा हुई। तय हुआ कि कटारा जी से कुछ लिखवाया जाये। नये साल पर उनसे कुछ लिखने का आग्रह करेंगे। लेकिन वह मौका ही नहीं आया। कटारा जी चले गये। उनका वह मुस्कुराता चेहरा हमेशा याद रहेगा। हमेशा कुर्ते में ही रहने का उनका अंदाज भी निराला था। कटारा जी अभी समय तो नहीं हुआ था, लेकिन आप आखिर चले ही गये। हमेशा याद आएंगे। 

Sunday, November 15, 2020

अब क्या गायें और क्या सुनायें... चले गये दिनेश तिवारी जी

केवल तिवारी 

एक आसूं भी न निकल पाया जो उनके चले जाने की खबर सुनी। 
न खबर पे यकीन हुआ न बातों पर जाने कितनी कहानियां थी बुनीं 
वो बातें, वो मुलाकातें और लिखने-पढ़ने की वो योजनाएं। 
कुछ दिनों से वे मौन थे, अब क्या गायें और क्या सुनाएं।

हम एक-दूसरे को करीब 20 सालों से जानते थे। अनौपचारिक बातचीत शुरू हुई साल 2013 से। मेरे चंडीगढ़ आने के बाद। वो भी चंडीगढ़ दो-तीन बार आये। हम लोग घंटों साथ रहे। कभी मित्र मंडली की बात करते तो कभी कुछ लेखन की। इस लॉकडाउन से पहले हमारी योजना थी हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जाने की। चंडीगढ़ प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष जसवंत सिंह राणा जी के सान्निध्य में बनी थी योजना। उनकी और राणा जी की भी अच्छी मित्रता हो गयी थी। मैं कभी दिल्ली जाता तो उनसे रीगल सिनेमा के पास कॉफी हाउस में या फिर प्रेस क्लब में मुलाकात होती। कुछ समय से वह योग, ध्यान पर काफी जोर देने लगे थे। लेकिन अचानक यह चैप्टर खत्म हो गया। बात कर रहा हूं वरिष्ठ पत्रकार और मुझे छोटा भाई जैसा मानने वाले दिनेश तिवारी जी की। इंडियन प्रेस क्लब के पूर्व उपाध्यक्ष एवं दैनिक हिंदुस्तान में एसोसिएट एडिटर रहे दिनेश तिवारी। दिवाली के दिन मनहूस खबर आई उनके चले जाने की। पिछली दिवाली और यह दिवाली बहुत अजीब सी रही। पिछली दिवाली मेरी बड़ी दीदी चल बसी थीं। इस बार भी दिवाली की पहली रात से मेरी पत्नी की तबीयत बहुत खराब हो गयी। तेज बुखार और बदन दर्द। कोरोना के इस खौफनाक माहौल में अजीब-अजीब लग रहा था। सुबह उठा बच्चों को उठाया। छोटा बेटा रोना लगा, बोला त्योहार पर मम्मा बीमार हो गयीं, अजीब लग रहा है। बड़े बेटे ने नाश्ता बनाया, मैंने घर की साफ-सफाई की। किसी को दिवाली विश करने का भी मन नहीं हो रहा था। 10 बजे तक पत्नी की तबीयत थोड़ी ठीक हुई, तब तक मैं डॉक्टर से भी बात कर चुका था और अस्पताल जाने की तैयारी कर रहा था। इसी बीच मैंने दो-चार व्हाट्सएप ग्रूप पर बधाई के संदेश भेज दिये। डॉक्टर के यहां से लौटकर पत्नी को एक डोज दवा देकर चाय बनाई और बच्चों से कहा कि चलो त्योहार की तैयारी करो। मम्मा अब ठीक हो जाएंगी।
दो साल पहले चंडीगढ़ लेक क्लब में दिनेश तिवारी जी के साथ की एक तस्वीर।
करीब साढ़े ग्यारह बजे मित्र फजले गुफरान का फोन आया। बड़े बेमन से उन्होंने दिवाली की बधाई दी। मैंने पूछा सब खैरियत तो है, बोले-क्या खैरियत है, कोई अच्छी खबर नहीं आ रही है। हर जगह से बुरी खबर ही आ रही है। मैंने कहा, ‘क्या हुआ?’ बोले-क्या बताऊं, दिनेश तिवारी जी नहीं रहे। मैं सन्न रह गया। कैसे, कहां जैसे तमाम सवाल हुए। उनसे बात करने के बाद मैंने व्हाट्सएप ग्रूप चेक किए। एक ग्रूप में दिवाकर जी का मैसेज था। फिर उसमें प्रमोद जोशी जी और प्रदीप सौरभ जी का भी मैसेज आ गया। दुर्भाग्य से यह खबर सच थी। लोग कह रहे थे फेसबुक पर कई लोगों ने टिप्पणियां की हैं। चूंकि मैंने लंबे समय से फेसबुक बंद कर रखा है, इसलिए कुछ जानकारों से बातचीत हुई। इस बीच तमाम लोगों के दिवाली बधाई के संदेश भी आये, कुछ के फोन भी आये, लेकिन मन उचाट सा रहा। पिछले साल तिवारी जी चंडीगढ़ आये थे। प्लान बना कि मार्च या अप्रैल में पालमपुर चलेंगे। जसवंत राणा जी ने कहा कि वहां एक-दो खूबसूरत लोकेशन हैं, वहां चलेंगे। कुछ लिखने-पढ़ने का भी मैटर मिलेगा। इस बीच, लॉकडाउन हो गया। कोरोना का खौफ पसर गया। बस फोन पर ही बात होती। मैं कई बार फोन नहीं भी कर पाता था, दिनेश जी का 20 या 25 दिनों के अंतराल में कोई व्हाट्सएप मैसेज या फोन आ जाता था। लेकिन इस बार 25 अक्तूबर से उनसे कोई बात नहीं हुई थी। मुझे लगा शायद कानपुर गये होंगे। या फिर अपनी पत्रिका में व्यस्त होंगे। वो इन दिनों उन लोगों को कोसते थे जो बेवजह लड़ते-झगड़ते या बैर पालते हैं। उनका कहना था कि आदमी कुछ बुरा-भला कहने या करने या लालच करने से पहले अपनी उम्र के बारे में सोच ले। कितना और जीयेगा। क्यों न सबको साथ लेकर चला जाये। उनको कई कविताएं कंठस्थ थीं। पुराने गीतों के बड़े शौकीन थे। कई बार मुझे भी लिंक भेजते थे। जब हिन्दुस्तान में वह नयी दिशाएं सप्लीमेंट निकालते थे तो कभी-कबार लिखने के लिए कहते थे, बस इतनी ही बात होती थी। इधर अब उनसे अक्सर ही बात होने लगती थी। इस बीच, बस यही कहते, दिल्ली आने का प्लान बने तो बताना। न वो चंडीगढ़ आये, न मैं दिल्ली जा पाया। और न ही करीब एक महीने से बात हुई। कुछ भी नहीं हुआ, वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था, पर उस सफर पर किसी को जाने से कौन रोक सकता है। भगवान दिनेश जी की आत्मा को शांति दे। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

