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Wednesday, November 3, 2021

साहित्यकार सत्यवीर नाहड़िया की पांच किताबों के इर्द-गिर्द

  केवल तिवारी

हिंदी की सतत साधना में लगे और कभी कटाक्षों से गुदगुदाते और कभी हकीकत का आईना दिखाते सत्यवीर नाहड़िया जी को मैं तो कम से कम एक दशक से जानता हूं। दैनिक ट्रिब्यून में आने से पहले से उनको पढ़ा है। इनकी चलती चाकी हमेशा पढ़ता रहता था। इस बीच, थोड़ी बातचीत हुई। इसी दौरान इनकी किताबें भी आती रहीं। किताबें देखीं तो पाया कि सत्यवरी नाहड़िया जी उम्र में मुझसे करीब डेढ़ साल बड़े हैं। लेखन में तो बहुत बड़े हैं, उसे मापा नहीं जा सकता। खैर... नाहड़िया जी पर चर्चा के बजाय आज उनकी कुछ किताबों पर बातचीत करने के लिए कीबोर्ड उठाया है। अब कलम उठाई है, कहां चलता है। पिछले दिनों साहित्य साधना और पुराने साहित्यकारों को याद रखने के क्रम में एक लेख में हरियाणा साहित्य अकादमी एवं उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ चंद्र त्रिखा जी ने सत्यवीर नाहड़िया जी का जिक्र किया था। उसे पढ़ा और सत्यवीर जी से बातचीत भी हुई। इसी बीच उन्होंने मुझे कुछ पुस्तकें भेजीं। यूं तो हर पुस्तक के बारे में लंबा-चौड़ा आख्यान लिखा जा सकता है, लेकिन मैंने तय किया कि इस बार किताब चर्चा का यह लेखन थोड़ा जुदा हो। मैंने पांचों किताबें एक-एक कर पढ़ीं। हर किताब में सबसे अच्छी लगी पंक्तियों को अंडरलाइन कर दिया। क्योंकि नाहड़िया जी की ये किताबें अब मेरी धरोहर हो चुकी हैं। किताबें पढ़ने में थोड़ा समय लगा, इसलिए किताब चर्चा भी थोड़ा विलंब से। लेकिन ये किताबें कोई ऐसी नहीं हैं कि आज पढ़ीं और खत्म...। इनमें लिखीं बातें तो शाश्वत हैं। बल्कि हर बात को मनन करते रहने की जरूरत है। उन्हें कोट करने की भी जरूरत है। मैं तो भविष्य के अपने लेखों में जरूर इन्हें कहीं न कहीं कोट करूंगा। 

तो चलिए हैं किताब चर्चा पर। एक-एक कर। सबसे पहले कर रहा हूं सत्यवीर नाहड़िया जी की किताब ‘दिवस खास त्योहार’ को। यह है तो बाल कविता संग्रह, लेकिन संदेश इसमें सबके लिए छिपा है। फिर कहते भी तो हैं ना कि बच्चों के लिए लिखना सबसे ज्यादा कठिन होता है। मैंने भी कभी-कभी इस कठिन कार्य को करने की कोशिश की है। इन दिनों में दैनिक ट्रिब्यून के फीचर विभाग में हूं। मेरे पास बच्चों के लिए ढेरों सामग्री आती है। उन्हें देखकर और कभी-कभी खुद लिखकर महसूस करता हूं कि बाल साहित्य सृजन जितनी जिम्मेदारी का काम है, उतना ही कठिन भी है। बहुत कठिनाई से गुजरते हुए आपको सरल, सहज और प्रवाहमयी शैली में बह जाना होता है। तो इस बात को समझते हुए कह सकता हूं कि नाहड़िया जी की शैली बहुत तरल है। यहां मैंने सरल नहीं, तरल ही लिखा है। पानी की मानिंद। जिसमें मिला दो लगे उस जैसा....। सबसे बड़ी खूबी तो यह है कि इस किताब में उन्होंने पूरे वर्ष को कविताओं में समेट दिया है। बिना भेदभाव के। नव वर्ष की खुशियां हैं, ईद का जश्न है। दिवाली की चमक है। क्रिसमस की धूम है। राष्ट्रीय पर्वों का गौरव है। कुछ पंक्तियों पर गौर कीजिए-



