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Friday, December 27, 2024

संस्था जैसे व्यक्तित्व का प्रभावी ‘चित्रण’

डॉ. चंद्र त्रिखा जी किसी परिचय के मोहताज नहीं। पिछले दिनों उन पर आयी पुस्तक पढ़ने का मौका मिला। संपादित समीक्षा हमारे अखबार दैनिक ट्रिब्यून में छपी। उसी को यहां पोस्ट कर रहा हूं।

साभार : दैनिक ट्रिब्यून 



केवल तिवारी

पत्रकार, साहित्यकार, कवि, शायर और कहानीकार डॉ. चन्द्र त्रिखा एक ‘संस्था’ की तरह हैं। डॉ. त्रिखा सरीखे विविधि आयामों वाले संस्थागत व्यक्ति का फलक इतना विस्तृत होता है कि उसे चंद शब्दों में समेटना आसान नहीं होता। लेकिन प्रो. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ के संपादकत्व में ऐसा हुआ। डॉ. त्रिखा पर हाल ही में पुस्तक प्रकाशित हुई। नाम है, ‘विलक्षण कलम-साधक चन्द्र त्रिखा।’ चूंकि जब ऐसे ख्यात लोगों की बात होती है तो जाहिर है उनका लेखकीय दायरा सीमित नहीं होता। आलोच्य पुस्तक में भी डॉ. त्रिखा के साथ-साथ अन्य महान विभूतियों के बारे में, प्रसंगवश ही सही, जानकारी मिल जाती है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. त्रिखा के जीवन के जितने पहलू हैं, उतनी ही विविधता पुस्तक की सामग्री में मिल जाती है। साहित्य और पत्रकारिता क्षेत्र के धुरंधरों ने रोचक शैली में डॉ. त्रिखा और उनकी लेखनी पर अपनी राय रखी है। अनेक किताबें लिख चुके डॉ. त्रिखा औरों को भी लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित करते साथ ही आसपास के इलाकों में ही जानकारी लेने के उद्देश्य से घूमने के लिए प्रेरित करते। उन्होंने साहित्य प्रेमियों को हरियाणा साहित्य अकादमी में ‘पुस्तकों के लंगर’ में आने का न्योता भी दिया। प्रस्तुत किताब में अपने अतीत का संक्षिप्त विवरण डॉ. त्रिखा ने ही दिया है। विभाजन के खौफनाक मंजर से लेकर वर्तमान समय तक के विवरण का चित्रांकन उन्होंने ‘गागर में सागर भरने’ की तरह कर दिया। पुस्तक के संपादकीय संयोजन और लिखने वालों का कमाल ही है कि कहीं भी चीजों का दोहराव नहीं है। जाने-माने साहित्यकार माधव कौशिक ने डॉ. त्रिखा के संपूर्ण जीवन पर अपने ही अंदाज में प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं, ‘समर्पित पत्रकार व साहित्यकार के नाते उन्होंने अपनी समकालीन पीढ़ी के साथ अनवरत संघर्ष किया तथा आने वाली पीढ़ी के रचनाकारों व पत्रकारों के समक्ष नये क्षितिज व आयाम प्रस्तुत किये। पंद्रह वर्ष की अल्पायु से लेकर आज तक उनका व्यक्तित्व संघर्ष की आग में निरंतर तप रहा है।’ पत्रकार डॉ. किरण चोपड़ा ने तत्कालीन समाज की विभूतियों, अखबारों और संघर्षों का बेहतरीन चित्रण किया है। किताब के संपादक डॉ. लालचंद गुप्त ‘मंगल’ ने ‘विभाजन की विभीषिका के आख्याता’ शीर्षक से डॉ. त्रिखा की रचनाओं के हवाले से पृष्ठ संख्या के साथ बिंदुवार वर्णन किया है। पुस्तक में अपने दूसरे लेख ‘डॉ. चन्द्र त्रिखा का आध्यात्मिक चिन्तन’ में डॉ. मंगल लिखते हैं, ‘संतई प्रकृति और सूफियाना मस्ती के धनी, सादा जीवन : उच्च विचार के पोषक… डॉ. चन्द्र त्रिखा की लेखनी से सांस्कृतिक सरोकारों को संबोधित करते हुए, जब भी कोई नयी कृति प्रस्फुटित होती है तो एक नया सवेरा उदित होता है…।’ ‘कैसे उम्र गुजारी लिख…’ शीर्षक से ज्ञानप्रकाश विवेक ने डॉ. त्रिखा के शायराना और कवित्व अंदाज पर प्रकाश डाला है। डॉ. सुभाष रस्तोगी ने उनकी रचनाओं पर विशेषतौर से प्रकाश डाला है। डॉ. जगदीश प्रसाद ने इतिहासकार के तौर पर डॉ. त्रिखा की रचनाओं के हवाले से दिल्ली दर्शन कराया है। साथ में हरियाणा और आसपास की ऐतिहासिकता की भी संक्षिप्त एवं सारगर्भित जानकारी दी है। उपरोक्त के अलावा डॉ. त्रिखा पर डॉ. उषा लाल, चरणजीत ‘चरण’, डॉ. शमीम शर्मा, डॉ. रामफल चहल, डॉ. विजेंद्र कुमार ने भी अपने अनुभव साझा किए हैं। भाषा-शैली की विविधता के साथ विभिन्न लेखकों ने डॉ. चन्द्र त्रिखा पर जो जानकारी इस किताब में दी है उससे किताब सचमुच संग्रहणीय बन पड़ी है।
पुस्तक : विलक्षण कलम-साधक चन्द्र त्रिखा, संपादक : प्रो. लालचंद गुप्त ‘मंगल’, प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन, पटपड़गंज- दिल्ली, पृष्ठ : 144, मूल्य : 220 रुपये

Saturday, December 14, 2024

अच्छी संगत से ही चलेगा नशे पर नश्तर



साभार: दैनिक ट्रिब्यून 

https://www.dainiktribuneonline.com/news/features/only-good-company-can-cure-addiction/

पिछले दिनों डॉ अरदास संधू से मुलाकात हुई। बात हुई। फिर बनी एक स्टोरी। दैनिक ट्रिब्यून के लिए। सावधान और सीख देने वाली। 

विरोध के स्वर ‘बुलंद’ होने के बावजूद नशे का ‘जाल’ देशभर में बुरी तरह से फैल रहा है। अब सबसे बड़ी चुनौती भावी पीढ़ी को बचाने की है। अच्छी संगत, दृढ़ इच्छाशक्ति और स्वस्थ जीवनशैली जैसे कुछ उपायों से नशे के जाल को कैसे काटा जा सकता है, पढ़िये पूरा विवरण…

केवल तिवारी
महापुरुषों के दिखाए रास्ते के मुताबिक संगत यानी दोस्ती-यारी की बात करें तो दो तरह की सीख सामने आती हैं। एक, जिसमें रहीम दास जी कहते हैं, ‘कह रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग। वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।’
और दूसरा, जिसमें कबीरदास जी कहते हैं, ‘संत ना छोड़े संतई, कोटिक मिले असंत। चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।’
पहले दोहे में रहीम दास जी के कहने का अर्थ है कि दो विपरीत प्रवृत्ति (सज्जन-दुर्जन) के लोग साथ नहीं रह सकते। उन्होंने बेर और केले के पेड़ का उदाहरण देते हुए कहा कि अगर दोनों आसपास होंगे तो उनकी संगत कैसे निभ सकती है? दोनों का अलग-अलग स्वभाव है। बेर को अपने रसीले होने पर घमंड है, लेकिन कांटेदार है। केले के पेड़ को अपने पत्ते पर घमंड है, लेकिन बेर के कांटों से वह छिल जाते हैं।
दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि सज्जन पुरुषों को जितने मर्जी गलत लोग मिल जाएं, लेकिन उसकी सज्जनता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने उदाहरण दिया कि चंदन के पेड़ पर जहरीले सांप लिपटे रहते हैं, लेकिन वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता
इन दोनों उदाहरणों से इतर एक प्रसिद्ध उद्धरण है, ‘काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाए, एक लीक काजर की लागिहै पे लागिहै।’ इसमें कवि कहते हैं कि आप कितने ही अच्छे हों, संगत अगर बुरी है तो उसका असर तो पड़ ही जाता है।
संगत के संबंध में उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से बात कर रहे हैं नशे की गिरफ्त में आती हमारी नयी पीढ़ी की। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड हो या फिर कोई अन्य राज्य। नशे के कारण नाश की ओर बढ़ते बच्चों की दर्दनाक कहानियां अक्सर सुनने, पढ़ने और देखने को मिल जाती हैं। अत्यंत दुखद स्थिति तो तब होती है जब यह पता चलता है कि जिनके कंधों पर नशे के सौदागरों को रोकने की जिम्मेदारी थी, वे ही नशे के कारोबारी बने मिले।
असल में अच्छी या बुरी संगत की बात आज हम नशे की लत के साथ जोड़कर कर रहे हैं। क्योंकि पिछले दिनों अनेक जगहों से ऐसी खबरें आयीं जिनका लब्बोलुआब यह था कि खराब संगत से चिट्टे की लत लग गई। सिल्वर पन्नी पर रखकर इस सफेद जहर को पीना शुरू किया। लत ऐसी लगी कि घर के बर्तन तक बेच दिए। नशा सिर्फ चिट्टे का ही नहीं, और भी कई तरह का, जिसने नाश की ओर ही धकेला। जानकार कहते हैं कि अपनी इच्छाशक्ति दृढ़ रखने वाले विरले ही होते हैं, खासतौर पर किशोरावस्था-युवावस्था की दहलीत पर पहुंचे बच्चे। इसलिए ऐसे मौकों पर बच्चों पर नजर रखनी बहुत जरूरी है। संगत की बात इसलिए भी कर रहे हैं क्योंकि सफलता की कुंजी कहती है कि जीवन की सफलता अच्छी आदतों में ही निहित है। अच्छी आदतें और ज्यादा डेवलप हों और बरकरार रहें, इसके लिए अच्छी दोस्ती जरूरी है। अभिभावक इस बात को जितनी जल्दी समझ जाएं अच्छा है। क्योंकि समय निकल जाने के बाद किया गया प्रयास व्यर्थ ही होता है। जानकार कहते हैं कि किशोरावस्था और युवावस्था में बुरी आदतें अधिक प्रभावित करती हैं। इसलिए उम्र की इन अवस्थाओं में विशेष सतर्कता और सावधानी बरतने की जरूरत है। नशा व्यक्ति की बुद्धि का नाश करता है। सेहत पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की कार्य क्ष गई मेंमता प्रभावित होती है। इसलिए इससे दूर रहने से ही तरक्की के दरवाजे खुलते हैं। इसी तरह बुरी संगत से नकारात्मकता आती है। सफलता प्राप्त करने के लिए नकारात्मकता से दूर रहना चाहिए। बुरी संगत से विचार भी बुरे आते हैं। इसलिए बुरी संगत से दूर रहना जरूरी है।
खेप पकड़ी गयी, कहां खप रहा नशा
आयेदिन खबरें आती हैं कि नशे की इतनी खेप पकड़ी गयी। जो नशा पकड़ा गया, हो सकता है उसे नष्ट कर दिया जाता हो, लेकिन जो पहुंच गया, वह कहां खप रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नशा कहां खप रहा है। जवान होते बच्चे उनकी गिरफ्त में आ रहे हैं, आखिर तंत्र कहां छिपा रहता है। हो-हल्ला मचाने के अलावा ठोस रणनीति बनायी जानी बहुत जरूरी है।

युवाओं को बर्बाद करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश

जानकार कहते हैं कि देश की भावी पीढ़ी को बर्बाद करने की यह अंतर्राष्ट्रीय साजिश है। ओवरडोज से मौत, नशे के लिए घर-बार की बिक्री जैसी खौफनाक खबरें आयेदिन आती रहती हैं। विभिन्न सीमाओं से अलग-अलग तरीके से अलग-अलग तरह के नशे की सामग्री पहुंच रही है। सीमाओं पर नशे की इस घुसपैठ के खिलाफ एनकाउंटर अभियान चलाया जाना बेहद जरूरी है। नहीं तो स्थिति और भयावह होने से कोई नहीं रोक पाएगा।