Thursday, November 12, 2020

भारतीय सभ्यता, संस्कृति और आर्य... मैं आर्यपुत्र हूं

केवल तिवारी
पिछले दिनों एक किताब ‘मैं आर्यपुत्र हूं’ पढ़ डाली। लेखक हैं मनोज सिंह। आर्यों को लेकर जो तरह-तरह की शंकाएं-आशंकाएं पैदा होती हैं या की जाती हैं, उसके संबंध में प्रामाणिक तौर पर किताब में विस्तार से बताया गया है। इस किताब में सबसे जुदा बात यह है कि सूत्रधार शैली में आर्य एवं आर्या के के संवादों के जरिये पूरी बात कही गयी है। किताब को लेकर अपनी पूरी टिप्पणी करूं, इससे पहले इसके कुछ संवाद पर गौर फरमाइये- ‘आर्यपुत्र, धर्म व आस्था एक ऐसा विषया है, जिस पर आधुनिक युग में वार्तालाप की सर्वाधिक आवश्यकता है। धर्म और आस्था के नाम पर आधुनिक युग ने जितना अधर्म व अमानवीयता की है, वह चिंतनीय है।’ ..... वर्ण व्यवस्था तो ठीक समझ आ रही है, लेकिन यह जाति बीच में कहां से, कैसे आ गई? यह बताइये आर्यपुत्र!’
मैं यह कभी नहीं कहूंगा कि सिर्फ भारत में ही कृषि का विकास हुआ। मेरा उद्देश्य तो सिर्फ कुछ विद्वानों के मत को खंडित करना है, जो यह कहते हैं कि कृषि की दिशा में पहल पश्चिमी एशिया में हुई थी और वहां से भारत के भूखंड में आई। असल में किसी भी विकास को अपने क्षेत्र या अपने मानव समुदाय से जोड़कर देखना एक मानवीय कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए। मगर इस चक्कर में हम बहुत सारे तकनीकी और सांस्कृतिक विकासक्रम समझ नहीं पाते। जैसा कि अब 10-15 हजार साल पुराने ऐसे पुरातात्विक प्रमाण मिल रहे हैं, जिनका संबंध भारत में कृषि से है। मैं तो पहले से ही कह रहा हूं कि पश्चिम के विद्वान, जो मेरे कालखंड को सीमित करके देखना चाहते हैं, वह असल में ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनका स्वयं का इतिहास मात्र दो-चार हजार साल पुराना है। मेरे अति प्राचीन होने के जैसे-जैसे प्रमाण मिलेंगे वामपंथी इतिहासकार चौंकेंगे। हम आर्यों का प्रतीक चिन्ह स्वास्तिक सौभाग्य और समृद्धि के लिए माना जाता रहा है। वह चारों दिशाओं का प्रतीक भी है। यह विश्व ब्रह्मांड में शुभ व मंगल का प्रतिरूप बन गया। किसी भी मांगलिक कार्य को प्रारंभ करने से पहले हम स्वस्तिवाचन करते हैं (यजुर्वेद 25/19)। यह मोहनजोदड़ो में भी मिला है। इसका आज भी हिंदुस्तान के हर कर्मकांड में प्रयोग किया जाता है। ... मोहनजोदड़ो में कमंडल भी मिला है, जो हम आर्यों से ही संबंधित है।... आर्यपुत्र, पूरे विवरण को समग्रता से देखकर कुछ बातें स्पष्ट रूप से कही जा सकती हैं। हम आर्य अपने कालखंड में असाधारण रूप से संपन्न थे। तकनीकी रूप से विकसित थे। सामाजिक रूप से सभ्य थे। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध थे। ज्ञान की तो कोई सीमी ही नहीं थी, वेद इसका प्रमाण हैं।