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Tuesday, November 26, 2024

संविधान, सियासत, कुछ तथ्य और‌ राष्ट्र प्रथम की भावना

 केवल तिवारी

वर्ष 2024 में हुए 18वीं लोकसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन 'इंडिया' ने 'संविधान' को मुख्य मुद्दा बनाया। संविधान खतरे में है, आरक्षण खतरे में है जैसे विमर्श गढ़े गये। इसका कितना फायदा हुआ यह तो राजनीति के पंडित ही बता सकते हैं, लेकिन इस आम चुनाव के बाद संविधान शब्द खूब प्रचलन में आया है। सत्ता पक्ष भी इसको लेकर सजग दिखती है और आयेदिन कई कार्यक्रम इसको लेकर करती है। इन सबके बीच यह बात भी महत्वपूर्ण है कि भावना यही होनी चाहिए कि राष्ट्र प्रथम। देश को ही सर्वोपरि रखा जाना चाहिए।
 संयोग से इसी बीच, 26 नवंबर को संविधान दिवस आ गया। संविधान को बने 75 साल हो गये। बेशक हम 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं, लेकिन संविधान सभा ने 26 नवंबर की तारीख को लिखित संविधान को अपनाया था। बताया जाता है कि कुल 274 सदस्यों ने 167 दिनों तक बहस की और लगभग 36 लाख शब्द संविधान में समाहित किए गए। इस तरह दुनिया के सबसे लंबे लिखित भारतीय संविधान का स्वरूप सामने आया। कहा जाता है कि संविधान के हर अनुच्छेद पर संविधान सभा के सदस्यों ने बहस की। यह तो ज्ञात ही है कि संविधान निर्माण में दो साल, 11 महीने और 18 दिन लगे। संविधान के मुख्य वार्ताकार माने जाने वाले बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर को उनकी अध्यक्षता वाली मसौदा समिति के सदस्यों ने सहायता प्रदान की थी। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद 75 साल पहले इस ऐतिहासिक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ति थे। यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है और इसका पहला संस्करण न तो मुद्रित किया गया था और न ही टाइप किया गया था। इसे हिंदी और अंग्रेजी दोनों में हाथ से सुलेख के रूप में लिखा गया था। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक संविधान की पांडुलिपि प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने हाथ से लिखी थी और देहरादून में उनके द्वारा प्रकाशित की गई थी। हर पृष्ठ को शांति निकेतन के कलाकारों ने सजाया था, जिसमें बेहर राममनोहर सिन्हा और नंदलाल बोस शामिल थे। भारत के संविधान में फिलवक्त 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। संविधान में अब तक 106 बार संशोधन किया जा चुका है। संविधान सभा ने नवंबर 1948 से अक्तूबर 1949 तक, संविधान के प्रारूप पर खंड-दर-खंड चर्चा के लिए बैठकें कीं। इस अवधि के दौरान सदस्यों ने 101 दिनों तक बैठकें कीं। संविधान के मसौदे के भाग-तीन में मौलिक अधिकारों को शामिल किया गया और इस पर 16 दिनों तक चर्चा हुई थी। कुल खंड-दर-खंड चर्चाओं में से 14 प्रतिशत मौलिक अधिकारों के लिए समर्पित थी। राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों को भाग-चार में शामिल किया गया था और इस पर छह दिनों तक चर्चा हुई थी। खंड-दर-खंड चर्चा का चार प्रतिशत निर्देशक सिद्धांतों के लिए समर्पित था। नागरिकता से संबंधित प्रावधानों को भाग-दो में शामिल किया गया था। इस भाग पर चर्चा का दो प्रतिशत समर्पित था। छह सदस्यों ने एक लाख से अधिक शब्द बोले। आंबेडकर ने 2.67 लाख से अधिक शब्दों का योगदान दिया। संविधान सभा के सदस्य, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 73,804 शब्द बोले। मसौदा समिति ने संवैधानिक सलाहकार बीएन राव द्वारा बनाए गए मसौदे की पड़ताल की और उसमें संशोधन किया तथा इसे सभा के समक्ष विचार के लिए प्रस्तुत किया। समिति के सदस्यों ने चर्चा के दौरान अन्य सदस्यों द्वारा की गई टिप्पणियों पर अक्सर प्रतिक्रिया दी। कुछ वैसे सदस्य जो मसौदा समिति का हिस्सा नहीं थे, (फिर भी) उन्होंने संविधान सभा की बहसों में व्यापक रूप से भाग लिया। ऐसे पांच सदस्यों ने एक-एक लाख से ज्यादा शब्दों का योगदान किया। संविधान सभा के पूरे कार्यकाल के दौरान पंद्रह महिलाएं इसका हिस्सा थीं। उनमें से 10 ने बहस में भाग लिया और चर्चाओं में दो प्रतिशत का योगदान दिया। महिलाओं में सबसे ज्यादा भागीदारी जी. दुर्गाबाई ने की, जिन्होंने लगभग 23,000 शब्दों का योगदान किया। उन्होंने बहस के दौरान न्यायपालिका पर विस्तार से बात की। अम्मू स्वामीनाथन, बेगम ऐजाज रसूल और दक्ष्याणी वेलायुधन ने मौलिक अधिकारों पर बहस में भाग लिया। हंसा मेहता और रेणुका रे ने महिलाओं के लिए न्याय से संबंधित बहस में हिस्सा लिया। दिलचस्प बात यह है कि संविधान सभा की बहसों में प्रांतों के सदस्यों ने 85 प्रतिशत योगदान दिया। संविधान सभा में प्रांतों से चुने गए 210 सदस्यों और रियासतों द्वारा मनोनीत 64 सदस्यों ने चर्चा में हिस्सा लिया। औसतन, प्रांतों के प्रत्येक सदस्य ने 14,817 शब्द और रियासतों के एक सदस्य ने 3,367 शब्द बोले। पीठासीन अधिकारियों द्वारा दिए गए भाषणों और हस्तक्षेपों ने चर्चाओं में नौ प्रतिशत का योगदान दिया। संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर, 1946 को दिल्ली में ‘संविधान सदन' में हुई। इसे पुराने संसद भवन के केंद्रीय कक्ष के रूप में भी जाना जाता है। सदस्य राष्ट्रपति के मंच के सामने अर्धवृत्ताकार पंक्तियों में बैठे थे। अगली पंक्ति में बैठने वालों में नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, आचार्य जेबी कृपलानी, प्रसाद, सरोजिनी नायडू, हरे-कृष्ण महताब, गोविंद बल्लभ पंत, आंबेडकर, शरत चंद्र बोस, सी. राजगोपालाचारी और एम. आसफ अली थे। नौ महिलाओं सहित दो सौ सात प्रतिनिधि भी उपस्थित थे। भारत के संविधान के कुछ धाराओं पर कई बार बहस-मुबाहिशें भी होती रही हैं। कुछ पुराने कानूनों को हटाने की कवायदें भी हो चुकी हैं। संविधान में परिवर्तन के भी अलग-अलग मानक हैं। जितने महत्व का आर्टिकल, उसके संशोधन को उतना ही क्लिष्ट बनाया गया। कुछ प्रावधानों को कुछ ही समय के लिए रखा गया जिन्हें कालांतर में बढ़ाया ही गया। आरक्षण का मामला इनमें से एक है। तो संविधान को लेकर कुछ तथ्यों को इधर-उधर से जुटाकर आपके सामने रखा है। आशा है काम आएगा। 

