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Friday, December 15, 2023

सांची बात, विस्तारित सौरभ और शादी के दौरान मुलाकात

 केवल तिवारी

सांची कहूं, सौरभ सा फैल गया अपनापन 

कुणाल की चमक, हर तरफ गौरवमयी धमक 

पूरन हुआ काज खुशियों से भरा शीला का दामन 

गंगा सा अवतरण शिव के द्वार, फैली पूरी चमक। 

बारात प्रस्थान की तैयारी


रविवार 10 दिसंबर, 2023 की शाम एक फिल्मी गीत रह-रहकर मेरे मन मस्तिष्क में चल रहा था। गीत के बोल हैं ‘ऐ वक्त रुक जा, थम जा ठहर जा, वापस जरा लौट पीछे’  लेकिन न तो वक्त थमता है और न ही ठहरता है, पीछे तो कतई नहीं लौटता है। इसलिए आपाधापी हुई और अनेक लोगों से मिल-मिलाकर लखनऊ से चंडीगढ़ को लौट आए। दरअसल, प्रिय भानजे सौरभ के विवाहोत्सव के बाद 10 तारीख को रिसेस्पशन चल रहा था। अनेक पुराने-नये जानकारों से मुलाकातों का सिलसिला चल रहा था। साथ ही कुछ आपाधापी भी थी। कुछ देर पहले ही महिला संगीत के दौरान नाच-गाने का कार्यक्रम चल रहा था। उससे कुछ देर पहले, अरे हां कुछ ही देर तो था हम लोग बारात से वापस लौटे थे। लंबे सफर के बाद। मुझे पल-पल की जानकारी देने में आनंद आ रहा था। देहरादून से लखनऊ को चले तो बेशक थकान हावी थी, लेकिन बस में मौजूद अनेक परिजन के साथ बातचीत के आनंद में यह थकान हावी नहीं हो पाई। अपनेपन में कहां कुछ लगती है थकान। इससे कुछ दिन पहले चंडीगढ़ से लखनऊ पहुंचने की व्याकुलता थी। बुधवार 6 दिसंबर को रात में ट्रेन में बैठे। छोटा बेटा धवल तीन दिन पहले से ही घंटे गिनने लगा था। उसके अनेक सवाल कब चलेंगे, कब पहुंचेंगे। ट्रेन में बैठने के बाद भी सवालों की बौछार। इसी दौरान परिजन के फोन आने भी शुरू। बैठ गए। कब तक पहुंचोगे। अगली सुबह यानी 7 दिसंबर को हल्दी कार्यक्रम था। हम लोग ट्रेन में ही थे और फोन पर फोन आ रहे थे। अहसास हुआ कि एक-दो दिन पहले आ जाना चाहिए था। पत्नी से भी इसका जिक्र हुआ, लेकिन मजबूरियां भी तो ऐसी होती हैं कि फिर बाद में भी यह लगा कि एक-दो बाद का कार्यक्रम बनाना चाहिए था, लेकिन ऐसा कहां हो पाता है। खैर। जैसे ही करीब 11 बजे हम लोग पहुंचे, वहां हल्दी रस्म की तैयारी पूरी हो चुकी थी। शीला दीदी, पूरन जीजाजी से मुलाकात हुई। दूल्हे राजा यानी सौरभ जिसे मैं प्यार से शेख साहब कहता हूं भी गर्मजोशी से मिले। फिर भानजे कुणाल, गौरव के साथ ही दीदियां, पीएसी वाले जीजाजी आदि से मुलाकात हुई। प्रेमा दीदी पहुंची थी। मिलते ही रोने लगी। मैं भी भावुक हो गया। मिश्राजी जीजाजी की याद आई। देहरादून में मित्र राजेश ने भी उन्हें तब बहुत मिस किया जब वह भानजी रेनू और भानजे मनोज से मिल रहा था। चलिए अब इस प्यारी याद की अन्य बातों को साझा करूं। 

हल्दी कार्यक्रम के दौरान मैं ‘विजी विदआउट वर्क’ और बारात की मस्ती 

हल्दी में दोनों भाई, ताई और मम्मी।

बेशक मैं बार-बार कह रहा था कि मेरे लायक काम बताना, लेकिन वहां ऐसा कुछ नहीं था, फिर भी मैं व्यस्त जैसा चल रहा था। कभी किसी मेहमान को लाने मेट्रो स्टेशन की तरफ जाना और कभी दुकान से छोटा-मोटा सामान लाने। इसी दौरान कुछ बातों की भी व्यस्तता। सामने के एक कमरे में भानजे पंकज, उसकी बेटी अग्रणी और भानजी लता के पति पंतजी के साथ बातचीत। पंतजी से धवल की विशेष वार्तालाप। मजेदार। जीजा-साले की बात। साथ ही जीजाजी के जीजाजी से उनके साले के साले से बातचीत। कब दिन निकल गया और शाम को बारात चलने का वक्त हो गया पता ही नहीं चला। नाचते-कूदते हम लोग बस में सवार होकर चल पड़े सौरभ की दुल्हनिया को लाने के लिए। आधे सफर तक गीत-संगीत और नाच-गाना चला। फिर कुछ देर ड्राइवर साहब के साथ बैठ गया। सुबह पहुंचे देहरादून के होटल में। बेहतरीन व्यवस्था थी। नाश्ता-पानी और लंच के बाद कुछ देर के लिए मित्र राजेश डोबरियाल से मिलने गया। वह हमें खुद ही लेने आया। वहां अंकल जी से मुलाकात हुई। वर्षा मिलीं, बच्चे मिले। पुरानी वीडियोज देखीं। दो घंटा कब बीता पता ही नही चला। यहां भी बिजी विदआउट वर्क रहा। कभी दिल्ली से आने वाले अपने परिवारीजनों के लिए कमरा बुक रखना, कभी पुराने मित्रों से मिलना, कभी किसी को लोकेशन भेजना। यहां नितिन की मम्मी बीना, भतीजे हरीश, प्रकाश सपत्नीक पहुंचे। भतीजी नीरा, उसके पति दर्शनजी, भतीजी प्रेमा और उसके पति गौरवजी से मुलाकात हुई। बड़े भाई समान वरिष्ठ पत्रकार कलूड़ा अभिनव जी से काफी बातें हुईं। इससे पहले हल्द्वानी काठगोदाम से आए बच्चों के मामा नंदाबल्लभ जी, शेखर जोशी जी और मौसाजी सुरेश पांडे जी और प्रिय सिद्धांत जोशी उर्फ सिद्धू से मुलाकात और बात हुई। जाना तो सिद्धू के कमरे पर भी था, लेकिन आज तो समय की रफ्तार कुछ ज्यादा ही थी। कहने-लिखने की कई और बातें हैं, लेकिन इस ब्लॉग पर तो फिल्मी सीन की तरह चलना है इसलिए संक्षेप में ही सही। 

शादी की रात, मुलाकात और बात 




शादी की रात हम सब बाराती प्रसन्नचित्त रहे। कभी कोई मिला और कभी कोई। बीच-बीच में जीजाजी के निर्देश। फिर कभी साथी बाराती की बात। इसी दौरान भानजे मंटू की शादी की सालगिरह की बात आई। छोटे भाई सोनू की पत्नी भावना एक केक सा कुछ खाने का आइटम ले आई और हम लोगों ने तालियां बजाकर उन्हें मुबारकबाद दी। इससे पहले धूलिअर्घ्य के दौरान सौरभ के जूतों को मैंने और भतीजे प्रकाश ने अपनी कस्टडी में रख लिए। पूजा के बाद मैं सौरभ को मोजे और जूते पहनाने लगा तो उसने तुरंत अपने हाथ में लेकर कहा, मामा ऐसे न करो। मैंने कहा अरे आज तुम दूल्हे हो, मुझे पहनाने दो। वह हंस पड़ा और फिर कार्यक्रम आगे चलने लगे। इधर खान-पान गपशप और उधर जयमाल। फिर शुरू हुई शादी। इस पूरे प्रकरण में प्रकाश का रातभर जगना और साथ में मेरे छोटे बेटे धवल की उत्सुकता देखने लायक थी। वह हर रस्म को बहुत गंभीरता से देख रहा था साथ ही इस बात से खुश था कि आज उसके हाथ में आई फोन है। असल में सौरभ ने उसे अपना फोन पकड़ा रखा था, उसी से वह फोटो भी ले रहा था। इसी दौरान सांची के मम्मी पापा से भी कुछ हंसी मजाक हुई। मां तो मां होती है। कुछ रस्म ओ रिवाज के दौरान उनके आंसू छलक आए। इसी दौरान कुछ अन्य महिलाओं की आंखें भी नम हो गईं। यहां प्रसंगवश बता दूं कि इस दौरान गीत-संगीत का मोर्चा जय प्रकाश की पत्नी भावना ने संभाले रखा। साथ दिया योगिता, भावना आदि ने। शादी के दौरान ही पता चला कि हमारे परिवार में भावना नाम के अनेक बेटी बहुएं हैं।

