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Friday, August 22, 2025

नहीं लिखूंगा से लेकर क्या लिखूं तक आया और अंतत: मनोज भल्ला को शब्दांजलि दे ही रहा हूं...

केवल तिवारी




मनोज भल्ला की ऐसी तस्वीर (जिसमें रस्म पगड़ी की तारीख और समय लिखा हो) भी कभी देखनी पड़ेगी, कभी नहीं सोचा था। जिंदादिल, हर परिस्थिति से जूझने वाला भी अचानक काल का ग्रास बन गया। हिसार में जब मनोज भल्ला था (हम हमेशा एक-दूसरे को दोस्ती वाले शब्द तू-तड़ाक से बात नहीं कर सम्मान से करते थे। वह मुझे तिवारी जी और मैं भल्ला जी कहते थे, लेकिन अब तू ही लिखूंगा, खुश थोड़े किया है भल्ला जी आपने) तो उसने मुझे भी वहां बुलाया। उन दिनों मैं भी इधर-उधर हांड रहा था। नौकरी थी, लेकिन समय पर वेतन नहीं। किसी तरह गुजर-बसर चल रही थी। मैं वहां चला गया। मेरे जाते ही भल्ला तीन दिन के लिए छुट्टी लेकर दिल्ली स्थित अपने घर आ गया। तीन दिन मैंने संपादकीय लिखे। जरूरी काम निपटाए। लेकिन पहले घंटे से ही मुझे लग गया कि मैं वहां नहीं रह पाऊंगा। लाख कोशिश करने पर भी उस इवनिंगर का नाम मुझे याद नहीं आ रहा। किसी व्यवसायी का था। नभछोर अखबार के दफ्तर के आसपास ही कहीं। पास में ही भल्ला को कमरा दिया गया था। भल्ला के लौटते ही मैंने वापसी की इच्छा जताई। मालिकों ने शाम को मिलने की बात कही और शायद वह भी चाहते थे कि मैं वहां न ही रहूं। उन दिनों भल्ला कविताएं लिख रहा था। कभी जिंदगी तुझसे क्या चाहूं... कभी हां मुझे भी हो रहा है जीने का मन... वगैरह। मैं वापस दिल्ली आ गया। कुछ ही माह बाद भल्ला ने भी वह नौकरी छोड़ दी। वह दैनिक जागरण में चला गया। मैं दिल्ली में एक न्यूज एजेंसी में था। एक-दो अखबारों से भटकते-भटकते वहां पहुंचा। जिक्र करना बनता है कि मुफलिसी के उस दौर में राष्ट्रीय सहारा अखबार और आकाशवाणी दिल्ली ने बहुत साथ दिया। कालांतर में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया से भी कुछ काम मिला और काम चलता चला गया। खुलकर खर्च करने की तमन्ना धरी रही, लेकिन खर्च के मामले में मरे-मरे से भी नहीं रहे। खैर इस वक्त फोकस भल्ला पर ही। अब क्या? कार्यक्रम बना कि दुर्भाग्य को साझा करने घर चला जाये। कार्यक्रम था रविवार को जाने का। लेकिन सूचना आई कि रस्म पगड़ी शनिवार 23 अगस्त को है। फिर मित्रों- राजेश, सुरेंद्र, हरिकृष्ण, धीरज आदि से सूचना साझा हुई और चल दिए। इस वक्त ट्रेन में बैठकर ही बातों को साझा कर रहा हूं। हिसार जागरण में नौकरी के दौरान ही भल्ला ने मुझे फोन किया। उन दिनों मोबाइल सीमित लोगों के पास ही होता था। भल्ला ने मेरे office में लैंडलाइन पर फोन किया। मैं अगले दिन बताये अनुसार नोएडा सेक्टर 8 स्थित दैनिक जागरण के दफ्तर चला गया। वहां निशिकांत जी ने मना कर दिया। साथ ही कहा कि उन्हें खुद जालंधर भेजा जा रहा है। लंबा किस्सा है। खैर कुछ दिनों में मैंने जागरण join कर लिया। वहां भल्ला जी की जबरदस्त खबरें आने लगीं। मुझे गर्व होता यह बताते हुए कि मेरा मित्र हैं। सालभर बाद ही मैं हिंदुस्तान चला गया। भल्ला को भी जागरण छोड़ना पड़ा। हमारी बातों और मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। पिछले कुछ सालों से मिलने की चर्चा होती रही। लेकिन मुलाकात तो नहीं हुई, दुर्भाग्य देखिए आज उसकी रस्म पगड़ी में जा रहा हूं। 

