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Saturday, June 6, 2020

धीरे-धीरे रे मना

केवल तिवारी
उनकी वाणी में तल्खी है। उनकी वाणी में सत्यता है। वह जीने की कला सिखाते हैं। वह जीवन का मतलब बताते हैं। आडंबरों के धुर विरोधी। निश्छल प्रेम के पक्के समर्थक। वह कबीर हैं। संत कबीर। कई सौ साल पहले ही कह गये कि मनुष्य को धैर्य बनाये रखना सीखना चाहिए। उनकी वह सीख वर्तमान दौर में एक बार फिर अनिवार्य बन गयी है, ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।’ समय पर ही सबकुछ होगा। महामारी के आज के दौर में मनुष्य व्याकुल है, लेकिन कबीर की शिक्षा की मानिंद हमें व्याकुलता छोड़ अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ते रहना होगा।
असल में कबीर समाज में चैतन्यता लाने वाले थे। वह कहते हैं, अपने मन के भटकाव को रोको। यह मन तो न जाने क्या-क्या इच्छाएं करता है। इच्छाएं अनंत हैं। यदि मन की इच्छाएं ही पूर्ण हो जातीं, तो फिर मानव तो कर्म विहीन ही हो जाता। मेहनत के बल पर जो फल मिलता है, उसका स्वाद निराला होता है- ‘मन की मनोरथ छांड़ि दे, तेरा किया न होई। पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।’ यही नहीं, कबीर संतोष बनाए रखने की सीख देते हैं। क्या होगा जो इसे, उसे समेटने में जुटे रहोगे। बस जरूरत भर के लिए मिल जाये और दूसरों के लिए भी कुछ कर पाएं, इससे बड़ा सुख और कहां। वह कहते हैं, ‘साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय।’ सहृदय बने रहने की सीख देने वाले कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति का हृदय औरों के दुख से दुखी होगा, जो भावुक होगा, निश्चित रूप से वही जीवन का असली रस ले सकने वाला होगा। अपने लिए तो पशु भी जीते हैं। अगर हम औरों के बारे में भी सोचने वाले बनेंगे तो इस कुदरत के सही ज्ञान को समझ पाएंगे। जिस प्रकार बारिश का आनंद या बारिश का प्रभाव एक हरे पेड़ पर ही पड़ सकता है, किसी ठूंठ या सूखे पेड़ पर नहीं, उसी प्रकार सहृदय व्यक्ति ही प्रेमभाव को समझ सकता है। जो निर्मम है, उसे तो निराशा या बुराई ही समझ में आएगी- ‘हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह। सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेह।’
अहं को छोड़ना होगा
संत कबीरदास जी कहते हैं जीवन का असली सुख पाने के लिए ‘मैं’ यानी अहं को छोड़ना होगा। यूं तो यह शरीर कुछ नहीं, बस एक कच्चे घड़े की तरह है, बस जरा सी ठोकर लगी और टूट गया, लेकिन इसी तन-मन को अगर हम परोपकार में लगाएंगे तो राह कठिन दिखेगी, लेकिन आनंद असीम मिलेगा। उसके लिए सबसे पहले तो जरूरी है अपने अहं को मिटाना, ‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।’ हरि को पाने यानी मन को प्रसन्नचित्त करने की राह थोड़ी कठिन लग सकती है, पर उस पर इसी कठिनाई के साथ ही चलना होगा, ‘लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार। कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।’ अगर यह मार्ग दुर्गम लगे, यानी सिर्फ अपने तक सीमित रहना है या मन पर विजय पाने की इच्छाशक्ति न हो तो फिर तो यही हाल होगा, ‘यह तन काचा कुम्भ है, लिया फिरे था साथ। ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।’ अपने अलावा समाज, देश और आसपास के लिए आप जो करेंगे, असल में वही असली पूंजी है। आज महामारी के संकट में हर कोई परेशान है, इसी परेशानी के दौर में अनेक लोग औरों की सेवा में लगे हैं। अपने हिस्से की जिम्मेदारी सबको निभानी जरूरी है। समाज के लिए किया हुआ ही काम आएगा- ‘कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ। सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ।’
मगहर में समाधि 
निर्गुण भक्ति शाखा के ज्ञानमार्गी संत कवि कबीरदास के जन्म को लेकर कई किंवदंतियां हैं। माना जाता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा ताल के पास हुआ था। जन्म वर्ष को लेकर भी अलग-अलग मत हैं। उन्होंने खुद ही अपने जन्म के बारे में लिखा है- ‘चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ ठए। जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए।’ वह स्वामी रामानंद को गुरु मानते थे। उनके गुरु के मुख से निकले राम नाम को ही वह पहली दीक्षा मानते थे, ‘राम नाम के पटतरे देवै को कछु नाहिं, कह ले गुरु संतोषिए हौस रही मन माहिं।’ जन्म की भांति ही उनके निधन को लेकर भी अलग-अलग मत हैं। कहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद उनके हिंदू और मुस्लिम अनुयायी अपनी-अपनी विधि से अंतिम संस्कार कराना चाहते थे, लेकिन जहां उनका शव रखा था वहां कुछ फूल पड़े मिले जो दोनों ओर के अनुयायियों ने थोड़े-थोड़े रख लिए। मगहर में कबीर की समाधि है। नोट : यह लेख दैनिक ट्रिब्यून में छप चुका है। 