वापसी की रोचकता और लंबा सफर 

अगले दिन बारात वापसी में हमारे हिसाब से तय समय से कुछ वक्त ज्यादा लग गया। सब लोग थके थे। बस में बैठकर मैंने गणेश वंदना और राम वंदना लगायी। फिर कुणाल के दोस्त से स्पीकर भी लेकर आया। इस दौरान देखा कि लोग थके हुए लग रहे हैं। कुछ लोग रिसेप्शन के लिए एनर्जी बचाने में लगे हैं। धवल तो सो गया। कुक्कू से बात हुई। साथ ही भानजी बीनू के पति सचिन से अनेक मुद्दों पर बात होती रही। किशोर, कैलाश, मुन्ना आदि से भी कुछ बातें होती रहीं। बीच-बीच में लखनऊ दीदी को अपडेट दे रहा था। रास्ते में एकाध जगह लंबा विश्राम होने से हम लोग रात करीब एक बजे घर पहुंचे। इस पूरे सफर में जीजाजी की सक्रियता और आगे और पीछे भी सभी काम को स्वयं हैंडल करने का उनका जोश और जज्बा अनुकरणीय रहा। उन्होंने हर काम को सलीके से खुद ही करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  

और हमारा फटाफट चले आना 



भाई साहब के साथ गुफ्तगू

रिसेप्शन वाले दिन सुबह ही तेलीबाग से भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी भी पहुंच गये। चूंकि प्रिय भतीजी कन्नू को कुछ शारीरिक दिक्कत आई थी, वह अस्वस्थ थी, इसलिए भाभीजी और कन्नू नहीं आ पाए। भाई साहब भी नोएडा में ही थे, लेकिन रिसेप्शन वाले दिन के लिए लखनऊ आ गए। अगले ही दिन दिल्ली के लिए उनकी ट्रेन थी। दिन में अनेक बार उनसे कई बातें हुईं। शाम को भी उनके जरिये गांव के कई लोगों से मुलाकात हुई। बातों-मुलाकातों में कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। जीजाजी के बड़े भाई यानी जयप्रकाश के पिताजी, मंटू के पिताजी और मंजिलबाबू से भी कई बातें हुईं। लखनऊ पहुंचते ही रिश्ते में भानजा लगने वाले नवीन पांडे उर्फ नंदन ऊर्फ राजस्थान वाले मिले। उनकी पत्नी गीता ने शुरू से ही फोटो, वीडियो साझा कर जैसे हमें जोड़े रखा। शाम को बेटे दीपक से अच्छी मुलाकात हुई। इससे पहले भुवन जीजाजी और जय प्रकाश के साथ तो बारात में आने-जाने के दौरान भी अच्छा साथ रहा। बातें बहुत हैं, लेकिन फिल्मी स्टाइल में ही सब सिमट गया। जैसा कि पहले ही कह चुका हूं, सपना सरीखा सा लगा। वक्त चलता रहा और आखिरकार चलते वक्त में बहते हुए अनेक मीठी-मीठी यादों को सहेजकर आखिरकार हम चंडीगढ़ पहुंच गए और अभी तक शादी की ही बातें चल रही हैं। सौरभ-सांची सदा खुश रहें।  

विशेष : पूरा ब्लॉग स्मृति आधारित है। इसलिए अनेक लोगों और अवसरों का जिक्र रह गया। अनेक तस्वीरें भी साझा नहीं कर पाया। जब भी लखनऊ जाएं तो दीदी जीजाजी के यहां एलबम देखें और वीडियो देखें। सभी को धन्यवाद। आभार।


Tuesday, December 5, 2023

'बेघर' होकर जो चला मैं...

केवल तिवारी


ये फ्लैट नहीं, सपनों का घर था मेरा 

मेरी बड़ी-बड़ी यादों का इसमें बसेरा

यहां जन्मी थीं कई कहानियां

अपनी खुशी और अपनी परेशानियां

मां का प्यार, बच्चों से लाड़,

हर मंजर की गवाह हर दीवार

समय और लोगों को बदलते देखना

अपने पथ पर चलना और चलते रहना

रुकता नहीं समय किसी के लिए

समय संग बदलते हैं हमारे ठीये

आज भले नहीं कोई अपना घर

कुछ देहरियों पर सकता हूं ठहर

चले चलो कि हम सब चलते रहें

इस राह में कुछ सुनें और कुछ कहें

कब किसी का रहा ये मकां, ये जमीं

अरमानों को समेटे चलो चलें कहीं।

पुराने घर के पास स्थित पार्क

वसुंधरा स्थित अपना फ्लैट (4109, सेक्टर 4 बी) को बेचकर जब लखनऊ के लिए रवानगी डाली तो लगा था कि थकान आदि हावी होगी और राह यूं ही कट जाएगी, लेकिन चेतन-अवचेतन मन में कुछ चल रहा था। जानी-अनजानी सी उधेड़बुन। 'बेघर' होने की बातें। मैं इन विचार मंथनों को सप्रयास दबाने का प्रयास कर रहा था। कभी बातचीत करके तो कभी कुछ गीत-संगीत का आनंद उठाकर, लेकिन मन है कि मान नहीं रहा था। जब मन में कुछ चलता रहा तो उंगलियां स्वत: ही कीबोर्ड पर दौड़ने लगीं। मन में एक उमंग थी लखनऊ जाकर पोते (भतीजे के बेटे) को देखने की। 

यही स्टेशन अनेक सालों तक मित्रों की गपशप का अड्डा बना।

करीब 20 साल पहले इसी घर (जिस घर को आज बेचकर आया था) में पोते का चाचा यानी मेरे बेटे कुक्कू का पहला जन्मदिन मनाया गया था। बेटा इसी मोहल्ले (वसुंधरा, गाजियाबाद) में पैदा हुआ था। वसुंधरा के इसी शिवगंगा अपार्टमेंट में। 

