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Wednesday, September 8, 2010

मित्र सुधीर राघव की टिप्पणी पर टिप्पणी

काश! वह दिन जल्दी आए जब एक सर्वमान्य बोली विकसित हो। आज के हिंग्लिश की तरह या फिर पचमेल खिचड़ी की तरह। जैसा कि मित्र सुधीर राघव (इनका ब्लॉग समृद्ध है, अच्छा लिखते हैं) ने कहा है कि भविष्य में ऐसी बोली बनेगी। उनकी सब बातों से इत्तेफाक रखता हूं। यह भी सब जानते हैं कि कुछ शब्दों को आत्मसात किए जाने पर कोई हर्ज नहीं, लेकिन जबरन शब्दों को ठूंसने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। मैं फिर एक उदाहरण देना चाहता हूं। मैं नियमित रूप से लोकल ट्रेन में चलता हूं (दोनों शब्द लोकल और ट्रेन हिन्दी के नहीं हैं) उसमें बहस होती है। पिछली बार फिर बहस छिड़ी भाषायी ज्ञान और बोलचाल पर। बात-बात में दिल्ली मेट्रो की बात छिड़ गई। अनौपचारिक रूप में एक बड़े अधिकारी ने कहा था कि यमुना किनारे बने मेट्रो स्टेशन का नाम असल में यमुना तट रखा जाना था, लेकिन बाद में इसे यमुना बैंक कर दिया गया। कुछ मित्रों ने अपनी बात के समर्थन में कहा कि देखिए अंग्रेजी का प्रयोग सफल है। मैंने उनसे एक वाक्य के बारे में कहा जो मेट्रो के अंदर उद्घोषित होता है। उसमें उद्घोषक कहता है कि यात्रियों से अनुरोध है कि मेट्रो दरवाजों पर अवरोध उत्पन्न् न करें। ऐसा करना दंडनीय अपराध है। मेरा सवाल था कि इसमें कठिन क्या है? समझ में न आने जैसी बात क्या है?
मैं बार-बार यह कहता हूं कि दूसरी भाषा का कतई विरोध नहीं करता। अज्ञानता को छिपाने के लिए अन्य भाषा का इस्तेमाल सरासर गलत है। हालांकि आजकल सरल और बोलचाल की भाषा के इस्तेमाल की बात कहकर खिचड़ी भाषा इस्तेमाल की जा रही है। सुधीर जी की यह बात कि अपनी बात को वजनी बनाने के लिए लोग अंग्रेजी शब्दों, वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं, से सहमत हूं। मुझे एक छोटी सी बात याद आ रही है। रेल आरक्षण केंद्र पर मैं खड़ा था, अंदर बैठे सज्जन ने मेरा नंबर आने पर मेरी एक टिप्पणी पर अंगे्रजी में दो-तीन वाक्य जड़ दिए। मैंने उनसे कहा था भाई साहब गुस्से में क्यों हैं? वे बोले मैं गुस्से में नहीं हूं। मैंने कहा, आम भारतीय दो ही मौकों पर अंग्रेजी बोलता है, एक तो तब जब उसने शराब पी हो और दूसरी तब जब वह गुस्से में हो। यकीन मानिए वे व्यक्ति मुस्कुरा दिए और बहुत अच्छे से पेश आए। आज घरों में बच्चों के स्कूल से लिखकर आता है कि अंग्रेजी में बच्चों से बातें करें। और तो और हिन्दी विषय का गृहकार्य अंग्रेजी में लिखकर देते हैं। एक स्कूल में मेरा विरोध रंग लाया और कम से कम हिन्दी का गृह कार्य अब होम वर्क लिखकर नहीं दिया जाता। चलिए इस पर बातें जारी रहेंगी। एक गुजारिश है कि कोशिश भी जारी रखिए...। आत्मसात के इस क्रम में बता दूं की मेरा तो ब्लॉग ही चलन में प्रयोग वाले शब्द से शुरू होता है के टी यानी केवल तिवारी
धन्यवाद

1 comment:

सुधीर राघव said...

मित्र, आपने बहुत सटीक लिखा है। भाषा नदी के पानी की तरह है, इसके स्वाद में बदलाव शनै शनै ही आता है। बाढ़ की तरह तब ही संभव है, जब राजनीतिक और धार्मिक सत्ता मिलकर प्रयास करें। वर्ष में दो-चार ही नए शब्द जुड़ पाते हैं, और इतने ही धीरे-धीरे दम तोड़ जाते हैं। स्कूल की पढ़ाई के दिनों के बहुत से शब्द ऐसे हैं, जो फिर से इस्तेमाल ही नहीं किए, अब यादाश्त से एक दो ही लिख पाउंगा-पादप, खपरैल, ताव, दूधभाई, छीजना, प्रमाद, आदेशिका, अग्रगण्य, कोष्ठागार इत्यादि....