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Tuesday, September 1, 2020

पितृ पक्ष... यानी हमारे होने का अर्थ



(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून के 30 अगस्त 2020 के अंक में छप चुका है।)
विनय ठाकुर
हम जैसों की पीढ़ी जो धर्म जनता की अफीम है पढ़कर बडी हुई है। वह अपने पहचान व होने के अर्थ की खोज मोबाइल के की पैड पर थिरकती उंगलियों के सहारे सैकड़ों व्हॉट्स ग्रुप व फैसबुक फ्रेंड लिस्ट में खोजती हैं। हमारी यह पीढ़ी धर्म विरोधी करार दिए गए लाल झंडे वाली विचारधारा की दुर्गतिकथा देख सुनकर भी धार्मिक विशेषण लगे हर चीज से ऐसे बिदकती है जैसे वह कोई बिजली का नंगा तार हो और तुरंत करंट मार देगी। कुछ हमारी समझ में इसका गैर जरूरी आऊट डेटेड होना और कुछ पंडित जी की बेदिली नतीजा कर्मकांडों के आवरण के नीचे दबे हमारे संस्कारों के मूल मर्म को हम नहीं समझ पाते हैं। मूल संदेश घंटी शंख और मंत्र के मिले जुले शोर में खो जाता है। इस कठिन कोरोना काल ने कुटुंब और कुटुंब भाव की महत्ता को बड़े गहरे तौर पर रेखांकित महसूस कराया है। कुटुंब से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार है पितृ यज्ञ या श्राद्ध जो हिंदु /सनातन धर्म के पंच महायज्ञों में प्रमुख माना गया है। यूं तो यह नित्य प्रति किया जाना चाहिए पर तेज रफ्तार जिंदगी में यह कुछ अवसरों तक सिमट गया है इसमें प्रमुख अवसर है पितृ पक्ष।
पितृ पक्ष एक ऐसा अवसर है जब हम सही मायने में पुरखों के जरिए प्रकृति में अपना विस्तार करते है व उसके प्रवाह को अपने भीतर महसूस करते हैं। यह ऐसा अवसर है जो हमारी लघुता के दायरे को तोड़कर हमारे होने की अर्थ परिधि का विस्तार करता है। मैं के घेरे को तोड़कर हमारी पहचान उस प्रवाह से कराता है जो बताता है कि मैं पिता पितामह प्रपितामह बृद्ध प्रपितामह के रूप में जारी एक धार का हिस्सा हू और यह धार यहां तक के अर्थ पड़ाव में अकेली नहीं है उसमें माता मातामही बृद्ध मातामही के रूप में आती दूसरी धार का भी संगम है।हम एक श्रृंखला की कड़ी हैं और हमारा दायित्व इस श्रृंखला को कायम रखने के साथ ही उसके विस्तार को भी सुनिश्चित करना है।हमारी नियति महज हमारे कर्मों से ही निर्धारित नहीं होती बल्कि हमारे पुरखों के कर्मं से भी।हमारा दायित्व महज अपने दोषों का परिहार मात्र नहीं है बल्कि अपने पुरखों के दोषों का भी परिहार करना है।यह हमें एक गहरे दायित्व बोध के जरिये संस्कारित करता है। यह हमारी जवाबदेही महज पुरखों तक ही सीमित नहीं कर पंच भूतों व देवताओं के माध्यम से संपूर्ण प्रकृति तक ले जाता है।इसमें श्रद्धा और शुचिता के रूप में विभिन्न आयामों में अनुशासन का पाठ भी है।इसके मूल में करूणा व प्रेम है तो साथ ही है प्रकृति के साथ अंतरंगता भी ।श्राद्ध के श्रेष्ठ स्थानों में नदियों के संगम तालाब के रूप में वे तीर्थ स्थान है जो प्राकृतिक महत्व के है या फिर सार्वजनिक धर्मस्थल है। सामूहिकता श्राद्ध के सार तत्वों में से एक है । ग्रास निकालते वक्त गाय को पहले देना  फिर कौओं कुत्तों को।ये सभी सर्वजनिक स्वास्थ्य व समृद्धी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मेरे जैसों के लिए पितृपक्ष जैसे शब्द एक बला की तरह थे। कोशिश यह रहती थी कि जितनी जल्दी हो सके जान छुड़ाओ।हम तब तक किसी परेशानी में नहीं थे जब तक आप परिवार के मुखिया की भूमिका में नहीं थे।सबकुछ पिता या बड़े भाई के जिम्मे था। बात बदली जब अचानक माता जी का देहांत हुआ कर्ता की भूमिका मे आना पड़ा। सवाल शुरू हुए धोती धारण कीजिए, आसन लगाकर बैठिए यहां तक सब ठीक कठिनाई थी पर निभा लिया। सिलसिला आगे बढ़ा श्राद्ध के समय पंडित जी ने पूछा नाम गोत्र मदद के लिए परिवार  था बाधा पार कर ली गयी। पर जैसे ही बात पितामह होते हुए प्रपितामह के नाम की आयी एक सन्नाटा पसर गया। पंडित जी ने यथा नाम बोलने की सहूलियत देकर उबार लिया। न जानने का थोड़ा बुरा लगा पर कोई बात नहीं आगे बढ़ा पिता की तरफ तो पितामह तक जा पाया पर बात जब पितामही की आयी तो एक बार फिर निरुत्तर था अब मुझे अपने उपर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।जिनसे कोई रिश्ता नहीं उसकी तो सात पुश्तों के नाम कंठस्थ है यह तो जानना चाहिए। माता पिता के रहते याद नहीं किया अब कौन बताता पिता पहले गुजर चुके थे और माता जी का तो श्राद्धकर्म ही था। पढ़ाकू माने जाने वाला मै अपने आप से बुरी तरह नाराज था पूरी दुनिया के बारे में जिज्ञासा रखने वाले को अगर अपनी ही जड़ों के बारे में कोई जानकारी नही हो तो सारी सामाजिकता और उसके प्रति निष्ठा बेकार है।अचानक लगा कि कितनी छिछली है हमारी जिंदगी बिना जड़ मूल के। पिछले साल किसी ने श्रीमद भागवत पुराण उपहार में दे दिया एक बार को लगा दूसरे लोक के किस्सों और मिथकों को जानकर मैं करूंगा क्या? पर फिर सोचा चलो किसी मौके पर पंडित जी पर ही रौब गांठ लूंगा । पढ़ने लगा तो न समझ में आने वाले कहानियों के बीच से बहुत सी बातें सामने आने लगी जिसने हमारी क्षुद्रता की गांठों को खोलकर हमारी समझ को फैलाना शुरू कर दिया।धूप दीप गंध पुष्प नैवेद्य जल ये महज सज्जा या आचारवश नहीं है प्रकृति के साथ रिश्तों की पहचान व उसका आभार है। कुश पर देवताओं को यूं ही नहीं बिठाया गया है। काल निर्धारण भी प्रकृति के चक्र के हिसाब से किया गया है। 

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