 क्या कहते हैं विशेषज्ञ
 ‘बेहतर कल के लिए आज जरूरी अच्छी संगत’
डॉ. अरदास संधु
न्यूरो साइकियेट्री


संगत यानी दोस्ती-यारी एवं स्कूल का माहौल अच्छा हो, बेहतरीन पैरेन्टिंग, महिलाओं के सम्मान की बचपन से ही शिक्षा, सरकारी इच्छाशक्ति। ये सारी चीजें सुदृढ़ हों तो कोई ताकत नहीं कि हमारी भावी पीढ़ी को नशे के गर्त में धकेल सके। यह कहना है न्यूरो साइकियेट्री डॉ. अरदास संधु का। नैतिक शिक्षा को जरूरी मानते हुए डॉ. अरदास कहते हैं कि नशा हो या कोई भी असामाजिक गतिविधि, बच्चों पर सीधा असर संगत का पड़ता है। बच्चे को जैसी संगत मिलेगी, उसका असर वैसा ही पड़ेगा। संगत दो-तीन तरह की हो सकती हैं। एक तो आपके सीनियर आपके अच्छे दोस्त हो सकते हैं। उनके साथ आपकी अच्छी बनती है। दूसरे, आपके जूनियर यानी आपसे कम उम्र के लोग आपके मित्र हो सकते हैं। या फिर आपके हमउम्र ही आपके दोस्त होते हैं। हमउम्र दोस्त तो आदर्श माने ही जाते हैं। अगर सीनियर यानी आपसे ज्यादा उम्र के आपके दोस्त हैं तो इस पर नजर रहनी चाहिए कि आपका वह दोस्त जो आपका ‘रोल मॉडल’ है, वह कैसा है? क्या आपका रोल मॉडल वह है जो बहुत ज्यादा खर्च करता है, उसकी लाइफस्टाइल एकदम अलग तरीके की है वह पिज़्ज़ा, बर्गर खाने वालों में से है। या आपका रोल मॉडल वह है जो बच्चा लाइब्रेरी जा रहा है, पढ़ाई के प्रति गंभीर है। अच्छी आदतों वाला है। बेवजह नहीं घूमता। इसी क्रम में यह बात भी आती है कि आपका साथी किस तरह के गाने सुन रहा है। किस तरह की जिंदगी जी रहा है। उसकी धार्मिक प्रवृत्ति कैसी है। धार्मिक होना बुरी बात नहीं, लेकिन कट्टरता खराब है। 
डॉ. अरदास कहते हैं कि स्कूल की जिम्मेदारी बहुत सशक्त है। बेशक बच्चों की संगत पर नजर रखने की जिम्मेदारी बहुत ज्यादा माता-पिता की है, लेकिन स्कूल ने इनीशिएटिव लेना चाहिए। बच्चे का ज्यादातर समय स्कूल में व्यतीत होता है। वह किस तरह का व्यवहार करता है इस बात को लेकर बच्चे के माता-पिता से स्कूल का संपर्क रहना चाहिए और माता-पिता को भी चाहिए कि बच्चे के व्यवहार में तब्दीली पर वे स्कूल से संपर्क करें। घर से और स्कूल से शुरुआत से ही यह सिखाया जाना चाहिए कि महिलाओं का सम्मान करें। इसके साथ ही परिवार के लोग आपस में बातें करें। कई बार हम परिवार में देखते हैं कि लोग साथ तो बैठे हैं, लेकिन हर कोई अपने-अपने फोन पर लगा रहता है। इसकी वजह से भी अनजाने में ही बच्चे के कोमल मन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वह वर्चुअल लाइफ को ही दुनिया समझने लगता है।
नशे की समस्या से निजात पाने के लिए डॉ. अरदास शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन को भी जरूरी मानते हैं। वह कहते हैं कि जिस तरह से समय बदला है, उस हिसाब से शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव जरूरी है। बच्चों को नैतिकता सिखाई जाये। साथ ही वह ‘हेल्दी डाइट’ को भी आवश्यक तत्व मानते हैं। डॉ. संधु का मानना है कि स्वस्थ भोजन शैली का तन-मन पर बहुत असर पड़ता है। नशा रोकने में सरकार की भूमिका के सवाल पर वह कहते हैं कि इच्छाशक्ति हो तो सब हो सकता है। कई बार ऐसी खबरें आई हैं कि सरकारी अफसर ही नशा तस्करी में पकड़े गये। अगर दृढ़ इच्छाशक्ति हो, लोग अपने कर्तव्यों को समझें तो कोई ताकत नहीं है जो सीमा क्षेत्र से अंदर नशे को हमारे देश में पहुंचा सके। हमारी नयी पीढ़ी को बर्बाद करने वाली साजिशों को बेनकाब किया जाना जरूरी है। इसके साथ ही डॉ. संधु कहते हैं कि बच्चों को ना कहना जरूर सिखाएं। क्योंकि ना कह सकने की आदत या हिम्मत ही हमें नशाखोरी से दूर रख पाएगी। पहले शौकियां, फिर दोस्तों की जिद में हां, हां करते-करते जीवन की खुशियां हमसे ना कहने लगती हैं। इसलिए गैर जरूरी बातों पर ना कहना जरूरी है।

Monday, December 2, 2024

ड्यूटी चार्ट, गिनती और राजीव जी की भावभीनी सेवानिवृत्ति

केवल तिवारी

दैनिक ट्रिब्यून की हमारी समाचार संपादक मीनाक्षी जी ने कुछ दिन पहले तीन-चार दिन के ड्यूटी चार्ट पर नजर डालने को कहा। मैंने 30 नवंबर तक के ड्यूटी चार्ट देखे। एक दिसंबर के चार्ट में एक साथी कम लगा। मैं बार-बार गिनूं, लेकिन समझ नहीं आया कि एक व्यक्ति कम कौन हो रहा है। फिर एक-एक नाम को देखा। अचानक ध्यान आया, ओह राजीव जी एक दिसंबर से दैनिक ट्रिब्यून के न्यूजरूम का हिस्सा नहीं रहेंगे। मन भावुक हुआ। फिर मन को ही समझाया कि यह तो कार्यालयी या यूं कहें नौकरीपेशा का एक सिस्टम है। अथवा जैसा कि, प्रेस क्लब में आयोजित कार्यक्रम में संपादक नरेश कौशल जी ने कहा कि जब व्यक्ति परिपक्व होता है, अनुभवी होता है उसी समय एसे रिटायर होना पड़ता है, राजीव जी एनर्जेटिक हैं, हंसमुख हैं, काम को बहुत अच्छी तरह निष्पादित करते हैं। 


खैर जब ड्यूटी चार्ट वाली बात आ गयी और देखते-देखते 30 नवंबर भी आ गया तो प्रेस क्लब में राजीव जी को लेकर सब अनुभवों को साझा करने लगे। शायद ही कोई होगा जिसने राजीव जी के हंसमुख व्यक्तित्व और हाजिर जवाब व्यवहार की प्रशंसा न की हो। साथ आयीं भाभी जी ने भी राजीव जी को बेहतरीन पति बताया जो हर वक्त साथ खड़े होते हैं। यह बात तो जग जाहिर है कि जो व्यक्ति घर से अच्छा है वह हर जगह अच्छा होगा ही। प्रेस क्लब से लौटने के बाद भी हम राजीव जी की ही बातें करते रहे। शाम को राजीव जी ऑफिस पहुंचे। कुछ देर मीनाक्षी मैडम के साथ बातचीत के बाद वह सभी से मिलने गये और फिर हम सभी लोग उन्हें गेट तक छोड़ने गये। इससे पहले राजीव जी ने मैं पल दो पल का शायर हूं गीत की दो पंक्तियां सुनाईं जिसमें मशरूफ जमाना... शब्द हैं। इस गीत को मैंने अगले दिन फिर ध्यान से सुना और इस बार इसका कुछ और ही मतलब समझ आया। विदाई कार्यक्रम में मैं तो दो ही पंक्ति गुनगुना पाया जिसके बोल थे, हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यों है, अब तो हर वक्त यही बात सताती है हमें।' राजीव जी भले ही ऑफिस से सेवानिवृत्त हुए हैं, लेकिन संबंधों से नहीं। उनसे मिलना-जुलना बना रहेगा। बातें होती रहेंगी। छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते...। राजीव जी स्वस्थ रहें और प्रसन्न रहें। कुछ फोटो साझा कर रहा हूं। 







Tuesday, November 26, 2024

संविधान, सियासत, कुछ तथ्य और‌ राष्ट्र प्रथम की भावना

 केवल तिवारी

वर्ष 2024 में हुए 18वीं लोकसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन 'इंडिया' ने 'संविधान' को मुख्य मुद्दा बनाया। संविधान खतरे में है, आरक्षण खतरे में है जैसे विमर्श गढ़े गये। इसका कितना फायदा हुआ यह तो राजनीति के पंडित ही बता सकते हैं, लेकिन इस आम चुनाव के बाद संविधान शब्द खूब प्रचलन में आया है। सत्ता पक्ष भी इसको लेकर सजग दिखती है और आयेदिन कई कार्यक्रम इसको लेकर करती है। इन सबके बीच यह बात भी महत्वपूर्ण है कि भावना यही होनी चाहिए कि राष्ट्र प्रथम। देश को ही सर्वोपरि रखा जाना चाहिए।
 संयोग से इसी बीच, 26 नवंबर को संविधान दिवस आ गया। संविधान को बने 75 साल हो गये। बेशक हम 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं, लेकिन संविधान सभा ने 26 नवंबर की तारीख को लिखित संविधान को अपनाया था। बताया जाता है कि कुल 274 सदस्यों ने 167 दिनों तक बहस की और लगभग 36 लाख शब्द संविधान में समाहित किए गए। इस तरह दुनिया के सबसे लंबे लिखित भारतीय संविधान का स्वरूप सामने आया। कहा जाता है कि संविधान के हर अनुच्छेद पर संविधान सभा के सदस्यों ने बहस की। यह तो ज्ञात ही है कि संविधान निर्माण में दो साल, 11 महीने और 18 दिन लगे। संविधान के मुख्य वार्ताकार माने जाने वाले बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर को उनकी अध्यक्षता वाली मसौदा समिति के सदस्यों ने सहायता प्रदान की थी। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद 75 साल पहले इस ऐतिहासिक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ति थे। यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है और इसका पहला संस्करण न तो मुद्रित किया गया था और न ही टाइप किया गया था। इसे हिंदी और अंग्रेजी दोनों में हाथ से सुलेख के रूप में लिखा गया था। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक संविधान की पांडुलिपि प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने हाथ से लिखी थी और देहरादून में उनके द्वारा प्रकाशित की गई थी। हर पृष्ठ को शांति निकेतन के कलाकारों ने सजाया था, जिसमें बेहर राममनोहर सिन्हा और नंदलाल बोस शामिल थे। भारत के संविधान में फिलवक्त 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। संविधान में अब तक 106 बार संशोधन किया जा चुका है। संविधान सभा ने नवंबर 1948 से अक्तूबर 1949 तक, संविधान के प्रारूप पर खंड-दर-खंड चर्चा के लिए बैठकें कीं। इस अवधि के दौरान सदस्यों ने 101 दिनों तक बैठकें कीं। संविधान के मसौदे के भाग-तीन में मौलिक अधिकारों को शामिल किया गया और इस पर 16 दिनों तक चर्चा हुई थी। कुल खंड-दर-खंड चर्चाओं में से 14 प्रतिशत मौलिक अधिकारों के लिए समर्पित थी। राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों को भाग-चार में शामिल किया गया था और इस पर छह दिनों तक चर्चा हुई थी। खंड-दर-खंड चर्चा का चार प्रतिशत निर्देशक सिद्धांतों के लिए समर्पित था। नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को भाग-दो में शामिल किया गया था। इस भाग पर चर्चा का दो प्रतिशत समर्पित था। छह सदस्यों ने एक लाख से अधिक शब्द बोले। आंबेडकर ने 2.67 लाख से अधिक शब्दों का योगदान दिया। संविधान सभा के सदस्य, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 73,804 शब्द बोले। मसौदा समिति ने संवैधानिक सलाहकार बीएन राव द्वारा बनाए गए मसौदे की पड़ताल की और उसमें संशोधन किया तथा इसे सभा के समक्ष विचार के लिए प्रस्तुत किया। समिति के सदस्यों ने चर्चा के दौरान अन्य सदस्यों द्वारा की गई टिप्पणियों पर अक्सर प्रतिक्रिया दी। कुछ वैसे सदस्य जो मसौदा समिति का हिस्सा नहीं थे, (फिर भी) उन्होंने संविधान सभा की बहसों में व्यापक रूप से भाग लिया। ऐसे पांच सदस्यों ने एक-एक लाख से ज्यादा शब्दों का योगदान किया। संविधान सभा के पूरे कार्यकाल के दौरान पंद्रह महिलाएं इसका हिस्सा थीं। उनमें से 10 ने बहस में भाग लिया और चर्चाओं में दो प्रतिशत का योगदान दिया। महिलाओं में सबसे ज्यादा भागीदारी जी. दुर्गाबाई ने की, जिन्होंने लगभग 23,000 शब्दों का योगदान किया। उन्होंने बहस के दौरान न्यायपालिका पर विस्तार से बात की। अम्मू स्वामीनाथन, बेगम ऐजाज रसूल और दक्ष्याणी वेलायुधन ने मौलिक अधिकारों पर बहस में भाग लिया। हंसा मेहता और रेणुका रे ने महिलाओं के लिए न्याय से संबंधित बहस में हिस्सा लिया। दिलचस्प बात यह है कि संविधान सभा की बहसों में प्रांतों के सदस्यों ने 85 प्रतिशत योगदान दिया। संविधान सभा में प्रांतों से चुने गए 210 सदस्यों और रियासतों द्वारा मनोनीत 64 सदस्यों ने चर्चा में हिस्सा लिया। औसतन, प्रांतों के प्रत्येक सदस्य ने 14,817 शब्द और रियासतों के एक सदस्य ने 3,367 शब्द बोले। पीठासीन अधिकारियों द्वारा दिए गए भाषणों और हस्तक्षेपों ने चर्चाओं में नौ प्रतिशत का योगदान दिया। संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर, 1946 को दिल्ली में ‘संविधान सदन' में हुई। इसे पुराने संसद भवन के केंद्रीय कक्ष के रूप में भी जाना जाता है। सदस्य राष्ट्रपति के मंच के सामने अर्धवृत्ताकार पंक्तियों में बैठे थे। अगली पंक्ति में बैठने वालों में नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, आचार्य जेबी कृपलानी, प्रसाद, सरोजिनी नायडू, हरे-कृष्ण महताब, गोविंद बल्लभ पंत, आंबेडकर, शरत चंद्र बोस, सी. राजगोपालाचारी और एम. आसफ अली थे। नौ महिलाओं सहित दो सौ सात प्रतिनिधि भी उपस्थित थे। भारत के संविधान के कुछ धाराओं पर कई बार बहस-मुबाहिशें भी होती रही हैं। कुछ पुराने कानूनों को हटाने की कवायदें भी हो चुकी हैं। संविधान में परिवर्तन के भी अलग-अलग मानक हैं। जितने महत्व का आर्टिकल, उसके संशोधन को उतना ही क्लिष्ट बनाया गया। कुछ प्रावधानों को कुछ ही समय के लिए रखा गया जिन्हें कालांतर में बढ़ाया ही गया। आरक्षण का मामला इनमें से एक है। तो संविधान को लेकर कुछ तथ्यों को इधर-उधर से जुटाकर आपके सामने रखा है। आशा है काम आएगा। 

