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Tuesday, March 16, 2021

वसुंधरा की वह यात्रा और जीवन पथ गुलाबी बाग से नोएडा-गाजियाबाद के सफर का जिक्र

केवल तिवारी

मुझे मोहब्बत है अपने हाथों की सब उंगलियों से, ना जाने कौन से उंगली पकड़ के मां ने मुझे चलना सिखाया होगा

यह शायरी याद आ गयी आज जब कुछ लिखने को जी चाहा। हर दिन हर पल कुछ लिखने को मन में कुलबुलाता रहता है, लेकिन दिल की ज्यादातर बातें डायरी में दर्ज कर लेता हूं, जो बात ज्यादा हिलोरें मारती हैं या जिस बात पर लगता है कि इसे तो सबके साथ साझा किया जाना चाहिए, उसे अपने ब्लॉग पर चस्पां कर देता हूं। डायरी लिखने की बात आई तो हमारे भतीजे साहब बिपिन ध्यान में आये। उन्होंने एक डायरी हाल ही में मुझे दी है। इत्तेफाक देखिये मेरी पुरानी डायरी अभी-अभी भरी है, अब नयी शुरुआत इसी में करूंगा। खैर... बिपिन तिवारी द्वारा दी गयी डायरी का किस्सा बहुत पुराना नहीं है, हाल ही में मैं दिल्ली गया था। गाजियाबाद भी जाना हुआ। बिपिन से बात हो गयी थी। बिपिन ने कहा कि पहले ग्रेटर नोएडा आ जाओ, हम सब लोग नितिन के साथ हैं, फिर चलेंगे वसुंधरा। मैंने वसुंधरा स्थित अपने फ्लैट में कुछ काम करवाया था, उसे देखना था और ठेकेदार को कुछ पैसा भी देना था। इस बीच, भतीजी भावना तिवारी यानी कन्नू से भी मिलने का कार्यक्रम था, लेकिन इत्तेफाक से उस दिन उसकी व्यस्तता थी। मैं समझ सकता हूं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की व्यस्तता। फिर जिम्मेदारी और तरक्की के पथ पर बढ़ते रहने के लिए थोड़ी भागदौड़। खैर मैंने परिवार के अन्य सदस्यों से बात नहीं की क्योंकि मैं जानता था कहीं भी मिलने नहीं जा पाऊंगा। हेम, हरीश, दीप, प्रकाश सभी तो दूर-दूर हैं। भतीजियों को घर भी अलग-अलग दिशाओं में है, फिर और लोग भी हैं। खैर अपने सफर के दूसरे पक्ष की ओर जाऊंगा तो मुद्दा भटक सा जाएगा। सीधे मुद्दे पर आता हूं। मैं अपने साले साहब भास्कर जोशी (राजू) के यहां फरीदाबाद पहुंचा, वहां से ग्रेटर नोएडा गया। पहले वरिष्ठ पत्रकार और मुझसे खास स्नेह रखने वाले नरेंद्र निर्मल जी के यहां गये। करीब एक घंटा वहां बैठने के बाद आ गया नितिन के फ्लैट (स्लीओ कंट्री, सेक्टर 121-नोएडा) 12वीं फ्लोर पर घर। वहां नितिन की नानी जी और मामाजी भी मिले। नितिन की मम्मी बीना, बहन मिन्नी और एक साल से तिवारी परिवार से जुड़ी नयी नवेली बहू मानसी मिलीं। बेहद सरल और सहज अंदाज में हुई बातें। मैं तो वाचाल किस्म का हूं, काफी कुछ बोल गया। नितिन ने कहा, बड़बाज्यू खाना बनने तक आइये नीचे घूम के आते हैं। हम लोग सोसायटी देखने चले गये। सचमुच एक नयी दुनिया सी। गगनचुंबी इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर उतनी ही सुविधाएं। कुछ दिन पहले इसी इलाके में नितिन-मानसी की शादी की साल गिरह का जश्न मना था। उस समारोह में मैं नहीं था, खैर वह कमी आज पूरी हुई। मानसी के हाथ का खाना पहली बार खाया। बेहतरीन लगा। भले गगनचुंबी इमारत हो, भले आलीशान सुविधाएं हों, भले एक नया संसार सा हो, लेकिन सहजता वही पुरानी थी, सरलता वही पुरानी थी। मेरी भी और बाकी अन्य की भी। बातों-बातों में मानो हम कह रहे हों-

पता अब तक नहीं बदला हमारा, वही घर है वही क़िस्सा हमारा।

दोपहर के भोजन के बाद मैं और बिपिन चले आये वसुंधरा, नितिन के मामा ने हमें वहां छोड़ दिया। इस बीच काफी बातें होती रहीं। पहले बिपिन के घर गये वहां कुछ देर आराम किया फिर चाय पी। उसके बाद मैं और बिपिन पैदल चल दिए मेरे फ्लैट की ओर। अनेक बातें हुईं और उन बातों का सार यही निकला कि-

रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए, एक छोटा सा उसूल बनाते हैं। रोज कुछ अच्छा याद रखते हैं, और कुछ बुरा भूल जाते हैं

याद करने के इस क्रम में हम लोगों ने बात की गुलाबी बाग की। हमारे परिवार के एक हिस्से की बात हो और गुलाबी बाग का जिक्र न हो, कैसे हो सकता है। जिस तरह परिवार के दूसरे हिस्से की बात हो और लखनऊ तेलीबाग का जिक्र न हो, हो नहीं सकता, उसी तरह गुलाबी बाग का जिक्र तो स्वाभाविक था। गुलाबी बाग में भी 754 का। 754 वह नंबर है, जिसे हम तब से सुनते थे जब से हम शायद दिल्ली के बारे में भी सही से नहीं सुन पाए होंगे। मुझे याद है गांव से जब चिट्ठी लिखाई जाती थी तो कहा जाता था, बुद्धिबल्लभ तिवारी को मिले, 754 गुलाबी बाग-दिल्ली। बाद में मेरा भी उस घर में जाना हुआ। पुष्पा दीदी वहां कई महीने रही। मेरी माताजी वहां बहुत रहीं। हमारे परिवार का शायद ही कोई सदस्य होगा जो उस छोटे से घर 754 की विशालता और दीर्घता को न जानता हो। यह दीगर है कि नयी पीढ़ी के बच्चों ने सिर्फ सुना ही होगा। चूंकि जब से दिल्ली आया, बिपिन से नया रिश्ता भी बना, मित्रता का। बिपिन रिश्ते में भतीजा है, पूरा परिवार सम्मान देता है, लेकिन उम्र में तो बड़ा है ही। यहां मैं बिपिन के लिए इस तरह की शब्दावली लिख रहा हूं, लेकिन कभी बिपिन दंपती के लिए मुंह से तू-तड़ाक नहीं निकलता। आखिर मेरी लघुता में इतनी दीर्घता तो होना जरूरी है। खैर आते हैं चर्चा पर वापस। हम लोग अक्सर मिलते हैं। नहीं भी मिलते हैं तो परिवार के अन्य सदस्य किसी न किसी रूप में आपस में जुड़े हैं। सभी संस्कारी। हमारा परिवार है, इसलिए नहीं कह रहा हूं, बल्कि इस परिवार का उदाहरण दिया जाता है, इसलिए कह रहा हूं। क्योंकि-

अगर ज़िन्दगी एक सफर है तो परिवार उस सफर का सबसे सुन्दर हमसफ़र है।  

और इसलिए भी-

ऐ इंसानियत मेरी, मुझमें तुम बाकी रहना, परिवार को मुझमें, और मुझे परिवार में शामिल रखना।

चलिए बात जारी रखी जाये। नितिन के घर में जब हम सब बातें कर रहे थे तो सभी प्रसन्नचित्त दिख रहे थे। और इस बात को हम सब जानते हैं कि-

जिस परिवार में मां-बाप हंसते हैं, उसी घर में भगवान बसते हैं।

खैर 754 के बाद बिपिन ने गुलाबी बाग में दो मकान बदले। मुझे उनके नंबर ठीक से याद नहीं, लेकिन ग्राउंड फ्लोर के मकान में कई मौकों पर हम परिवार सहित मिले। एक शायद नितिन की जनेऊ के मौके पर और एक बार प्रेमा की शादी के मौके पर। वहीं दीप का भी घर है। अब प्रकाश भी उसी इलाके में अपने घर में रह रहा है। बड़ी प्रसन्नता होती है, यह सब सुनकर। खैर, चलना ही जिंदगी है। चलते-चलते और बातों बातों में पहुंच गया हूं वसुंधरा। यहां जब से बिपिन आया तो लगा अरे वाह अब तो पड़ोसी हो गये। उस दिन फिर बातचीत जारी रही। एक विचार आया कि-

इंसान आजकल इसलिए भी परेशान है, क्योंकि जो गर्मी रिश्तों में होनी चाहिए वो हमारे दिमाग़ में है।

हम लोग तो उस राह के राही हैं जिसके बारे में किसी शायर ने लिखा है-

अपनी गृहस्थी को कुछ इस तरह बचा लिया करो, कभी आंखें दिखा दी कभी सर झुका लिया करो।

रविवार के उस दिनभर की भागादौड़ी के बाद शाम को कुछ देर बैठकी हुई। बिपिन का बेहतरीन सौजन्य रहा। मेरे चार मित्र भी थे। विस्तार से उसकी क्या बात लिखनी। अपने इस यात्रा वृतांत को विराम देते हुए अंत में कहूंगा-

परिवार में कहना–सुनना आम है, बस लड़ाई के बाद सब भूल जाना आपका काम है।


भंवरे की गुंजन और बचपन की यादें...

