हिन्दी गद्य और पद्य के विकास में खास भूमिका निभaaने वाले कलम के सिपाहियों ने अपनी लेखनी से विविध प्रयोग किए। हिन्दी दिवस के मौके पर उनकी कुछ रचनाओं को अगर याद किया जाए तो उसमें घ्ाुली मिसरी का सहज ही भ्ाान हो जाएगा। इस पर चर्चा करने से पहले मुझे याद आते हैं वे दिन जब स्कूलों में हिन्दी साहित्य के इतिहास के संदभर््ा में अध्यापक याद कराने के लिए रोचक तरीके से चीजों को बताते थे। उदाहरण के लिए आधुनिक हिन्दी साहित्य यानी भ्ाारतेन्दु युग से पूर्व चार महत्वपूर्ण लेखकों के नाम और उनकी रचनाओं को इस तरह से याद कराया जाता था-
दोसा लाई
याद करने का सामान्य तरीका था दक्षिण भ्ाारतीय व्यंजन दोसा (डोसा) लेकर कोई आई। लेकिन असल में यह था दो बार स और ल औ ई। यानी पहले स से तात्पर्य था सदासुख लाल और दूसरे वाले स का मतलब था सदल मिश्र। फिर आते हैं ल और ई। ल से मतलब था लल्लूलाल और ई से तात्पर्य था इंद्गाा अल्ला खां। अब याद करनी थी इनकी रचनाएं। इसके लिए भ्ाी बहुत आसान तरीका निकाला गया। जैसा नाम वैसी रचना यानी सदासुख लाल में सुख द्गाब्द है तो उनकी रचना का नाम था सुख सागर और सदल मिश्र यानी जाति से ब्राह्मण तो संस्कृत का प्रयोग इनकी रचना का नाम भ्ाी क्लिद्गट था यानी नासिकेतोपाख्यान। फिर लल्लूलाल सामान्य नाम और उसी अनुरूप रचना प्रेम सागर। फिर आते हैं इंद्गाा अल्ला खां। इनका जितना बड़ा नाम उतनी ही बड़ी रचना। इनकी रचना का नाम था रानी केतकी की कहानी। यह प्रसंग तो सहज इस रूप में था कि कुछ लोग तमाम तरह के किंतु-परंतु और बहाने लगाते हैं हिन्दी साहित्य के विकास की गाथा समझने या समझाने में।
हम अगर बात करें रहीम और कबीर के जमाने की तो आज द्गाायद ही कोई मौका होगा जब इनकी रचनाओं का जिक्र नहीं होता होगा। कबीर की रचनाओं में जहां कहीं भ्ाी एकरूपता नहीं दिखती वहीं रहीम, मीरा, रसखान और तमाम कवियों की रचनाओं में खास समानता और विद्गोद्गा बोली नजर आती है।
कबीर कहीं पर लिखते हैं-
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
कबीर ही यह भ्ाी लिखते हैं-
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़
उन्हीं कबीर की रचनाओं में अेसे द्गाब्द भ्ाी दिखते हैं-
अंसड़ियां झाईं पड़ियां, पंथ निहारि-निहारि, जीभ्ाणियां छाला पड़ियां राम पुकारि-पुकारि
रहीम की रचनाओं की अगर बात करें तो उनके दोहों और छंदों में एक खास पैगाम होता था। रहीम एक जगह लिखते हैं-
कह रहीम कैसे निभ्ो, बेर-केर को संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग
रहीम जी ही यह संदेद्गा भ्ाी देते हैं-
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय
तोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाय।
मीरा की रचनाओं में अगर नजर दौड़ाएं तो भ्ाक्ति के रस में सराबोर उनके द्गाब्द कहते हैं-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई
रसखान की रचनाओं का रस अलग ही है, वे कहते हैं-
मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन
जो पद्गाु हों तो बसेरो करों, मिली कालिंदी कूल कदंब की डारन।
असल में इन महान विभ्ाूतियों का जिक्र इसलिए कहा जा रहा है कि हिंदी का विकास अपने समय के हिसाब से होता रहा। हर काल में इसे एक नया रस, नया आयाम और नई अनुभ्ाूति मिलती रही।
भ्ाारतेंदु हरिद्गचंद्र के बाद जिसे हम आधुनिक हिंदी साहित्य का काल कहते हैं, में भ्ाी कई प्रयोग हुए। फिर हिंदी में द्गोरन्ओ द्गाायरी का दौर आया। इसमें दुद्गयंत के कई प्रयोग बेहद याद किए जाते हैं-
कौन कहता है आसमान में छेद नहीं होता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
इसी तरह की तमाम रचनाओं, जिनकी द्गाायरी में हिन्दी पुट दिखता है, में द्गाामिल हैं निदा फाजली, बद्गाीर बद्र वगैरह-वगैरह।
निदा फाजली लिखते हैं-
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीद्गाान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
हिन्दी की मिठास की गति में तमाम तरह के प्रयोग होते रहे। आधुनिक हिन्दी में छायावाद, प्रयोगवाद नव प्रयोगवाद, उत्तर आधुनिक काल तमाम चलते रहे। इस नए प्रयोग में एक लेखक की कविता पर गौर करिए-
मां जा रही हो
हां
कब आओगी
द्गााम को
क्या लाओगी
थकान
हिन्दी का यह सतत विकास ही है जब आज तमाम पत्र-पत्रिकाएं उत्तरोत्तर विकास कर रही हैं। चैनलों पर हिन्दी में काम हो रहा है। कॉल सेंटर में हिन्दी के लिए विद्गोद्गा प्रद्गिाक्षण दिया जा रहा है और कई अेसे ज्ञान-विज्ञान के चैनल हैं जिनके हिन्दी कार्यक्रमों को खासी ख्याति मिल रही है। हिन्दी रचनाओं में हर काल में चाहे वह भ्ाक्तिकाल हो, वीरगाथा काल हो या फिर आधुनिक काल अपनी रचनाओं का रचनाकारों ने डंका बजाया है। हिन्दी के इस सतत विकास को एक नमन।
केवल तिवारी
साभaar - इस्पात भाषा भारती
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