Sunday, November 24, 2024

हर्षित मोहित, प्रफुल्लित भजन, उर्मिल... विवाह समारोह और मित्र मिलन, शानदार यादें

केवल तिवारी

हर्षिता के हुए मोहित तो खुशियों के पुष्प गए खिल, उर्मिला-भजनलाल के आयोजन में मित्रों से सजी महफिल
दशकों के बाद मित्र मिलन की ऐसी सुंदर घड़ी आई, पूरे मौर्य परिवार को हम सबकी ओर से हार्दिक बधाई।
पुत्र और पुत्रवधू 

सचमुच मित्र और शादीशुदा जीवन में हम सब मित्रों के सीनियर और हमारे बच्चों के ताऊ भजनलाल को दिल से हार्दिक बधाई के साथ धन्यवाद कि उन्होंने एक खास मौका दिया मित्रों को मिलने का। करता हूं विस्तार से बातचीत। इससे पहले बता दूं कि बेटे मोहित और बहू हर्षिता की सुंदर जोड़ी है। समारोह में सभी ने यह बात कही। मेरा आशीर्वाद। दोनों खुश रहें और स्वस्थ रहें।
असल में बुधवार, 20 नवंबर की शाम एक अनूठी शाम रही। दसवीं तक साथ पढ़े अनेक मित्र मिले, कुछ से फोन पर बात हुई। वर्ष 1987 में मैंने लखनऊ मांटेसरी स्कूल से दसवीं पास की थी। उनमें से कुछ से मित्रता बनी रही, कुछ के नाम से ही परिचित हूं और कुछ के चेहरे याद आए।
सेल्फी लेता मित्र वसंत। साथ में भाभी जी, मैं और विमल

 बुधवार की शाम मिलने का खूबसूरत माध्यम बने मित्र भजनलाल। उनके सुपुत्र मोहित की शादी हो चुकी थी। मुझसे जोर देकर तो यह भी कहा गया था कि मुझे शादी समारोह में बहराइच भी बाराती बनकर चलना था। मेरी भी दिली इच्छा थी कि मैं पहुंचूं, लेकिन मनुष्य तो कर्म के अधीन है, इसलिए कर्म और जिम्मेदारी का ऐसा कॉकटेल बना कि बाराती बनकर न पहुंच सका, लेकिन रिसेप्शन पर पहुंचना ही है, इसे ठान लिया। इसलिए कनफर्म रिजर्वेशन न होने पर भी पहुंचने की ठान ली। मंगलवार शाम चंडीगढ़ से ट्रेन पकड़ी, बुधवार सुबह तेलीबाग स्थित अपने घर पहुंचा। भाई साहब-भाभी जी और पड़ोस में ही रह रही दीदी से भी मुलाकात करनी थी। भजनलाल का आग्रह था कि मैं दिन में ही उनके घर पहुंच जाऊं, मैं भी चाह रहा था, लेकिन समय ऐसे निकला कि शाम को ही रिसेप्शन स्थल डॉ. राममनोहर लोहिया ट्रांजिट हॉस्टल पहुंच पाया। मैं मेहमानों के आगमन से बहुत पहले ही पहुंच चुका था, भजनलाल वहां व्यवस्था देख रहे थे। चूंकि पर्याप्त समय था तो पहले एक राउंड पूरे परिसर का लगाया फिर बहन सुशीला, बिटिया मीनू और भाई अर्पित से मुलाकात हुई। कुछ पुरानी बातें भी हुईं। इसी दौरान दीक्षित जी मिल गए। दीक्षित जी से कुछ माह पहले ही केनाल कालोनी में मुलाकात हुई थी। इस बार उनकी पत्नी और उनके दोनों बेटों से भी मुलाकात हुई। बहुत अच्छा परिवार है। बातों और आसपास टहलने के क्रम में ही मैंने भजनलाल से कह दिया कि वह व्यवस्था देखें एवं मेहमानों का स्वागत करें, मैं अन्य मित्रों से बात करता हूं। तभी बाहर फूल की दुकान दिखी, मन किया कि एक बुके ले लिया जाए और लेकर हॉस्टल के रिसेप्शन पर रखवा लिया। 
कुछ ही देर में मित्र विमल यानी पार्षद विमल तिवारी आ गए। उनके आते ही पुराने दिन याद आ गए। हम लोग विमल को अजय देवगन कहते थे। विमल एकमात्र ऐसा मित्र था, उस दौर में जिसके मुंह से कभी कोई गाली नहीं निकलती थी। बहुत ज्यादा गुस्सा होने पर वह कहता, 'तेरी नानी की नाक में रस्सी।' वैवाहिक जीवन के मामले में विमल हम सबसे जूनियर है। उनकी एक बिटिया है। विमल ने कुछ मित्रों से फोन पर बात कराई। बहुत अच्छा लगा। कुछ ही देर में वसंत और उनकी पत्नी भी पहुंच गए। मित्र वसंत की वजह से ही मेरा दिल्ली आना हो पाया था। यह बात है वर्ष 1996 की। एमए करने के बाद भजनलाल, शदाब अहमद और मैंने एलएलबी में एडमिशन ले लिया था। तब तक मेरी समझ में आ गया था कि लक्ष्यविहीन पढ़ाई हो रही है। मैं कुछ अखबारों में लिखने लगा था। क्लर्की मुझे पसंद नहीं थी। दैनिक जागरण के दफ्तर में जाता था तो वहां हाथ से लोगों को लेख संपादित करते देखता था। मुझे यह बहुत भा गया। कुछ मित्रों ने कहा पत्रकारिता करनी है तो दिल्ली से बेहतर कुछ नहीं। दिल्ली एकमात्र मित्र था वसंत। वह भी एक बिजली के मीटर बनाने वाली फैक्टरी में एकाउंटेंट। उन दिनों फोन भी नहीं थे। मैंने वसंत को पत्र लिखा, वसंत का हफ्तेभर में ही जवाब आ गया कि आ जाओ। चला गया। कुछ दिन साथ काम किया। इसी दौरान मुझे अपनी लाइन मिल गयी और इसके बाद मैंने फिर से पढ़ाई भी की। पहले बीजेएमसी यानी पत्रकारिता में स्नातक फिर एमजेएमसी की। इसी दौरान तमाम उठापटक के साथ खूब लिखने और छपने लगा। दौड़ती-भागती जिंदगी में मैं अब चंडीगढ़ में हूं और वसंत ने अब लखनऊ में ही अपना काम जमा लिया है।
कार्यक्रम में वसंत के पहुंचते ही फिर पुरानी बातों का सिलसिला चल निकला। भाभी जी को बताया कि इसका टिफिन हम लोग खूब खाते थे। इसे धनिया पसंद नहीं था और आंटी या दीदी इसकी सब्जी में धनिया पत्ता कई बार डाल देती थीं। भाभी ने बताया कि आज भी धनिया नहीं खाते। ऐसी ही कई बातें कीं तो कुछ मित्रों ने मेरी याददाश्त की दाद दी। मैंने बताया कि स्कूल के दौर की कुछ बातें तो याद हैं बाकी मेरी भी स्मृति अब कमजोर हो रही है। सफेदी अपने आगोश में घेरने लगी है। तभी मित्र सपन सोनकर भी पहुंचा। सबसे ज्यादा बुजुर्ग लग रहा था। उसकी आंखों में काफी विकार आ गया है। ठीक से नहीं दिखता। खैर वह प्रसन्न है। प्रसन्नता ही उसे ठीक कर देगी। हम लोगों की बातें चलती रहीं, कुछ-कुछ स्टाटर भी चलता रहा। सामने ऑर्केस्ट्रा धीरे-धीरे रंगत में आ रहा था। कलाकार अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। मोहित और हर्षिता को आशीर्वाद देने का क्रम भी जारी था। बातों-बातों में कब दस बज गये पता ही नहीं चला। पहले वसंत फिर विमल भी निकल गये। अन्य मित्र भी जाने लगे। बारह बजे के आसपास तक मेहमान भी लगभग जा चुके थे। एक बार फिर मैं और भजनलाल साथ-साथ थे। इसी दौरान ऑकेस्ट्रा को समेटा जाने लगा। मैंने भी एक गीत गुनगुना दिया। फिर दूल्हा-दुल्हन, उनके परिजन साथ में मैं और समस्त परिवार का भोजन शुरू हुआ। हंसी-मजाक, भोजन आदि में एक बज गया। सबको विदा करने के बाद मैं और भजनलाल रसोई आदि से सामान पैक कराने में व्यस्त हो गये। रात करीब दो बजे मैं हॉस्टल के कमरा नंबर 11 में सोने चला गया। बाकी लोग भी अपने-अपने घर चले गये। सुनहरी यादों की यह शाम स्मृति पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो गयी। अगले दिन कुछ और मुलाकातों के साथ ही यात्रा संपन्न हो गयी। अब चंडीगढ़ में अपने काम में पूर्व की भांति लग गया हूं। ईश्वर सबको स्वस्थ रखे। हार्दिक शुभकमनाएं। 
भाभी जी के साथ मैं 







Friday, November 22, 2024

जवानी की दहलीज पर खड़े हो तो पढ़ो ये प्यारा संदेश- इस परीक्षा में हार जाओ बच्चो !