Wednesday, June 3, 2020

कोरोना काल और तेजश्वर का सराहनीय अभियान

कोरोना महामारी का दौर। लॉकडाउन के कई चरण। कुछ की चिंता घर में कैसे टाइम पास कैसे करें। कुछ पकवान बनाकर सोशल साइट्स पर डाल रहे हैं। कुछ चैटिंग में व्यस्त हैं। कोई बच्चों के स्कूल से मिले ऑनलाइन होमवर्क में मदद कर रहा है। इन सबसे एक वर्ग ऐसा है जिसके सामने घना अंधेरा है। रोज कुआं खोदते थे और रोज पानी पीते थे। अब क्या करें। निरंतर चल रहे हैं। भूखे प्यासे। मदद के लिए हाथ उठे भी तो स्थिति वैसी ही। अकेले दिल्ली-एनसीआर में ही हजारों लोग रोज सड़कों पर दिखते। ऐसे में एक सराहनीय अभियान सामने आया। तेजेश्वर का। तेजेश्वर सिंह दुग्गल। चंडीगढ़ के सेक्टर 38 स्थित विवेक हाईस्कूल का 12वीं का छात्र। महामारी के दौर में सबसे मुश्किल में पड़े वर्ग का दर्द तेजेश्वर को समझ आया। दिखा। महसूसा गया। दैनिक वेतन भोगी, प्रवासी श्रमिक और आर्थिक रूप से गरीब लोग कहां जायें। अचानक वे आय के किसी भी स्रोत के बिना हैं, और वे अपने परिवारों को भोजन या बुनियादी स्वच्छता सुविधाएं प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें वायरस से ज्यादा भुखमरी का डर है। तेजेश्वर को लगा, इस मोड़ पर, हमें, समाज के अधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को इस कठिन समय में उनका समर्थन करने की आवश्यकता है। लॉकडाउन ने उन पर एक अतिरिक्त बोझ डाल दिया था। तेजेश्वर ने एक अभियान चलाकर करीब 60 हजार रुपये संस्था अक्षय पात्र को सौंपे। ताकि कुछ लोगों को खाना मुहैया कराया जा सके।
लॉकडाउन के दौरान जरूरतमंदों की सेवा के संबंध में कैसे आइडिया आया पूछने पर, तेजेश्वर ने कहा, 'मैंने फ्यूल अ ड्रीम डॉट कॉम पर फंडिंग अभियान शुरू किया। मैंने अपने परिजनों और उनके दोस्तों को अभियान में योगदान देने के लिए कहा। इसके साथ ही अपने मित्रों और उनके परिजनों से भी योगदान के लिए सोशल मीडिया पर अपील की और फोन कॉल किए। मैंने उन्हें समझाया कि अभियान का उद्देश्य एनसीआर और यूपी भर में पका हुआ भोजन उपलब्ध कराना है जो संस्था अक्षय पात्र के जरिये किया जा रहा है। मैंने अपनी पॉकेट मनी और दोस्तों से मिली करीब 60 हजार राशि का योगदान किया।' तेजेश्वर के मुताबिक अब तक जुटाई गई धनराशि उन 2400 लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाएगी, जिन्हें भोजन मिलेगा। दान देने वालों को भी इससे सुकून मिलेगा। बेशक सरकार अब लॉकडाउन के पांचवे चरण को अनलॉक-1 की संज्ञा देने लगी है, लेकिन दिक्कतें अभी भी कम नहीं हुई हैं। तेजेश्वर के बारे में पिछले दिनों ट्रिब्यून स्कूल की प्रिंसिपल वंदना सक्सेना से हुई। कई बातों की तरह उन्होंने इसे भी मुझसे साझा किया। मुझे लगा वाकई यह अभियान तो सराहनीय है। आखिर उन्होंने गरीबों की मदद के लिए कदम उठाया है। वंदना जी से चर्चा के बाद मैंने तेजेश्वर के संबंध में कुछ पंक्तियां और उनके अभियान को कई लोगों से साझा किया है। वाकई ऐसे बच्चों से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। वेलडन तेजेश्वर, अब धीरे-धीरे कॅरिअर की दहलीज पर बढ़ोगे, परोपकार की इस भावना को बनाये रखना। कहा भी तो गया है-'अष्टादस पुराणेसु व्यासस्य वचनं द्वयम। परोपकाराया पुण्याय, पापाय परपीडनम।' अर्थात 18 पुराणों में व्यासजी ने दो ही बातें कहीं हैं एक तो परोपकार के समान कोई पुण्य नहीं और दूसरों को कष्ट देने जैसा कोई पाप नहीं।