चित्र में दिख रहा यह बच्चा इसी घर में पांचवीं तक पढ़ा। आज बीटेक कर रहा है।

समस्त परिवार और प्यारा पोता


तब मैं किराए पर रहता था और बेटे के पहले जन्मदिन पर अपने इस घर में आ गया था जो अब मेरा नहीं रहा। मानवीय स्वभाव है, मन में कई बातें आनी ही थीं। तब मेरे बेटे के नामकरण पर लखनऊ से भाभी जी 10-12 साड़ियां लेकर आईं थीं। वह साड़ियां मैंने अपनी दीदीयों, बहनों व अन्य रिश्तेदारों-पहचान वालों को देनी थीं। आज मकान का निपटारा कर लखनऊ गया तो मन में यह उमंग थी कि लखनऊ जाकर पोते को देखना है, दूसरे अवचेतन मन में मकान को बेच देने की बातें घूम-फिर रही थीं। दिनभर तहसील में मित्र धीरज जी के साथ रहा। शाम को भोजन भी उन्हीं के घर हुआ। बड़े भाई साहब (जिन्हें हम बंबई वाले भाई साहब के नाम से जानते हैं) भी मिले। पिताजी से भी बातचीत हुई। जीने में हमारे लोकल गार्जन की तरह हमेशा हमारे साथ रहे शर्मा जी, उनका परिवार और भी कई लोग मिले। बची सिंह रावत जी ने तो इस सौदे की बात ही कराई थी और उनके यहां तो हमेशा ही आना-जाना रहा है और रहेगा। आपाधापी और एक अजीब सी शून्यता के कारण जल्दबाजी में कई लोगों से मुलाकात नहीं कर पाया। मैंने पूरे रास्ते भर कुछ गीत-संगीत सुनने का जतन किया। कभी फेसबुक के पन्ने पलटे। कुछ देर 'डिजिटल ब्रेक' लेने के उद्देश्य से मोबाइल बंद भी किया। नींद नहीं आई तो नहीं आई। (डायरी लेखन या फिर ब्लॉग लेखन ईश्वर संवाद रहा है मेरे लिए। इसलिए ईश्वर से संवाद में क्या बनावटीपन और क्या दुराव-छिपाव। क्या ईश्वर से छिपा है और क्या हम बता सकते हैं। हम तो चल रहे हैं, चलाने वाला तो वही है।) सो वह घर तो अपना नहीं रहा। अब किस्मत जहां ले जाएगी यह भविष्य के गर्भ में है। इस इलाके की बड़ी यादें हैं। एक समय था जब विभिन्न साथियों के साथ साहिबाबाद रेलवे स्टेशन से कनॉट प्लेस जाना होता था। कई वर्षों तक यही सफर किया। धीरे-धीरे समय बदला और लोग भी। कुछ के साथ संपर्क है। कुछ के साथ नहीं जैसा है और कुछ के साथ नहीं ही है, लेकिन यादें तो जेहन में घूमती ही हैं। अनेक लोगों की बातें मेरी डायरी में भी दर्ज हैं। मकान संबंधी कोई ब्लॉग जल्दी ही लिखने को मिले, ऐसी कामना है।

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इसी घर में किराए पर रहे लोगों की बातें और असलियत

इस घर को छोड़कर करीब एक दशक पहले जब मैं चंडीगढ़ आया था तब छह माह तक मेरा परिवार उसमें रहा। यानी पत्नी भावना, बेटे कुक्कू और धवल। उसके बाद पहले किराएदार अभिषेक वर्मा। बेहद नेक इंसान। पत्नी भी उतनी ही उत्सवधर्मिता वाली। वे लोग करीब दो साल रहे। फिर उन्होंने अपना घर ले लिया। उनकी बिटिया हमारे इसी घर में हुई। फिर आई आकांक्षा। कभी मेरे अधीन इंटर्नशिप की थी आज बाल-बच्चेदार है। वह एक साल रही। उसके बाद महानुभाव संजय शुक्ला। पहले-पहल लगा कि थोड़ा परेशान हैं। मैंने पूरा सहयोग किया। हालांकि मकान की किस्त रेगुलर जाती थी, लेकिन इनका दूसरे महीने से ही किराया इरेगुलर हो गया। अलबत्ता इन्होंने बीच में तीन-चार बार मुझे चंडीगढ़ से बुलवाकर घर का काम करवाया। इसमें मेरे करीब दो लाख रुपया लगा। इनके चक्कर में अपने पड़ोसी त्यागी जी से बहस हुई। इनके चक्कर में दो-तीन पर बिजली कनेक्शन कटने की नौबत आ गयी। पीएनजी कनेक्शन भी कट जाता, लेकिन वहां ऐसा प्रावधान नहीं है। उसका दो हजार का बिल आज एक दिसंबर, 2023 को मैंने भरा। कहां तक संजय शुक्ला जी की गाथाएं गाएं। अंतिम मामला यह है कि एक महीने का किराया नहीं दिया और बार-बार कहने पर भी पीएनजी बिल नहीं भरा। कुछ दिनों से मेरा फोन उठाना और मेरे व्हाट्सएप मैसेज देखने भी बंद कर दिए। भगवान इनको सुखी रहे। अच्छा हुआ ये आगे यहां नहीं रहे, जैसा कि नये मकान मालिक बृजमोहन शर्मा जी कह रहे थे कि वे चाहें तो यहां रहना जारी रख सकते हैं। खैर... ये ब्लॉग इसलिए लिखा कि ब्लॉग या डायरी लेखन मेरे लिए ईश्वर संवाद है और ईश्वर से संवाद कर लिया अब इनकी मर्जी। फिलहाल तो में 'बेघर' हूं। अलबत्ता चंडीगढ़ में ट्रिब्यून ऑफिस के जरिये मिले घर को अपना मानता हूं और डायरी लेखन में उसे 'अपना घर' से ही संबोधित करता हूं।

Sunday, October 15, 2023

पुण्य लूटने की नहीं, कमाने की मचे होड़

केवल तिवारी

पितृ पक्ष के तुरंत बाद नवरात्रि पर्व की शुरुआत हो चुकी है। मंदिर बहुत सुंदर तरीके से सजे हैं। श्रद्धालु भजन-कीर्तन में लीन हैं। अच्छी बात है कि धार्मिक गतिविधियां किसी भी व्यक्ति को गलत दिशा में जाने से रोकती हैं। आप कहीं भजन-कीर्तन में शामिल होते हों, कहीं सत्संग के लिए जाते हों या ऐसे ही किसी अन्य 'वास्तविक धार्मिक कार्यक्रम' में आप अच्छी बात ही सीखेंगे। लेकिन कई बार धार्मिक अनुष्ठानों या ऐसे ही किसी रीति रिवाज के दौरान अनेक लोगों में पुण्य लूटने की होड़ मचते देखता हूं तो अवाक रह जाता हूं। पहले एक किस्सा फिर बात का समापन कुछ ज्ञान की बातों से। वैसे ज्ञान तो इन दिनों सोशल मीडिया पर बिखरा पड़ा है। कुछ कच्चा, कुछ अधपका सा। कुछ-कुछ असरदार भी।




नवरात्र के पहले दिन किसी काम से चंडीगढ़ के पास स्थित मोहाली गया था। वापसी में राह दूसरी पकड़ ली। विकास मार्ग है उसका नाम। एक जगह चौराहे पर काम चल रहा था, इसलिए उसे बंद किया गया था। मुझे अगले चौक से यूटर्न लेना था। वहां कोई गौशाला थी। भयानक भीड़। कोई ट्रैफिक कर्मी भी नहीं और लालबत्ती भी खराब। अनेक लोग आड़े-तिरछे चल रहे थे। कुछ लोग बुदबुदा भी रहे थे। दो-तीन लोगों में तकरार भी हुई। कुछ समझदार लोगों ने मामले को शांत करवाया। धीरे-धीरे आगे बढ़ा, पता चला कि श्राद्ध यानी पितृ पक्ष का अंतिम दिन है। यहां गौशाला में लोग गाय को घर में तैयार पकवान खिलाने के लिए आए हुए हैं। बहुत भीड़ है। गाड़ियां बेतरतीब ढंग से लगी हैं। ज्यादातर लोग आज पुण्य लूट लेना चाहते हैं। कल से तो पितृपक्ष समाप्त हो जाएगा। फिर कैसे अपने पूर्वजों को खुश कर पाएंगे। मैं यही सोचता हूं कि इन सब धार्मिक नियम कर्मों के असली मर्म को कुछ लोग क्यों नहीं समझ पाते। पितृपक्ष के असल संदेश को हम क्यों नहीं बता पाते। बड़ों के सम्मान की नींव तो हर समय रखी जानी चाहिए। जड़ों की जानकारी तो हर किसी को होनी चाहिए। गायों या अन्य पशुओं को चारे या भोजन की जरूरत तो हमेशा होती है। कौए तो पर्यावरण संतुलन के वाहक हैं। अन्य पक्षियों की चिंता भी तो हमेशा होनी चाहिए। 