मौत की जब सूचना आई और जो उद्गार निकले

बृहस्पतिवार अपराह्न जब प्रिय मित्र एवं छोटे भाई समान मनोज भल्ला के निधन की सूचना आई तो मन व्यथित हो गया। ऑफिस में शांत होकर काम करता रहा, लेकिन मन अशांत था। रात को घर आया तो उसके नाम पर चार आंसू छलकने से नहीं रुक पाए। हर परिस्थिति में खुश रहने वाले मनोज भल्ला ने बेहतरीन रिपोर्टिंग की है, डेस्क पर उसी तरह से काम किया और तमाम तरह के झंझावतों को भी झेला है। वह उम्र में मुझसे कम था, लेकिन वर्ष 1996 में अखबारी नौकरी के दौरान ही जब मैं भी जर्नलिज्म करने चला तो हम सहपाठी हो गये। फिर वह पंजाब केसरी जालंधर चला गया। बाद में हिसार, दिल्ली-एनसीआर, रोहतक कई जगह विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं में रहा। हम लोगों का मिलन यदा-कदा होता रहा, फोन पर अक्सर बातें होतीं। हर तरह की बात। उसकी शादी में मित्र मंडली की हंसी मजाक से लेकर हर मौके पर उसकी हाजिर जवाबी के अनेक किस्से हमेशा याद रहेंगे। चार दिन पहले ही मनोज ने फेसबुक पर गजब टिप्पणी की थी। क्या मौत का उसे अहसास हो गया था। इस पोस्ट को आपसे साझा कर रहा हूं। मनोज, इतनी जल्दी क्या थी, अब चले ही गये हो, उस जहां में भी खुश रहना मित्र....

अलविदा मित्र

Monday, August 11, 2025

नेक इरादे, सपनों का फलक, सच का परचम और द ट्रिब्यून स्कूल

केवल तिवारी

इरादे नेक हों तो सपने भी साकार होते हैं

गर सच्ची लगन हो तो रास्ते आसां होते हैं।


पिछले दिनों द ट्रिब्यून स्कूल के विशेष कार्यक्रम में कई साल पहले दोहराई गयी इन पंक्तियों की याद आई। असल में चार दिनों का कार्यक्रम था और एक दिन हमें यानी (10th class के स्टूडेंट धवल के पैरेंट्स) को भी बुलाया गया था। धवल ने ओलंपियाड में दो विषयों में मेडल जीते थे। साथ ही सुखद संयोग है कि उसके मामा के बेटे भव्य को भी बेहतरीन शैक्षणिक प्रदर्शन करने के लिए दो पुरस्कारों से नवाजा गया। इनमें एक आल राउंडर का भी शामिल रहा। ट्रिब्यून स्कूल से ही मेरा बड़ा बेटा कार्तिक पढ़ा है। इस नाते इस स्कूल करीब डेढ़ दशक पुराना नाता हो गया है। 