Sunday, November 24, 2024

हर्षित मोहित, प्रफुल्लित भजन, उर्मिल... विवाह समारोह और मित्र मिलन, शानदार यादें

केवल तिवारी

हर्षिता के हुए मोहित तो खुशियों के पुष्प गए खिल, उर्मिला-भजनलाल के आयोजन में मित्रों से सजी महफिल
दशकों के बाद मित्र मिलन की ऐसी सुंदर घड़ी आई, पूरे मौर्य परिवार को हम सबकी ओर से हार्दिक बधाई।
पुत्र और पुत्रवधू 

सचमुच मित्र और शादीशुदा जीवन में हम सब मित्रों के सीनियर और हमारे बच्चों के ताऊ भजनलाल को दिल से हार्दिक बधाई के साथ धन्यवाद कि उन्होंने एक खास मौका दिया मित्रों को मिलने का। करता हूं विस्तार से बातचीत। इससे पहले बता दूं कि बेटे मोहित और बहू हर्षिता की सुंदर जोड़ी है। समारोह में सभी ने यह बात कही। मेरा आशीर्वाद। दोनों खुश रहें और स्वस्थ रहें।
असल में बुधवार, 20 नवंबर की शाम एक अनूठी शाम रही। दसवीं तक साथ पढ़े अनेक मित्र मिले, कुछ से फोन पर बात हुई। वर्ष 1987 में मैंने लखनऊ मांटेसरी स्कूल से दसवीं पास की थी। उनमें से कुछ से मित्रता बनी रही, कुछ के नाम से ही परिचित हूं और कुछ के चेहरे याद आए।
सेल्फी लेता मित्र वसंत। साथ में भाभी जी, मैं और विमल