तस्वीर पूरी तरह स्याह भी नहीं

उपरोक्त विवरण से यह अंदाजा बिल्कुल मत लगाइए कि तस्वीर पूरी तरह स्याह है। ऐसा हो भी नहीं सकता। कोई पक्ष निर्धारित है तो उसकी पालना भी अवश्यंभावी है। मौसम के संधिकाल में नवरात्र होते हैं तो तभी व्रत रखे जाएंगे। इन सबसे इतर आज अनेक लोग हैं जो अपनी शादी की वर्षगांठ, बच्चों का जन्मदिन कुष्ठाश्रम या अनाथालय में मनाते हैं। कुछ लोग सार्थक संस्थाओं को दान देते हैं। पितृपक्ष में भी बड़े बड़े धार्मिक स्थलों की यात्रा करते हैं। गुरुद्वारों में तो हमेशा लंगर लगता है। अनेक मंदिरों में भी बिना भेदभाव भोजन की व्यवस्था होती है। गुप्त दान होता है। किसी पर कुदृष्टि नहीं डालें, किसी को दुख पहुंचाने का भाव भी नहीं रखें। यही तो है पुण्य कमाना। पुण्य लूटने से नहीं मिलेगा। यह तो कमाई करके ही मिलेगा। और यह कमाई कुछ गंवाने से मिलेगा। अहंकार गंवाना होगा। कमाई का एक हिस्सा गंवाना होगा। इगो को खत्म करना होगा। बातें सामान्य हैं, सब जानते भी हैं। सोशल मीडिया पर तो ज्ञान का भंडार है। कुछ कुछ सीखना होगा। इस ज्ञान के संसार और अपनी परंपराओं से एकाध अंश भी सीख पाए तो बहुत है। हमें अच्छे भाव की तरह सोच भी अच्छी रखनी होगी। कोशिश तो करनी ही चाहिए। अंत में सरदार पूर्ण सिंह जी का वाक्य कि आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है।

Saturday, October 7, 2023

मां की याद, संदेश देता पितृपक्ष

 केवल तिवारी

सफर जिंदगी का गुजरता रहा, जब जरूरत महसूस हुई अपनेपन की, केवल मां को तलाशता रहा।


बरबस ही यह पंक्ति छूट पड़ी पिछले दिनों जब मां को याद कर रहा था। मां के जाने के बाद कई घर बदल चुका हूं, लेकिन उसकी कुछ भौतिक यादें हर घर में सिमटी-सिमटी सी रहती हैं। मन-मस्तिष्क में तो कुछ यादें हमेशा रहती हैं और रहेंगी ही। बच्चों को भी किस्से बताता रहता हूं। पितृ पक्ष की शुरुआत पर खुद से जुड़े अनेक लोगों को याद करता हूं। उनको भी जिन्हें कभी देखा नहीं और उन्हें भी जो असमय चले गए। वे भी जो भरपूर जिंदगी जीकर गए। लेकिन मां की बात तो घर में हर रोज ही होती है। अजब इत्तेफाक है कि माताजी के श्राद्ध से पहले कैथल से हमारे (यानी दैनिक ट्रिब्यून के) रिपोर्टर ललित शर्मा का एक खबर को लेकर फोन आया। उनसे कई मसलों पर अक्सर बात होती रहती है, लेकिन इस बार खबर भी थी तो पितृ पक्ष को लेकर। उसको पढ़ते-पढ़ते कई बातें मन में आयीं। उनमें से एक तो यह कि मैं माताजी से हर बात शेयर करता रहता था। अब भी करता हूं, अब मां अदृश्य होकर सुनती रहती है कोई प्रतिवाद नहीं करती, हां आत्मानुरूपी मां कुछ चीजों पर किंतु-परंतु लगाती सी महसूस होती है। दूसरी बात यह सामने आई कि ज्यादातर जगहों पर अब कौए नहीं दिखते। कौओं को पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक पक्षी माना जाता रहा है। शायद इसीलिए उत्तरायणी पर्व पर कौओं को निमंत्रण देने, उनके लिए भोजन रखने की व्यवस्था भी अनेक जगहों पर है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए हमारे यहां हर पर्व, त्योहार, संस्कार में कुछ न कुछ व्यवस्था है। बस प्रतीकों के माध्यम से कही गयी इन बातों को समझने की जरूरत है। साथ ही जरूरत है उनके पीछे छिपे संदेश को समझने की। श्राद्ध बना है श्रद्धा शब्द से। यदि मन में श्रद्धा नहीं है तो सब बेकार। साथ ही समय के साथ इसमें कुछ बदलाव भी अवश्यंभावी हो सकते हैं। ललित जी ने इस बदलाव पर ही स्टोरी लिखी है। उसका भी लिंक इस ब्लॉग के अंत में साझा करूंगा।
जब लिखा था मां बिन नवरात्र


वर्ष 2008 में जब मां का निधन हुआ था तो बरसी के बाद जब पहली नवरात्र आई तो मैंने एक ब्लॉग लिखा था मां बिन नवरात्र। उसमें अनेक लोगों ने अपनी भावनाओं का उद्गार किया था। मैं उन दिनों गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित घर में रहता था। उस घर से मां की बड़ी यादें जुड़ी थीं। हम तो एक बार में ही ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने में थक जाते थे, लेकिन माताजी एक दिन में बीसियों बार तीन मंजिल से नीचे उतरती और चढ़तीं। वहां उन्होंने अनेक संबंधियों, रिश्तेदारों को ढूंढ़ निकाला जिनसे आज तक हमारे मधुर संबंध हैं। वह पार्क में जाती, वहां लोगों से परिचय निकाल लेतीं। कभी-कभी उन्हें चाय पर बुला लेतीं। खैर... अब तो वह मकान भी अपना नहीं रहेगा। कभी वहां जाऊंगा तो दूर से ही उस घर को निहार लूंगा। अब उस मकान का मालिक जल्दी ही कोई और हो जाएगा। यहां बता दूं कि मुझे हर उस शख्स से प्यार रहता है जो अपनी मां से प्रेम करते हैं, श्रद्धाभाव रखते हैं। क्योंकि कहा भी तो गया है, 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।' मां के साथ पिता की जो भूमिका होती है उसे कैसे कोई नकार सकता है। स्नेह तो दोनों से पर्याप्त होता है। हां मुझ जैसे कुछ दुर्भाग्यशाली होते हैं जिन्हें पिता की शक्ल भी ठीक से याद नहीं, कभी कबार अवचेतन मन में एक बुजुर्ग शख्स सब्जी काटते हुए से धुंधलाए से याद आते हैं। मां से भी कभी जिक्र किया था तो बताया था कि हां वह हरी सब्जी को बहुत बारीकी से काटते थे, गांव के बाहर वाले कमरे में बैठकर। वैसे सपने में वह आते हैं एकदम जुदा अंदाज में। सपने में तो नाना भी आते थे जिन्हें कभी नहीं देखा। मुद्दा सिर्फ यही है कि माता-पिता की भावनाओं को समझना, उनसे स्नेह रखना। खैर अब तो मां भी नहीं रहीं, मां की अनेक सहेलियां भी नहीं रहीं, लेकिन उनकी यादें हैं। उनसे जुड़े अनेक लोगों की यादें हैं। इन्हीं यादों के जरिये बनीं किस्से-कहानियां हैं जो यदा-कदा चर्चा का विषय बनते हैं। चलिये हर बार की तरह अब अंत में कुछ शेरो-शायरी जो मां को समर्पित हैं। बड़े-बड़े शायरों की कलम से निकली हैं।
जब भी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है, माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है।

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ, कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए।

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है।

घर की इस बार मुकम्मल मैं तलाशी लूँगा, ग़म छुपा कर मिरे माँ बाप कहाँ रखते थे।

ऐ रात मुझे माँ की तरह गोद में ले ले, दिन भर की मशक़्क़त से बदन टूट रहा है

शाम ढले इक वीरानी सी साथ मिरे घर जाती है, मुझ से पूछो उस की हालत जिस की माँ मर जाती है।

https://www.dainiktribuneonline.com/news/haryana/food-style-changed-for-priests-in-changing-environment/
नोट उक्त लिंक ललित जी की खबर का है

Thursday, October 5, 2023

मोगा यात्रा, बातें-वातें और कुछ अलग सा अहसास

 केवल तिवारी

सच में वही होता है जो शायद ईश्वर ने तय किया होता है। इसीलिए कहा गया कि जो भी होता है अच्छा होता है। अच्छा ही रहा कि मोगा गए, फिर जालंधर-कपूरथला। कोई कार्यक्रम नहीं था। छुट्टी ली थी वृंदावन जाने के लिए, फिर कार्यक्रम बना कसौली बाबा बालकनाथ मंदिर जाने का और अंतत: गया मोगा। सोनू यानी सतीश जोशी के पास। भावना (मेरी पत्नी) का चचेरा भाई। संयोग है कि सतीश की पत्नी का भी नाम भावना है। सहज और सरल महिला। तो आइये मेरे साथ चलिए इस सफर पर। सफर की शुरुआत से पहले आइये दो शेर हो जाएं। मेरे नहीं हैं, इधर-उधर से टीपे हैं, बोल हैं-
अपनापन छलके जिसकी बातो में, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे होते है लाखो में।
होने वाले ख़ुद ही अपने हो जाते हैं, किसी को कहकर अपना बनाया नहीं जाता।



