केवल तिवारी
आज एक किताब की संक्षिप्त चर्चा करूंगा। किताब का नाम है, ‘योगवासिष्ठ महारामायणम।’ लेखक हैं डॉ. कुलदीप धीमान। किताब से पहले लेखक पर बातचीत जरूरी।

असल में 10 वर्ष पहले जब मैंने दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन किया तो कुलदीप साहब से अखबार के काम के सिलसिले में मुलाकात हुई। कई दिनों तक बात होती रही। फिर हम लोग ऑफिसियल काम से इतर भी बातचीत करने लगे। बातों बातों में पता चला कि डॉ. कुलदीप की अध्यययन और लेखन में भी गहरी रुचि है। उन्होंने अपनी एक पुस्तक ‘परम विद्रोही’ की चर्चा की और एक प्रति मुझे भी दी। यह किताब ओशो रजनीश और उनकी बातों पर आधारित है। इस किताब को पढ़ने के बाद भी मैंने अपनी प्रतिक्रिया अपने इसी ब्लॉग पर लिखी, जिसका लिंक इस लेख के अंत में डाल दूंगा। खैर… अब आते हैं आलोच्य पुस्तक पर। असल में इस किताब को मैं तब भी पढ़ चुका हूं, जब यह आकार ले रही थी। लेकिन उस वक्त पढ़ने का मकसद कुछ प्रूफ संबंधी गलतियों को मार्क करना था। वह एक काम जैसा था। बाद में कुलदीप जी से मेरी बातचीत लगभग नहीं के बराबर ही हुई। कुछ समय पहले अचानक उनका फोन आया और उन्होंने बताया कि किताब आ चुकी है। मेरी जिज्ञासा पुस्तक को देखने की थी। मैं उन दिनों चंडीगढ़ से बाहर गया हुआ था। तभी धीमान साहब ने बताया कि वह एक प्रति मेरे लिए ऑफिस में छोड़ गए हैं। कुछ दिन पुस्तक यूं ही रखी रही। बाद में मैंने इसे पढ़ना शुरू किया। समीक्षार्थ मिलीं हों या मैंने शौकिया खरीदी हों, करीब हजार पुस्तकें अब तक पढ़ चुका हूं। आदतन भूमिका और अन्य लेखकों की राय और लेखक के बारे में भी जरूर पढ़ता हूं। कई बार प्रकाशक की ओर से की गयी टिप्पणी भी। यही मैंने इस किताब के संदर्भ में भी किया। पढ़ते-पढ़ते देखा कि भूमिका में डॉ. कुलदीप जी ने मेरे नाम का भी जिक्र किया है। मैंने फोन पर धन्यवाद देने के साथ-साथ यह भी कहा कि मेरा तो ऐसा कोई योगदान ही नहीं था। फिर उनसे कुछ अन्य बातें हुईं। मैंने कहा कि पुस्तक पूरी पढ़ने के बाद अपनी राय दूंगा। कुलदीप जी बोले, आपने तो पढ़ ही रखी थी, मैंने कहा, लेकिन मजा अब आ रहा है। सचमुच दूसरी बार किताब पढ़ते-पढ़ते जीवन के कई पहलू समझ में आए। योगवासिष्ठ में भगवान राम के जरिये संवाद की बात हो या फिर ब्रह्म भाव, जीवन दर्शन की एक अलग मीमांसा इस किताब में नजर आती है। डॉ. धीमान द्वारा शोध के जरिये लिखी गयीं कुछ पंक्तियों पर गौर फरमाइये- राम संवेदनशील हैं। स्वयं उनके पास सब कुछ है, पर वे दूसरों के दुःखों के प्रति अन्धे नहीं हैं। उनके पास सब होते हुए भी वैराग्य हुआ है। यह उनकी परिपक्वता की निशानी है। इसीलिये भगवद्गीता तो युद्धक्षेत्र में कही गई, पर योगवासिष्ठ राजदरवार की शान के बीच कहा गया। युद्धक्षेत्र में वैराग्य उठना बड़ी बात है, पर राजदरबार के धन वैभव के बीच अगर किसी को वैराग्य उठे तो यह और भी बड़ी बात है। यह उसकी संवेदनशीलता का प्रमाण है। यह उत्तम वैराग्य है।
वसिष्ठ कहते हैं कि कल्पना शक्ति या विरक्ति भाव ब्रह्म का स्वभाव ही है। संसार ब्रह्म से ऐसे उत्पन्न होता है जैसे पुष्प से गन्ध। यह मन में स्वप्न की तरह उत्पन्न होता है। सपने में हम कितना कुछ देखते हैं। सब जोन और सत्य लगता है। स्वप्रजगत् का हम क्या कारण बता सकते हैं कि कब बना, क्यों बना? कहना ही है तो इतना ही कहा जा सकता है कि स्वप्न का कारण है हमारी नींद (अज्ञान)।
संसार के चार बीज
वासिष्ठ के अनुसार संवेदनम्, भावनम्, वासना, और कल्पना चार बीज हैं जिनसे यह संसार बनता है। जो इन्द्रियों से भोगा जाता है उसे 'संवेदनम्' कहा है। भोग्य वस्तुएं जय नहीं होतीं तो उनके बारे में निरन्तर सोचते रहने को 'भावनम्' कहा है। बार-बार सोचने पर जब मन उनपर स्थिर हो जाता है उसे 'वासना' कहा है।