‘ जी आर्या, जहां तक रही बात हम वैदिक आर्यों की कर्मभूमि की, तो इसका विस्तार ऋग्वेद 10.75 सूक्त के ‘ऋषि सिंधुक्षित प्रैमयेध’ की ऋचाओं से स्पष्ट होता है। इसके देवता नदी समूह हैं। इसे नदी सूक्त भी कहा जाता है। इसमें 9 ऋचाएं, जिसमें 9 ऋचाएं, जिसमें सप्तसिंधु की पूरबी और पश्चिमी सीमा का उल्लेख है।... संवाद समाप्त अब आता हूं अपनी टिप्पणी में। सबसे पहले धन्यवाद ऑफिस के मेरे साथी ब्रजमोहन तिवारी जी का जिन्होंने यह रोचक, अनमोल किताब मुझे उपलब्ध कराई। पहले उन्होंने जब चर्चा की तो मैंने पूछा क्या ऑफिस में समीक्षा के लिए किताब आई है, उन्होंने कहा कि समीक्षा के लिए भी जमा कराई गयी है। मैंने उनसे कहा कि आप रहने दीजिए हो सकता है मुझे समीक्षा के लिए ही मिल जाये तो इससे दोनों काम हो जाएंगे। लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि आप पढ़ना शुरू करो। समीक्षा के लिए मिल गयी तो लेखक की प्रति आप मुझे दे देना। खैर समीक्षा के लिए संभवत: किसी और को दी गयी और मैं किताब पढ़ने लगा। इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं तो रोचक लगता है ऐसी किताबों को पढ़ना। इस किताब में सबसे पहले तो अच्छा लगा कि एक आर्य हैं और एक आर्या और दोनों संवादों के जरिये यह साबित करते हैं कि ‘भारतीय ही तो आर्य थे।’ आर्यों के आने के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। इस किताब में आर्य परंपरा और प्राचीन भारतीय परंपरा को तर्कों, साक्ष्यों के आधार पर जिस तरह जोड़ा गया है वह निश्चित रूप से रोचक है, पठनीय भी। लेखक मनोज सिंह ने मैं और मेरे आर्यपुत्र से लेकर मैं कलियुग में तक कुल 17 शीर्षकों के अलग-अलग पाठों के जरिये विस्तार से इसमें आर्य परंपरा का जिक्र किया है। शैली और भाषा सहज एवं सरल होने से आसानी से सबकुछ समझ आ सकने वाला है। तर्क-वितर्क और कुतर्क की हमेशा गुंजाइश बनी रहती है और तार्किक बात ही हमेशा अच्छी लगती है। मानव जीवन के हर अहम पड़ावों से लेकर विविध आयामों तक लेखक ने बहुत बेबाकी से चीजों को सामने रखा है। उन्होंने आश्रमों के बारे में भी बहुत रोचक वर्णन किया है, यथा कण्व आश्रम... शकुंतला यहीं रही थीं। भारद्वाज आश्रम। अगस्त्य आश्रम... आदि। कृषि, अर्थव्यवस्था, धर्म पद्धति जैसी बातों और आर्य परंपरा के साथ हमारे प्रागैतिहासिक काल खंड से मिलती-जुलती जीवनशैली का चित्रण किताब में है। किताब में मनोज सिंह ने लिखा है कि कैसे वह अगली किताब ‘मैं रामवंशी हूं’ में श्रीराम के जीवनचरित पर प्रकाश डालेंगे। जिस तरह यह किताब रोचक बन पड़ी है, उम्मीद है आने वाली किताब भी रोचक होगी। मनोज जी को साधुवाद। किताब उपलब्ध कराने के लिए बृृृजमोहनज जी का भी धन्यवाद।