प्रिंसिपल रानी पोद्दार मैडम का उत्साहजनक अंदाज और चांद नेहरू मैडम की बात






इस बार मुझे जो हटके लगा वह था प्रिंसिपल रानी पोद्दार मैडम का अलग अंदाज। एक तो वह हर बच्चे के साथ उसके अभिभावकों को भी सामने बुला रही थीं। उनका कहना था कि पैरेंट्स अपने लिए, अपने बच्चों के लिए भी तालियां बजाएं। एक-एक बच्चे और उनके पैरेंट्स पर स्पेशल अटेंशन दे रही थीं। साथ थीं स्कूल की चेयरपर्सन चांद नेहरू मैडम भी थीं। मेरा सौभाग्य है कि अनेक अवसरों पर चांद नेहरू मैडम से बातचीत का मौका मिलता है और कई बार उन्होंने टिप्स दिए जो मेरे काम आए। उनकी एक पुरानी बात याद आई जिसके तहत उन्होंने कहा था बच्चों के लिए लालवत (लाड़वत), दंडवत और मित्रवत। मैंने धवल के साथ पुरस्कार लेते वक्त इसका हलका सा जिक्र किया तो बाद में प्रिंसिपल रानी मैडम ने इसे दोहराने के लिए कहा। मैंने शुरू की दो बातें बताईं कि पहले बच्चों को बहुत स्नेह, फिर उन्हें थोड़ा डर दिखाना या दंड देना भी जरूरी होता है… बाद में चांद मैडम ने स्पष्ट किया और इसमें जुड़े एक अन्य सूत्र मित्रवत को भी बताया, यानी 15 वर्ष के बाद बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार जरूरी है। मुझे जब अपनी बात रखने का मौका मिला तो मैंने बताया कि किस तरह रानी पोद्दार मैडम ने बच्चे को आईसर भोपाल जाने का मौका दिया और हमें आने-जाने के टिकट के पैसे भी दिलवाये। साथ ही उनका यह अंदाज कि बच्चे ही स्टेज संभालेंगे, बच्चों को पैरेंट्स ज्यादा बोलेंगे और पुरस्कार लेने साथ आएंगे। मुझे याद आया पिछले साल का समय जब धवल के अनेक पुरस्कार मिले और आदरणीय बोनी सोढ़ी मैडम के मंच पर मौजूदगी में ये पुरस्कार मिल रहे थे। धवल को किसी अन्य स्कूल में किसी प्रतियोगिता के लिए भेजा गया था। प्रिंसिपल मैडम ने कहा कि धवल के फादर को स्टेज पर बुलाइये। बाद में धवल एक अन्य पुरस्कार को लेने पहुंच ही गया। बहुत-बहुत धन्यवाद मैडम। अनेक कथित बड़े स्कूलों से द ट्रिब्यून स्कूल में अपने बच्चों को शिफ्ट कराने वाले पैरेंट्स ने साफ कहा कि उन्हें यहां टीचर्स से कितना सपोट मिलता है, उसे बयां नहीं कर सकते। एक महिला तो बेहद भावुक हो गयीं। सच में यहां का संपूर्ण स्टाफ चाहे म्यूजिक सेक्शन हो या फिर स्पोर्ट्स। साथ ही हर विषय के टीचर्स व्यक्तिगत अटेंशन देते हैं, अभिभावकों की सुनते हैं और उन्हें जरूरी टिप्स देते हैं। सभी टीचर्स को धन्यवाद। उनके लिए कबीर के दो दोहे समर्पित-

गुरु कुम्हार शिश कुंभ है, गढ़-गढ़ काढ़े खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहे चोट।

सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय, सात समुंद की मसि करूं गुरु गुन लिखा न जाये।

कुछ बातें जो मैं अक्सर कहता हूं

मेरा यह सौभाग्य है कि अतीत में अनेक जगह मुझे मोटिवेशनल बातचीत के लिए बुलाया गया। मैं कुछ बातें अक्सर कहता हूं, उन्हें भी यहां दोहरा रहा हूं। एक तो बच्चों के लिए यह कि भावनाओं को हमेशा बनाए रखो यानी इमोशन बहुत जरूरी हैं। अगर कभी आपके अभिभावक, खासतौर पर मां उदास हैं, क्या आपने उनका चेहरा पढ़ा। यदि आपको यह पता ही न चले कि मां उदास या खुश हो तो समझिए आपमें भावनाओं की कमी है जो अच्छी बात नहीं है। साथ ही गलतियों के सिर्फ दो ही कारण होते हैं- एक या तो आपको जानकारी नहीं और दूसरा आप लापरवाह हैं। इसके साथ ही अभिभावक भी स्कूल या अन्य कई जगह सुनी गयी बातों को पहले से जानते हैं बस उस पर अमल करते वक्त सब भूल जाते हैं। जितना भी अच्छा सुनकर जाएं उसमें से कुछ बातों को भी फॉलो कर लें तो बात बनेगी। ब्लॉग लिखने और ट्रिब्यून स्कूल से संबंधित अन्य बातों का यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। पुरस्कृत बच्चों और उनके अभिभावकों को हार्दिक शुभकामनाएं। साथ ही जो पुरस्कृत नहीं हुए वे अगली बार जरूर ऐसी सूची में स्थान पाएंगे, बस जरूरत है चलते रहने की। ध्यान रखो बच्चो, ‘पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्त गतं धनं, कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम’ अर्थात पुस्तक में लिखी विद्या और दूसरे को दिया हुआ धन, यदि समय पर काम न आए तो बेकार है। जय हिंद




