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Wednesday, September 20, 2023

गणपति का साथ, आशा, निराशा और जीवन की बात

 केवल तिवारी

प्रथम पूज्य गणेश भगवान की पूजा, अर्चना के इस विशेष पर्व यानी गणेश चतुर्थी के मौके पर मन में अनेक प्रकार की उमड़ घुमड़ हुई। घर के रुटीन काम की निवृत्ति के बाद मन कुछ अशांत अशांत सा रहा। फिर अपने ही अंदर से आवाज आई, उठो और सकारात्मक सोच रखो। फिर ईश्वर संवाद में आगे बढ़ा। डायरी लेखन, बेहद छोटा सा संवाद, मानो गणपति कह रहे हों, जीवन आशा और निराशा का संगम है। इसी में विष और इसी में अमृत है। मंथन करो, ढूंढ़ो और सफर पर चल निकलो। यही उत्साह का संचार ही तो है गणेशोत्सव। 



लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने लोगों को एकजुट कर उत्साही बनाने के लिए ही तो शुरू किया था। उत्साह कितने समय तक? उठा मेरे मन में यह सवाल। कुछ लिखने, व्यक्त करने के दौरान ही फिर कुछ कुछ निराशा सी। किसी की हरकत से, किसी के कमेंट से, आर्थिक हालात से, स्वास्थ्य की दृष्टि से, जिम्मेदारी की फेहरिस्त से... ऐसे ही अनगिनत कारणों से। गणपति समझाते हैं, हमारे मन में बैठकर, भूलकर भी किसी का बुरा न सोचो, बुरा करना तो फिर अकल्पनीय ही हो, मत उम्मीद रखो, अपनी वाणी को मधुर ही बनाए रखो। फिर मानव मन हावी, इतना सबकुछ कैसे संभव? आखिर इंसान ही तो हैं। इसीलिए तो इस इंसानी फितरत को बनाए रखो। कुछ समय बाद उनसे मिलना है, उसकी तैयारी। चर्चा। खरीदारी। लेकिन सबकुछ आपके मन मुताबिक होगा, यह उम्मीद ठीक नहीं। आप अपने मन मुताबिक करो। संकल्प आया कि नकारात्मक बातों में खुद को ज्यादा मत उलझाओ। सार्थक चर्चा के बीच, जिम्मेदारी का अहसास भी हो। फिर ये, फिर वो चलता ही रहेगा। 

गजब संयोग है कि गणेशोत्सव के इस आत्मसंवाद के दौरान ही मित्र मनोज भल्ला का ईश्वर के प्रति आस्था और अनास्था का द्वंद्व भरा मैसेज आया। इतना सामान्यीकरण कैसे हो सकता है। मैं आस्तिक हूं, पर अंधविश्वासी नहीं। मैं यह दावा नहीं करता कि मैं ही सही हूं, लेकिन बिना किसी को कष्ट पहुंचाए मैं अपनी श्रद्धा से जी रहा हूं। चंडीगढ़ में एक दशक तक जिस घर में रहा उसके ठीक सामने शिव मंदिर है। मैं रोज घर के मंदिर में पूजा अर्चना करने के बाद एक लोटा जल मंदिर में भी चढ़ाया करता था, लेकिन सावन के महीने में नहीं जाता। ठीक ठाक भीड़ होती थी, मेरे जाने से शायद किसी का नंबर कट जाता, यही भाव मन‌ में रहता। सामान्य दिनों में भी अगर कोई देवी या सज्जन मंदिर में ध्यानमग्न होता तो मैं लौट आता। आखिर जो व्यक्ति पूजा कर रहा है, वह भी तो सर्वे भवन्तु सुखिन: ही कहता होगा। ऐसे ही जब मैं मित्रों के साथ रहता था, मुझे पूजा के लिए मंदिर की जरूरत नहीं होती थी। समय-समय की बात होती है। कुछ समय के हिसाब से बदल जाते हैं, कुछ गजब का राग द्वेष पाले रहते हैं, जबकि सब जानते हैं कि यह किसी को नहीं पता कि अगले पल क्या होने वाला है। जब हमारा शरीर एक जैसा नहीं रहता तो हमारी आदतें शाश्वत कैसे हो सकती हैं। मेरा मानना है कि पूजा पाठ, आस्तिक या नास्तिक नितांत निजी मामला है। आप ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं तो नहीं मानने वालों को मानने के लिए फोर्स मत कीजिए। नहीं मानने वाले हैं तो मानने वालों की खिल्ली मत उड़ाईये। नितांत पारिवारिक मसलों पर यह नियम थोड़ा लचीला हो सकता है। आप बच्चों से कहते हैं ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं। बहुत व्यापक विषय है यह। गणपति बप्पा के संदेश को समझिए, यह मैं अपने लिए कह रहा हूं... आशा, निराशा ईश्वर का साथ, आपकी बातों के साथ अपनी बात। .... जारी है चर्चा।

Friday, September 1, 2023

बदल गया है लखनऊ.... पर इस नगरी को ट्रैफिक की तहजीब भी चाहिए, एक छोटी सी यात्रा के बड़े सबब

