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Saturday, October 22, 2022

कार्तिक का महीना, दिवाली का त्योहार और पर्यावरण-पारिजात

 केवल तिवारी 




दिवाली का त्योहार हम सब मना रहे हैं। इस त्योहार पर प्रदूषण को लेकर कई सवालात उठ रहे हैं। कहा जा रहा है कि पर्यावरण को खतरा है। खतरा है भी। धुआं फैलने और पटाखों की गंध से प्रदूषण तो बढ़ेगा ही। इस मुद्दे पर सियासत भी हो रही है, लेकिन सियासत से इतर इन दिनों हमारे घर में पारिजात फूल की खूब चर्चा हो रही है। पारिजात फूल खिलने की खुशी कई जगह साझा की। शीला दीदी ने कहा कि कार्तिक मास में इसे शिव और विष्णु पर चढ़ाने का विशेष प्रयोजन है। असल में लगभग एक साल पूर्व एक छोटा सा पौधा अपने ससुराल काठगोदाम से लेकर आया था। उम्मीद कम ही थी इसके ठीक से बढ़ पाने की। फिर भी एक नया गमला तैयार किया और पौधा रोप दिया गया। बमुश्किल 20-25 पत्तियां इस पौधे में थीं। उनमें से एक-दो पीली पड़कर नीचे गिर गयीं। मन को मनाया शायद यह पौधा गमले में नहीं होता होगा। लेकिन धीरे-धीरे उसमें रंगत आने लगी। मैंने भी समय-समय पर गुड़ाई और खाद-पानी देना जारी रखा। देखते-देखते उसमें पत्तियां बढ़ने लगीं। वह बड़ा होने लगा और लगभग 8 माह में ही वह मुझसे लंबा हो गया। इस बीच उसकी कई शाखाएं फूट गयीं। गत अगस्त माह से उसमें एक-एक शाखा में इतने सारे गुच्छे लगने शुरू हुए कि समझ में नहीं आता कि ये गुच्छे पत्तियों के हैं या कलियां खिलने वाली हैं। अक्तूबर शुरू होते-होते आश्वस्त हो गया कि ये फूल ही खिलने वाले हैं। और पता चला कि कार्तिक मास में ये फूल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। एक शाम अपने ऑफ के दिन देखा कि छोटा सा बल्बनुमा कली सी लगी है। मैंने कैमरे में क्लिक कर दिया। करीब घंटेभर में ही वह कली फूल बन गयी और एक सुगंध सी बिखर गयी। सुबह वह फूल सचमुच स्वत: ही गिर गया। जैसा कि सुना था, वही हुआ। मैंने सबसे पहले काठगोदाम भावना के भाई शेखर जी और उनकी पत्नी को फोटो भेजकर खुशी जताई। फिर कई अन्य जगह भी। इसी सब पर मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले ही पर्यावरण और हमारी संस्कृति पर बात हो रही थी। सचमुच पर्यावरण प्रेम और पेड़-पौधों को बचाने की परंपरा तो हमारे यहां सदियों से है। तुलसी, नीम, गेंदा, पीपल, बड़, बरगद और ऐसे ही अनगिनत पेड़-पौधों को बचाने की कवायद और धार्मिक मान्यताएं हमारे यहां प्राचीन काल से है। पारिजात का यह पौधा एक गमले में ही सही, पेड़नुमा बना है और रोज ढेर सारे फूल आंगन में दिखते हैं। साथ में ही गुड़हल भी है। सचमुच कुदरत ने हमें क्या-क्या अनमोल तोहफे दिए हैं। पारिजात के बारे में कई कहानियां भी प्रचलित हैं। कोई कहता है कि समुद्र मंथन के दौरान यह निकला था और किसी की मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने इसे दिया था। जो भी हो, प्रकृति प्रेम हम सबमें होना चाहिए। चाहे वह धार्मिक मान्यताओं के आधार पर हो या फिर अपने पर्यावरण को बचाने के नाम पर। तो चलिए हम भी पर्यावरण प्रेम की ओर बढ़ें। जमीन है तो खूब पेड़-पौधे लगाएं। नहीं है तो गमले में ही बसंत को ले आएं। दिवाली और उसके बाद आने वाले सभी त्योहारों की शुभकामनाएं।  