Saturday, August 9, 2025

जीवन पथ का मंचन

साभार : दैनिक ट्रिब्यून। अनेक पुस्तकें मुझे समीक्षार्थ मिलती हैं। उनमें से कुछ दिल‌ को छू जाती हैं। उनमें से एक यह भी है। कबिरा सोई पीर है। प्रतिभा कटियार जी को हार्दिक शुभकामनाएं। 


केवल तिवारी

जीवन रूपी रंगमंच में न जाने कितने किरदारों का हमें सामना करना पड़ता है। हम खुद भी तो अनेक तरह का नाटक करते हैं। लेकिन जब अच्छा होने का दंभ भरने वाला भी 'नाटकबाज' निकले और सचमुच एक अच्छे इंसान को ग़लत साबित करने में दुनिया लग जाए तो क्या हो? उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है' में ऐसे ही ताने-बाने की बुनावट है। लेखिका हैं प्रतिभा कटियार। अलग-अलग शीर्षक से कहानीनुमा अंदाज में लिखा गया यह उपन्यास एक नया प्रयोग है। हर कहानी का पूर्व और बाद की कहानी से संबंध है। हर कहानी के बाद उसके कथानक से मेल खाती एक शायरी, किसी मशहूर शायर की। उपन्यास में दर्ज कहानी की नायिका तृप्ति की धीर-गंभीरता काबिल ए गौर है, लेकिन आखिरकार वह भी तो इंसान ही है। ऐसी लड़की जिसे कदम-कदम पर दंश मिलता है, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक। शायद इसीलिए वह ज्यादा सोचने लगी है। उधर, अनुभव बहुत कोशिश करता तो है ‘हीरो’ बनने की, लेकिन इस 'खतरनाक' समाज में कहां संभव है यह सब। सीमा तो जैसे आदर्श लगती है। लेकिन उसके साथ रिश्ते में भाई लगने वाले ने क्या किया। सही रिपोर्ट तो होती हैं क्राइम ब्यूरो की जिनका लब्बोलुआब होता है ‘किस पर करें यकीन।’ चलचित्र की तरह आगे बढती कहानी पाठक को बांधे रखती है। पाठक की कल्पनाओं के घोड़े दौड़ते हैं, लेकिन कहानी की जिज्ञासा तब और बढ़ जाती है जब उसकी धारा दूसरी दिशा में बह निकलती है। यह ताकीद करते हुए कि ‘अब कहां होता है ऐसा’, मत बोलिए। सिर्फ कहना आसान है कि ‘अब तो सब ठीक है।’ कहानी के पात्रों से यह भी तो साफ होता है कि हर कोई एक जैसा नहीं होता। गंगा की लहरों, रात की रानी की सुगंध और फूल-पंछियों का मानवीकरण गजब अंदाज में किया गया है। एक बेहतरीन लेखक की यही पहचान है कि उसका पाठक रचना को पढ़ने पर भी तृप्त न हो। इस उपन्यास की कहानी भी खत्म होते-होते पाठक कुछ ढूंढता है। सुखांत ढूंढने की हमारी फितरत, यहां भी कुछ समझ नहीं आता, सिवा इसके कि तृप्ति फिर उठ खड़ी होगी और इस उपन्यास का दूसरा भाग भी आएगा। लेखिका ने कहानी को बहुत बढ़िया तरीके से बुना है। आम बोलचाल की शैली, उपन्यास से पाठकों को जोड़े रखती है।

पुस्तक : कबिरा सोई पीर है, लेखिका : प्रतिभा कटियार, प्रकाशक : लोकभारती पेपरबैक, प्रयागराज। पृष्ठ : 168, मूल्य : 299 रुपये