Tuesday, November 10, 2020

आधार (Aadhar) के प्रयोग की कुछ जरूरी बातें जान लीजिए

अगर आप अपने आधार Aadhar कार्ड का कहीं प्रयोग करने जा रहे हों तो अपने अनुभव के आधार पर आपको कुछ बातें बता दूं। पहले तो अगर आप आधार का कलर प्रिंट कहीं से निकलवा रहे हैं तो पूरा प्रिंट निकालें। यानी wallet में रखने वाले आधार कार्ड को reject किया जा सकता है। चंडीगढ़ में कुछ कामों के लिए जगह-जगह ई संपर्क E Sampark केंद्र हैं। Industrial area स्थित E Sampark केंद्र पर मैं अपने छोटे बेटे के लिए निवास प्रमाणपत्र यानी Domicile Certificate बनवाने गया। पहले तो दो घंटे करीब इंतजार के बाद नंबर आया। इस बीच मैंने पांच रुपये का कोर्ट स्टैंप ले लिया। मेरे पास आधार कार्ड Wallet आकार का था। हालांकि फोटो कॉपी मैंने दोनों तरफ का एक ही पन्ने पर करवा रखी थी, लेकिन काउंटर पर मौजूद शख्स ने मना कर दिया। मैंने उनको पासपोर्ट की कॉपी और ऑरिजनल दिखाया तो उन्होंने इसे address proof मानने से ही इनकार कर दिया। यही नहीं मैंने उनसे कहा कि मैं E-Aadhar का print दे देता हूं, उन्होंने उसे भी मानने से इनकार करते हुए कहा कि पूरा आधार कार्ड रंगीन चाहिए। दो घंटे से मैं चुपचाप खड़ा था, इस वक्त मुझे गुस्सा आ गया। उनसे पूछा कि आप पासपोर्ट को भी प्रूफ नहीं मान रहे। खैर इस बीच, बगल के काउंटर पर बैठीं एक महिला ने कहा कि मैंने आपसे पूछा था कि फॉर्म कंप्लीट है। मैंने कहा, आपके सवाल पर मैं कह चुका था कि हां। असल में फॉर्म तो मेरा कंप्लीट ही था। खैर कुछ देर की बातचीत के बाद मैंने निवास प्रमाणपत्र नहीं बनाने का ही फैसला ले लिया क्योंकि उनका कहना था कि आज apply करने के 10 से 15 दिन के बाद प्रमाणपत्र बनकर आयेगा। चूंकि Sainik School में form भरने की अंतिम तिथि 20 नवंबर है, इसलिए कोई फायदा भी नहीं था, लेकिन इससे एक सबक मिला कि आधार कार्ड का original पूरा ही प्रिंट निकलवाना चाहिए यानी रंगीन एक पूरा पेज। फिर अगर कोई wallet size आधार प्रिंट लेना चाहिए तो एक प्रिंट तो पूरा निकलवा ही लेना चाहिए। खैर इसके बाद मैंने अपने गांव के प्रधान से बात की है। आश्वासन तो मिला है, देखते हैं क्या हो पाता है। इन तमाम कवायदों के बाद कुछ बातें समझ आती हैं, मसलन- कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें की जायें, धक्के तो आपको खाने ही पड़ेंगे। online का जमाना हो या फिर पुराना ही। लाख कोई सरकार बड़े-बड़े दावे करे, सरकारी काम अपने ही ढर्रे से होता है। फर्जीवाड़ा में समय कम लगता है। कई लोगों ने मुझे वैसे रास्ते भी बताये, लेकिन मुझे सही documents के साथ originally बनवाना था। सही रास्ते पर ही चलना चाहिए, सबकुछ सही होने पर थोड़ी दिक्कत आती है, लेकिन अंतत: आपका काम होगा ही।  