 बुधवार की शाम मिलने का खूबसूरत माध्यम बने मित्र भजनलाल। उनके सुपुत्र मोहित की शादी हो चुकी थी। मुझसे जोर देकर तो यह भी कहा गया था कि मुझे शादी समारोह में बहराइच भी बाराती बनकर चलना था। मेरी भी दिली इच्छा थी कि मैं पहुंचूं, लेकिन मनुष्य तो कर्म के अधीन है, इसलिए कर्म और जिम्मेदारी का ऐसा कॉकटेल बना कि बाराती बनकर न पहुंच सका, लेकिन रिसेप्शन पर पहुंचना ही है, इसे ठान लिया। इसलिए कनफर्म रिजर्वेशन न होने पर भी पहुंचने की ठान ली। मंगलवार शाम चंडीगढ़ से ट्रेन पकड़ी, बुधवार सुबह तेलीबाग स्थित अपने घर पहुंचा। भाई साहब-भाभी जी और पड़ोस में ही रह रही दीदी से भी मुलाकात करनी थी। भजनलाल का आग्रह था कि मैं दिन में ही उनके घर पहुंच जाऊं, मैं भी चाह रहा था, लेकिन समय ऐसे निकला कि शाम को ही रिसेप्शन स्थल डॉ. राममनोहर लोहिया ट्रांजिट हॉस्टल पहुंच पाया। मैं मेहमानों के आगमन से बहुत पहले ही पहुंच चुका था, भजनलाल वहां व्यवस्था देख रहे थे। चूंकि पर्याप्त समय था तो पहले एक राउंड पूरे परिसर का लगाया फिर बहन सुशीला, बिटिया मीनू और भाई अर्पित से मुलाकात हुई। कुछ पुरानी बातें भी हुईं। इसी दौरान दीक्षित जी मिल गए। दीक्षित जी से कुछ माह पहले ही केनाल कालोनी में मुलाकात हुई थी। इस बार उनकी पत्नी और उनके दोनों बेटों से भी मुलाकात हुई। बहुत अच्छा परिवार है। बातों और आसपास टहलने के क्रम में ही मैंने भजनलाल से कह दिया कि वह व्यवस्था देखें एवं मेहमानों का स्वागत करें, मैं अन्य मित्रों से बात करता हूं। तभी बाहर फूल की दुकान दिखी, मन किया कि एक बुके ले लिया जाए और लेकर हॉस्टल के रिसेप्शन पर रखवा लिया। 
कुछ ही देर में मित्र विमल यानी पार्षद विमल तिवारी आ गए। उनके आते ही पुराने दिन याद आ गए। हम लोग विमल को अजय देवगन कहते थे। विमल एकमात्र ऐसा मित्र था, उस दौर में जिसके मुंह से कभी कोई गाली नहीं निकलती थी। बहुत ज्यादा गुस्सा होने पर वह कहता, 'तेरी नानी की नाक में रस्सी।' वैवाहिक जीवन के मामले में विमल हम सबसे जूनियर है। उनकी एक बिटिया है। विमल ने कुछ मित्रों से फोन पर बात कराई। बहुत अच्छा लगा। कुछ ही देर में वसंत और उनकी पत्नी भी पहुंच गए। मित्र वसंत की वजह से ही मेरा दिल्ली आना हो पाया था। यह बात है वर्ष 1996 की। एमए करने के बाद भजनलाल, शदाब अहमद और मैंने एलएलबी में एडमिशन ले लिया था। तब तक मेरी समझ में आ गया था कि लक्ष्यविहीन पढ़ाई हो रही है। मैं कुछ अखबारों में लिखने लगा था। क्लर्की मुझे पसंद नहीं थी। दैनिक जागरण के दफ्तर में जाता था तो वहां हाथ से लोगों को लेख संपादित करते देखता था। मुझे यह बहुत भा गया। कुछ मित्रों ने कहा पत्रकारिता करनी है तो दिल्ली से