सरल व्यक्तित्व का सहज चित्रण

 साभार : दैनिक ट्रिब्यून पिछले दिनों छपी एक पुस्तक की मेरे द्वारा की गई समीक्षा। सुखद संयोग है कि जिन पर पुस्तक लिखी गई यानी डॉ. चंद्र त्रिखा को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, उनको सुनता हूं और पढ़ता हूं। उनकी सुपुत्री डॉ. मीनाक्षी वाशिष्ठ हमारे यहां समाचार संपादक हैं। सादर



केवल तिवारी

एक शख्सियत, डॉ. चंद्र त्रिखा। इनसे जब पहली बार मिलेंगे तो मन से आवाज आएगी, ‘हां मैं इन्हें जानता तो हूं।’ जब जानने लगेंगे तो रोचकता बढ़ती जाएगी। फिर उसी मन से आवाज आएगी, ‘इनके बारे में तो मैं बहुत कम जानता हूं।’ ऐसा ही व्यक्तित्व है डॉ. चंद्र त्रिखा का। उनकी रचनाशीलता, उनके जीवन सफर और उनके विचारों से संबंधित एक पुस्तक हाल ही में उनके 80वें जन्मदिन पर प्रकाशित हुई है। नाम है, सृजन के शिखर चंद्र त्रिखा : वंदन अभिनंदन।' इस पुस्तक में अलग-अलग क्षेत्र की हस्तियों ने संस्मरणात्मक शैली में अपने अनुभव साझा किए हैं। इनका संयोजन वरिष्ठ साहित्यकार एवं केंद्रीय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक की देखरेख में पूर्व आईएएस अधिकारी एवं कवयित्री डॉ. सुमेधा कटारिया ने किया है। शब्दों, पृष्ठों की सीमा का बंधन होने पर भी लेखकों ने गागर में सागर भर दिया है। डॉ. त्रिखा बच्चों के लिए वैसे ही दादू-नानू हैं, जैसा होते हैं। साथी रचनाकारों के लिए हैं जिंदादिल व्यक्ति। औरों को गंभीरता से सुनने वाले, अच्छा लिखने वालों से खुद मुलाकात की इच्छा रखने वाले। कोई उन्हें संत बताता है तो कोई पिता तुल्य। साहित्यकार माधव कौशिक ने बहुत संक्षेप, लेकिन पर्याप्त जानकारी में उनके जीवन सफर पर प्रकाश डाला है। समापन वह डॉ. त्रिखा की ही एक कविता की पंक्ति से करते हैं, 'संभावनाओं की पतवारें चलाते रहो साथियो।' डॉ. त्रिखा की सकारात्मक सोच का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ज्यादातर लेखकों ने उनकी उस कविता का जिक्र किया है, जिसकी दो पंक्तियां इस तरह से हैं, 'अच्छी खबरें दिया करो, सहज जिंदगी जिया करो।' पुस्तक में दर्ज संस्मरणों को पढ़ते-पढ़ते जहां डॉक्टर साहब की रचनाशीलता के दिव्य दर्शन होते हैं, वहीं विविध लेखकों का अंदाज ए  बयां रोचकता बढ़ाता है। कोई उनके द्वारा विभाजन विभीषिका पर उठाई गई कलम का कायल है तो किसी को सूफी संतों पर उनके अध्ययन पर नाज है। लेखकों, अधिकारियों के संस्मरणों से इतर परिजनों के नजर में वह एक 'बेहतरीन इंसान' हैं। इस बेहतरीन इंसान को किसी ने देवदूत बताया तो किसी ने अपना हीरो। कोई उन्हें सद्गुणों की प्रतिमूर्ति कहता है तो कोई जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा। किसी के लिए वह साया हैं और किसी के लिए संपूर्ण व्यक्तित्व और संस्थान। किसी को उनकी छांव सुरक्षा देती है और किसी के लिए वह प्रेम की विरासत हैं। वह प्रेरणा स्तंभ भी हैं, आदर्श व्यक्तित्व भी। कोई उन्हें परिवार की ताकत बताता है और किसी को वह जिंदगी का खूबसूरत हिस्सा लगते हैं। दूसरी-तीसरी पीढ़ी को भी डॉ. त्रिखा दोस्त सरीखे लगते हैं। पत्नी के लिए तो वह जीवन साथी हैं ही, सबसे बड़ी संपत्ति। पुस्तक में ज्यादातर लेखकों ने संस्मरण उसी सहज भाव से लिखे हैं, जैसे खुद डॉ. त्रिखा हैं। जानी-मानी हस्तियों के शुभकामना संदेश से लेकर छोटी-बड़ी हर अभिव्यक्ति पठनीय है। विभाजन के दौर से लेकर आज के डिजिटल जमाने तक में हर दृष्टि से दखल रखने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. त्रिखा को समर्पित इस पुस्तक में लेखन भी विविध आयामों वाला है। बीच में अनेक चित्र रोचकता बढ़ाते हैं। चित्रों में शायर बशीर बद्र के साथ डॉ. त्रिखा हों या फिर पारिवारिक समारोह में, उनके सहज मानवीय सरोकार के दर्शन होते हैं। पुस्तक संग्रहणीय है।