केवल तिवारी

अक्सर हम कामना करते हैं बच्चों की सफलता की। उनके जीतने की। जीवन की तमाम परीक्षाओं में विजयी होने की। लेकिन जीवन की इस आपाधापी में कुछ परीक्षाएं ऐसी होती हैं जिनमें हार जाने की सीख यदि बच्चों को दी जाये तो माहौल ही सुखद हो जाएगा। असल में कुछ समय पहले चंडीगढ़ के आसपास ही एक अनौपचारिक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला। वहां कुछ हमउम्र लोग अपने जवान होते बच्चों की बातें कर रहे थे। कोई अति तारीफ कर रहा था, कोई संयत था। किसी के पास सिवा शिकायत के कुछ था ही नहीं। इन्हीं बातों के सिलसिले में एक बात निकलकर आई कि बच्चे जब बड़े हो जाएं। यानी किसी धंधे-पानी में लग जाएं या फिर गृहस्थी की दहलीज पर कदम रखने वाले हों तो उन्हें एक सीख दीजिए कि परिवार की परीक्षाओं में हार जाओ। हार जाओ यानी जितना संभव हो अपने से बड़ों या बुजुर्गों की बातों में टोकाटाकी न करें, उनकी बात को सुनें। अति जानकार न बनें और उनके सामने हर जाएं। याद रहे बच्चो, हर मां-बाप की तमन्ना होती है कि उनके बच्चे कम से कम इतनी तरक्की करें कि उनसे आगे निकल जाएं। यह आगे निकलना सेहत की दृष्टि से है। यह आगे निकलना पढ़ाई को लेकर है और पेशेवर तरक्की को लेकर भी है।

अब ये असफल होना या हार जाना क्या है

जनरेशन गैप का मामला हमेशा रहता है। नयी पीढ़ी को लगता है कि जमाना हमारा है और चीजें भी हमारे हिसाब से होनी चाहिए। उधर, बुजुर्गों का तर्क होता है उनके पास अनुभव का खजाना है, इसलिए उनकी चलनी चाहिए। अब चलनी चाहिए, नहीं चलनी चाहिए तो दूसरी बात है, अहम बात है हारने या असफल होने का। एक छोटा सा उदाहरण समझिए। मान लीजिए परिवार के किसी बुजुर्ग से हम बात कर रहे हैं। बात आगरा शहर की हो रही हो। वह बोलें, मैं भी उस इलाके में कुछ दिन रहा हूं। दो बड़े-बड़ चौक वहां पर बने थे। कोई युवा तपाक से बोल उठे, वहां कोई चौक कभी था ही नहीं। इतने साल से मैं ही देख रहा हूं। मैं कहता हूं हो सकता है युवा ही सही हो, लेकिन अगर इसकी जगह वह चुपचाप सुन ले या यह कह दे कि हां बदल तो अब सारे शहर गए हैं। कहीं मेट्रो आ गयी है और कहीं फ्लाईओवर बन गए हैं। लेकिन कई बार देखने में आया है कि कुछ युवा अड़ जाते हैं। ऐसे कई मसले हैं। खान-पान की बातों पर भी। कुछ और बातें भी हैं। बड़ों के रुटीन से भी अगर दिक्कत हो तो कई बार उसे इग्नोर करना कितना अच्छा होता है। आपको मालूम भी हो कि मैं जो कह रहा हूं, सही कह रहा हूं फिर भी आप उसे जाहिर नहीं करते तो यही है असफल होना। परिजनों के बीच ऐसी असफलता बहुत सुकून देती है। नयी पीढ़ी को भी पुरानी पीढ़ी को भी।

फलों से लदा पेड़ बनिये

कार्यस्थल पर आपकी शैली अलग हो सकती है, लेकिन घर में उस शैली को मत अपनाइये। घर तो घर है। यहां फलों से लदे पेड़ सरीखे बन जाइये। यानी विनम्र और सरल। साथ में सहजता भी। धौंस जमाने की आदत भी कई बार युवाओं में होती है। धौंसपट्टी से काम बिगड़ते ही हैं, बनते नहीं हैं। साथ ही परिवार के बीच सबसे खुशी की बात है फैमिल फर्स्ट। अपने सबसे नजदीकी परिवार के साथ हमेशा संपर्क में रहिए, फिर धीरे-धीरे उसे विस्तारित कीजिए। इस संबंध में अपरे अखबार के 'रिश्ते' कॉलम में मैंने बहुत कुछ लिखा था, जैसे जो मां जैसी वह मौसी। पापा का बचपन जानने वाली यानी बुआ। ताऊ-चाचा यानी इनको है सब पता। इनसे जानिये पापा के बचपन की कहानियां। ताई तो होती ही है न्यारी। मामा यानी दो बार मां। मतलब मां से भी ज्यादा प्यार करने वाला रिश्ता। तो चलिए आज कुछ ज्ञान की बातें हो गयीं। अगले ब्लॉग में कुछ और...। 

Sunday, November 10, 2024

जी गये दद्दू, जीवटता से चले गये

केवल तिवारी

दद्दू चले गये, लेकिन मैं तो कहूंगा कि दद्दू आप जी गये। चले गये कहना ही पड़ रहा है, पर जीवटता से गये। जीवट रहे दद्दू। जिंदादिल इंसान। प्रैक्टिल इंसान। मददगार इंसान। 

दद्दू की व्हाट्सएप डीपी 

दद्दू को तब से जानता हूं जब नौवीं-दसवीं में पढ़ता था। अक्सर मिलते थे। दूर से ही नमस्कार कर खिसक लेते थे। पहला असल आमना-सामना हुआ जब एक बार उनके यहां कुछ सामान लौटाने गया। मैं और मेरा एक मित्र उनके लखनऊ स्थित सरकारी आवास में गये। देहरी से थोड़ा अंदर पहुंचकर खुद को अच्छा बच्चा साबित करने की लालसा में मैंने पूछ लिया, अंदर आ जाऊं। दद्दू बोले- आधे तो अंदर आ चुके हो और अब पूछ रहे हो। अब आ ही जाओ। उन्होंने बड़ी बेरुखी से बैठने का इशारा किया। हम दोनों बैठ गये। थोड़ी देर में दद्दू दो कटोरियों में खीर लेकर आये। मैंने दो चम्मच खाते ही कहा, अरे वाह बहुत अच्छी खीर है, घर में बनायी होगी। दद्दू बोले- नहीं तुम्हारे लिए बाजार से मंगाई है। फिर बोले, बच्चे को बच्चे की ही तरह रहना चाहिए। बेवहज मक्खनबाजी मत करो। मैं घर आया, बड़े भाई साहब से शिकायती लहजे में कहा, कहां भेज दिया आज मुझे। बहुत ही रूखे आदमी हैं। भाई साहब हंसे, बोले- अरे वह तो बहुत बेहतरीन इंसान हैं। धीरे-धीरे समझोगे। सच में धीरे-धीरे समझा तो दद्दू बेहद जिंदादिल इंसान निकले। उतनी ही जिंदादिल उनकी पत्नी। उनके बच्चे भारती, सुबोध और दीपेश हमें मामा कहते। दीपेश को हम दीपू कहते। कालांतर में दीपेश को मैं दीपेश जी कहने लगा। दीपेश हमारे दामाद बन चुके हैं। यानी मेरी भानजी रुचि के पति। शनिवार 9 नवंबर की दोपहर रुचि का फोन आया, मामा पापा नहीं रहे। मेरे मुंह से एकदम से निकला, अरे दद्दू चले गये। हे भगवान। वह इतना ही बोल पायी, हां मामा चले गये। फोन कट हो गया। मैं बीमार चल रहा था। एक-दो दिन से ऑफिस जाने की स्थिति में नहीं था। पत्नी भावना ने कुछ देर ढांढस बंधाया। मैंने खुद को संयत किया और बोला, अरे नहीं दद्दू आप तो जी गये। आप जहां भी गये, वहीं से सबको आशीर्वाद दोगे। दद्दू को हम तो दद्दू कहते ही थे, हमसे बड़े और हमारी नयी पीढ़ी के लिए भी वह दद्दू थे। दद्दू आप हमेशा याद आओगे। whattsapp पर आपके अक्सर आने वाले मैसेज हमेशा याद रहेंगे। आप दिलों में जिंदा हैं। ऊं शांति।