बेहतर कुछ नहीं। दिल्ली एकमात्र मित्र था वसंत। वह भी एक बिजली के मीटर बनाने वाली फैक्टरी में एकाउंटेंट। उन दिनों फोन भी नहीं थे। मैंने वसंत को पत्र लिखा, वसंत का हफ्तेभर में ही जवाब आ गया कि आ जाओ। चला गया। कुछ दिन साथ काम किया। इसी दौरान मुझे अपनी लाइन मिल गयी और इसके बाद मैंने फिर से पढ़ाई भी की। पहले बीजेएमसी यानी पत्रकारिता में स्नातक फिर एमजेएमसी की। इसी दौरान तमाम उठापटक के साथ खूब लिखने और छपने लगा। दौड़ती-भागती जिंदगी में मैं अब चंडीगढ़ में हूं और वसंत ने अब लखनऊ में ही अपना काम जमा लिया है।
कार्यक्रम में वसंत के पहुंचते ही फिर पुरानी बातों का सिलसिला चल निकला। भाभी जी को बताया कि इसका टिफिन हम लोग खूब खाते थे। इसे धनिया पसंद नहीं था और आंटी या दीदी इसकी सब्जी में धनिया पत्ता कई बार डाल देती थीं। भाभी ने बताया कि आज भी धनिया नहीं खाते। ऐसी ही कई बातें कीं तो कुछ मित्रों ने मेरी याददाश्त की दाद दी। मैंने बताया कि स्कूल के दौर की कुछ बातें तो याद हैं बाकी मेरी भी स्मृति अब कमजोर हो रही है। सफेदी अपने आगोश में घेरने लगी है। तभी मित्र सपन सोनकर भी पहुंचा। सबसे ज्यादा बुजुर्ग लग रहा था। उसकी आंखों में काफी विकार आ गया है। ठीक से नहीं दिखता। खैर वह प्रसन्न है। प्रसन्नता ही उसे ठीक कर देगी। हम लोगों की बातें चलती रहीं, कुछ-कुछ स्टाटर भी चलता रहा। सामने ऑर्केस्ट्रा धीरे-धीरे रंगत में आ रहा था। कलाकार अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। मोहित और हर्षिता को आशीर्वाद देने का क्रम भी जारी था। बातों-बातों में कब दस बज गये पता ही नहीं चला। पहले वसंत फिर विमल भी निकल गये। अन्य मित्र भी जाने लगे। बारह बजे के आसपास तक मेहमान भी लगभग जा चुके थे। एक बार फिर मैं और भजनलाल साथ-साथ थे। इसी दौरान ऑकेस्ट्रा को समेटा जाने लगा। मैंने भी एक गीत गुनगुना दिया। फिर दूल्हा-दुल्हन, उनके परिजन साथ में मैं और समस्त परिवार का भोजन शुरू हुआ। हंसी-मजाक, भोजन आदि में एक बज गया। सबको विदा करने के बाद मैं और भजनलाल रसोई आदि से सामान पैक कराने में व्यस्त हो गये। रात करीब दो बजे मैं हॉस्टल के कमरा नंबर 11 में सोने चला गया। बाकी लोग भी अपने-अपने घर चले गये। सुनहरी यादों की यह शाम स्मृति पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो गयी। अगले दिन कुछ और मुलाकातों के साथ ही यात्रा संपन्न हो गयी। अब चंडीगढ़ में अपने काम में पूर्व की भांति लग गया हूं। ईश्वर सबको स्वस्थ रखे। हार्दिक शुभकमनाएं। 
भाभी जी के साथ मैं 







Friday, November 22, 2024

जवानी की दहलीज पर खड़े हो तो पढ़ो ये प्यारा संदेश- इस परीक्षा में हार जाओ बच्चो !