नये साल में नया करेंगे।

विपदाओं से नहीं डरेंगे।

दीन-दुखी की सेवा कर हम

मानवता के घाव भरेंगे।।


रखती सबका ध्यान बेटियां

लोकलाज की आन बेटियां

घर के आंगन की हैं कोयल

बड़ी सुरीली तान बेटियां।।


लहर-लहर झंडा लहराएं।

गीत शहादत के मिल गाएं।

आया है गणतंत्र दिवस रे 

आओ मिलकर इसे मनाएं।।


मां-वाणी का दिन है आया।

कुदरत ने भी रास रचाया

सरसों झूम रही खेतों में

वासंती यह न्यारी माया।। 


मानवता के मान डॉक्टर।

रोज बचाते जान डॉक्टर।

खूब मिला है दर्जा उनको

धरती के भगवान डॉक्टर।।


हरियाणा वीरों की माटी।

सैनिक बनना है परिपाटी।

दौर गुलामी में जेलें भी

इसके वीरों ने थी काटी।।


इस कविता में 62 पर्वों, त्योहारों और दिवसों पर कविताएं हैं। हर कविता में कम से कम तीन छंद हैं। बच्चे पढ़ें या बड़े, बहुत सहज भाव से इसे पढ़ेंगे। बाल साहित्य से स्नेह होने के नाते सबसे पहले मैंने इस किताब पर चर्चा की। 



अब चर्चा करता हूं ‘पंच तत्व की पीर’ पर। एकदम सामयिक। कोरोना काल में अपने पंचतत्वों की अनदेखी और कुदरत का जरूरत से ज्यादा दोहन के खिलाफ कवि सत्यवीर नाहड़िया ने चेताया है। शाकाहार पर जोर देते हुए नाहड़िया जी ने योग पर जोर रहने की जरूरत पर बल दिया है साथ ही ताकीद की है कि संभल जाओ नहीं तो जिस तरह से मौसम चक्र बदल रहा है, ग्लोबल वार्मिंग के खतरे बढ़ रहे हैं, वह भयावह रूप धर सकता है। जिस तरह भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए कहा था कि कण कण में मैं हूं... यानी कण-कण में ताकत है। जरूरत है इस ताकत को सहेजे रखने की। समेटने की और कुदरत के साथ तालमेल बनाए रखने की। इस किताब की हर पंक्ति की अच्छी खासी व्याख्या हो सकती है। कबीर-रहीम के दोहों की तरह। तो आइये इस किताब की भी चंद पंक्तियों पर गौर कीजिए-

मैं थोड़ा ही जानता, बस इतना है ज्ञान।

घट-घट में भगवान हैं, कण-कण में विज्ञान।।


जब से बोतलबंद का, रूप लिया है धार।

गया फैलता विश्व में, पानी का व्यापार।।


नीर धरोहर आप में, कुदरत की है आब।

जोहड़ फिर जिंदा करें, जिंदा फिर तालाब।।


जैसे अपनी देह का, सदा रखें सब ख्याल।

जांच कराओ खेत की, मिट्टी की हर साल।।


सूख गए झरने सभी, सूख गए हैं ताल।

पानी आंखों का मरा, कुदरत है बदहाल।।


नये दौर में हो रहा, न्यारा आज विकास।

अपना-अपना फायदा, कुदरत का उपहास।


कोरोना से वायरस, आएंगे अब और।

कुदरत से खिलवाड़ का, अगर रहा यह दौर।।

इस किताब में कवि सत्यवीर नाहड़िया ने बहुत कुछ संदेश देने की कोशिश की है। हर पंक्ति में एक सीख है, एक चेतावनी है और हकीकत है। इसे उन्होंने पर्यावरण बाल दोहावली कहा है, लेकिन यह सबके लिए सीखपकर पुस्तक है। चूंकि मैं किताबों की कोई समीक्षा नहीं कर रहा, इसलिए प्रकाशक, पुस्तक संख्या वगैरह-वगैरह का जिक्र करने का कोई मतलब नहीं। यह तो मेरी निजी राय है। सत्यवीर नाहड़िया जी ने किताबें भेजीं। पूरी पढ़ीं और जब पढ़ लीं तो फोन पर सारी बातें कहां संभव है। इसलिए लिखकर ही अपनी बात कह सकता हूं।



अब करते हैं तीसरी किताब की चर्चा। यह भी बाल दोहावली है। किताब का नाम है रचा नया इतिहास। योगेश्वर श्रीकृष्ण से लेकर मदर टेरेसा तक इसमें सभी पर एक-एक कविता है। 

एक जगह वह लिखते हैं-

उनके रूप अनूप हैं, उनके नाम हजार।

अर्जुन के बन सारथी, भव से करते पार।।

एक अन्य कविता में वह लिखते हैं-

जनता में ऐसे किए, अलग अनूठे काज

मुहावरा है बन गया, ‘रामराज’ यह आज।। 

ऐसी ही अनेक पंक्तियां जिसको पढ़कर आनंद तो आएगा ही, साथ ही खुद ही पता चलेगा कि लिखा किस पर है। हर कविता के शीर्ष पर संबंधित चित्र भी कविता के साथ-साथ किताब की गरिमा बढ़ाता है। इसके अलावा संबंधित तिथि जानकारी बढ़ाती है। कुछ पंक्तियों का आनंद लीजिए-

