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Thursday, November 12, 2020

भारतीय सभ्यता, संस्कृति और आर्य... मैं आर्यपुत्र हूं

केवल तिवारी
पिछले दिनों एक किताब ‘मैं आर्यपुत्र हूं’ पढ़ डाली। लेखक हैं मनोज सिंह। आर्यों को लेकर जो तरह-तरह की शंकाएं-आशंकाएं पैदा होती हैं या की जाती हैं, उसके संबंध में प्रामाणिक तौर पर किताब में विस्तार से बताया गया है। इस किताब में सबसे जुदा बात यह है कि सूत्रधार शैली में आर्य एवं आर्या के के संवादों के जरिये पूरी बात कही गयी है। किताब को लेकर अपनी पूरी टिप्पणी करूं, इससे पहले इसके कुछ संवाद पर गौर फरमाइये- ‘आर्यपुत्र, धर्म व आस्था एक ऐसा विषया है, जिस पर आधुनिक युग में वार्तालाप की सर्वाधिक आवश्यकता है। धर्म और आस्था के नाम पर आधुनिक युग ने जितना अधर्म व अमानवीयता की है, वह चिंतनीय है।’ ..... वर्ण व्यवस्था तो ठीक समझ आ रही है, लेकिन यह जाति बीच में कहां से, कैसे आ गई? यह बताइये आर्यपुत्र!’
मैं यह कभी नहीं कहूंगा कि सिर्फ भारत में ही कृषि का विकास हुआ। मेरा उद्देश्य तो सिर्फ कुछ विद्वानों के मत को खंडित करना है, जो यह कहते हैं कि कृषि की दिशा में पहल पश्चिमी एशिया में हुई थी और वहां से भारत के भूखंड में आई। असल में किसी भी विकास को अपने क्षेत्र या अपने मानव समुदाय से जोड़कर देखना एक मानवीय कमजोरी के रूप में देखा जाना चाहिए। मगर इस चक्कर में हम बहुत सारे तकनीकी और सांस्कृतिक विकासक्रम समझ नहीं पाते। जैसा कि अब 10-15 हजार साल पुराने ऐसे पुरातात्विक प्रमाण मिल रहे हैं, जिनका संबंध भारत में कृषि से है। मैं तो पहले से ही कह रहा हूं कि पश्चिम के विद्वान, जो मेरे कालखंड को सीमित करके देखना चाहते हैं, वह असल में ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनका स्वयं का इतिहास मात्र दो-चार हजार साल पुराना है। मेरे अति प्राचीन होने के जैसे-जैसे प्रमाण मिलेंगे वामपंथी इतिहासकार चौंकेंगे। हम आर्यों का प्रतीक चिन्ह स्वास्तिक सौभाग्य और समृद्धि के लिए माना जाता रहा है। वह चारों दिशाओं का प्रतीक भी है। यह विश्व ब्रह्मांड में शुभ व मंगल का प्रतिरूप बन गया। किसी भी मांगलिक कार्य को प्रारंभ करने से पहले हम स्वस्तिवाचन करते हैं (यजुर्वेद 25/19)। यह मोहनजोदड़ो में भी मिला है। इसका आज भी हिंदुस्तान के हर कर्मकांड में प्रयोग किया जाता है। ... मोहनजोदड़ो में कमंडल भी मिला है, जो हम आर्यों से ही संबंधित है।... आर्यपुत्र, पूरे विवरण को समग्रता से देखकर कुछ बातें स्पष्ट रूप से कही जा सकती हैं। हम आर्य अपने कालखंड में असाधारण रूप से संपन्न थे। तकनीकी रूप से विकसित थे। सामाजिक रूप से सभ्य थे। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध थे। ज्ञान की तो कोई सीमी ही नहीं थी, वेद इसका प्रमाण हैं।‘ जी आर्या, जहां तक रही बात हम वैदिक आर्यों की कर्मभूमि की, तो इसका विस्तार ऋग्वेद 10.75 सूक्त के ‘ऋषि सिंधुक्षित प्रैमयेध’ की ऋचाओं से स्पष्ट होता है। इसके देवता नदी समूह हैं। इसे नदी सूक्त भी कहा जाता है। इसमें 9 ऋचाएं, जिसमें 9 ऋचाएं, जिसमें सप्तसिंधु की पूरबी और पश्चिमी सीमा का उल्लेख है।... संवाद समाप्त अब आता हूं अपनी टिप्पणी में। सबसे पहले धन्यवाद ऑफिस के मेरे साथी ब्रजमोहन तिवारी जी का जिन्होंने यह रोचक, अनमोल किताब मुझे उपलब्ध कराई। पहले उन्होंने जब चर्चा की तो मैंने पूछा क्या ऑफिस में समीक्षा के लिए किताब आई है, उन्होंने कहा कि समीक्षा के लिए भी जमा कराई गयी है। मैंने उनसे कहा कि आप रहने दीजिए हो सकता है मुझे समीक्षा के लिए ही मिल जाये तो इससे दोनों काम हो जाएंगे। लेकिन बाद में उन्होंने कहा कि आप पढ़ना शुरू करो। समीक्षा के लिए मिल गयी तो लेखक की प्रति आप मुझे दे देना। खैर समीक्षा के लिए संभवत: किसी और को दी गयी और मैं किताब पढ़ने लगा। इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं तो रोचक लगता है ऐसी किताबों को पढ़ना। इस किताब में सबसे पहले तो अच्छा लगा कि एक आर्य हैं और एक आर्या और दोनों संवादों के जरिये यह साबित करते हैं कि ‘भारतीय ही तो आर्य थे।’ आर्यों के आने के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। इस किताब में आर्य परंपरा और प्राचीन भारतीय परंपरा को तर्कों, साक्ष्यों के आधार पर जिस तरह जोड़ा गया है वह निश्चित रूप से रोचक है, पठनीय भी। लेखक मनोज सिंह ने मैं और मेरे आर्यपुत्र से लेकर मैं कलियुग में तक कुल 17 शीर्षकों के अलग-अलग पाठों के जरिये विस्तार से इसमें आर्य परंपरा का जिक्र किया है। शैली और भाषा सहज एवं सरल होने से आसानी से सबकुछ समझ आ सकने वाला है। तर्क-वितर्क और कुतर्क की हमेशा गुंजाइश बनी रहती है और तार्किक बात ही हमेशा अच्छी लगती है। मानव जीवन के हर अहम पड़ावों से लेकर विविध आयामों तक लेखक ने बहुत बेबाकी से चीजों को सामने रखा है। उन्होंने आश्रमों के बारे में भी बहुत रोचक वर्णन किया है, यथा कण्व आश्रम... शकुंतला यहीं रही थीं। भारद्वाज आश्रम। अगस्त्य आश्रम... आदि। कृषि, अर्थव्यवस्था, धर्म पद्धति जैसी बातों और आर्य परंपरा के साथ हमारे प्रागैतिहासिक काल खंड से मिलती-जुलती जीवनशैली का चित्रण किताब में है। किताब में मनोज सिंह ने लिखा है कि कैसे वह अगली किताब ‘मैं रामवंशी हूं’ में श्रीराम के जीवनचरित पर प्रकाश डालेंगे। जिस तरह यह किताब रोचक बन पड़ी है, उम्मीद है आने वाली किताब भी रोचक होगी। मनोज जी को साधुवाद। किताब उपलब्ध कराने के लिए बृृृजमोहनज जी का भी धन्यवाद।

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