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Monday, September 7, 2020

एक नया नशा

 उमेश पंत

हमारे मित्र और बड़े भाई जी श्री चन्द्र कांत झा जी पिछले साल ही टाइम्स ऑफ इंडिया से रिटायर होने के बाद "सार्थक प्रयास" से जुड़े और अब अक्सर हमारे साथ चौखुटिया और केदारघाटी के बच्चों से मिलने जाते हैं। अनुभव आपसे शेयर कर रहा हूं। थोड़ा लंबा है पर कोरोना काल  में पढ़ा जा सकता है। जरूर पढें। सार्थक प्रयास को समझने मै आसानी होगी।

(नोट : उमेश पंत जी से पिछले दो दशकों की मित्रता है। सार्थक प्रयास से भी जुड़ा रहा हूं। उनकी यह पोस्ट पढ़ी तो अच्छा लगा उनकी अनुमति से इसे ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं। - केवल तिवारी) 

 


अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत - आँखों के आईने में  एक चित्र उभरता था, पहरों का, तालों का, सोतो का, हरियाली का,  फूलों की खुशबू का और कुछ खास जायकों का -- जब पिछले दिनों अल्मोड़ा से करीब 60 किलो मीटर दूर, अंदर चौखुटिया की यात्रा का मौका मिला तो ये चित्र ज़हन में ऐसे गहरे उतरे कि लगा जीवन की आपा धापी में बहुत कुछ पीछे रह गया !! लोगों से मिला और फिर यहाँ के बच्चों से -- तो जीवन का एक और फ़लसफ़ा सामने आया कि, 'भगवान' शाश्वत रूप में कहीं हैं तो इनकी सादगी और मासूमियत में है -- एक प्रश्न अकस्मात् मन में कौंधा, 'फिर मंदिर क्यों और भगवान की खोज वहां क्यों ??' यह खोज मनुष्य और प्रकृति में क्यों न हो भला ??  

बीतते प्रहर के साथ-साथ अनुभव गहराते रहे, उनके रंग और भाव भी बदलते रहे! बातें होने लगीं, परतें खुलने लगीं , ज्ञान चक्शु खुलने लगे, दिल और दिमाग के हालात बदलते चले गए  - जो सच सामने आया  -- लगा की ७० साल की स्वंतंत्रता, ७० साल का विकास या फिर पिछले 6 साल का 'हो हल्ला विकास ', समाज की एकजुटता, लोगों की एक दुसरे के प्रति संवेदना, सभी कुछ खोखला है। ऐसा लगा की यह शहर के आटालिका, रौशनी की जगमगाहट, हाईवे, मॉल, गुड़गाँव मॉडल, सभी कुछ एक मृग तृष्णा भर है। थोड़ी सी नज़र पैनी करें तो यह सब, एक कंकाल या वीरानी शुष्क हवा के अलावा कुछ भी नहीं है। कभी गुड़गाँव या दिल्ली के कुछ एक किलोमीटर अंदर जाएं, कस्बों में कुछ समय लोगों के साथ गुजारें तो यही अनुभव आपका भी होने वाला है। सबका साथ सबका विकास मॉडल फेल दिखाई देने वाला है!! कुल मिला कर स्थिति ह्रदय को द्रवित करने वाली है बशर्ते औहदे, पैसे, ऐशो आराम की ज़िन्दगी ने या फिर किसी की जीवन पार्जन की मजबूरी ने उसे एक 'आत्मकेंद्रित रोबोट' न बना दिआ हो -- वैसे ऐसा अक्सर ही देखने को मिलता है!

इन मासूमों के जीवन के अन्दर झाँका तो पता चला कि इस समाज, इस देश का हर विकास का मॉडल इनके या इनके परिवारों या फिर इस समाज और इस इलाके के जीवन को छूने में अब तक असमर्थ रहा है। आज तक अगर कोई रोज़ी रोटी की लड़ाई लड़ रहा हो, दो जून की रोटी जुटाने में दिन और रात काट जाता हो, या फिर कैसे जुटेगी इसकी चिंता या जुगाड़ में सर ओखली में देता हो और उसकी आत्मा पिसती हो -- साली वो भी तो नहीं पिसती क्योंकि वो पत्थर हो चुकी -- जहाँ बीमारी के इलाज को लोग तरसते हों और जहाँ चूल्हे जलने के लिए भटकना हो। पढ़ाई लिखाई, करीयर, एक दिवा स्व्प्न हो -- वह ज़िन्दगी जिए तो क्या जिए। अल्मोड़ा, नैनीताल के तमाम रंगीन चित्र अचानक से मठमैले होने लगे। यथार्थ सामने मूँह चिढ़ाने लगा -- सैलानी की तरह आये थे कुछ समय बिताने, मज़े करने, खुश होने, और बस इतने में ही 'हिल' गए।

कुछ और पल तो बिताओ चौखुटिया में!! 