नानक दुखिया कह दिया, सारा ये संसार।

उनके वचनों में छिपा, जीव जगत का सार।।


क्षमा कहें मन से सदा, क्षमा करे इंसान।

वर्धमान के ज्ञान से, मिला क्षमा को मान।।


संन्यासी फिर देख के, ऐसे हुए निहाल।

यशोधरा के साथ ही, छोड़ दिया वो लाल।।


गिरधर नागर से जुड़ा, मन का जब विश्वास।

‘दरद न जाणै कोय’ से, दर्द बताया खास।।


खिचड़ी भाषा में कहीं, बातें सब अनमोल।

साधक थे वे शब्द के, कर्म-मर्म के तोल।।


याद करे मां भारती, रचे नये आयाम।

‘युवा दिवस’ पर आपको, कोटि-कोटि प्रणाम।।


इंकलाब के चाव से, नारे बोले खास।

हंसकर फांसी पर चढ़े, याद करे इतिहास।।

‘गरम’ धर्म अपना लिया, कर जीवन कुर्बान।

‘लोकमान्य’ के नाम से, मिला खूब सम्मान।।

इस किताब की रचनाओं की खूबी है कि कुछ ही पंक्तियों में महापुरुष के बारे में बता दिया। सार संक्षेप। लेखनी में सारगर्भित। सत्यवीर जी को साधुवाद।

... और चौथी किताब है चलती चाक्की। हरियाणवी कुंडलिया संग्रह। यह चाक्की लगातार चल रही है। दैनिक ट्रिब्यून में प्रतिदिन पाठक इन्हें पढ़कर आनंद लेते ही हैं। इनमें वह गुदगुदाते हैं। कटाक्ष करते हैं और आईना दिखाते हैं। कभी इनमें इतिहास की झलक होती है और कभी भविष्य के प्रति एक दर्शन। ठेठ हरियाणवी अंदाज में। जिस तरह का मौसम अब आ रहा है और किसानों को लेकर जो बातें हो रही हैं, उसी पर एक चाक्की देखिए और समझिए-



जाड्डा इब ठाड्डा हुया, काढण लाग्या ज्यान।

पाणी लावैं खेत म्हं, सारी रात किसान।

सारी रात किसान, ताण कै कोन्या सोता।

महंगाड़े की मार, गुजारा लग ना होत्ता।

छह रुत-बारा मास, कदे न चाल्ले आड्डा।

थर-थर काम्पै गात, कदै उतरैगा जाड्डा।

और इस चर्चा की अंतिम किताब। नाम है हिंदी पत्रकारिता के मसीहा-गुप्त जी, गुड़ियानी और गुमानी की पीर। शुरू में मैंने जो चर्चा की थी कि सत्यवीर नाहड़िया जी का डॉ त्रिखा जी के लेख में जिक्र था, वह इसी पर था। नाहड़िया जी जैसे लोगों ने उन लोगों को याद करने और उनकी राहों पर चलने के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठाया है, जिन्होंने पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में मिसाल कायम की, लेकिन काल के क्रूर चक्र में उनके योगदान को भुलाया जाने लगा। जैसा कि किताब की भूमिका में दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राजकुमार सिंह जी ने इसे भगीरथ प्रयास बताया है, सचमुच यह भगीरथ प्रयास ही है। इसी के साथ हरियाणा साहित्य अकादमी एवं उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष डॉ. चंद्र त्रिखा ने इसे शोधपरक विशिष्ट कृति बताया है। बड़ी-बड़ी विभूतियों के कथन से नाहड़िया जी के इस प्रयास और इस किताब की गंभीरता और महत्ता को समझा जा सकता है। सचमुच यह शोधपकर किताब है। बाबू बालमुकुंद गुप्त के जीवनवृत्त से लेकर उनके लेखन, पत्रकारिता और इनसे जुड़े विविध आयामों को समझाते हुए बीच-बीच में उनकी रचनाओं का जिक्र कर किताब को ‘संपूर्ण’ बनाया गया है। साहित्य या पत्रकारिता में रुचि रखने वाले लोगों को एक बार इसे पढ़ना जरूर चाहिए।



और अंत में यही कहूंगा कि बेशक संवाद कम हो पाता है, लेकिन सत्यवीर नाहड़िया की रचना को पढ़ता रहता हूं। कई नये विचार भी मन में आते हैं। जब भी उनसे मिलना होगा, निश्चित रूप से विस्तार से चर्चा होगी। आज पांच किताबों को पढ़ने के बाद इनके बारे में मैंने तो महज एक लेख में सबकुछ समेट दिया है, लेकिन ये इस लेख से कहीं बड़ा स्पेस रखते हैं। सत्यवीर नाहड़िया जी का लेखन जारी रहे। इसी अंदाज में, यही मेरी शुभकामनाएं हैं।

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