केवल तिवारी

भंवरे की गुंजन है मेरा दिल, कब से संभाले रखा है दिल, तेरे लिए, तेरे लिए... इस धरती पर मेरे अवतरण से पहले बनी फिल्म कल आज और कल का यह गीत बहुत पहले से सुनता आया हूं। हसरत जयपुरी साहब के बोल और शंकर-जयकिशन का संगीत। आज अनायास ही फिर मुंह से फूट पड़ा। असल में घर के अंदर कहीं से एक भौंरा आ गया। छोटा सा। श्रीमती जी ने कहा, इसे बाहर कर दो। फिर आजकल ततैया भी खूब आ रही हैं। शायद यह मौसम उनकी ब्रीडिंग के लिए बहुत मुफीद होता है। भंवरे को बाहर करने उसके पास गया तो भ्रामरी योग में निकलने वाली आवाज सी आयी। धीरे-धीरे लगा अरे यह आवाज तो सुनी-सुनाई सी है। आज की नहीं, बहुत पहले की। शायद मैं तीसरी या चौथी में पढ़ता होऊंगा। या हो सकता है मैं चार-पांच साल का रहा होऊंगा। कालखंड सटीक याद नहीं है, हां गांव का नजारा था, यह अच्छी तरह याद है। गौर से सोचा तो याद आ ही गया वह दौर। गांव का। माता जी खेत में गयी होती थीं। दीदी या तो स्कूल या उन्हीं के साथ खेत में। मैं घर में अकेला होता था। बाहर के कमरे यानी चाख में ऐसा ही भौंरा या बड़ी मक्खी घूमती थी और उसकी भ्रमरगान मुझे उदासी से भर देता था। कभी खिड़की पर आकर बाहर को देखने लगता या फिर बाहर आ जाता। बाहर भी सन्नाटा सा पसरा दिखता। दिन में आराम करने का रिवाज होता था। कुछ लोग या तो घर में होते ही नहीं, होते तो आराम कर रहे होते। फिर हमारे जैसे बच्चों को कौन तवज्जो दे। खैर आज यह भौंरा आया, पत्नी ने बाहर करने को कहा तो मैं बचपन की बातें बताने लग गया। फिर मुझे लगा, पहले मुझे गीत गा लेना चाहिए था, 'भंवरे की गुंजन है मेरा दिल, कब से संभाले रखा है दिल तेरे लिए, तेरे लिए...' लेकिन क्या करें, यादों के पिटारे को सिर पर लादे फिरता हूं। याद आ गया वह मंजर। चलो इसी बहाने कुछ लिखने का मन हो गया और एक छोटा सा पीस यहां लिख डाला। 
और अंकल जी का कहना, खुश रहो तो वजन बढ़ेगा
बातों-बातों में एक रात पहले की बात याद आ गयी। अपने मित्रों के साथ कहीं गया था। वहां एक अंकल जी मिले। सरदार जी। बुजुर्ग, लेकिन सेहतमंद। वहीं हॉल के बाहर रखी वजन तोलने की मशीन थी। मैंने मित्र से कहा, 'यार मेरा वजन लगातार कम हो रहा है। हालांकि डॉक्टर ने ऐसे संकेत दिए हैं, लेकिन जब से जाड़ों के कपड़े उतर गये हैं कुछ ज्यादा ही दुबला दिखने लगा हूं।' मित्र ने कहा, वजन कुछ मेरा भी कम हुआ है। हम लोग बात ही कर ही रहे थे सरदार अंकल आ गये। मैंने और मित्र ने पूछा, 'अंकल वजन बढ़ाने के लिए क्या करें?' वे तुरंत बोले, 'खुश रहा करो, अच्छी गल किया करो, ऐहते दूजा कोई गल नहीं, वजन आपे बढ़ जावेगा।' मैं बोला, 'अंकल तुसी सच्ची गल कित्ता।' फिर हम सभी हंस पड़े, थोड़ा मेरी पंजाबी बोलने पर हंसना और थोड़ा अंकल की सही बात पर सहमति जताना। फिर मैंने और मित्रों ने कहा कि वास्तव में बात छोटी सी है, लेकिन असरदार। खुश रहना चाहिए। अच्छी बातें करनी चाहिए। शेष सब चलता रहता है। चलिए बातों बातों में कुछ बातें हो गयीं, बाकी फिर कभी---