इन बच्चों को और इन परिवारों को जानने की उत्सुकता अब बढ़ती गयी थी! कॉरपोरेट नौकरी ने और रोज़ी रोटी के जुगाड़ ने अलग थलग एक मशीन तो बना ही दिया था शरीर को, लेकिन संस्कार और स्वयं के 'मूल' ने आत्मा की संवेदनाओं को अब तक ज़िंदा रखा हुआ था भले ही वो एक कवछ के पीछे से अब तक मजबूरन ही देखा था :: हर बच्चे के पीछे एक कहानी छिपी थी जो मन को हिला देने के लिए अपने में काफी था। अनुभव ऐसा ही था की जैसे पेग के बाद पेग से खुमार चढ़ता जाता है उसी तरह यहाँ हर एक कहानी के बाद दूसरी कहानी ज़हन के खुमार को सुलगा रही थी! सुलगने का पीक (पराकाष्ठा) एक बच्चे का वो दर्द था जो इन शब्दों में सामने आया, "काश मेरा बाप नहीं होता तो शायद मैं कुछ बन गया होता पढ़ लिख कर"। यह मजबूर बच्चा एक शराबी पिता का पुत्र है जिसकी लत ने घर तबाह कर डाला। रोज़ी रोटी से महरूम किया और खान पान की जगह घरवालों को हिंसा दी"। बच्चा इतनी उम्र में ही जवान हो गया है और हक़ीक़त से परिचित, पढ़ने लिखने की जगह रोज़ी रोटी जुटाता है।

ऐसे ही १२वीं पास एक लड़की जिसकी मेधा उसे और पढ़ा सकती थी, कुछ बना सकती थी। लेकिन मजबूर है अपने भाई बहनों के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी से। छोटी सी ज़मीन पर खेती और एक दो गाय बैल, यही तो है पूँजी और साधन उसकी कमाई के। कैसे छोड़े इनको? कैसे दफना दे इनके जीवन को? दफ़नाने को मजबूर है वो अपने अरमानो को नियति के आगे। आखिर उसकी ताई ने भी अपने अरमानों को दफ़ना कर उसे पाला था जब इसके माँ बाप नहीं रहे थे।

हमारी सरकार, हमारा समज, हमारी व्यवस्था इतना भी जुगाड़ न कर पाई है की वहाँ ऐसों के लिए कुछ रोज़गार के साधन ही हो पाएं!!  स्थिति तब और भी विकृत हो जाती है जब ऐसे में कोई बीमारी से ग्रसित हो जाये। और वो भी जिसका इलाज वहां नहीं हो सकता या इलाज लम्बा खिंचता हो। मसलन एक लड़की जिसको टी बी हुआ है, उसकी लड़ाई अब शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, सभी कुछ एक साथ है। क्या करे ऐसे में कहाँ जाये? व्यवस्था के लिए वो एक पेशेंट मात्र है, एक बोझ! उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं!!  यकीन मानिए दिल बैठने लगा था इस हक़ीक़त के आगे -- जो सोच कर आया था, हरियाली, रूमानी वादियाँ -- सभी तेल लेने जा चुके थे।

एक ही संतोष था -- कि आज, जीवन के इस मोड़ पर, जीवन से और भी सार्थक रूप से जुड़ने के प्रयास में तो हूँ -- वही प्रयास तो यहाँ तक ले कर आया है। और धन्यवाद " *सार्थक प्रयास* " संस्थान का जो मुझे ऐसा मौका और ऐसे अनुभवों से रुबरु करा रहा है। ये वही संस्थान है जो इन मजबूरों के जीवन में छोटे छोटे से परिवर्तन की कोशिश कर रहा है। और इन सुदूर, नज़रअंदाज़ किए गए इलाकों में, इन समाजों में, इन बच्चों में -- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्किल डेवलपमेंट, के माध्यम से उनको मज़बूत करने में लगा है।

गर्व है इनसे जुड़ कर ! धन्यवाद *सार्थक प्रयास 



2 comments:

kewal tiwari केवल तिवारी said...

WhatsApp पर बहुत कमेंट आ रहे हैं। लगता है लोग पढ रहे हैं, लेकिन इसमें कोई कमेंट नहीं कर रहा

UMESH said...

💐💐