Sunday, October 20, 2024

वर्षों बाद घर गया, अपने साथ 'खुद' को भी ले गया



केवल तिवारी
पिछले दिनों उत्तराखंड स्थित अपने मूल गांव यानी जन्मभूमि पर जाने का अचानक संयोग बन पड़ा। यात्रा वृतांत पर जाने से पहले बशीर बद्र साहब के उस शेर को याद करना चाहता हूं, जिसके शब्द हैं- 'वर्षों बाद वह घर आया है, अपने साथ खुद को भी लाया है।' सचमुच भौतिक आपाधापी और कुछ मजबूरियों में हम लोग इस कदर मशगूल हो गए हैं कि घर-आंगन से दूर हो गए हैं। घर गया तो सचमुच आंगन रूठा-रूठा सा लग रहा था। देहरी उदास सी दिख रही थी। आश्चर्यजनक था कि आंगन में गौरैया फुदक रही थी। गौरैया पर अपनी कहानी ‘गौरैया का पंख’ याद आई। वह तो फ्लैट में लिखी गयी थी। यहां आंगन में इस नन्ही चिड़िया का फुदकना अच्छा लगा। फोटो के लिए मोबाइल निकालने तक वह फुर्र हो गयी। इसके बाद घर के अंदर माताजी के ऐतिहासिक संदूक ने जैसे सारे तार खोल दिए और दिल भावनाओं के उमड़-घुमड़ में खो गया। दीदीयों से बात हुई। भावनाओं का ज्वार-भाटा फूटा और अंधेरे कमरे में थोड़े से आंसू निकले और भावनाओं के समंदर में दुनियादारी की 'समझदारी' हावी हो गयी और चल पड़ा आगे का सिलसिला। विस्तार से सुनाता हूं पूरा विवरण।
इन दिनों अलग-अलग दिवस मनाए जाते हैं। गत 22 सितंबर को पता चला कि डॉटर्स डे है। पत्नी से बात हुई तो बोली, भतीजी कन्नू को फोन लगा लो। वह अक्सर ‘परिजनों से बात कर लो’ के लिए ताकीद करती रहती है। कन्नू संभवत: व्यस्त थी, उसका फोन नहीं उठा। फिर विचार आया कि चलो भतीजे दीपू से बात हो जाये। उसे फोन लगाया तो संयोग से बात हो गयी। मैंने बताया कि लखनऊ लंबे समय से नहीं आ पाया, जबकि वादा था कि भाभीजी (कन्नू, दीपू की मम्मी) के घुटनों के ऑपरेशन के बाद बीच-बीच में आता रहूंगा। मेरे इस बीच लखनऊ न जा पाने का कारण था मेरा एक्सीडेंट। कुछ ही दिन हुए पैर का प्लास्टर कटा है। फोन पर बातचीत के दौरान दीपू ने कहा कि लखनऊ आने का तो फिर बनाना, पहले गांव चलो। वहां जमीन संबंधी कुछ काम करने जरूरी हैं। नाम भी चढ़वाना है। कुछ लोग नजर भी गड़ाए हैं। मैंने तुरंत हां कर दी और आठ नवंबर की रात चलने को कहा। पहले इसलिए नहीं जा सकता था कि हरियाणा में चुनावी कार्यक्रम था और नैतिकता का तकाजा था कि छुट्टी न ली जाए। दीपू तैयार हो गया। बड़े भाई साहब से भी चलने को कहा, लेकिन उनकी व्यस्तता थी और कुछ मजबूरियां भी। खैर जाने से पहले समस्या थी कि गांव जाकर रुका कहां जाए। दीपू से फोन पर बात करने के बाद मैं इसी उधेड़बुन में लग गया। इसी दौरान मैंने अपने साढू भाई सुरेश पांडे जी से बात की और पूछा कि खाता-खतौनी कैसे निकलेगी, क्योंकि मामला जमीन का था। जब मैंने उन्हें बताया कि गांव जाने का कार्यक्रम है तो बोले, मैं भी चल पड़ूंगा और चीजों को समझूंगा। फिर जेठू (पत्नी के बड़े भाई) शेखरदा से बात हुई, वह भी चलने के लिए और हल्द्वानी से आगे सारथी बनने (अपनी कार से हम सबको ले चलने) के लिए तैयार हो गए। इसी दौरान गांव में पीतांबर तिवारी जी उर्फ पनदा से बात हुई। उन्होंने सहर्ष कहा कि आओ।
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पहाड़ों का वह सफर और ताड़ीखेत प्रवास
तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं 8 अक्तूबर की रात चंडीगढ़ से दिल्ली के लिए निकला। दीपू से भी कहा कि तुम 9 की सुबह निकलना। सुबह करीब 4 बजे कश्मीरी गेट पहुंच गया, लेकिन वहां डीटीसी की अव्यवस्थ के शिकार में फंस गया और आनंद विहार पहुंचते-पहुंचते 6 बज गये। कहानी लंबी है, इसलिए विस्तार नहीं दे रहा हूं, लेकिन इतना कह दूं कि राजनीति में जो मुफ्त का खेल चल रहा है, वह है खतरनाक। खैर… आनंद विहार जैसे ही पहुंचा हल्द्वानी की बस चलने ही वाली थी। इस बीच, दो-तीन बार शेखर दा का फोन आ चुका था। जब भी कहीं लंबे सफर पर जाता हूं तो इन लोगों के फोन आते हैं, लोकेशन पूछते रहते हैं, अच्छा लगता है कि कोई खैर ख्वाह है। इसी दौरान दीपू से भी बात हुई। वह भी निकल चुका था। दीपू से गजरौला पहुंचकर फिर फोन किया, वह वहां से आगे बढ़ चुका था।  दोपहर 12 बजे के आसपास आधे घंटे के गैप में हम दोनों पहुंच गए। शेखर दा और पांडे जी हमें रिसीव करने के लिए मौजूद थे। तुरंत चल पड़े ताड़ीखेत के लिए। रास्ते में एक जगह चाय पी और एक जगह पाठक जी के ढाबे पर खाना खाया। इस दौरान लंबे समय बाद अपने पहाड़ आने के सुख को अनुभव करता रहा। कभी वीडियो बनाया, कभी बातें कीं। कभी घर पहुंचने पर कुछ काम को लेकर मंथन किया। कुछ वीडियो और फोटो यहां साझा करूंगा।
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घर के पास और घर से दूर, ताड़ीखेत का होटल
ताड़ीखेत यानी जहां से अक्सर पैदल ही घर जाया करते थे, या घर जाने के लिए थोड़ी दूर और सफर कर डाबर घट्टी तक जाया करते थे। अब गांव तक सड़क पहुंच गयी। मैंने इसी सड़क पर एक ब्लॉग लिखा था (सड़क और पलायन का रिश्ता), जिसे बहुत सराहा गया। आज हम घर के पास तो पहुंच चुके थे, लेकिन तय किया कि गांव अगली सुबह पहुंचेंगे। इसी दौरान मलोटा (मौट) के पान सिंह से बातचीत हुई। उनका कई बार फोन आया यह पूछने के लिए क्या सिवाड़ क्षेत्र की जमीन को बेचना चाहते हैं। उन्हें स्पष्ट किया कि ऐसा कोई इरादा नहीं है और निर्णय सिर्फ और सिर्फ लखनऊ बड़े भाई साहब लेंगे। फिर भी उन्होंने दो लोगों को भेजा और वे लोग हमें रानीखेत के करीब एक बेहतरीन होटल दिखाने ले गये। मैंने विनम्रता पूर्वक वहां नहीं रहने के लिए कहा क्योंकि हमारा काम ताड़ीखेत में था। उन लोगों को धन्यवाद देते हुए मैंने कहा कि हम बार-बार इतनी दूर आना-जाना नहीं कर सकते। उनसे विदा लेकर हम लोग वापस ताड़ीखेत आए और व्यंजन होटल में बात की। नवीन जोशी जी का यह होटल अच्छा था। रात वहां गुजारी। पहले मन किया कि चलकर रामलीला देखी जाए। पान सिंह जी वहां रावण की भूमिका अदा कर रहे थे, फिर थकान का इतना बुरा हाल था कि खाना खाते ही मैं तो सो गया। शायद दीपू, शेखरदा और पांडेजी कुछ देर तक बात करते रहे। अगली सुबह पहले मैं और शेखरदा ताड़ीखेत morning walk करके आये। चाय पीकर आये। वापस आकर दीपू, पांडेजी को उठाया। फिर सबने स्नान ध्यान किया। होटल से निकलकर पहले ग्वेलदेवता के मंदिर गए माथा टेका। फिर नाश्ता-पानी।
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प्रधान विजय जी का भरपूर सहयोग
गांव पहुंचने से पहले आदतन मैं सारी स्थितियों से अवगत होने की कोशिश कर रहा था। इसी दौरान खिलगजार मदन (रिश्ते में भतीजा और बचपन का दोस्त) से बातचीत हुई। उसने विजय जी का नंबर दिया। विजय हमारे गांव के दूसरे हिस्से यानी मलोटा क्षेत्र से प्रधान हैं। बेहद मिलनसार। काम में सहयोग करने वाले और प्रधानगी की छवि से अलग। हम लोग शाम को उनसे मिले। उन्होंने जरूरी जानकारियां दीं। कुछ फोन नंबर दिए। साथ ही परिवार रजिस्टर के लिए ऑनलाइन आवेदन किया। यह भी कहा कि कोई जरूरत हो आप संपर्क करना। काम तो होते रहेंगे, लेकिन मृदुल व्यवहार के लिए विजय जी का आभार। मदन का धन्यवाद।
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जब हम चले अपने गांव की ओर
10 अक्तूबर करीब 11 बजे कुछ सामान खरीदने के बाद हम लोगों ने गांव की ओर रवानगी डाली। रवाना होने से पहले हमें ताड़ीखेत में ही वीरेंद्र सिंह (बीरू) मिला, उससे कहा कि हम कार तुम्हारे घर पर खड़ी करेंगे। उसने जगह बता दी। तभी दीपू का दोस्त, मेरे भाई साहब के दोस्त उर्वीदा के पुत्र मुन्ना (पूरा नाम शायद मनोज तिवारी) मिला। मुन्ना भी हमारे साथ ही चला और पूरे रास्तेभर वहां की गतिविधियों को बताता रहा। मुन्ना पूजा-पाठ कराता है। नेक व्यक्ति है। पहाड़ी वादियों को देख कई गाने मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। बातें चल रही थीं। कब सरना पहुंच गए, पता ही नहीं चला। वहां से पैदल चले। सबसे पहले भोपका की माताजी (उम्र करीब 100 साल) मिलीं। मैंने अपना परिचय दिया तो गले लगकर रोने लगीं। फिर थोड़ा ऊपर। मुझे अचानक पता चला कि बिसका नहीं रहे। बेहतरीन कलाकार बिसका के साथ बचपन से बातें होती थीं। पता चला कि उनका निधन कई वर्ष पहले हो चुका है। थोड़ा ऊपर गए तो प्रधान (मेरे दोस्त दिनेश की पत्नी) का घर मिला। दिनेश से मुलाकात की, बच्चों से मिला, अपने काम के सिलिसिले में कुछ बातें कीं। प्रमाणपत्र बनाने के लिए कहा और आ गए अपने गांव। पनदा सामने दिख गए। भाभी ने भी मुस्कुराकर स्वागत किया। पानी पिलाया। मैंने कहा अभी बैठूंगा। पहले बसंत दा, कैलाश, प्रयागदा के घर गया। फिर चायपानी और बातचीत का दौर शुरू। थोड़ी देर के लिए पांडेजी और शेखरदा को लेकर अडगाड़ (पानी का पुश्तैनी झरना) भी गया।
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… और वह जादुई संदूक
चूंकि मामला जमीन के दस्तावेजों का था तो दीपू ने घर का दरवाजा खोला। घर जर्जर हालत में पहुंच चुका है। अंदर जाकर ईजा (माताजी) के जादुई संदूक को खोला गया। जाइुई इसलिए कि बचपन में जब भी ईजा इस संदूक को खोलती थी मैं और शीला दीदी उसी में सिर घुसा देते थे। हमें पता था कि कुछ न कुछ खाने को मिलेगा ही। कभी मिसरी मिलती, कभी मिठाई मिलती और कभी गोला-गरी। इस बार उसमें ऐसी नायाब चीजें मिलीं जिस पर पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। दाज्यू, दीदी के पुराने रिजल्ट, प्रमाणमत्र, जमीनों के कागजात, ब्रिटिशकालीन सिक्के वगैरह-वगैरह। साथ ही जब दीदीयों से बात की तो एक कहानी और पता चली। बताते हैं कि एक बार घर में पेठा (पेठा मिठाई) आई। उस वक्त पिताजी बीमारी के दौर से गुजर रहे थे। मां ने संदूक खोला तो प्रेमा दीदी और शीला दीदी ने मिठाई की जिद की। मां ने डपट दिया और कहा कि तुम्हारे पिताजी का गला सूख जाता है, थोड़ी सी मिठाई उनके लिए रखी है। इस वाकये को अनुभव कर रहे पिताजी ने बाहर के कमरे से कहा, अरे दे दे इन बेटियों को मिठाई। मां ने पता नहीं हालात को कैसे हैंडल किया, लेकिन अगले दिन पिताजी इस दुनिया से ही चले गये। उस मिठाई का क्या हुआ होगा, इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है, मां पर क्या गुजरी होगी, इस पर पूरी कहानी बन सकती है। उसके बाद किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े हमारे बड़े भाई साहब भुवन चंद्र तिवारी पर क्या बीती और कैसे समय आगे बढ़ा, अंदाज लगा सकते हैं। मेरे पास अलग अलग रूपों में सारी दास्तान डाक्यूमेंटेड है। साथ ही मिठाई की जिद कर रहीं प्रेमा दीदी, शीला दीदी पर क्या बीती होगी। पुष्पा दीदी और विमला दीदी की शादी हो चुकी थी और मेरा होना या न होना एक जैसा था। न था मैं तो खुदा था, न होता मैं तो खुदा होता, डुबोया हमको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।
खैर... इस वक्त मेरे जेहन में मां उमड़-घुमड़ रही थी। पुराने दस्तावेजों को देखकर दीपू निश्छल बच्चा सा बन गया और अपने पापा, मम्मी और बुआ को फोन करने लगा। मैं भी इसी लौ में बहता चला गया। बातों में से बातें- एक बात बसंतदा ने बताई कि जिस साल भाई साहब का जन्म हुआ था, हमारे आंगन में श्रवण कुमार का नाटक खेला गया। पिताजी ने कलाकारों को खुशी-खुशी 25 रुपये दिए। उस दौर के 25 रुपये का अंदाजा लगाया जा सकता है। वसंतदा के साथ प्रयागदा ने भी कई बातें साझा कीं। शाम होने तक हम लोग बतियाते रहे और फिर ठंड बढ़ने लगी और भोजन के बाद सो गये।
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घर तुझसे वादा…
घर के अजीबोगरीब हालात में पनदा के बेटे विनोद ने बहुत मदद की। उसने मशीन से घास काटी। फिर मोहनदा के बेटे विनोद जिसे प्यार से बिंदी कहते हैं, से मैंने फोन किया और उसके घर में हम लोग सोए। पांडेजी और शेखरदा तो उसी दिन लौट आए, लेकिन मैं और दीपू वहां दो दिन रुके। बिंदी ने घर अच्छा बनाया है। हमारा मन भी वैसा करने का है। पहले तो बार-बार घर जाते रहने का मन में संकल्प किया, फिर ईश्वर से प्रार्थना कि कुछ अच्छा करने में हम आगे बढ़ सकें। इस दौरान बिपिन की भी खूब याद आई। वह अक्सर मुझसे घर चलने के लिए कहता था। कई बार तो प्रोग्राम बनाने के बाद आदेशात्मक लहजे में कहता था, फलां दिन पहुंच जाना, दिल्ली से साथ चलेंगे। तमाम यादों को समेटकर मैं आ गया। बसंतदा के पिताजी के श्राद्ध का भोजन भी किया। पहाड़ी रायते की खुशबू और स्वाद कई सालों बाद महसूस किया।
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मंदिर-मंदिर, गांव-गांव यात्रा और बुजुर्ग चाची और भाभी से बातचीत
जिस दिन गांव पहुंचे, उस दिन तो कुछ ही घरों में जाना हुआ। अगले दिन सुबह से ही हम लोग काम पर लग गए। दीपू ने हिम्मत दिखाई और घर को लीप दिया। मैं तो हालांकि मना कर रहा था, लेकिन उसने लीप दिया। साथ ही उसने और मुन्ना ने पंडित जी को भी बुला लिया था। हमारे कुल पुरोहित के वंशज। शायद हरीश पांडे। पहले हमने घर के अंदर कुल देवी को याद किया। दोनों ने आरती की। फिर ग्वेलथान गए। वहां संकल्प कराकर, पंडितजी पूजा में लग गए, हम लोग चले गए धूनी। वहां पूजा-पाठ की। मुन्ना भी हमारे साथ था। वापसी में हिमतपुर चाची मिली। मिलते ही गले लगकर रोने लगी और कहने लगी कि तेरी मां मेरी सहेली थी, मैं उसके पास कब जाऊंगी। मैंने कहा, चाची जब बुलावा आएगा, तब जाओगी। इसी दौरान चाची की एक फोटो खींच ली। चूंकि यह महीना असोज (फसल कटने और घास सहेजकर रखने का मौसम) लगा हुआ था, इसलिए घर के युवा सदस्य कम ही मिल पाए। जो मिले भी तो काम करते हुए।
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संस्कारी बच्चे, परंपराएं और पहाड़ा का जीवन
पहाड़ा का जीवन कठिन है, यह तो हर बार की तरह इस बार भी दिखा, लेकिन बदलाव की बयार यहां भी है और होनी भी चाहिए। एक ग्रूप में सफर का वीडियो डाला तो हमसे पहले गांव में हमारी सूचना पहुंच गयी। इसके साथ ही महसूस किया बच्चों का परिवार के प्रति स्नेह का संस्कार। पनदा का बेटा विनोद मम्मी-पापा का हाथ बंटाता दिखा, उसने हमारा भी सहयोग किया। उर्वीदा का बेटा मुन्ना हर वक्त मां की सेवा में लगा रहता है। वह लूठा (सूखी खास को एकत्र कर रखने की परंपरा) बनाता दिखा। महेश दा का बेटा भी अपने मम्मी-पापा की मदद कर रहा था। मदन का बेटा नोएडा से घर आया था त्योहारी तैयारी के सिलसिले में। इसके अलावा जगह-जगह बच्चियां घास काटती दिखीं, लेकिन आधुनिक ड्रेस (जींस और टी शर्ट) में। मुझे बहुत अच्छा लगा। आखिर जिसमें आपको अच्छा लगता है, वह पहनने में क्या दिक्कत है। यात्रा का विवरण तो बहुत लंबा-चौड़ा है। इस यात्रा के चलते कुछ कविताएं और कुछ कहानियां भी बन पड़ी हैं। जाहिर किरदारों को बदलते हुए इन्हें जल्दी ही आप लोगों को पढ़वाऊंगा। अंत में यही कहूंगा, ‘हिमाला को ऊंचो डाना, प्यारो मेरो गांव- रंगीलो गढ़वाल मेरो छबीलो कुमाऊं।’
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मानीला में भुवन जीजा जी के कॉटेज में अविस्मरणीय प्रवास
संघर्ष के दिनों में कौशांबी स्थित हिमगिरि के नौवें फ्लोर पर हम अनेक लोग रहते थे। वहां गीता दीदी और भुवन जीजाजी हम सबके संरक्षक थे। मार्गदर्शक थे। अब भी सबका संपर्क उनसे बना हुआ है। बातोंबातों में पता चला कि वह भी इन दिनों अपने मानीला स्थित कॉटेज पहुंचे हुए हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि गांव का काम निपटाकर मानीला चले आओ। मैं पहली बार ताड़ीखेत से भतरजखान, फिर भिक्यांसैण होते हुए मानीला पहुंचा। रास्ते में मासी रोड दिखी। मैंने कुछ लोगों से पूछा तो पता चला यह हमारे ननिहाल साइट का ही इलाका है। उसके बाद पंतगांव का रास्ता दिखा। नाम बहुत सुना था, देखा पहली बार। दोपहर को मैं मानीला मुख्य रोड पर उतरा। जीजाजी कार लेकर लेने आ गये। कॉटेज पहुंचा। शानदार लोकेशन, संपूर्ण सुविधाएं। वहां रवि भी मिले। वह खाना बना रहे थे। गुनगुनी धूप का आनंद लिया। लंच किया फिर आराम। शाम को आसपास का इलाका देखा। गीत-संगीत का कार्यक्रम चला। तमाम अविस्मरणीय यादों को समेटकर लौट चला अपनी रुटीन लाइफ में। इस बीच, हमारे हिमगिरि के सभी साथी धीरज ढिल्लों, जैनेंद्र सोलंकी, हरीश, पंकज चौहान, राजेश डोबरियाल और सभी मित्रों की धुरी सूरी यानी सुरेंद्र पंडित से मुलाकात हुई। जीजाजी के साथ डिनर हुआ। बहुत अच्छा लगा।