पुस्तक : सृजन के शिखर चंद्र त्रिखा : वंदन अभिनंदन 

संकलनकर्ता: डॉ. सुमेधा कटारिया 

प्रकाशक : निर्मल पब्लिशिंग हाउस, कुरुक्षेत्र 

पृष्ठ : 344, मूल्य : 600 रुपए

Sunday, August 3, 2025

तुझको चलना होगा, कुक्कू, मैं और बैंगलोर यानी बेंगलुरू

 केवल तिवारी 

सफर होते हैं, हम सफर होते हैं और होती है जिंदगानी। 

नित अच्छी सोच से करें शुरू तो रब की होती है मेहरबानी



इस ब्लॉग को अभी में एयर इंडिया की फ्लाइट से लिख रहा हूं। करीब 36 हजार फुट ऊंचाई से। सफर है जो चल रहा है। बड़े सुपुत्र श्री कार्तिक यानी प्रिय कुक्कू के नये सफर की शुरुआत का हमसफर बनकर बेंगलुरु गया था। सोमवार 4 अगस्त, 2025 से उसकी Microsoft में job वाली जिंदगानी की शुरुआत है। मेरा मन था उसके साथ आने का। हम लोग Thursday रात करीब 11 बजे उसके फ्लैट पर पहुंचे। 15th floor पर। उसके दो दोस्त आदित्य और नविकेत हमारा इंतजार कर रहे थे। बहुत प्यारे बच्चे हैं दोनों। बाद में आते वक्त तो एक और कार्तिक एवं पंकज से मुलाकात हुई। बहुत अच्छा लगा। मैंने पहले bye बच्चो कह, फिर खुद ही मैं बोल पड़ा कि अब बच्चो नहीं, बड़ो। खैर, ये तो मज़ाक की बात थी। हमारे लिए ये सब बच्चे हैं। सबको आशीर्वाद और शुभकामनाएं। चलिए फिर चलते हैं सफर पर। क्योंकि चलना ही पड़ेगा उस गीत की मानिंद, जिसके बोल हैं, तुझको चलना होगा... तू न चलेगा तो...