Tuesday, October 4, 2022

सुखमें सुमिरन... दुख में सुमिरन

केवल तिवारी 

दुख में सुमिरन सब करेसुखमें करे  कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुख काहे को होय। 

कबीरदासजी के इस दोहे को पिछले दिनों नये रूप में महसूस किया।नया रूप क्याकह सकते हैं बदले रूप में उस बदले रूप को लेकर बहसें हो सकती हैं। असल में इस माह की शुरुआत में उत्तराखंड प्रेमा दीदी के पास गयाथा।गत मार्च मेंजीजाजी के निधन केबाद मन में थाकि दो माह में एक बार तो हो हीआऊंगा। हालांकि मेरे जाने से दुख कम नहीं हो जाएगालेकिन सालभर तक का जो भयानक कालखंड होता हैशायद उसमें दो घड़ी मैं दुखों को साझा कर सकूंऐसा मेरा मानना है। हालांकि जीजाजी की स्मृतियां तो हर पल मन में हैंदिल में हैं। दुखों को साझा करनेके ही क्रम में दीदी के साथ बातचीत कर ही रहा था कि दीदी बोली, 'मेरा मन तो पूजा-पाठ में अब बिल्कुल नहीं लग रहा।क्यों कहते हैं कि दुख में सुमिरन सब करे। पूजा-पाठ में तो तभी मन लगता था जब तेरे जीजाजी थे। घर में सब अच्छा चल रहा होता है तो खूब पूजा-पाठ में मन लगता है। दुख में तो सुमिरन हो ही नहीं रहा। मैंने इस बात पर सहमति जताई कि हांदुख जब  जाता हैतो कई बार मन विचलित हो जाता है।पूजा-पाठ या यूं कहेंकि रुटीन के कर्मकांडों में मन कम लगता है।



लेकिन सुमिरन का जो कांसेप्टहैउसकी विशाल व्याख्या हो सकतीलेकिन यहां मैंने दीदी के हां में हां मिलाई और एक दार्शनिक अंदाज में दिल ही दिल में रोते हुए कहा कि 'नियति को यही मंजूर।कबीरदास जी की उक्तियां तो अनेकार्थी हैं। एक-एक वाक्य की बड़ी-बड़ी व्याख्या हो सकती हैलेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिनके बारे में दीदी की हां में हां मिलाना ही ठीक लगा। असल में सुमिरन का यह मामला तो उसी तरह है जैसे हमारे सामने कोई तात्कालिक परेशानी आ गयी, हम मन ही मन प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि हे ईश्वर दुख दूर करना, जब परिस्थितियां सामान्य हो गयीं तो हम ईश्वर को भूल गये। या सुमिरन करने की औपचारिकता सी निभाने लग गये। असल में यहां सुमिरन करने या नहीं करने की कोई बात नहीं। यहां भाव की बात है। घर में माहौल अच्छा हो तो साफ-सफाई, पूजा-पाठ, मेहमाननवाजी आदि सब में मन लगता है, लेकिन जब माहौल अच्छा नहीं हो तो मन उखड़ा उखड़ा सा लगता है। यही उखड़ा हुआ मन इन दिनों चोरगलिया दीदी के यहां है। जाहिर है सबसे ज्यादा व्यथित दीदी है। दीदी ऐसी दार्शनिक बातें कभी करती नही थी, जैसा इन दिनों कर रही है। लेकिन यह सब भी नियति है और सब समय का फेर है। देसी अंदाज में हमारी माताजी (ईजा) कहती थी, ‘मन करे गुड़मुड़ गाड़मुड़, करम करे निखाणी’ अर्थात मन में हम बहुत मनसूबे बनाते हैं प्लानिंग करते हं, लेकिन कर्म फल तो कुछ और ही लिखे होते हैं। खैर… ईजा की भी याद ही याद हैं और जीजाजी की भी। 