असल में उक्त शेर मैंने इसलिए इस यात्रा से जोड़ दिए कि सोनू से उतना ही पुराना नाता है जितनी पुरानी मेरी शादी हो गयी। शादी समारोह के दिन से ही उससे बातचीत का सिलसिला चल निकला। थोड़ा-थोड़ा टेस्ट समान था। वह भी लिखने-पढ़ने वाला था और मैं भी। फिर नौकरी की व्यस्तताएं। इत्तेफाक से फौज में रहते हुए वह कुछ समय दिल्ली में रहा, तब मुलाकात हुई। काठगोदाम जाने पर सोनू के घर में भी हमारी आवभगत अच्छी होती। इत्तेफाकों का यह सिलसिला गाजियाबाद में मकान लेने को लेकर भी हुआ। हालांकि मेरा मकान वाला संबंध अब जल्दी ही दिल्ली-एनसीआर से खत्म हो जाएगा।
खैर.... जब सारे प्लान बंद होते गए तो बुधवार सुबह सोनू को फोन किया। नमस्कार का आदान-प्रदान होते ही मैंने सवाल दागा, 'इस बार लंबा वीकेंड है, कहां जा रहे हो।' 'कहीं नहीं, जीजाजी घर पर ही हूं। शनिवार को मेरी छुट्टी नहीं है।' 'तो फिर हम आ जाएं?' 'अरे वाह, कल ही आ जाओ।' 'कल तो नहीं शनिवार को मिलते हैं।' पक्का हो गया कि सोनू कहीं जा नहीं रहा है और रविवार और सोमवार को छुट्टी पर है। वैसे तो मेरे जैसे अखबारनवीसों के लिए शनिवार, रविवार छुट्टी लेना मुश्किल होता है, लेकिन इस बार राजू (भास्कर जोशी) के कहने पर छुट्टी ली थी और साथ वृंदावन जाने का कार्यक्रम बना था। हम लोग शनिवार सुबह करीब सवा ग्यारह बजे मोगा के लिए रवाना हो गए।
हरियाली और ये रास्ता...







किसी से भी कहता कि मोगा जा रहा हूं तो पहला सवाल होता मोगा में क्या है? फिर जब बताता कि वहां सतीश जोशी हैं तो फिर बात बनती कि जाते वक्त नजारे अच्छे दिखेंगे। सचमुच हाईवे के दोनों ओर खेतों में हरियाली और पीलिमा दिखी। सड़क किनारों पर अलग-अलग रंग के फूलों की अंतहीन कतार। रास्ते में पड़े लुधियाना और चुन्नी जैसे कुछ शहर। चंडीगढ़ में आए एक दशक के दौरान इस रूट पर कुछ दूरी तक तो जाना तब से होता है जब से कुक्कू (मेरा बड़ा बेटा कार्तिक) का आईआईटी रोपड़ में दाखिला हुआ है। इस बार देखा कि रोपड़ की तरफ जाने वाले रास्ते से पहले ही मोगा के लिए कट मिल जाता है। हम लोग ढाई बजे सोनू के ऑफिस के बाहर पहुंच गए। दो मिनट में सोनू बाइक पर आया और घर ले गया। घर पर लजीज व्यंजन हमारा इंतजार कर रहे थे। जाते ही पहले तो डूग्गू (सतीश का बड़ा बेटा) और अक्षित (छोटा बेटा) बेहद खुश हो गए। डुग्गू को कुछ माह पहले काठगोदाम में हुई मुलाकात की बात याद आ गयी, लेकिन अक्षित से दोस्ती होने में कुछ समय लगा। भोजन से पहले हमें घर देखने की इच्छा हुई। सचमुच घर बहुत अच्छा है। बेहतरीन ढंग से चीजों का समायोजन। बाहर हरियाली। पूरी कालोनी ही हरी-भरी। डिनर के बाद और अगली सुबह भी हमने कालोनी के चक्कर लगाए। घर और कालोनी के साथ-साथ बच्चों (कुक्कू और छोटे बेटे धवल) को सोनू का परिवार भी बहुत अच्छा लगा। सोनू का बड़ा बेटा डुग्गू तो कुक्कू के साथ ही लगा रहता।  

बच्चों के साथ फुल मस्ती
रविवार सुबह हम लोग पुष्प गुलजार साइंस सिटी के लिए निकले। हमारे साथ सोनू के ऑफिस में साथ काम करने वाले मंदीप जी भी चले। मंदीप जी भी बेहद कल्चर्ड व्यक्ति हैं। उनकी पत्नी और बेटा विवान भी बेहद हंसमुख स्वभाव के हैं। विवान का तो यह आलम था कि वह मेरे साथ बहुत देर तक बातें करता रहा। मैं उनको कहानियों और जादूगरी (बड़े जो बच्चों के कोमल मन के साथ झूठ का सहारा लेते हैं) में उलझाता रहा। कभी झूले में मस्ती तो कभी डायनासोर पार्क में। सच में पूरा दिन कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। शाम को घर आने पर मंदीप ने घर चलने का आग्रह किया, लेकिन थकान इतनी थी कि हम लोग उनके इस आग्रह को नहीं मान पाए। लेकिन उनके साथ एक लंबा समय अच्छा बीता।

बातचीत के दायरे में दो-तीन और लोग
रविवार शाम को घर लौटने के बाद हम लोगों की चाय-पानी चल ही रही थी कि नवीन जी और मुनीष जिंदल भी आ गए। उनके साथ भी कुछ देर बैठकी हुई। बातों-बातों में पता चला कि उनका चंडीगढ़ आना-जाना लगा रहता है। अगली सुबह नवीन जी के भाई भी मिले। सोनू ने बताया कि ये लोग उन लोगों में शामिल हैं जिनसे अपनापन मिला है। उम्मीद है कि ये मुलाकातें होती रहेंगी।

उम्मीदें रहें कायम
उस गीत की मानिंद फिर अजीब तो लगता ही है, सबसे ज्यादा बच्चों को, जिसके बोल हैं- 'हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यों है?' फिर खुद को समझाया जाता है कि जुदा होंगे तभी तो अगली बार मिलेंगे। बेहद खूबसूरत सफर का अंजाम भी अच्छा रहा। आजकल हम वहीं की बातें करते हैं। उम्मीद है कि सोनू के माता-पिता भी जल्दी मोगा जाएंगे, भले ही कुछ समय के लिए। साथ ही उम्मीद है कि हमारी मुलाकातें भी होती रहेंगी। चले चलें....
देखिए कुछ और तस्वीरें










Wednesday, September 20, 2023

गणपति का साथ, आशा, निराशा और जीवन की बात

 केवल तिवारी

प्रथम पूज्य गणेश भगवान की पूजा, अर्चना के इस विशेष पर्व यानी गणेश चतुर्थी के मौके पर मन में अनेक प्रकार की उमड़ घुमड़ हुई। घर के रुटीन काम की निवृत्ति के बाद मन कुछ अशांत अशांत सा रहा। फिर अपने ही अंदर से आवाज आई, उठो और सकारात्मक सोच रखो। फिर ईश्वर संवाद में आगे बढ़ा। डायरी लेखन, बेहद छोटा सा संवाद, मानो गणपति कह रहे हों, जीवन आशा और निराशा का संगम है। इसी में विष और इसी में अमृत है। मंथन करो, ढूंढ़ो और सफर पर चल निकलो। यही उत्साह का संचार ही तो है गणेशोत्सव। 



लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने लोगों को एकजुट कर उत्साही बनाने के लिए ही तो शुरू किया था। उत्साह कितने समय तक? उठा मेरे मन में यह सवाल। कुछ लिखने, व्यक्त करने के दौरान ही फिर कुछ कुछ निराशा सी। किसी की हरकत से, किसी के कमेंट से, आर्थिक हालात से, स्वास्थ्य की दृष्टि से, जिम्मेदारी की फेहरिस्त से... ऐसे ही अनगिनत कारणों से। गणपति समझाते हैं, हमारे मन में बैठकर, भूलकर भी किसी का बुरा न सोचो, बुरा करना तो फिर अकल्पनीय ही हो, मत उम्मीद रखो, अपनी वाणी को मधुर ही बनाए रखो। फिर मानव मन हावी, इतना सबकुछ कैसे संभव? आखिर इंसान ही तो हैं। इसीलिए तो इस इंसानी फितरत को बनाए रखो। कुछ समय बाद उनसे मिलना है, उसकी तैयारी। चर्चा। खरीदारी। लेकिन सबकुछ आपके मन मुताबिक होगा, यह उम्मीद ठीक नहीं। आप अपने मन मुताबिक करो। संकल्प आया कि नकारात्मक बातों में खुद को ज्यादा मत उलझाओ। सार्थक चर्चा के बीच, जिम्मेदारी का अहसास भी हो। फिर ये, फिर वो चलता ही रहेगा। 

गजब संयोग है कि गणेशोत्सव के इस आत्मसंवाद के दौरान ही मित्र मनोज भल्ला का ईश्वर के प्रति आस्था और अनास्था का द्वंद्व भरा मैसेज आया। इतना सामान्यीकरण कैसे हो सकता है। मैं आस्तिक हूं, पर अंधविश्वासी नहीं। मैं यह दावा नहीं करता कि मैं ही सही हूं, लेकिन बिना किसी को कष्ट पहुंचाए मैं अपनी श्रद्धा से जी रहा हूं। चंडीगढ़ में एक दशक तक जिस घर में रहा उसके ठीक सामने शिव मंदिर है। मैं रोज घर के मंदिर में पूजा अर्चना करने के बाद एक लोटा जल मंदिर में भी चढ़ाया करता था, लेकिन सावन के महीने में नहीं जाता। ठीक ठाक भीड़ होती थी, मेरे जाने से शायद किसी का नंबर कट जाता, यही भाव मन‌ में रहता। सामान्य दिनों में भी अगर कोई देवी या सज्जन मंदिर में ध्यानमग्न होता तो मैं लौट आता। आखिर जो व्यक्ति पूजा कर रहा है, वह भी तो सर्वे भवन्तु सुखिन: ही कहता होगा। ऐसे ही जब मैं मित्रों के साथ रहता था, मुझे पूजा के लिए मंदिर की जरूरत नहीं होती थी। समय-समय की बात होती है। कुछ समय के हिसाब से बदल जाते हैं, कुछ गजब का राग द्वेष पाले रहते हैं, जबकि सब जानते हैं कि यह किसी को नहीं पता कि अगले पल क्या होने वाला है। जब हमारा शरीर एक जैसा नहीं रहता तो हमारी आदतें शाश्वत कैसे हो सकती हैं। मेरा मानना है कि पूजा पाठ, आस्तिक या नास्तिक नितांत निजी मामला है। आप ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं तो नहीं मानने वालों को मानने के लिए फोर्स मत कीजिए। नहीं मानने वाले हैं तो मानने वालों की खिल्ली मत उड़ाईये। नितांत पारिवारिक मसलों पर यह नियम थोड़ा लचीला हो सकता है। आप बच्चों से कहते हैं ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं। बहुत व्यापक विषय है यह। गणपति बप्पा के संदेश को समझिए, यह मैं अपने लिए कह रहा हूं... आशा, निराशा ईश्वर का साथ, आपकी बातों के साथ अपनी बात। .... जारी है चर्चा।

Friday, September 1, 2023

बदल गया है लखनऊ.... पर इस नगरी को ट्रैफिक की तहजीब भी चाहिए, एक छोटी सी यात्रा के बड़े सबब

 केवल तिवारी

मेट्रो की सीढ़ियों से ली गई तस्वीर। नीचे तो सब अतिक्रमण

तहजीब की नगरी कहलाने वाले लखनऊ की एक छोटी सी यात्रा पिछले दिनों संपन्न हुई। उत्तर प्रदेश की राजधानी का यह शहर सचमुच बहुत बदल गया है। यहां मेट्रो आ गयी है। यहां ई रिक्शा हैं। यहां जगह-जगह मॉल हैं। यहां हाईराइज बिल्डिंगें नजर आने लगी हैं। फ्लैट कल्चर डेवलप हो गया है। कारों की चकाचौंध है। अस्पतालों की भरमार है। जगह-जगह मॉल हैं। इन सब बदलाव के बीच कुछ बदलाव मन को कचोटती हैं। यहां भाषायी मधुरता खत्म होती सी लग रही है। यहां ट्रैफिक सेंस की शून्यता से दिल को ठेस पहुंचती है। और भी कई चीजों का अनुभव हुआ जो अच्छे सेंस में तो कतई नहीं है। बस यही कहूंगा कि इस ब्लॉग में जो फोटो मैं शेयर कर रहा हूं, वह खूबसूरत हैं और उनसे लखनऊ की पहचान है। मेट्रो स्टेशन से चारबाग स्टेशन की हैं। इसी के नीचे के नजारा देखेंगे तो आपका दम घुटेगा। सड़क पर अतिक्रमण। जगह-जगह सिगरेट का धुआं उड़ाते युवा वगैरह-वगैरह। कैसा दुर्योग है कि लखनऊ जाने का कार्यक्रम ट्रैफिक शून्यता की दो घटनाओं के चलते ही हुआ। बाइक पर सवार भाई साहब का चोटिल होना और एक पुलिसकर्मी द्वारा रेड लाइट जंप कर भाभी को चोटिल कर देना। गनीमत है कि भाई साहब ने हेलमेट पहना था और गनीमत है कि भाभी ने काफी हद तक खुद को संभाल लिया था, नहीं तो स्थिति और ज्यादा खराब होती। अभी भी उनकी स्थिति परेशान करने वाली तो है ही। इसी ट्रैफिक की राष्ट्रीय स्तर पर बात करूं तो वह भी दुखदायी सी ही रहती है। एक माह पहले जाने का कार्यक्रम था, लेकिन ट्रेन रद्द हो गयी। रेलवे का भी अजब कमाल देखिए कि जो ट्रेन रद्द हुई उसका तो पैसा वापस आ गया, लेकिन लखनऊ से वापसी की ट्रेन टिकट का पैसा काट लिया। यानी आप गए या नहीं, इससे क्या मतलब आपको आना तो होगा ही। यानी बिना जाए आना होगा। खैर... इस बार ट्रेन रद्द होने से खौफजदा होकर मैंने अंबाला से हिमगिरि एक्सप्रेस में टिकट ले लिया। ट्रेन पांच घंटे विलंब से आई। ट्रेन टिकट कराने की आपाधापी में एक गलती भी हो गयी। खैर 'लखनऊ हम पर फिदा, हम फिदा ए लखनऊ' की बात को हमेशा कहने वाला मैं, लखनऊ गया और उसे नए तरीके से महसूस किया। पहले जो लखनऊ को जीया और महसूस किया उससे जुदा। उस लखनऊ का जिक्र मैं अपने पूर्व ब्लॉग (https://ktkikanw-kanw.blogspot.com/2017/09/blog-post.html) पर साझा कर चुका हूं। इसमें कुछ शेर ओ शायदी इधर-उधर से टीपी हैं। मसलन- लखनऊ है तो महज़ गुम्बद-ओ मीनार नहीं

सिर्फ एक शहर नहीं, कूचा ओ बाज़ार नहीं

इसके दामन में मोहब्बत के फूल खिलते हैं

इसकी गलियों में फरिश्तों के पते मिलते हैं

लखनऊ हम पर फ़िदा, हम फ़िदा ऐ लखनऊ

या फिर

दुनिया में कम नहीं, तेरे चाहने वाले तेरी अदा के कायल,तुझपर निसार भी

ए शहरे लखनऊ, तुझको नहीं पता तुझ बिन नहीं संभलता,मेरा कल्बे ज़ार भी

आज का लखनऊ रफ्तार में है। समय के हिसाब से यह रफ्तार जरूरी भी है, लेकिन इस रफ्तार में तहजीब ही बदल जाए, ये बात कुछ हजम नहीं होती। अबे, तबे की भाषा पहले बहुत ही गहरे दोस्तों के बीच होती थी, आज बस या ऑटो में साफ सुनाई पड़ता है, कहां जाओगे, बैठो। एक दशक तक पहले यह भाषा इस तरह होती थी, 'कहां जाइएगा, बैठिए।' मजाक में कहते थे कि लखनऊ वाले गाली भी तहजीब से देते हैं। बदलाव अवश्यंभावी है, लेकिन हर तरफ ट्रैफिक रूल तोड़ते हुए बेतरतीब तरीके से चलना, हॉर्न पर हॉर्न बजाना, लालबत्ती की परवाह न करना, पैदल वालों को महत्व न देना सच में ऐसा लगता है कि यह लखनऊ है या फिर कोई 'बदतमीज शहर।' अतिक्रमण पर, ट्रैफिक व्यवस्था पर अगर अब ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले कुछ वर्षों में स्थिति और विकट हो सकती है। इसलिए लखनऊ को लखनऊ बने रहने दीजिए। बनाए रखिए। हम-आप भी और सरकार भी। सभी से है दिली गुजारिश।

पशुओं में भी गजब की मानवता, और उन बिल्लियों के प्यारे बच्चों की अठखेलियां

पांच घंटे लेट ट्रेन के उबाऊ सफर के बाद लखनऊ तेलीबाग स्थित अपने घर पहुंचा तो भाई साहब, भाभी जी इंतजार कर रहे थे। वहीं बैठी थी लाल रंग की बिल्ली अपने तीन बच्चों के साथ। मुझे देखते ही अलर्ट हो गयी। बच्चों को अपने पास समेट लिया। एक आवाज दी म्याऊं। यह इशारा था कि बच्चो अंदर चलो। अगली सुबह से लेकर दोपहर तक उस बिल्ली का बच्चों को अनुशासित रखने, उनके खाने-पीने और बाहर जाने तक के सिस्टम को देखकर दंग रह गया। सच में पशुओं में गजब की 'मानवता' होती है। वह आंगन (हरियाली के लिए छोड़ी जगह) में बच्चों को ले जाती। फिर अंदर चलने के लिए कहती। दूध पीने का समय हो गया तो उसका भी इशारा हो जाता। बॉल से खेलते बच्चे बहुत अच्छे लग रहे थे, लेकिन उनकी मां को यह शैतानी लगती और समय-समय पर वह म्याऊं-म्याऊं बोलकर आगाह करती। एक-दो बार मैंने उन बच्चों को गोद में लिया तो ऐसे गुर्राई मानो ताकीद कर रही हो कि बच्चे हैं, इन्हें कोई नुकसान पहुंचाया तो खैर नहीं। कुल मिलाकर उस बिल्ली की ममता और बच्चों की शैतानी देखते ही बनती थी। (छोटी सी वीडियो देखिए) 




 लजीज पकवान और लखनऊ की याद

देर रात जब लखनऊ पहुंचा तो आर्गेनिक खेती के केलों के कटलेट और कोफ्ते खाने को मिले। चोटिल भाभी जी और भाई साहब ने स्वादिष्ट व्यंजन बनाया था। सामान्यत: लखनऊ लजीज खाने के लिए जाना जाता है। अगली सुबह पकौड़ों का नाश्ता दिन में कढ़ी, चावल और टपकी का लुत्फ उठाया। प्रसंगवश बता दूं कि मंगलवार शाम बाहर टहलने के लिए निकला। राम भरोसे स्कूल के पास उस गोलगप्पे वाले को ढूंढता रहा जहां कभी कन्नू ले जाया करती थी। वह कहीं नहीं दिखाई दिया। कुछ साल पहले तक मियां बीवी वहां रेहड़ी लगाते थे। फिर मन को तसल्ली दी कि शूगर वालों को कंट्रोल करना जरूरी है, वैसे ही जैसे मैंने रुटीन खान-पान में कर दिया है। एक किलोमीटर वाक के बाद घर आ गया। भोजन, बातचीत और तेजी से निकल गया दिन। सुबह बगल में तिवारी जी के यहां गया। मन था कि कुछ और लोगों से मिल आऊं, लेकिन किंतु परंतु हावी हो गया। अब कभी हफ्तेभर के लिए जाऊंगा और सबसे मिलकर आऊंगा। अगले दिन शीला दीदी के यहां गया, वहां दही भल्ले, छोले और पूड़ी खाने को मिली। दीदी और जीजाजी का व्रत था। मैं और भानजा गौरव ही थे खाने वाले। खानपान के शहर लखनऊ में वक्त बहुत तेजी से निकल गया। आलम यह रहा कि वापसी में भानजे गौरव ने भूतनाथ मंदिर के बाहर से ही दर्शन कराए। फटाफट मेट्रो में बैठकर चारबाग पहुंचा। ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। आपाधापी ऐसी रही कि भावना ने पहली बार रेवड़ी लाने को कहा और नहीं ला पाया। अलबत्ता धवल के लिए तो कुछ आ ही गया था। भागादौड़ी वाला सफर ठीक ही रहा क्योंकि अपनों से मिलने में परेशानियों की क्या बिसात, क्योंकि अपने तो अपने होते हैं। और अंत में दो शेर

जाते हो ख़ुदा-हाफ़िज़ हाँ इतनी गुज़ारिश है 

जब याद हम आ जाएँ मिलने की दुआ करना

मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम 

निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़

अंबाला स्टेशन पर ट्रेन के इंतजार में


Friday, July 14, 2023

बाढ़-बरसात का झमेला, गधेरे और हरेला

 केवल तिवारी 


इस ब्लॉग को पूरा पढ़ने से पहले उक्त शब्दावलियों का मतलब समझ लीजिए। हो सकता है आप में से अनेक लोग जानते भी हों। असल में बाढ़-बरसात तो कॉमन है और आजकल हर कोई इससे दो-चार हो रहा है, लेकिन गधेरे और हरेला अनेक लोगों के लिए नये शब्द हो सकते हैं। गधेरा शब्द उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का है, इसे गध्यार भी कहा जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में भी इसी तरह का शब्द है। गधेरे या गध्यार असल में सहायक नदियां होती हैं। इन्हें बरसाती नदियां भी हा जा सकता है। असल में अमूमन ये गधेरे सूखे रहते हैं, लेकिन जब ज्यादा बारिश होती है तो अपने इन रास्तों से वे नदियों में जाकर मिल जाते हैं। हरेला एक त्योहार है जो सावन की शुरुआत में मनाया जाता है।  

आज इन तीनों की एक साथ बात करने का कारण है हाल में आई भारी बारिश और उसके बाद बनी बाढ़ की स्थिति। इस बार हिमाचल प्रदेश में अनेक जगह वैसे ही हालात बने जैसे करीब दस साल पहले उत्तराखंड में बन गए थे। पर्यावरणविद इस आपदा का जो मुख्य कारण बताते हैं वह है नदियों की सहायक नदियों यानी बरसाती नदियों में अतिक्रमण। ऐसा ही तो हुआ है। मुझे याद है कि उत्तराखंड में हमारे बड़े बुजुर्ग कहा करते थे कि कभी गधेरों के आसपास मत जाना। कहा जाता था वहां भूत-प्रेत रहते हैं। यह बात अंधविश्वास हो सकती है, लेकिन भूत-प्रेत का डर दिखाना आज प्रासंगिक लगता है। जहां जानेभर से डराया जाता था, उसके आसपास कोई निर्माण करने की हिम्मत कैसे करे? हां, आज नदियों के किनारे दूर-दूर तक निर्माण हो चुके हैं। उन बरसाती नदियों के किनारे जो अमूमन सूखी दिखती हैं। ऐसे ही मैदानी इलाकों में यमुना के खादर क्षेत्र में ऐसा हुआ है। तो समझिये इशारा और नदियों की जमीन पर कब्जा मत कीजिए। 