 केवल तिवारी

मेट्रो की सीढ़ियों से ली गई तस्वीर। नीचे तो सब अतिक्रमण

तहजीब की नगरी कहलाने वाले लखनऊ की एक छोटी सी यात्रा पिछले दिनों संपन्न हुई। उत्तर प्रदेश की राजधानी का यह शहर सचमुच बहुत बदल गया है। यहां मेट्रो आ गयी है। यहां ई रिक्शा हैं। यहां जगह-जगह मॉल हैं। यहां हाईराइज बिल्डिंगें नजर आने लगी हैं। फ्लैट कल्चर डेवलप हो गया है। कारों की चकाचौंध है। अस्पतालों की भरमार है। जगह-जगह मॉल हैं। इन सब बदलाव के बीच कुछ बदलाव मन को कचोटती हैं। यहां भाषायी मधुरता खत्म होती सी लग रही है। यहां ट्रैफिक सेंस की शून्यता से दिल को ठेस पहुंचती है। और भी कई चीजों का अनुभव हुआ जो अच्छे सेंस में तो कतई नहीं है। बस यही कहूंगा कि इस ब्लॉग में जो फोटो मैं शेयर कर रहा हूं, वह खूबसूरत हैं और उनसे लखनऊ की पहचान है। मेट्रो स्टेशन से चारबाग स्टेशन की हैं। इसी के नीचे के नजारा देखेंगे तो आपका दम घुटेगा। सड़क पर अतिक्रमण। जगह-जगह सिगरेट का धुआं उड़ाते युवा वगैरह-वगैरह। कैसा दुर्योग है कि लखनऊ जाने का कार्यक्रम ट्रैफिक शून्यता की दो घटनाओं के चलते ही हुआ। बाइक पर सवार भाई साहब का चोटिल होना और एक पुलिसकर्मी द्वारा रेड लाइट जंप कर भाभी को चोटिल कर देना। गनीमत है कि भाई साहब ने हेलमेट पहना था और गनीमत है कि भाभी ने काफी हद तक खुद को संभाल लिया था, नहीं तो स्थिति और ज्यादा खराब होती। अभी भी उनकी स्थिति परेशान करने वाली तो है ही। इसी ट्रैफिक की राष्ट्रीय स्तर पर बात करूं तो वह भी दुखदायी सी ही रहती है। एक माह पहले जाने का कार्यक्रम था, लेकिन ट्रेन रद्द हो गयी। रेलवे का भी अजब कमाल देखिए कि जो ट्रेन रद्द हुई उसका तो पैसा वापस आ गया, लेकिन लखनऊ से वापसी की ट्रेन टिकट का पैसा काट लिया। यानी आप गए या नहीं, इससे क्या मतलब आपको आना तो होगा ही। यानी बिना जाए आना होगा। खैर... इस बार ट्रेन रद्द होने से खौफजदा होकर मैंने अंबाला से हिमगिरि एक्सप्रेस में टिकट ले लिया। ट्रेन पांच घंटे विलंब से आई। ट्रेन टिकट कराने की आपाधापी में एक गलती भी हो गयी। खैर 'लखनऊ हम पर फिदा, हम फिदा ए लखनऊ' की बात को हमेशा कहने वाला मैं, लखनऊ गया और उसे नए तरीके से महसूस किया। पहले जो लखनऊ को जीया और महसूस किया उससे जुदा। उस लखनऊ का जिक्र मैं अपने पूर्व ब्लॉग (https://ktkikanw-kanw.blogspot.com/2017/09/blog-post.html) पर साझा कर चुका हूं। इसमें कुछ शेर ओ शायदी इधर-उधर से टीपी हैं। मसलन- लखनऊ है तो महज़ गुम्बद-ओ मीनार नहीं

सिर्फ एक शहर नहीं, कूचा ओ बाज़ार नहीं

इसके दामन में मोहब्बत के फूल खिलते हैं

इसकी गलियों में फरिश्तों के पते मिलते हैं

लखनऊ हम पर फ़िदा, हम फ़िदा ऐ लखनऊ

या फिर

दुनिया में कम नहीं, तेरे चाहने वाले तेरी अदा के कायल,तुझपर निसार भी

ए शहरे लखनऊ, तुझको नहीं पता तुझ बिन नहीं संभलता,मेरा कल्बे ज़ार भी

आज का लखनऊ रफ्तार में है। समय के हिसाब से यह रफ्तार जरूरी भी है, लेकिन इस रफ्तार में तहजीब ही बदल जाए, ये बात कुछ हजम नहीं होती। अबे, तबे की भाषा पहले बहुत ही गहरे दोस्तों के बीच होती थी, आज बस या ऑटो में साफ सुनाई पड़ता है, कहां जाओगे, बैठो। एक दशक तक पहले यह भाषा इस तरह होती थी, 'कहां जाइएगा, बैठिए।' मजाक में कहते थे कि लखनऊ वाले गाली भी तहजीब से देते हैं। बदलाव अवश्यंभावी है, लेकिन हर तरफ ट्रैफिक रूल तोड़ते हुए बेतरतीब तरीके से चलना, हॉर्न पर हॉर्न बजाना, लालबत्ती की परवाह न करना, पैदल वालों को महत्व न देना सच में ऐसा लगता है कि यह लखनऊ है या फिर कोई 'बदतमीज शहर।' अतिक्रमण पर, ट्रैफिक व्यवस्था पर अगर अब ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले कुछ वर्षों में स्थिति और विकट हो सकती है। इसलिए लखनऊ को लखनऊ बने रहने दीजिए। बनाए रखिए। हम-आप भी और सरकार भी। सभी से है दिली गुजारिश।