मित्र जैनेंद्र संग चर्चा और अंकल जीकी याद 

इसी दौरान मित्र जैनेंद्र सोलंकी जी के पिताजी के निधन की दुखद सूचना आई। जैनेंद्र जिन्हें हम जैनीबाबू कहते हैं, से करीब 22 साल पुराना नाता है। अंडरस्टैंडिंग है। अंकल जी से भी यदा-कदा मुलाकातें हो जाया करती थीं। जैनीबाबू की शादी में उन्होंने पूछा था, ‘बेटा कैसा इंतजाम है?’ मैंने कहा, ‘अंकल जी शानदार।’ उन्होंने तपाक से कहा, ‘यही सुनना चाहता था।’ वह अक्सर कुछ शारीरिक दिक्कतों का भी जिक्र करते और फिर खुद ही कह देते उम्र बढ़ने के साथ-साथ ऐसी समस्याएं आती रहती हैं। आंटी से अपनापन बहुत मिलता रहता है। इस बीच, जैनीबाबू से बातें हुईं। जो बात उन्होंने कही वाकई वह बहुत गंभीर और हकीकत के करीब थी। जैसे कि अक्सर कुछ बताने को मन होगा तो उनकी याद आएगी। खासतौर पर कोई पॉजिटिव बात। सचमुच ऐसाही होता है। हमारी ईजा को इस दुनिया से गए 13 साल हो गए हैं। आज भी जब कोई खुशी की बात होती है तो मन करता है कि तुरंत ईजा को फोन लगाऊं, लेकिन फिर याद आता है ओह वह तो हैं ही नहीं। फिर पहले उनकी तस्वीर देखता हूं फिर आसमान में और अपनी बात कह देता हूं। क्योंकि मुझे लगता है वह है इसी ब्रह्मांड में है। ऐसे ही जैनीबाबू ने कहा कि अचानक उनकी यादें आया करेंगी। साथ ही हम दोनों ने एक-दूसरे से कहा कि जीवन की असली सच्चाई मौत ही है, बस असमय कुछ नहीं होना चाहिए। बाकी तो सब प्रभु की इच्छा पर निर्भर है।  

दुख के मौके पर भी सामान्य परिस्थिति बनाने में बच्चों का अनमोल योगदान 




बच्चे सचमुच उत्सव सरीखे होते हैं। इनमें से भी लड़कियों का योगदान ज्यादा है। भावुकता का मामला हो या फिर घर में माहौल को अच्छा रखने का, सचमुच लड़कियों का योगदान कुछ अधिक होता है। वह परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाती हैं। जब दीदी के यहां पहुंचा तो था वहां भानजी रेनु अपनी बिटिया काव्या के साथ पहुंची थी। साथ ही भानजा मनोज था। मनोज की दोनों बिटिया जीवा और तनिष्का भी। तनिष्का के तो बोल अभी फूट ही रहे हैं, लेकिन वह इस बात को नहीं समझ पा रही है कि दादाजी आखिर गए कहां। बार-बार फोटो को देखती है और तेज इतनी है कि दादाजी के पसंद का गाना ढूंढ़ने को कहो तो यूट्यूब से खोल देती है। जीवा थोड़ी समझदार हो गयी है। उसने जब दादी यानी मेरी दीदी के गले लगकर यह कहा कि दादी हम हैं न आपके साथ, आप रोया मत करो। दादाजी तो स्टार बन गये हैं, मैं बहुत भावुक हो गया। उनकी कई और बातें भी दीदी ने बताईं जो बेहद भावु हैं। बात करें काव्या की तो पहले वह नाराज हो गयी कि जो चॉकलेट मैं ले गया था, वह उसे खाती ही नहीं। फिर दीदी की बहू दूसरी चॉकलेट लेकर आई तो फिर उसने बात शुरू की। अपने नाना को याद किया। मेरे सवालों का जवाब देते-देते उसने सवाल किया कि आप कल क्यों नहं आये। यानी वह एक दिन पहले आई थी और मेरे साथ खूब वक्त बिताना चाहती थी। फिर उसने मासूम सी बात कही कि शायद हो सकता है हमें भी जाने के लिए बस न मिले। यानी वह दिल से चाहती थी कि आज हम सब साथ रहें। इन बच्चों के मन में एक बात तो छिपी थी कि आज दादी के साथ इतने लोग हैं तो वह घड़ी-घड़ी रो नहीं रही है। इसलिए इस माहौल को बनाये रखना चाहिए। लेकिन ऐसा कहां होता है। दो घंटे बाद काव्या और रेनू चले गए और अगले दिन मैं भी चला आया। लेकिन थोड़े से वक्त में बच्चियों ने माहौल अच्छा बना दिया। आप भी देखिए ये एक-दो वीडियो।