बृहस्पतिवार को जिस शाम हमारी फ्लाइट थी, बहुत भागदौड़ रही। पहली रात प्रेस क्लब गया था अपने office के नये साथी अनिल की पार्टी में। बारिश बहुत हो रही थी इसलिए बाइक वहीं छोड़कर आनी पड़ी, इधर छोटे बेटे धवल के स्कूल से message था Aadhar update mendetry का। उसकी 12 बजे छुट्टी होनी थी। मैं प्रेस क्लब गया, वहां से फिर बाइक उठाई, e sampark गया। पता चला update हो रहा है। फिर घर आकर बची-खुची पैकिंग की। फिर तैयार होकर धवल का इंतजार करने लगा। वह आया 12:45 बजे। उससे हम यानी मैं और पत्नी भावना थोड़ा जोर से बोल गये, इतने आराम से क्यों आ रहा है। कुक्कू को भी लग रहा था, update हो जाता तो अच्छा था। धवल ने बताया कि स्कूल में assembly थी और उसको perform करना था। मैंने उसे टी-शर्ट बदलने को कहा और हम भागे Aadhar update centre. वहां देखा, बहुत लंबी लाइन। मैं लाइन‌ में खड़ा हो गया, धवल को बिठा दिया। करीब दो बजे लंच हो गया। इस बीच धवल बेचारा बार बार मेरे पास आकर बोलता, पापा आप बैठ जाओ। Lunch break 2:30 पर खत्म हुआ। मैंने पीछे खड़े अपने office के ही एक सज्जन से कहा, मेरी flight है आप इसे देख लेना। साथ ही धवल को घर पहुंचने का रास्ता बताया और कुछ पैसे दे दिए। फिर मन नहीं माना। घर wife को फोन किया कि तैयार रहना, मैं तुम्हें यहां छोड़ दूंगा। मैं और कुक्कू airport चले जाएंगे। मैं घर गया। इस समय धवल ने भावुक कर दिया, बोला, पापा भैया को bye कह देना। खैर शाम तक मैंने और कुक्कू ने फ्लाइट पकड़ ली और सूचना मिली कि धवल का आधार अपडेट हो गया है। चलते रहेंगे तो काम बनेंगे। मैंने कुक्कू से कहा कि याद है तुम्हें अपने आधार कार्ड बनाने का किस्सा। वह हंस दिया। असल में जब वह 6th class में था तो एक दोपहर स्कूल से आते ही बोला, पापा आज ही आधार कार्ड बनवाना है। मैंने कहा, तुरंत नहीं बनता है। वह बोला, कार्ड apply कर reciept देनी है। बाहर बारिश हो रही थी। कार मेरे पास थी नहीं online cab booking का तब चलन नहीं था। कुक्कू की स्कूल टाइम की आदत थी कि जो काम बोला है, वह होना ही होना है। अनेक बार तो वह पहले home work पूरा करता था फिर खाना खाता था। इसके की प्रोजेक्ट के लिए हम दोनों पति-पत्नी खूब भटके हैं। खैर उस दिन भी तय किया कि तुम छाता पकड़ कर पीछे बैठना मैं धीरे-धीरे बाइक चलाऊंगा। जैसे ही बाहर निकले, देखा बाइक पंचर है। अब क्या करें। फिर वही बात, तुझको चलना होगा... कीचड़ भरे रास्ते थे। बाहर सड़क तक आते। शेयरिंग वाला auto लिया। वहां उतरते ही देखा सड़क पानी से लबालब। किसी तरह e sampark पहुंचे। वहां मौसम के कारण भीड़ बिल्कुल नहीं थी। Operator madam से Aadhar apply की request की। पहले उन्होंने मना कर दिया। उनका कहना था कि बच्चा भीगा हुआ है, document भी गीले हैं। Biometric code हो नहीं पाएगा। मैंने फिर अनुरोध किया और वहां तक आने की कहानी बताई। उनका दिल पसीज गया। बोलीं, मैं अप्लाई कर देती हूं। Rejection भी हो सकता है। मैंने कहा प्लीज़ कर दीजिए। करीब 20 मिनट में apply हो गया। तब तक इंद्र देवता भी शांत हो चुके थे। कृपा रही कि एक हफ्ते में card बनकर आ गया। दोनों बच्चों की आदत अच्छी है कि मां-बाप को परेशान देख sorry जरूर बोलते हैं। हम लोग घर पहुंचे। मैंने एक कप चाय पी और office भागा। क्योंकि तुझको चलना होगा... बाद में कुक्कू का आधार तब अपडेट कराया जब jee mains में examination centre में चेतावनी दी गई। कुछ करने निकलिए तो काम हो ही जाता है। मुझे वरिष्ठ पत्रकार, कवि एवं हिंदुस्तान अख़बार के associate editor और कादंबनी के संपादक रहे विजय किशोर मानव‌ जी की एक बात याद आती है। एक बार उन्होंने किसी बात पर कहा था कि जब ये लगे कि यह काम नहीं हो सकता तो एक कोशिश जरूर करो, यानी एक कदम जरूर बढ़ाओ। तुम्हें पता है कि जीरो तो पहले से है। इसमें और कम क्या होगा, क्या पता कोशिश करने पर काम हो ही जाए। कार्तिक शुरू से काम पूरा करने के प्रति सजग था, उतना ही कूल भी। अब तो हमें समझाता है कि परेशान क्यों होते हो।