मेरे घर में हरेला

अब बात हरेला की। असल में प्रकृति से जुड़े रहने का संदेश है हरेला। हरेला उगाना, सुख-समृद्धि की कामना के साथ सिर पर रखना। डिकारे बनाना। कई रीति-रिवाज हैं। डिकारे शिव-पार्वती के मिट्टी से निर्मित मूर्तियों को कहा जाता है। हम सब जानते हैं कि मानव और पर्यावरण का अनूठा संबंध है। हमारे रीति-रिवाज इस संबंध को बनाये रखने का संकेत देते हैं, लेकिन हम कई बार उसे भुला देते हैं। संबंध बनाए रखेंगे तो उसके अनेक लाभ हैं। हरेले के त्योहार यानी सावन की शुरुआत से करीब दस दिन पहले सात अनाजों को छोटी-छोटी टोकरियों में बोया जाता है। सावन की शुरुआत पर इसे काटा जाता है फिर आशीर्वाद स्वरूप सिर पर रखा जाता है। सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। आमतौर पर घर की महिलाएं हरेले को अन्य सदस्यों को आशीर्वाद स्वरूप उनके सिर में रखती हैं। सामान्यत: बेटियां ऐसा करती हैं। असल में बेटियां ही तो उत्सव सरीखी होती हैं। इसी उत्सवधर्मिता को बनाये रखने के लिए त्योहारों पर बेटियों को विशेष तवज्जो दी जाती है। प्रकृति, मानव का संबंध और अन्य रीति रिवाजों पर आगे बात होती रहेगी।

Tuesday, June 20, 2023

जिक्र करना तो बनता है, आखिर यात्रा थी हमारी

केवल तिवारी 

घूम आए, मिल आए। इधर गए, उधर गए और लौट आए। पहाड़ घूमने के सपने संजोए। कार्यक्रम कुछ बना और हुआ कुछ। असल में हमारे-आपके हाथ में कहां कुछ होता है। हम तो चलते हैं और ऊपर वाला हमें चलाता रहता है। खैर अंत भला तो सब भला। सिलसिलेवार संक्षेप में कुछ कह डालता हूं। 

पत्नी भावना के मूल मायके (उत्तराखंड के द्वाराहाट में सग्नेटी) में पारिवारिक पूजा का कार्यक्रम पिछले लंबे समय से बन रहा था और मुल्तवी हो रहा था। यूं तो हमारी ओर से किसी के शामिल होने की कोई वाध्यता नहीं थी, लेकिन ऐसा संयोग बना कि भावना और छोटा बेटा धवल 29 मई को काठगोदाम पहुंच गए और उसके एक-दो दिन बाद द्वाराहाट। मैं चंडीगढ़ से बड़े बेटे कार्तिक के साथ गाजियाबाद से होते हुए पहुंचे पांच जून को। गाजियाबाद से हमारे साथ बेंगलुरू से आए विनोद पांडे जी भी हो लिए। पूरा सफर बहुत आनंददायक रहा। काठगोदाम से धवल और भावना को लिया और सीधे चोरगलिया प्रेमा दीदी के पास। वह डेढ़ साल से घर में ही है। जीजाजी की बहुत याद आई। वह दसियों बार तो फोन कर पूछ चुके होते और घर पहुंचने से पहले ही सड़क पर खड़े होते। सम्मान, पूछताछ में कहीं कोई कमी आज भी नहीं रही, लेकिन उनकी जगह कौन भर सकता है।खैर... मनोज और दीदी इंतजार में बैठे थे। मनोज की पत्नी, दोनों बच्चियों से भी संवाद हुए। थोड़ी-बहुत घर-परिवार की बात हुई। बेटी जीवा के पैर में चोट ने परेशान किया।अगले दिन दीदी और छुटकी तनिष्का को लेकर नानकमत्ता चले गए। भयंकर गर्मी और नानक सागर डैम के सूखे होने से कोई खास आनंद नहीं आया। हां, गुरुद्वारे में जाकर आध्यात्मिक शांति मिली। वहीं लंगर छका और लौट आए।कार्यक्रम था दीदी को साथ लेकर दो-चार दिन कहीं घूमने का, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। यहां वही बात फिर कि कार्यक्रम हम कहां बनाते हैं। काठगोदाम में शेखरदा के ससुर यानी सिद्धू के नानाजी अस्वस्थ थे। उनके परिवार के साथ ही कहीं जाना था। शेखरदा कुछ नौकरीगत व्यस्तताओं में घिरे थे। लिहाजा विशेष टूर की कोई योजना नहीं बन सकी। हमारा हाल उसी तरह हो गया जिसे किसी शायर ने इस तरह पेश किया है- 

न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं, अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं। 

सबसे पहले चोरगलिया। फिर नानकमत्ता। फाइनली कोटाबाग वाले सुरेश पांडे जी यानी मेरे साढू भाई ही काम आए। पहले पहल तो उन्होंने भी कहा कि उनकी कुछ व्यस्तताएं हैं, लेकिन फिर मेरा आग्रह नहीं टाल पाए और हम करीब 11 लोग निकल पड़े। दिन में पांडेजी के मित्र जोशी जी के यहां। हमारे लिए नितांत अनजान व्यक्ति, लेकिन आवभगत ऐसी कि जैसे वर्षों बाद कोई बिटिया मायके आई हो। शब्द नहीं हैं उनके अपनेपन को बयां करने के लिए। वापसी में बहुत सारा सामान भी रख दिया गाड़ी में। उनकी बिटिया पायल भी हमारे साथ अगले दिन के सफर में गयी। बेटा पारस हनुमान धाम तक। ऐसा इत्तेफाक बना कि उनकी सभी दीदीयों, बहनों से भी मुलाकात हो गयी। फिर भानजे मनोज के ससुर के रिसॉर्ट में रुके। उन्होंने लीज पर दिया है। जाहिर है वहां टिकने खाने का भुगतान देना है, लेकिन कांडपाल जी पल-पल हमारी खैर-ख्वाह लेते रहे और नाश्ते, लंच और डिनर की विशेष व्यवस्था करवा दी। पहले भी उनके साथ मिलना हुआ। इस बार मिले तो जीजा जी यानी मिश्रा जी को बहुत याद किया। पांडे जी भी कहते रह गये कि कभी मिश्रा जी से मिलने चोरगलिया जाएंगे। क्या कर सकते हैं नियति को यही मंजूर। मैंने प्रिय ईशू यानी इशान पांडेय यानी पांडेय जी के सुपुत्र को उन जगहों का नाम लिखकर भेजने को कहा था, जहां-जहां हम घूमे, लेकिन शायद वह भूल गया। इस बार वह 10वीं पास कर 11वीं में गया है और करिअर के अहम पड़ाव में है। हम पांडेजी के घर कोटाबाग ईजा से भी मिलकर आये। उनका अपार स्नेह मिला। यह सफर हल्द्वानी, कोटाबाग, रामनगर, गैबुआ के इर्द-गिर्द घूमता रहा। आते वक्त हरिद्वार में गंगा स्नान फिर ऋषिकेश का कार्यक्रम बन गया। ऋषिकेश में मित्र अनुराग ढौंडियाल जी ने एक धर्मशाला में व्यवस्था कर दी। वहां गंगा आरती देखने का भी अलग आनंद आया। इस सफर में नदी-नाले, धारे, झरने और भी बहुत कुछ। कुछ बातें तस्वीरें कहेंगी। तस्वीर साभार : नेहा जोशी, मुन्नू या शायद साक्षी पांडे, ईशू, धवल और कार्तिक। इस सफर के रोचक दोस्त प्रहील को कैसे भूल सकते हैं। ज्योति का बेटा हमारे साथ तो नहीं गया, लेकिन जितनी देर उसका सान्निध्य रहा बस मजा आ गया। अभी बहुत छोटा है, फुर्तीला है। आनंददायक है। जब जिक्र करने की बात आई तो भानजी रुचि, दामाद दीपेश और प्यारा बच्चा रीषू यानी ऋषि पंत की बात कैसे रह जाए। परेशान रहते हुए भी रुचि हमेशा स्वादिष्ट भोजन कराती है। रिशू तो कमाल है। नानू-नानी कहते हुए उसका मन करता है कि जो मेहमान आए हैं, वे यहीं रह जाएं। इस सफर के सभी हमसफरों का दिल से शुक्रिया। सफर से संबंधित कुछ शेर हमेशा की तरह इधर-उधर से टीपकर यहां लिख रहा हूं- 

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर 

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया  

किसी को घर से निकलतेही मिल गई मंज़िल  

कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा 

आए ठहरे और रवाना हो गए,  

ज़िंदगी क्या है, सफ़र की बात है 

चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ,  

सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