Saturday, October 5, 2024

मन क्या है? ऑफिस की कैंटीन में चर्चा



केवल तिवारी

पिछले दिनों ऑफिस (The Tribune, दैनिक ट्रिब्यून, ਪੰਜਾਬੀ ਟ੍ਰਿਬਿਊਨ) की कैंटीन में, मैं और साथी जतिंदर जीत सिंह चाय पी रहे थे। उसी वक्त पंडित अनिरुद्ध शर्मा जी अपने साथी अरविंद सैनी जी के साथ आए। उन्होंने एक सवाल उठाया कि आखिर 'मन' क्या है? 'मन' को किस तरह से हम परिभाषित कर सकते हैं? मन के बारे में जब बात करने लगे तो पहले चर्चा हुई मन के वैज्ञानिक या डॉक्टरी पहलू पर। सवाल उठा कि क्या मन शरीर का कोई अंग है। यानी कि क्या मन असल में कहीं एक्जिस्ट करता भी है। जिस तरह शरीर के कई अंग होते हैं, मसलन- यकृत, अमाशय, दिल वगैरह-वगैरह। लेकिन शरीर में मन नाम का कोई अंग नहीं है। फिर यह भी कहा गया कि दिल ही मन का दूसरा रूप है। इस पर सहमति नहीं बनी क्योंकि मैंने कहा कि मन अभी यहां है, पलभर में हजारों लाखों किलोमीटर दूर मन पहुंच सकता है। मन की क्या थाह। जतिंदरजीत सिंह जी बोले, मन असल में दिल से थोड़ा हटकर है। कई बार हम दिल से यह जानते हैं कि जो हम खा रहे हैं या पी रहे हैं वह नुकसानदायक है, लेकिन मन पर काबू नहीं रहता है और खा या पी लेते हैं। उन्होंने कहा कि जैसे शराब पीने वाला जानता है कि इसका सेवन खराब है, लेकिन फिर भी मन के वशीभूत वह इसे पीता है। तभी पंडित जी बोले कि यह बात तो दिल पर भी लागू होती है। किसी भी अनुचित कदम उठाते वक्त दिल हमें सचेत करता है। लेकिन हम फिर भी नहीं मानते तो नुकसान होता है। फिर सवाल उठा कि दिल और मन में फर्क। हम लोग जब चर्चा कर रहे थे पंडित जी और उनके साथी अरविंद जी आइसक्री खा रहे थे। एक-एक कप खा चुके थे, एक-एक और ले आए थे। मैं और जतिंदरजीत जी चाय पी रहे थे। मैंने सोचा कि यह भी तो मन की बात है। इनका मन आइसक्रीम खाने को किया होगा, खा रहे हैं। हमें चाय पीनी थी, पी रहे हैं। अब यह दिल की बात है या मन की।
फिल्मी गीतों में मन
दिल और मन में फर्क के संबंध की चर्चा का कोई फाइनल समाधान तो नहीं निकला अलबत्ता यह हुआ कि अपनी-अपनी तरफ से इसके बारे में कुछ सोचेंगे। मेरे जेहन में मन से संबंधित कुछ फिल्मी गीत कौंध गए। यहां भी जेहन क्या, मन या दिल या दिमाग... पहले तो पढ़ते-पढ़ते इन गानों को गुनगुनाइये-
- आकर तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी, मेरे मन को महकाए तेरे मन की कस्तूरी
- तू जो मेरे मन का घर बसा ले मन लगा ले हो उजाले
- मुझे खुशी मिली इतनी की मन में न समाये
- कई बार यूं ही देखा है ये जो मन की सीमा रेखा है
- मेरे मन का बावरा पंछी क्यों बार-बार
- दिखे कोई मन का नगर बनके मेरा साथी
- कोरा कागज था ये मन मेरा
- जानेमन जानेमन तेरे दो नयन चोरी-चोरी लेके गए देखो मेरा मन
- आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन मेरा मन
- बाहों के दरमियां दो प्यार मिल रहे हैं जाने क्या बोले मन डोले मन
- मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
- एक चतुर नार करके सिंगार मेरे मन के द्वारा में घुसत जात
- मन मेरा मंदिर आंखें दिया बाती
- बच्चे मन के सच्चे सारी दुनिया के हैं आंख के तारे
- ए गुलबदन ऐ गुलबदन तुझे देख कर कहता है मेरा मन
मन और दिल के संबंध में ऐसे ही अनेक गीत हैं। यह लिस्ट बहुत लंबी-चौड़ी हो सकती है। हमारी चर्चा मन और दिल के बीच झूलते हुए खत्म हो गई क्योंकि कैंटीन में ज्यादा देर बैठ नहीं सकते थे। हम बातें तो जरूर वहां कर रहे थे लेकिन हमारा मन न्यूजरूम में था कि कोई खबर तो नहीं आ गयी, कोई फोन तो नही आ गया। बमुश्किल पांच मिनट की बातचीत के दौरान मन पर उक्त बातें हुईं। अंतत: सबको कुछ सोचने के लिए कहा जाए। मैं तो यही कहूंगा मनोहर श्याम जोशी की एक रचना ‘कसप’ की तरह है मन। कसप उत्तराखंड में एक शब्द है जिसका मतलब है पता नहीं। यह पता नहीं भी साधारण सा इनकार करने के रूप में नहीं, बल्कि दार्शनिकता सा लिए हुए है। हां मन का दिमाग से तारतम्यता तो बिल्कुल नहीं होगी। क्योंकि कहते हैं जब आपका दिमाग चलता है तो दिल शांति से सुनता रहता है और जब दिल से कुछ किया जाता है तो दिमाग सामान्य हो जाता है। चलिए मन, दिल और दिमाग की इस चर्चा को अभी जारी रहने दिया जाए। आपका क्या खयाल है, क्या कहता है आपका मन।

Wednesday, October 2, 2024

पेजर विस्फोट के बाद उपजा तकनीक का खौफ

साभार: दैनिक ट्रिब्यून 

https://m.dainiktribuneonline.com/article/fear-of-technology-arises-after-pager-explosion/605928 पेजर विस्फोट के बाद  उपजा तकनीक का खौफ

दैनिक ट्रिब्यून 



केवल तिवारी 
वही हुआ, जिसकी आशंका थी। पेजर विस्फोट के बाद लेबनान और इस्राइल के बीच 'जंगी हालात' बने और सैकड़ो लोगों की मौत हो गई। दोनों ओर से एक-दूसरे पर हमले जारी हैं। मौत का यह खतरनाक खेल कहां जाकर रुकेगा, यह तो इसे शुरू करने वाले ही जानें, लेकिन इस प्रकरण ने सशंकित सबको कर दिया है। क्या हम अपने गैजेट के साथ सुरक्षित हैं या रफ्तार पकड़ती तकनीक के इस दौर में खतरों को साथ लेकर चल रहे हैं..