Thursday, November 5, 2020

इस खुशी को क्या नाम दूं...

केवल तिवारी 1. उदास चेहरा लिये पार्क में अक्सर बैठा रहने वाला शोभित आज खुश था। पार्क का चक्कर तो वह आज भी लगा के आ गया, लेकिन आज उसने उदासी को खुद पर हावी नहीं होने दिया। ऐसा उसे कई मौकों पर होता था। एक तब, जब बेंगलुरू रह रहे अपने भाई से बात कर लेता या फिर वह घर आता था। इसके अलावा जब उसकी दीदी मायके आती तब भी वह बहुत खुश होता था। आज दीदी आने वाली थी। रांची शताब्दी से। दिल्ली में पली-बढ़ी उसकी बहन स्नेहा शादी के बाद रांची चली गयी थी। कोरोना महामारी के दौरान रांची से वह दिल्ली आये कि नहीं, इस पर असमंजस बना हुआ था। पहले स्नेहा ने ही फोन पर कहा कि आ रही हूं, फिर पता नहीं क्या बात हुई, खुद ही कहने लगी रहने देते हैं माहौल खराब है। जब मम्मी-पापा, भाई ने कहा कि आ जाओ कोई बात नहीं तो फिर आने का कार्यक्रम बना लिया। हालांकि शायद यह पहली बार था जब वह पति और बच्चों के बगैर आ रही थी। स्नेहा की बिटिया 10वीं में पढ़ती है, बेटा आठवीं में। पति ने ही समझाया कि बच्चों को दादा-दादी के पास ही रहने दो, बाद में हो आएंगे। मौका रक्षा बंधन का था और स्नेहा पिछले तीन सालों से मायके नहीं आ पायी थी। इस बार मार्च में बच्चों की छुट्टियों के बाद कार्यक्रम बना तो लॉकडाउन हो गया। अब अनलॉक की प्रक्रिया के दौरान कुछ ट्रेनें चलीं तो स्नेहा का मन बहुत व्याकुल हो गया। असल में स्नेहा के पिता मधुरेंद्र सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। मां थोड़ा अस्वस्थ रहती हैं। छोटे भाई शोभित की कहीं नौकरी नहीं लग पाई। बस कभी कहीं छोटी-मोटी नौकरी मिलती भी है तो शोभित वहां टिक नहीं पाता। बड़ा भाई राकेश पढ़ने में ठीक था। बीटेक करते ही बेंगलुरू में नौकरी लग गयी। वह सपाट सा है। स्नेहा से फोन कर उसने कह दिया अभी जाने की क्या जरूरत है। वह बात खरी करता है, लेकिन उसकी बात का कुछ लोग बुरा मान जाते हैं। हालांकि उसे इस बात की परवाह नहीं कि उसकी बात का बुरा माना जा रहा है या भला। शोभित उसे फोन पर खूब चाटता है। राकेश कभी-कभी शोभित के लिए पैसे भी भेज देता है। वह डांटता भी है तो शोभित बुरा नहीं मानता। लो जी स्नेहा आ गयी। शोभित चला गया लेने। स्टेशन से जैसे ही स्नेहा बाहर को आती दिखी, शोभित भागकर गया और अपनी दीदी का बैग ले लिया। स्नेहा ने उसे बैग थमाया और जोर से उसकी नाक खींच दी। ‘नाक को इतनी जोर से खींच दिया दीदी... आह’ शोभित चिल्लाया। ‘पहले मेरे पैर क्यों नहीं छुए,’ ‘स्नेहा ने सवाल किया।’ ‘सोशल डिस्टेंसिंग दीदी,’ शोभित बोला और दोनों पहले से बुक करके लायी गयी कैब की ओर चल दिये। आज शोभित के घर में अजब उत्साह था। मां भी जैसे भली-चंगी हो गयी। मधुरेंद्र भी बेहद खुश थे और सबसे ज्यादा चहक रहा था शोभित। हर कोई इस खुशी को समझ रहा था। लेकिन शोभित के समझ में नहीं आ रहा था कि इस खुशी को वह क्या नाम दे। 