कार्य-कारण का रहस्य
कार्य-कारण सिद्धान्त की विचित्रता है कि आप जो भी ही बात को चरम तक ले जाये तो आप को अपना ही सिद्धान्त भारी पड़ जाता है। अधिकतर तो हम चरम तक जाने का साहस ही नहीं उठा पाते, जब लगने लगता है कि सिद्धान्त डगमगा रहा है, हम रुक जाते हैं।
आदि शङ्कराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य के भी गुरु ने यह साहस जुटाया और सिद्ध किया कि कार्य कारण व्यावहारिक जीवन के लिये उपयोगी है, पर अगर इसे गहराई से देखा जाये तो यह अर्थ सिद्ध होता है। गौडपाद की बात यहां इसलिये की जा रही है कि की तरह वे भी मानते हैं कि जगत् का कोई कारण नहीं है, इसलिये यह ह संगत नहीं है कि जगत् को किसने बनाया। जगत् को किसी ने नहीं बनाया वह नित्य है, 'अज' अर्थात् अजन्मा (इटर्नल) है। इसीलिये इस मत को 'अजातिवाद' कहते हैं, जिसकी थोड़ी-बहुत चर्चा हम प्रस्तावना में कर चुके हैं।
जिन्हें समाज अच्छे कर्म मानता है, उनके लिये वह हमें सम्मान देता है, और जिन्हें बुरे कर्म समझता है उनके लिये दण्ड देता है। ऐसा न हो हो अराजकता फैलती है।
योग, संक्षिप्त चर्चा का कारण
अब हम योग की चर्चा संक्षिप्त में करेंगे क्योंकि वसिष्ठजी इसे बहुत अधिक महत्त्व नहीं देते। उनके विचार में योगमार्ग ज्ञानमार्ग से अधिक कठिन है। यह वात विचित्र लगेगी क्योंकि साधारणतः तो ज्ञानमार्ग को कठिन माना जाता है क्योंकि उसमें तर्क, भाषा, सिद्धान्त आदि का सहारा लिया जाता है।
'आत्मा-अनात्मा', 'कार्य-कारण', 'विषय-विषयी' आदि शब्द सुन कर बहुत से लोग घबरा जाते हैं। वे तो चाहते हैं कि उन्हें योग की कुछ मुद्राएं बता दी जायें, या कोई मन्त्र दे दिया जाये जिसे वे जपते रहें, पर ऐसी बात न करनी पड़े जिसमें अधिक सोचना पड़ता हो। सच तो यह है कि ध्यान -और मन्त्र मन को सोचने से रोकने के लिये ही विकसित किये गये हैं। 1 ज्ञानमार्ग के समर्थक मानते हैं कि योगमार्ग कठिन है क्योंकि उसमें कुछ करने पर बल दिया जाता है। स्वयं को जानने के लिये किस प्रकार के कर्म करने की आवश्यकता…
वसिष्ठजी से राम पूछते हैं कि ज्ञानी समाज में कैसा व्यवहार करते हैं, उनके लक्षण क्या हैं? वसिष्ठ कहते हैं कि मोक्ष के बाद ज्ञानी का कैसा व्यवहार होगा इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। कुछ जीवन के कर्तव्य करते रहते हैं, कुछ समाज को त्याग देते हैं, और कुछ संसार के भोगों का आनन्द लेते हैं। ज्ञानी न तो कुछ करने का बहुत आग्रह करते हैं, न ही न करने का। जो सहजता हो जाये वही करते हैं।
वसिष्ठ कहते हैं कि बोध ही वास्तविक त्याग है, कर्म का त्याग करना त्याग नहीं है। जो योगी कर्मफल में आसक्ति त्याग कर सब कर्म करता रहता है, वह कर्मफल के अच्छे या बुरे परिणाम से अछूता रहता है। उसीको जीवन्मुक्त कहते हैं।
असल में ऊपर दी गयीं कुछ पंक्तियां तो वानगी भर हैं। हकीकत में यह किताब बहुत शोध के आधार पर बनाई गयी है और जीवन के सही दर्शन को दिखा रही है। इससे भी बड़ी बात है कि इसकी शैली प्रवाहमयी है। बहुत ही सरल और सहज अंदाज में इसमें जीवन के तमाम किंत-परंतु पर व्याख्या की गयी है। राम को समझने की कोशिश में यह किताब हमें विचारशीलता के शिखर पर ले जाती है। इस पुस्तक के बारे में विवरण नीचे दे रहा हूं। इसे मंगवाकर पढ़ा जा सकता है। कुलदीप जी आपका धन्यवाद और आपको साधुवाद। एक लिंक आपकी पुरानी पुस्तक ‘परम विद्रोही’ को लेकर मेरी टिप्पणी का।
सादर
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