
यह संजय है। हमारे ऑफिस की कैंटीन में कार्यरत। ठिठुरती सर्दी में भी एक शर्ट में घूमने वाला। लेकिन ये बातें इसका मूल परिचय नहीं हैं। असल में संजय के जिस परिचय ने मुझे आकर्षित किया, वह है उसका 'हरदम हंसते रहना।' उसी गीत की तरह जिसके बोल हैं, 'हंस लो हरदम, खुशियां हों या गम।' संजय की तारीफ में अगर ज्यादा फिल्मी गीतों या शेर-ओ-शायरी की बातें लिखने लगूंगा तो उसके खास अंदाज, जिसे सब पसंद करते हैं, को ही न बदल बैठूं इसलिए सिर्फ उतना ही लिखूंगा जितना मैं जान पाया। असल में पिछले लगभग सालभर से संजय को देख रहा हूं। कभी-कबार ही मेरा नाता उससे पड़ता। मैंने उसे जब भी देखा वह हंसता मिला। सुबह के दस बजे भी। रात को आठ बजे भी। एक दिन हल्का उदास दिखा। वाश बेसन पर हाथ धोते वक्त। मैंने पूछ लिया, 'क्या हुआ आज कुछ उखड़े-उखड़े नजर आ रहे हो।' उसने मेरी तरफ देखा। हंसा। फिर बोला, 'अरे नहीं सर।' फिर गुनगुनाता हुआ कैंटीन की किचन की ओर चला गया। एक दिन फिर मैंने जबरन पूछा, 'कभी उदास नहीं होते हो।' वह कुछ नहीं बोला। मेरी तरफ देखा और हंसते हुए चला गया। एक दिन हम लोग (हमारे समाचा संपादक हरेश जी, मीनाक्षी जी के अलावा साथी नरेंद्र, दिनेश, जतिंदरजीत) कैंटीन में भोजन कर रहे थे। हरेश जी ने कहा, 'अभी आना तुम्हारी फोटो खींचनी है।' उसने पूछा, 'क्यों सर?' उससे मजाक किया गया, 'पुलिस को देनी है इसलिए।' वह अपनी आदत के मुताबिक हंसा और चला गया। थोड़ी देर बाद वह अपने कामों में लग गया। उसे पुकारा तो आ गया सामने और फोटो खिंचाने के लिए सामने खड़ा हो गया। मैंने पूछा, 'संजय तुम कहां के रहने वाले हो।' उसने जवाब दिया, 'उन्नाव का।' मैंने कहा, 'अरे वाह, तुम तो मेरे पड़ोसी हो। मैं लखनऊ का हूं।' वह फिर आदतन हंसा और बात आगे नहीं बढ़ाई। संजय क्यों इतना मुस्कुराता रहता है? इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए। उससे सीख जरूर लेनी चाहिए कि अगर सबसे हंस-बोलके रहा जाए तो इसमें बुराई कैसी? ऐसा नहीं कि संजय को गुस्सा नहीं आता। वह मुंहफट भी है। कभी-कबार तीखा जवाब भी देता है। लेकिन थोड़ी देर में ही अपने मूल रूप में आ जाता है। संजय से खुश रहना सीखिये। ... खुद से कह रहा हूं यह बात।