पशुओं में भी गजब की मानवता, और उन बिल्लियों के प्यारे बच्चों की अठखेलियां

पांच घंटे लेट ट्रेन के उबाऊ सफर के बाद लखनऊ तेलीबाग स्थित अपने घर पहुंचा तो भाई साहब, भाभी जी इंतजार कर रहे थे। वहीं बैठी थी लाल रंग की बिल्ली अपने तीन बच्चों के साथ। मुझे देखते ही अलर्ट हो गयी। बच्चों को अपने पास समेट लिया। एक आवाज दी म्याऊं। यह इशारा था कि बच्चो अंदर चलो। अगली सुबह से लेकर दोपहर तक उस बिल्ली का बच्चों को अनुशासित रखने, उनके खाने-पीने और बाहर जाने तक के सिस्टम को देखकर दंग रह गया। सच में पशुओं में गजब की 'मानवता' होती है। वह आंगन (हरियाली के लिए छोड़ी जगह) में बच्चों को ले जाती। फिर अंदर चलने के लिए कहती। दूध पीने का समय हो गया तो उसका भी इशारा हो जाता। बॉल से खेलते बच्चे बहुत अच्छे लग रहे थे, लेकिन उनकी मां को यह शैतानी लगती और समय-समय पर वह म्याऊं-म्याऊं बोलकर आगाह करती। एक-दो बार मैंने उन बच्चों को गोद में लिया तो ऐसे गुर्राई मानो ताकीद कर रही हो कि बच्चे हैं, इन्हें कोई नुकसान पहुंचाया तो खैर नहीं। कुल मिलाकर उस बिल्ली की ममता और बच्चों की शैतानी देखते ही बनती थी। (छोटी सी वीडियो देखिए) 




 लजीज पकवान और लखनऊ की याद

देर रात जब लखनऊ पहुंचा तो आर्गेनिक खेती के केलों के कटलेट और कोफ्ते खाने को मिले। चोटिल भाभी जी और भाई साहब ने स्वादिष्ट व्यंजन बनाया था। सामान्यत: लखनऊ लजीज खाने के लिए जाना जाता है। अगली सुबह पकौड़ों का नाश्ता दिन में कढ़ी, चावल और टपकी का लुत्फ उठाया। प्रसंगवश बता दूं कि मंगलवार शाम बाहर टहलने के लिए निकला। राम भरोसे स्कूल के पास उस गोलगप्पे वाले को ढूंढता रहा जहां कभी कन्नू ले जाया करती थी। वह कहीं नहीं दिखाई दिया। कुछ साल पहले तक मियां बीवी वहां रेहड़ी लगाते थे। फिर मन को तसल्ली दी कि शूगर वालों को कंट्रोल करना जरूरी है, वैसे ही जैसे मैंने रुटीन खान-पान में कर दिया है। एक किलोमीटर वाक के बाद घर आ गया। भोजन, बातचीत और तेजी से निकल गया दिन। सुबह बगल में तिवारी जी के यहां गया। मन था कि कुछ और लोगों से मिल आऊं, लेकिन किंतु परंतु हावी हो गया। अब कभी हफ्तेभर के लिए जाऊंगा और सबसे मिलकर आऊंगा। अगले दिन शीला दीदी के यहां गया, वहां दही भल्ले, छोले और पूड़ी खाने को मिली। दीदी और जीजाजी का व्रत था। मैं और भानजा गौरव ही थे खाने वाले। खानपान के शहर लखनऊ में वक्त बहुत तेजी से निकल गया। आलम यह रहा कि वापसी में भानजे गौरव ने भूतनाथ मंदिर के बाहर से ही दर्शन कराए। फटाफट मेट्रो में बैठकर चारबाग पहुंचा। ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। आपाधापी ऐसी रही कि भावना ने पहली बार रेवड़ी लाने को कहा और नहीं ला पाया। अलबत्ता धवल के लिए तो कुछ आ ही गया था। भागादौड़ी वाला सफर ठीक ही रहा क्योंकि अपनों से मिलने में परेशानियों की क्या बिसात, क्योंकि अपने तो अपने होते हैं। और अंत में दो शेर

जाते हो ख़ुदा-हाफ़िज़ हाँ इतनी गुज़ारिश है 

जब याद हम आ जाएँ मिलने की दुआ करना

मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम 

निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़

अंबाला स्टेशन पर ट्रेन के इंतजार में