आसमान से कड़कती बिजली का खौफ नहीं,
ए खुदा डरते हैं जमी पर तेरे आदमी से हम।
किसी शायर की ये दो पंक्तियां मौजू है वर्तमान के तकनीकी युग में। आदमी को आदमी से खौफ का मंजर लगातार भयावह होने लगा है। खौफ का एक 'कारोबार' है। खौफ 'ऑनलाइन' हो गया है। अदृश्य खौफ का मंजर जब हकीकत की जमीन पर दिखने लगता है तो सारी कायनात हिल कर रह जाती है। ऑनलाइन ठगी से उबरने के प्रयास अभी सिरे नहीं चढ़ पाए थे कि अब ऑनलाइन विस्फोट ने एक नए विवाद, नए डर को जन्म दे दिया है।
वैश्विक शांति की तमाम कोशिशों से इतर, ‘दुश्मन’ को खत्म करने के नये-नये तरीकों से सभी अमनप्रिय लोग स्तब्ध हैं। हाइड्रोजन बम, साइबर अटैक की चर्चाओं के बीच पिछले दिनों लेबनान में पेजर विस्फोट ने सबको चौंका दिया। उसके बाद लेबनान और इस्राइल के बीच छिड़ गयी ‘खूनी जंग’। पेजर और ‘वाकी-टॉकी’ विस्फोट के बाद एक बार फिर नित नयी ईजाद होती तकनीक, उस पर बढ़ती निर्भरता और उससे उपजते भयावह खतरों ने सबको सकते में डाल दिया है। इस विस्फोट ने एक सवाल को जन्म दिया है कि मोबाइल, लैपटॉप, टैब जैसे तमाम गैजेट इस्तेमाल करने वाला आमजन कितना सुरक्षित है। असल में इन गैजेट्स पर हमारी जितनी अधिक निर्भरता बढ रही है, उतने ही ज्यादा खतरे भी बढ़ रहे हैं। तकनीक पर निर्भरता से खतरे बढ़ने की तो बात सही है, लेकिन नया माजरा तो तकनीक के ‘बैक’ मारने जैसा है। जो पेजर दुनिया के लिए इतिहास बन चुका था, उसी पेजर के इस्तेमाल के लिए पहले मजबूर किया गया और फिर विस्फोट।
जानकार कहते हैं कि लेबनान में साजिशन पहले यह भ्रम फैलाया गया कि आपके सभी फोनों को ट्रैक कर लिया जाएगा। फिर उन्हें मजबूर किया गया कि वे पेजर खरीदें। खासतौर से आपात सर्विस में लगे लोग। जब फोन ट्रैक हो सकने की आशंका बलवती हुई तो ‘लड़ाकों’ ने भी पेजर रखने में ही ‘भलाई’ समझी। इसके बाद एक कंपनी को पेजर बनाने का ऑर्डर दिया गया। बताया जा रहा है कि कंपनी से पेजर ठीक बनकर आए। डिस्ट्रीब्यूटर के यहां से भी सही निकले, लेकिन बीच में ही उनमें तीन-तीन मिलीग्राम प्रति पेजर विस्फोटक भर दिया गया और एक खास तरह के मैसेज के साथ फिट कर दिया गया। इंतजार किया गया और मैसेज के एक्टिव होते ही हजारों पेजर में विस्फोट हो गया।
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डर का कारोबार
क्या-क्या दिलों का खौफ छुपाना पड़ा हमें
खुद डर गए तो सबको डरना पड़ा हमें।
दरअसल, ठगी करने से लेकर बदला लेने तक माजरा खौफ का है। खुद डरा हुआ कोई भी देश औरों को डराने के लिए नयी-नयी तकनीक ईजाद कर रहा है। कभी वेबसाइट हैक करने की कोशिश होती है तो कभी बैंकिंग प्रणाली पर साइबर अटैक। स्थिति अजीब है कि पहले कुछ न होते हुए कुछ हो जाने का डर दिखाया जाता है, फिर डरे हुए व्यक्ति से अगला कदम ऐसा उठवाया जाता है कि डर के धंधेबाजों की मौज। ऐसा ही पेजर विस्फोट के मामले में हुआ। डराया गया कि फोन इस्तेमाल मत करो, फोन की जगह आउटडेटेड पेजर को अपनाया और मौत गले पड़ गयी।
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नया खतरा वर्चुअल फोन कॉल
एक्सपर्ट कहते हैं कि एक वर्चुअल फोन कॉल का भी नया खेल ठगी की दुनिया में शुरू हो गया है। यह खेल अजीबोगरीब है। एक आभासी नंबर क्रिएट किया जाता है फिर उससे 'शिकार' को फोन किया जाता है। फोन रिसीव करने वाला अगर झांसे में आ गया तो नुकसान तय है। इसमें सबसे ज्यादा खतरनाक बात यह है कि जिस नंबर से फोन आता है उसे ट्रेस किया ही नहीं जा सकता क्योंकि वह नंबर असल दुनिया में तो होता ही नहीं है, वह एक आभासी नंबर होता है।
कोरोना को भी समझा गया ‘वायरस अटैक’
इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस को ऑनलाइन वायरस के जरिये खराब करने के अनेक किस्से तो हमारे सामने आते ही थे, चार-पांच साल पहले जब कोरोना महामारी फैली तो उसे भी एक तरह का अटैक माना गया। आरोप लगे कि यह गहरी साजिश है बीमारी फैलाने और लोगों को खत्म करने का। हालांकि इसकी जांच अब भी जारी है और धीरे-धीरे हम कोरोना महामारी से उबर गए। अभी तक यह सिद्ध नहीं हो पाया कि कोरोना वायरस को साजिशन फैलाया गया या यह इंसानी गलती थी। मामला कुछ भी हो, जरूरी है सचेत रहने की
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सावधानी जरूरी, ‘लालच’ सबसे बुरी बला
अवनींद्र कुमार सिंह
(साइबर एवं डिजिटल फॉरेंसिक एक्सपर्ट/एनालिस्ट- कंसलटेंट लॉ इन्फोर्समेंट- भारत सरकार)
साइबर एवं डिजिटल फॉरेंसिक एक्सपर्ट अवनींद्र कुमार सिंह कहते हैं कि ऑनलाइन खतरों से बचाव संभव है। बस जरूरी है सावधान रहने और ‘लालच’ से बचने की। क्या दुनियाभर में, खासतौर पर भारत में मोबाइल इस्तेमाल करने वाले करोड़ों लोग भी ‘अलग तरह के खतरे’ की जद में है, पूछने पर अवनींद्र कुमार कहते हैं, ‘फोन निर्माता बड़ी कंपनियों के पास रिसर्च एवं डेवलपमेंट (आर एंड डी) के लिए बहुत बड़ा स्टाफ होता है। एक्सपर्ट की यह टीम सॉफ्टवेयर अपडेट के लिए हर तरह की सावधानी बरतती है। लेकिन कई बार अनजानी सी कंपनियों के फोन पर अपडेट के नाम पर काफी नुकसान हो सकता है। मोबाइल पर खतरों के सवाल पर अवनींद्र ने कहा, ‘फोन हैक हो सकता है, आपके फोन की हर गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है, आपका डाटा चुराया जा सकता है।’ हैकिंग के खतरों पर विस्तार से बात करते हुए साइबर एक्सपर्ट ने कहा कि जब भी कभी कोई अनजान आईडी से मेल आए तो सावधानी जरूरी है। खासतौर से ऐसे ईमेल से जिसमें आपसे जानकारी देने को कहा गया हो। अवनींद्र ने कहा कि ऐसे मेल को डिलीट तो करें ही साथ ही उसे स्पैम में डाल दें। यदि ईमेल अकाउंट ऑफिशियल हो तो उसे ‘फिशिंग’ में डाल दें। असल में फिशिंग ऐसा ऑप्शन है जिससे सरवर मैनेज करने वालों को ऐसे खतरनाक मेल के बारे में जानकारी मिल जाती है और व्यक्ति विशेष तक पहुंचने से पहले ही इसे डिलीट किया जा सकता है। उनका कहना है कि खुद सतर्क रहते हुए जागरूकता बढ़ाना भी हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है। कभी भी फर्जी से लगने वाले ईमेल, मैसेज को रेस्पॉन्स न करें। साइबर बुलिंग की बात करते हुए अवनींद्र ने कहा कि ऑनलाइन ठगी या किसी तरह के लफड़े में फंसने का एकमात्र कारण होता है ‘लालच।’ अमूमन तो लोग पैसे के लालच में आ जाते हैं। कभी गिफ्ट वाउचर और कभी कुछ ‘कैश बैक’ के लालच में आकर हम फर्जी लिंक पर क्लिक कर देते हैं। ऐसा ही मामला हनी ट्रैप का भी है। इसलिए हमें लालच से दूर रहते हुए हमेशा सतर्क रहना चाहिए। समय-समय पर सरकार एवं एक्सपर्ट की चेतावनी को ध्यान रखना चाहिए।
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एक्सपर्ट की राय और तमाम तरह की जानकारी जुटाने के बाद एक ही बात सामने आती है कि ऑनलाइन के खतरों से निपटने का सबसे कारगर तरीका है सतर्कता। ऑनलाइन खौफ संबंधी परिदृश्य एकदम काला भी नहीं है, तकनीक विकसित हो रही है तो उससे उपजे खतरों से निपटने के उपाय भी ढूंढे जा रहे हैं। अगर ठगी रूपी रात है तो उम्मीदों की भोर भी होगी, एक शायर की दो पंक्तियों की मानिंद-
दिल ना उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है,
लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है।
धेरे का भी उजला पक्ष सामने आएगा और ‘लालच’ और ‘खौफ’ पर हावी होगी समझदारी और सतर्कता। क्योंकि तकनीकी विस्तार की गति को कोई रोक नहीं सकता। खतरे के रूप में यह तकनीक पेजर की भांति बैक भी मार सकती है और वर्चुअल कॉल की तरह एडवांस भी हो सकती है।

Sunday, September 15, 2024

ऑनलाइन गेम्स की दुनिया और बचपन पर एक स्टोरी साभार दैनिक ट्रिब्यून

 साभार: दैनिक ट्रिब्यून (पिछले दिनों हमारे अखबार दैनिक ट्रिब्यून में एक लेख छपा। थोड़े विस्तृत रूप में यहां चला रहा हूं।)


https://m.dainiktribuneonline.com/article/now-online-games-also-give-relief/599623 अब सुकून देने वाले ऑनलाइन गेम्स भी


ऑनलाइन गेम्स में सुकून की तलाश

केवल तिवारी 

ट्सोशल मीडिया में लगों के ‘गुम’ होने की शिकायतों के साथ ही ‘ऑनलाइन गेम्स’ में बच्चों और बचपने के खोने की बात भी कही जाती है। गेम्स में बच्चों के डूबे रहने के कई नकारात्मक पहलू सामने आए हैं। लेकिन इसी स्याह पक्ष में एक श्वेत और सुखद अहसास यह भी है कि अनेक बच्चे अब ‘कूल गेम्स’ तलाशने लगे हैं। बेशक यह सब भी मार्केट का ही खेल है, फिर भी आशा की जानी चाहिए कि ‘कूल गेम्स’ कम से कम हिंसक प्रवृत्ति को तो नहीं पनपने देंगे। ऑनलाइन गेम्स के पूरे परिदृष्य पर एक नजर-