बेंगलुरु का सफर 

हम लोग रात 11 बजे फ्लैट पर पहुंचे। भूख लग रही थी। कुक्कू ने online कुछ मंगवा लिया। करीब 12 बजे तक उसके दोस्तों से बातचीत हुई। सबसे पहले आदित्य ने door finger print verifi करवाया फिर WiFi का password share हुआ। ठीक-ठाक बातचीत के बाद हम दोनों बाप-बेटे सो गए। ऐसी नींद आई कि रात एक बजे आकर उसके landlord namo kaul जी को सामान ले जाना था, वह कब ले गए पता ही नहीं चला। सुबह मेरी नींद हमेशा की तरह 6 बजे खुल गई। पानी पिया। थोड़ा योग फिर कुक्कू के कुछ सामान को set किया। बाद में कुक्कू के साथ बाहर गया। कुछ सामान लेकर आए। बच्चे की छोटी सी गृहस्थी की शुरुआत। वही, तुझको चलना होगा... इस बीच, मैं मित्र महेंद्र मेहता की call का इंतजार करने लगा। शाम तक फोन नहीं आया तो मैंने बेंगलुरु घूमने की इच्छा जाहिर की। मुझे कुक्कू के office देखने का मन था। साथ ही यहां बातचीत और खान-पान को परखना। कुक्कू के मन को भांपकर मैं अकेले ही निकल पड़ा। एक जगह नारियल पानी पिया। फिर एक बाइक राइडर से बात की। Office पास में था। 30 रुपए में पहुंच गया। वहां की कुछ वीडियो ब्लॉग के अंत में साझ करूंगा। 

त्रिभाषा फार्मूला तो चल रहा है 

जो भाषाई विवाद इन दिनों सुर्खियों में है, मुझे बेवजह और सियासी ही लगा। शुक्रवार शाम मैंने करीब 20 लोगों से बात की। एक बात तो साफ दिखी कि अगर मामला आर्थिक है तो टूटी-फूटी ही सही, हिंदी बोलेंगे। दुकानदार हों या घरेलू सहायक। इसके अलावा केंद्रीय office, शिक्षण संस्थान, बैंक में पहले स्थानीय भाषा यानी कन्नड़ में लिखा मिलेगा, फिर हिंदी या अंग्रेजी में। एक बार यहां हिंदी पोस्टरों को हटाने की मुहिम चली। अब अनेक जगह roman में हिंदी पोस्टर लगे हैं। जैसे chhote bhai ki dukan. Brindavan wali mithai. Krishna kuteer. Hum per karein bharosa. Aapke pasand ka dhaba. एक जगह हिंदी विषय को लिखा था Hindi. भाषाई विवाद में सियासत ज्यादा है। सभी लोग खासतौर से युवा अधिक से अधिक भाषा सीखना चाहते हैं। अगर नहीं आती है तो हिंदी संपर्क भाषा बनती है। मुझे उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के दो-तीन लोग मिले जो कन्नड़ फर्राटेदार बोलते हैं। हमारी भतीजी यानी विनोद दा की बेटी विधि भी तो। हिंदी, अंग्रेजी और कन्नड़। साथ ही हमारी कुमाऊनी बोली भी समझती है। 

एक शाम विनोद दा परिवार के साथ 

मित्र महेंद्र मेहता जी से शुक्रवार देर शाम बात हो पाई। मुलाकात अगली बार। शनिवार शाम तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं और कुक्कू विनोद दा के यहां गए। कुक्कू के अनेक मित्र उसके फ्लैट पर आये थे, इसलिए वह दो-तीन घंटे बैठकर चला गया। हमारी गपशप चली। भाभी जी ने कई तरह के व्यंजन बनाए। विधि से बातचीत कर अच्छा लगा। छुटकी तो भगवान की तरह है, जिसकी पूजा यह परिवार कर रहा है। रविवार सुबह इडली और पोडम का नाश्ता किया। चाय पी दो बार। फिर विनोद दा मुझे पहुंचा गये। ब्लॉग लिखते लिखते चंडीगढ़ लैंड होने की घोषणा हो चुकी है। यादगार रहा सफर। करीब पौने चार होने वाले हैं। चलना होगा, तुझको चलना होगा... लिखने को बहुत कुछ है, बाकी अगले अंक में