2. ‘भाई तूने अच्छा किया जो अलग रहने लग गया,’ मनीष ने यह बात अपने भाई मनन से कही। मनीष और मनन अभी नये-नये जवान हुए हैं। दोनों जुड़वां हैं। मनन को एक छोटी-मोटी जॉब क्या मिली वह आफिस और घर की दूरी का बहाना बनाकर मां-बाप से अलग रहने लगा। पता नहीं परवरिश में रह गयी कोई कमी है या फिर संगत का असर दोनों भाइयों की अपने माता-पिता से नहीं बनती। मां के प्रति तो प्रेम कभी उमड़ भी जाता है, लेकिन पिता के प्रति नहीं। उन्हें लगता है कि पिता हमेशा टोकाटाकी करते रहते हैं। वैसे उनके पिता इंद्रमोहन भी टोकाटाकी कुछ ज्यादा ही करते हैं। ‘निकल जाओ मेरे घर से’ जैसा डॉयलॉग तो वह एक दिन में एक-दो बार दोहरा ही देते हैं। असल में उन्हें लगता है कि बच्चे उनके हिसाब से पढ़-लिख नहीं पाये, जबकि बच्चे कहते हैं कि उनका जहां अलग है। मनीष एक्टिंग में हाथ आजमाना चाहता है और मनन संगीत में। हालांकि अपनी पसंद की फील्ड में भी दोनों कुछ खास कर नहीं पाये। उनकी मां ममता बिल्कुल आदर्श गृहिणी हैं। कभी पति की सुनती है और कभी बेटों की। अब मनन अलग रहने लगा तो मां को लगा कि ऑफिस से दूरी होगी ही इसीलिए अलग रहने लगा है। घर में भले ही खटपट हो लेकिन अजीब बात है कि मनीष और मनन कभी लड़ते नहीं, उल्टे एक दूसरे के पक्के दोस्त बनकर रहते हैं। मनन ने मनीष के लिए एक एक्टिंग स्कूल में बात की है। अगले हफ्ते से वह जाएगा। फीस मनन चुकाएगा। मनीष आज बहुत खुश है। अपने स्वभाव के अनुकूल वह फिलहाल आगे की नहीं सोच रहा है, बस एक्टिंग स्कूल में जाने को बेताब है। वह घर में इधर-उधर घूम रहा है, प्रसन्न है। उसके पिता भी यह सोचकर खुश हैं कि दूसरे बेटे ने अपने लिए नौकरी और ठीया ढूंढ़ लिया है, मां तो बेचारी सबके खुश रहने पर ही खुश है। सब खुश हैं, लेकिन किसी के समझ नहीं आ रहा है कि इस खुशी को क्या नाम दें। 3. मिसेज रजनी कृष्ण को तो बस अब कुछ दिन तक अलग तरह का भोजन बनाने, अचार बनाने और पाचक नमक तैयार करने में ही मजा आएगा। बेटा राजीव जो आया है। वैसे बेटे की कोई फरमाइशें नहीं रहतीं। वह तो बस मम्मी के हाथ का बना साधारण खाना ही पसंद करता है। बचपन से ही ऐसा है। उसे मम्मी के हाथ का बना अचार, खासतौर से तैयार किया पाचक नमक जिसमें उसकी मां जीरा, हींग, आजवाइन, सरसों के दाने, लौंग, काली मिर्च और काला नमक बनाकर तैयार करती है, जैसी चीजें पसंद हैं। हां बचपन से उसे आलू के पराठे दही के साथ बहुत अच्छे लगते हैं। एक हफ्ते के लिए आया है राजीव। अनेक मित्रों से मिलने भी जाना है। कुछ खाने की भी जिद करेंगे, लेकिन रजनी कृष्ण जी हैं कि मन कर रहा है कि सातों दिन बेटा उसी के हाथ से खाना खाये। बचपन से धीर-गंभीर राजीव ने पढ़ाई की और पढ़ाई पूरी होते ही हैदराबाद की एक कंपनी में लग गया। पूरे डेढ़ साल बाद आया है मेरठ स्थित अपने घर। मेरठ उनका मूल निवास नहीं है, लेकिन राजीव के पापा की जॉब के चलते यहीं घर बना लिया और यहीं के होकर रह गये। पापा भी रिटायर हो गये हैं। राजीव के आने पर बेहद खुश हैं। उनका मन तो बस राजीव से बातें ही करते रहने का होता है। रजनी जी तो इन दिनों सब भूलकर बस बेटे के लिए व्यंजन बनाने की विधि सीखने में ही मशगूल है। उनका मन कर रहा है कि कई चीजें बनाकर राजीव के लिए तैयार कर दें। कुछ रोज खाने को और कुछ ले जाने को। वह बहुत खुश हैं। खुश उनके पति भी हैं। हालांकि इस खुशी को कोई कुछ नाम नहीं दे पा रहा है। 4. आज तुम्हारा ऑफ है इसलिए मूड को ऑन रखो। खाने में क्या-क्या बनाऊं बताओ। गणेश कुमार की पत्नी रेखा ने सुबह की चाय के वक्त सवाल किया। अरे जो बच्चों को पसंद आये बना दो, मैं क्या खास बताऊं, गणेश ने अखबार पर नजर डालते हुए कहा। रेखा बोली, कभी तो अपनी पसंद बता दिया करो। गणेश कुमार ने अखबार किनारे रखा और मोबाइल में कुछ देखने लगे। रेखा ने पूछ लिया क्या ऑनलाइन सर्च कर रहे हो। गणेश मुस्कुराया नहीं पति-पत्नी पर खाने के संबंध में बने एक जोक किसी ने भेजा था, वही देख रहा था फिर खुद ही हंसने लग गया। रेखा उठकर चली गयी। असल में गणेश कुमार बेहद सरल व्यक्ति हैं। खाने-पीने की कोई खास फरमाइश नहीं। बच्चों की पसंद में ही उनकी पसंद है। हालांकि रेखा ने उनकी कुछ-कुछ पसंद पर गौर किया है और गाहे ब गाहे वह ऐसी चीजें बना दिया करती है, लेकिन उसकी इच्छा होती है कि पति कभी-कभी फरमाइश किया करे। हां, बच्चों की पसंद पर बेशक वह अक्सर बनाती रहती हैं, लेकिन सख्ती के साथ। जैसे हर समय तला-भुना नहीं, कई बार बिना पसंद के भी खाना पड़ेगा, वगैरह-वगैरह। आज गणेश कुमार के मन में आया कुछ बता ही दिया जाये। वह भी उठकर रेखा के पीछे किचन में चले गये और नाश्ते से लेकर डिनर तक के तीन-चार चीजें बना दीं। उसमें लंच बच्चों की पसंद का था। फिर क्या था रेखा आज बहुत खुश है। बाहर बूंदाबांदी हो रही है। इससे उमस बढ़ गयी है। बच्चे उठकर अपने-अपने काम में लग गये हैं, गणेश कुमार भी कुछ किताबों में सिर खपाये बैठे हैं, कभी टीवी भी देखने को उठ जाते हैं। रेखा है कि बहुत खुश है, पति ने फरमाइश तो की। हालांकि रेखा के समझ नहीं आ रहा है कि इस खुशी को वह क्या नाम दे। गणेश कुमार भी तो नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर रेखा आज इतनी क्यों खुश नजर आ रही है, जबकि काम का प्रेशर ज्यादा है। उक्त सभी किरदारों पर गौर करते हुए सवाल उठना लाजिमी है कि इस खुशी को क्या नाम दूं। शोभित का बहन के आने का इंतजार करना, मनन का अपने भाई मनीष को एक्टिंग स्कूल में भेजना, रजनी कृष्ण का बेटे राजीव के लिए खाना बनाना, रेखा का गणेश की फरमाइश पर इतराना। आखिर ये कौन सी खुशी है। इसका कोई तो नाम हो। शायद यह अनाम खुशी ही सबसे अनमोल है। क्या आपको भी होती है ऐसी अनाम खुशी...।