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मारधाड़। तनाव। जीतने का अजीबोगरीब जुनून। न खाने-पीने की सुध और न ही समय का ध्यान। ऐसा ही तो होता है ऑनलाइन गेम्स में। ऐसे गेम्स जिनमें बच्चे, किशोर और युवा डूबे रहते हैं। कभी-कभी तो अधेड़ उम्र के लोगों या बुजुर्गों का भी इन गेम्स में अटकाव देखा जाता है। इन गेम्स के कारण हो रहे हादसों से कौन नहीं वाकिफ है। टारगेट इतना खौफनाक होता है कि रूह कांप जाये। कई देशों ने इसीलिए तो इन पर प्रतिबंध भी लगाया। इसी चिंताजनक स्थिति के बीच कुछ सुखद चीजें भी सामने आ रही हैं। यानी पक्ष एकदम स्याह ही नहीं है, कुछ श्वेत भी है। और वह श्वेत पक्ष इस कदर धीरे-धीरे धवल हो रहा है कि नयी पीढ़ी को मानो पुरानी कविता की उन खूबसूरत पंक्तियों की मानिंद नया संदेश दे रहा हो, ‘नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो।’ असल में तनाव पैदा करने वाले ऑनलाइन गेम्स के बीच ही अनेक ऐसे खेल भी अब आ रहे हैं जो बहुत कूल हैं। कोई फिक्स टारगेट नहीं। बैकग्राउंड में शांत सा म्यूजिक चल रहा है, आप एक वस्तु को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। साथ में हैं पहाड़, हरे-भरे पेड़, नदियां। उसी तरह जैसे गूगल मैप पर आप डेस्टीनेशन लगाते हैं, गलत मुड़ गये तो वह आपको उत्तेजित नहीं करता, रीरूटिंग कर देता है। कोई बात नहीं एक मोड़ गलत मुड़ गये हों तो आगे से आपको रास्ता मिल जाएगा। हालांकि कूल गेम्स भी बाजार का ही एक नया रूप है और इसमें भी उलझने का उतना ही खतरा बरकार है, लेकिन इसके खतरे उतने भयावह नहीं हैं। ऐसे ज्यादातर गेम्स में टारगेट नहीं हैं। हिंसा नहीं है। ये गेम्स अलग-अलग तरह के हैं। किसी में समूह में खेलने का नियम है और किसी में व्यक्तिगत तौर पर।

गनीमत है कुछ अच्छा भी है

अब कई गेम्स तनाव कम करने के लिए बनाये जाने लगे हैं। घरों में बच्चे कभी-कभी अपने बड़ों तक तक को सलाह दे डालते हैं कि इस गेम को डाउनलोड कर लीजिए, कुछ देर खेलिए आनंद आएगा। ऐसे ही गेम का ही एक प्रारूप है जिसमें अगर आपने गूगल खोला, अगर इंटरनेट नहीं चल रहा हो तो वह आपको कूल रहने की सीख देता है। एक आइकन सामने आ जाएगा। आप उसको आगे बढ़ाते रहिए। छोटे-छोटे टारगेट आएंगे। नेटवर्क आते ही वह गेम खत्म हो जाएगा। हालांकि अगर अच्छी प्रैक्टिस नहीं है तो यह गेम भी आपके अंदर झुंझलाहट पैदा कर सकता है। अगर बात करें विभिन्न गेम्स की तो उनमें से कुछ हिंसक हैं, मसलन-मॉर्टल कॉम्बेट, कॉल ऑफ ड्यूटी, पबजी, फ्री फायर, शेडो फाइट आदि। इसी तरह कुछ कूल गेम्स हैं जैसे, पियानो किड्स, ट्रक गेम्स फॉर किड्स, यूनिकॉर्न शेफ, ड्रेसअप, कलरिंग एंड लर्न, लिटिल पांडा, चिल्ड्रेन्स डॉक्टर, फायर फेरी, द घोस्ट पेपर चेंज, ऑल्टो एडवेंचर, ऑल्टोज ऑडिसीज, कास्टिंग अवे सिनामोन चैलेंज, आइस एंड सॉल्ट चैलेंज या फिर कुछ हद तक ब्रेन डॉट्स, कैंडी क्रश।

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अरबों का है कारोबार

पिछले दिनों एक खबर आई कि गेमिंग कंपनी नजारा टेक्नोलॉजीज ने ब्रिटेन स्थित आईपी-आधारित गेमिंग स्टूडियो फ्यूजबॉक्स गेम्स को 228 करोड़ रुपये में खरीदने का ऐलान किया है। खरीदने के संबंध में कंपनी की तरफ से बयान आया, 'हम एक आईपी आधारित वैश्विक गेमिंग व्यवसाय बनाने में बड़ा अवसर देखते हैं, जिसे भारत में हमारे मुख्य आधार से लाभ मिलेगा।' यह तो एक गेम डील की बात हो गयी। एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में ऑनलाइन गेम का कारोबार कई सौ खरब डॉलर का है। भारतीय रुपयों के संदर्भ में देखें तो माना जाता है कि इस वक्त ऑनलाइन गेम्स का कारोबार करीब 2340 करोड़ रुपयों का है। दिन-प्रतिदिन नये-नये गेम्स आ रहे हैं। इस संबंध में कंपनियों की ओर से रिसर्च करवाई जाती हैं और जैसा ट्रेंड या पसंद उनके सामने आती है उसी तरह से सॉफ्टवेयर डेवलप कराकर नये गेम्स बनाए जाते हैं।

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क्या आप रखते हैं स्क्रीन टाइम का ध्यान

यूं तो हर वर्ग के लोगों को अपने स्क्रीन टाइम, यानी कितनी देर मोबाइल, टीवी, लैपटॉप, डेस्कटॉप पर लगे हैं, पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन बच्चों के मामले में इस पर ज्यादा सतर्कता जरूरी है। बेशक कोविड के बाद बच्चों के स्क्रीन टाइम में इजाफा हुआ है। यह जरूरत भी बन गया है, लेकिन फिर भी इसे लिमिटेड करना बहुत जरूरी है। विशेषज्ञों के मुताबिक स्क्रीन टाइम बच्चों को सीखने, रचनात्मकता विकसित करने और सामाजिक संपर्क और कनेक्शन का समर्थन करने में मदद करता है। लेकिन बहुत अधिक स्क्रीन टाइम नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। एक शोध के मुताबिक दो से पांच साल के बच्चों के लिए एक घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं होना चाहिए। पांच से 17 वर्ष की आयु तक स्कूल के काम के अलावा दो घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम नहीं होना चाहिए। लेकिन ज्यादातर मामलों में इस समयसीमा की अवहेलना ही होती है। जानकार कहते हैं कि अधिक स्क्रीन टाइम वाले बच्चों में बिना सोचे-समझे खाने और अधिक खाने की आशंका होती है। जब बच्चे स्क्रीन पर होते हैं, तो वे अपने मस्तिष्क से पेट भर जाने के बारे में मिलने वाले महत्वपूर्ण संकेतों को ग्रहण करने से चूक सकते हैं। कई बच्चे ऐसे मौकों पर जंक फूड खाना पसंद करते हैं। ऐसे में कई विकार पनपने की आशंका रहती है। अमेरिका, आयरलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के बाद अब हाल ही में स्वीडन ने भी स्क्रीन टाइम के लिए सख्त परामर्श जारी किया है

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मैदान के खेल भी मोबाइल पर

‘इस दौर में मोबाइल ने बचपन को खा लिया, आसमान उदास है कि पतंगें नहीं आतीं।’ किसी शायर की ये दो पंक्तियां सटीक बैठती हैं, उस बचपन पर जो मोबाइल में सचमुच गुम हो गया है। आज अन्य खेलों के अलावा मोबाइल पर वे गेम्स भी उपलब्ध हैं जो मैदान में खेले जाने चाहिए। क्रिकेट, फुटबॉल, वालीबॉल, बेसबॉल, हॉकी, तीरंदाजी जैसे अनेक गेम्स बच्चे मोबाइल या टैब पर खेलते दिख जाते हैं। और तो और किशोरावस्था में पहुंच रहे बच्चे ड्राइविंग भी ऑनलाइन करते हैं। एक रिसर्च के मुताबिक यही बच्चे जब असल जिंदगी में वाहन चलाते हैं तो उनके अवचेतन मन में गेम्स की बातें घूमती हैं और कई बार वे हकीकत की जिंदगी में गलती कर बैठते हैं। मैदान में खेलों की जरूरत का ही एक सुखद नजारा पिछले दिनों चंडीगढ़ में देखने को मिला जब एक सरकारी स्कूल में बच्चों को खेल किट बांटे गए। इसका उद्देश्य बच्चों को मैदान में खेलने के लिए प्रेरित करना था। पंजाब के राज्यपाल और यूटी प्रशासक गुलाब चंद कटारिया ने उभरते खिलाड़ियों को उनके कोच सहित स्पोर्ट्स किट्स भेंट की। फाउंडेशन अध्यक्ष संजय टंडन हैं। टंडन यूटी क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं।

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क्या कहते हैं विशेषज्ञ

डॉ. तनुजा कौशल

कंलसटेंट क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट

जानी-मानी क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट डॉ. तनुजा कौशल कहती हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। उनका कहना है कि ऑनलाइन गेम्स से बच्चे कुछ चीजें सीखते भी हैं जैसे टीम वर्क, समस्या का समाधान निकालना, तनाव को कम करना आदि। लेकिन गेम्स में डूबे रहना खतरनाक हो सकता है। डॉ. तनुजा ने कहा कि हम सबको स्क्रीन टाइम का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। अत्यधिक स्क्रीन टाइम के कारण बच्चों में कई विकार आ सकते हैं। उन्होंने बताया कि मनोवैज्ञानिक डॉक्टरी भाषा में इसे ‘अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर’ (एडीएचडी) कहते हैं। इसके अलावा वर्चुअल ऑटिज्म की आशंका भी बनी रहती है। यह कोई प्रत्यक्ष बीमारी नहीं होती, लेकिन इसमें लक्षण अजीबोगरीब होते हैं जैसे बच्चा किसी से बात न करे, वह अत्यधिक रोशनी बर्दाश्त न कर पाए, वह चिड़चिड़ा हो जाए, वगैरह-वगैरह। इसके अलवा एंजाइटी, डिप्रेशन, आंखों में रोशनी की समस्या, एडिक्शन जैसे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। डब्ल्यूएचओ इसे गेमिंग डिसऑर्डर की बीमारी के रूप में परिभाषित कर चुका है। डॉ. तनुजा ने आगाह किया कि ऑनलाइन गेम्स में डूबा बच्चा साइबर बुलिंग का भी शिकार हो सकता है।

यह पूछने पर कि आज के समय में गेम्स पर पूरी तरह प्रतिबंध तो लगाया नहीं जा सकता, अभिभावक क्या करें, डॉ तनुजा ने कहा, पहले हमें बच्चों को स्वस्थ तरीके से चीजों को समझाना आना चाहिए। उन्होंने कहा कि हेल्दी उपाय बेहद जरूरी हैं। शॉपिंग पर चले जाना, बाहर खाने जाना आदि अनहेल्दी उपाय हैं। उन्होंने कहा कि अपनी 'बला' टालने के लिए हम खुद ही बच्चों को जाने-अनजाने स्क्रीन टाइम में धकेल देते हैं। 'इलाज से बेहतर रोकथाम है' मुहावरे का हवाला देते हुए डॉ तनुजा कौशल ने कहा कि हम बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताएं। उनके साथ खेलें। अगर उन्हें ऑनलाइन गेम्स की अनुमति दें भी तो वह फिक्स टाइम के लिए हो और उन पर नजर रखी जाए। उनके अभिभावक उनके साथ संगीत सुनें, हंसी-मजाक भी करें। पैरेंटिंग टिप्स पर चर्चा करते हुए डॉ. तनुजा ने कहा कि हद से ज्यादा नियंत्रण भी बच्चों को बिगाड़ देती है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ नियम बनाए जाने जरूरी हैं जैसे कि घर में 'गेमिंग फ्री जोन' हों। उदाहरण के लिए बेडरूम में बच्चा गेम न खेले, खाना खाते वक्त बच्चा गेम न खेले। बच्चों को डायरी लेखन की ओर भी आकृष्ट करना एक बेहतरीन तरीका है। बच्चा दिनभर की गतिविधियों या स्कूल एक्टिविटी को डायरी में लिखे, उसे समझे। डॉ. तनुजा ने एक और बात पर गौर करने की जरूरत पर बल दिया कि आजकल छोटे बच्चे जब खाना खाते वक्त आनाकानी करते हैं या कभी परेशान करते हैं तो कई पैरेंट्स उन्हें मोबाइल पकड़ा देते हैं, उन्होंने कहा कि ऐसे तो हम खुद ही बच्चे को गर्त में धकेल रहे हैं। इससे बेहतर है कि उसे पसंद का खाना खिलाया जाये। कई बार बच्चों संग बच्चा बनकर रहा जाये। उसे स्वस्थ माहौल दिया जाये।