केवल तिवारी

अक्सर हम कामना करते हैं बच्चों की सफलता की। उनके जीतने की। जीवन की तमाम परीक्षाओं में विजयी होने की। लेकिन जीवन की इस आपाधापी में कुछ परीक्षाएं ऐसी होती हैं जिनमें हार जाने की सीख यदि बच्चों को दी जाये तो माहौल ही सुखद हो जाएगा। असल में कुछ समय पहले चंडीगढ़ के आसपास ही एक अनौपचारिक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला। वहां कुछ हमउम्र लोग अपने जवान होते बच्चों की बातें कर रहे थे। कोई अति तारीफ कर रहा था, कोई संयत था। किसी के पास सिवा शिकायत के कुछ था ही नहीं। इन्हीं बातों के सिलसिले में एक बात निकलकर आई कि बच्चे जब बड़े हो जाएं। यानी किसी धंधे-पानी में लग जाएं या फिर गृहस्थी की दहलीज पर कदम रखने वाले हों तो उन्हें एक सीख दीजिए कि परिवार की परीक्षाओं में हार जाओ। हार जाओ यानी जितना संभव हो अपने से बड़ों या बुजुर्गों की बातों में टोकाटाकी न करें, उनकी बात को सुनें। अति जानकार न बनें और उनके सामने हर जाएं। याद रहे बच्चो, हर मां-बाप की तमन्ना होती है कि उनके बच्चे कम से कम इतनी तरक्की करें कि उनसे आगे निकल जाएं। यह आगे निकलना सेहत की दृष्टि से है। यह आगे निकलना पढ़ाई को लेकर है और पेशेवर तरक्की को लेकर भी है।

अब ये असफल होना या हार जाना क्या है

जनरेशन गैप का मामला हमेशा रहता है। नयी पीढ़ी को लगता है कि जमाना हमारा है और चीजें भी हमारे हिसाब से होनी चाहिए। उधर, बुजुर्गों का तर्क होता है उनके पास अनुभव का खजाना है, इसलिए उनकी चलनी चाहिए। अब चलनी चाहिए, नहीं चलनी चाहिए तो दूसरी बात है, अहम बात है हारने या असफल होने का। एक छोटा सा उदाहरण समझिए। मान लीजिए परिवार के किसी बुजुर्ग से हम बात कर रहे हैं। बात आगरा शहर की हो रही हो। वह बोलें, मैं भी उस इलाके में कुछ दिन रहा हूं। दो बड़े-बड़ चौक वहां पर बने थे। कोई युवा तपाक से बोल उठे, वहां कोई चौक कभी था ही नहीं। इतने साल से मैं ही देख रहा हूं। मैं कहता हूं हो सकता है युवा ही सही हो, लेकिन अगर इसकी जगह वह चुपचाप सुन ले या यह कह दे कि हां बदल तो अब सारे शहर गए हैं। कहीं मेट्रो आ गयी है और कहीं फ्लाईओवर बन गए हैं। लेकिन कई बार देखने में आया है कि कुछ युवा अड़ जाते हैं। ऐसे कई मसले हैं। खान-पान की बातों पर भी। कुछ और बातें भी हैं। बड़ों के रुटीन से भी अगर दिक्कत हो तो कई बार उसे इग्नोर करना कितना अच्छा होता है। आपको मालूम भी हो कि मैं जो कह रहा हूं, सही कह रहा हूं फिर भी आप उसे जाहिर नहीं करते तो यही है असफल होना। परिजनों के बीच ऐसी असफलता बहुत सुकून देती है। नयी पीढ़ी को भी पुरानी पीढ़ी को भी।

