क्लासिक किरदार कॉलम में भीष्म साहनी की कहानी दो गौरैया पर दैनिक
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केवल तिवारी
प्यार के सामने गुस्सा उड़नछूं हो जाता है। प्यार जब वात्सल्य वाला
हो तो फिर तो गुस्सा कहीं नहीं टिकता। यही तो हुआ भीष्म साहनी की कहानी ‘दो गौरैया’
में। अजब इत्तेफाक है कि हाल ही में अपनी 10 साल पुरानी कहानी ‘गौरैया का पंख’ यूं
ही पढ़ रहा था तो मन किया कि इसे गूगल सर्च कर देखें। शायद कहीं दिखे। इस सर्च में
मुझे भीष्म साहनी साहब की ‘दौ गौरैया’ नजर आ गयी। सबकुछ छोड़कर इसे पढ़ने बैठ गया।
बिना विराम के कहानी पूरी पढ़ डाली। सचमुच कितने सरल अंदाज में एक व्यक्ति के गुस्से
को दिखाया गया है, उस पर कसे जा रहे तंज को दिखाया गया है और अंतत: वात्सल्य प्रेम
के आगे उस व्यक्ति के नतमस्तक होने पर कहानी का बेहतरीन समापन किया गया है। घर में
तीन लोग हैं। एक उसका मुखिया, दूसरा उनकी पत्नी और एक उनका बेटा। घर में पंछी कहीं
भी अपना डेरा डाल देते हैं। इसे लेकर ही घर का बच्चा कहता है, ‘जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों
पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुंचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुंच जाता है,
जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहां कभी तोते पहुंच जाते हैं, तो कभी कौवे
और कभी तरह-तरह की गौरैया। ऐसा शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएं, पर लोग कहते
हैं कि पक्षी गा रहे हैं!’ घर की अस्त-व्यस्तता का विवरण भी कहानी में बड़े ही रोचक
और हास्य अंदाज में किया गया है। देखिये किस खूबसूरती से लेखक ने लिखा है, ‘घर के अंदर
भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात-भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते
फिरते हैं। वह धमा-चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते
हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अंगीठी के पीछे बैठना पसंद करता
है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर
बैठना पसंद है। उसे शायद गर्मी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर
घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झांक जाती है। मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन
आया तो बाहर से ही ‘फिर आऊंगी’ कहकर चली जाती है।’ इन सब दिक्कतों के बीच बड़ी समस्या
पंछियों की है। कहीं कबूतरों की गुटरगूं और कहीं दूसरे पक्षियों का शोर। एक दिन घर
के मुखिया को दो गौरैया दिखीं। वह कभी इधर उड़तीं और कभी उधर। मानो घर का निरीक्षण
कर रही हों। अगले दिन देखा मो ये गौरैया पंखा लटकाने वाले जगह पर ऊपर खोल में घोसला
बना चुकी थीं। यहीं से शुरू होता है हंसी ठट्ठा। घर की महिला सदस्य दावा करती हैं कि
अब ये नहीं जाने वाली। उनके पति यानी मुखिया का दावा है कि इन्हें हटाकर ही दम लेंगे।
वह पूरे जी-जान से जुट जाते हैं, गौरैया को भगाने में। तभी महिला व्यंग्य करती हैं,
‘छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!’ तभी गौरैयों ने घोंसले
में से सिर निकालकर चींची की। मानो घर के मुखिया को चिढ़ा रही हों। इसके बाद लेखक ने
गौरैया को भगाने का जो दृश्य पेश किया है सचमुच वह रोचक है। कभी गौरैयों को भगाने के
क्रम में अपने बेटे को डांटना और कभी महिला का हंसना। एक दिन चला गया, दो दिन बीत गये...गौरैया
नहीं हट पाईं। अंतत: उनके घर को ही उजाड़ने का फैसला होता है। वह घोंसला तोड़ने के
लिए हाथ उठाते हैं और कुछ तिनकों को बाहर खींच लेते हैं। तभी घोंसले से चींचीं की आवाज
आती है। मुखिया तो धक्का लगा। वह तो गौरैयों को भगा चुके थे। तभी बाहर देखते हैं गौरैया
का वह जोड़ा तो चुपचाप बाहर बैठा था। मुखिया अभी पूरी तरह घोंसला तोड़ भी नहीं पाये
थे कि नन्हीं-नन्हीं दो गौरैया झांक रही थीं। मानो कह रही हों, ‘हम आ गई हैं। हमारे
मां-बाप कहां हैं?’ यहीं कहानी का समापन शुरू होता है। मुखिया लाठी फेंक देता है। दरवाजा
खोलने का हुक्म होता है। दोनों गौरैया चींचीं करतीं अंदर आ जाती हैं और बच्चों के मुंह
में कुछ डालती हैं। पूरा परिवार यह मंजर चुपचाप देखता है। इस बार ‘गुस्सैल’ मुखिया
भी हंस पड़ते हैं।
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