फलों से लदा पेड़ बनिये

कार्यस्थल पर आपकी शैली अलग हो सकती है, लेकिन घर में उस शैली को मत अपनाइये। घर तो घर है। यहां फलों से लदे पेड़ सरीखे बन जाइये। यानी विनम्र और सरल। साथ में सहजता भी। धौंस जमाने की आदत भी कई बार युवाओं में होती है। धौंसपट्टी से काम बिगड़ते ही हैं, बनते नहीं हैं। साथ ही परिवार के बीच सबसे खुशी की बात है फैमिल फर्स्ट। अपने सबसे नजदीकी परिवार के साथ हमेशा संपर्क में रहिए, फिर धीरे-धीरे उसे विस्तारित कीजिए। इस संबंध में अपरे अखबार के 'रिश्ते' कॉलम में मैंने बहुत कुछ लिखा था, जैसे जो मां जैसी वह मौसी। पापा का बचपन जानने वाली यानी बुआ। ताऊ-चाचा यानी इनको है सब पता। इनसे जानिये पापा के बचपन की कहानियां। ताई तो होती ही है न्यारी। मामा यानी दो बार मां। मतलब मां से भी ज्यादा प्यार करने वाला रिश्ता। तो चलिए आज कुछ ज्ञान की बातें हो गयीं। अगले ब्लॉग में कुछ और...। 

Sunday, November 10, 2024

जी गये दद्दू, जीवटता से चले गये

केवल तिवारी

दद्दू चले गये, लेकिन मैं तो कहूंगा कि दद्दू आप जी गये। चले गये कहना ही पड़ रहा है, पर जीवटता से गये। जीवट रहे दद्दू। जिंदादिल इंसान। प्रैक्टिल इंसान। मददगार इंसान। 

दद्दू की व्हाट्सएप डीपी 

दद्दू को तब से जानता हूं जब नौवीं-दसवीं में पढ़ता था। अक्सर मिलते थे। दूर से ही नमस्कार कर खिसक लेते थे। पहला असल आमना-सामना हुआ जब एक बार उनके यहां कुछ सामान लौटाने गया। मैं और मेरा एक मित्र उनके लखनऊ स्थित सरकारी आवास में गये। देहरी से थोड़ा अंदर पहुंचकर खुद को अच्छा बच्चा साबित करने की लालसा में मैंने पूछ लिया, अंदर आ जाऊं। दद्दू बोले- आधे तो अंदर आ चुके हो और अब पूछ रहे हो। अब आ ही जाओ। उन्होंने बड़ी बेरुखी से बैठने का इशारा किया। हम दोनों बैठ गये। थोड़ी देर में दद्दू दो कटोरियों में खीर लेकर आये। मैंने दो चम्मच खाते ही कहा, अरे वाह बहुत अच्छी खीर है, घर में बनायी होगी। दद्दू बोले- नहीं तुम्हारे लिए बाजार से मंगाई है। फिर बोले, बच्चे को बच्चे की ही तरह रहना चाहिए। बेवहज मक्खनबाजी मत करो। मैं घर आया, बड़े भाई साहब से शिकायती लहजे में कहा, कहां भेज दिया आज मुझे। बहुत ही रूखे आदमी हैं। भाई साहब हंसे, बोले- अरे वह तो बहुत बेहतरीन इंसान हैं। धीरे-धीरे समझोगे। सच में धीरे-धीरे समझा तो दद्दू बेहद जिंदादिल इंसान निकले। उतनी ही जिंदादिल उनकी पत्नी। उनके बच्चे भारती, सुबोध और दीपेश हमें मामा कहते। दीपेश को हम दीपू कहते। कालांतर में दीपेश को मैं दीपेश जी कहने लगा। दीपेश हमारे दामाद बन चुके हैं। यानी मेरी भानजी रुचि के पति। शनिवार 9 नवंबर की दोपहर रुचि का फोन आया, मामा पापा नहीं रहे। मेरे मुंह से एकदम से निकला, अरे दद्दू चले गये। हे भगवान। वह इतना ही बोल पायी, हां मामा चले गये। फोन कट हो गया। मैं बीमार चल रहा था। एक-दो दिन से ऑफिस जाने की स्थिति में नहीं था। पत्नी भावना ने कुछ देर ढांढस बंधाया। मैंने खुद को संयत किया और बोला, अरे नहीं दद्दू आप तो जी गये। आप जहां भी गये, वहीं से सबको आशीर्वाद दोगे। दद्दू को हम तो दद्दू कहते ही थे, हमसे बड़े और हमारी नयी पीढ़ी के लिए भी वह दद्दू थे। दद्दू आप हमेशा याद आओगे। whattsapp पर आपके अक्सर आने वाले मैसेज हमेशा याद रहेंगे। आप दिलों में जिंदा हैं। ऊं शांति।